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________________ श्रमण-संघ : २०१ अल्पतम संख्या का विधान करते हुए कहा गया है कि प्रवर्तिनी (प्रधान आर्या) को हेमन्त एव ग्रीष्म ऋतु मे कम से कम दो तथा वर्षाऋतु मे कम से कम तीन अन्य साध्वियो के साथ रहना चाहिए। गणावच्छेदिनी के साथ वर्षाकाल मे कम से कम चार तथा अन्य समय मे कम से कम तीन साध्वियां रहनी चाहिए। गच्छ के विभिन्न वर्गों के साधु-साध्वी गच्छाचार्य की आजा के अनुसार ही विचरण करते हैं। इस प्रकार के अनेक गच्छो के समूह को कुल कहते हैं। कुल के नायक को कुलाचार्य कहा जाता है । अनेक कुलो के समूह को गण तथा अनेक गणो के समुदाय को सघ कहते हैं । गणनायक गणाचार्य अथवा गणधर तथा सघनायक सधाचार्य अथवा प्रधानाचार्य कहलाता है। आचार्य: - श्रमण-श्रमणियो मे आचार्य का स्थान सर्वोपरि है। उसके वाद उपाध्याय, गणी आदि का स्थान आता है। व्यवहार सूत्र के ततीय देश मे आचार्य-पद की योग्यताओ का दिग्दर्शन कराते हुए कहा गया है कि जो कम से कम पाच वर्ष की दीक्षापर्याय वाला है, श्रमणाचार मे कुशल है, प्रवचन मे प्रवीण है यावत् दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प अर्थात् बृहत्कल्प एव व्यवहार सूत्रो का ज्ञाता है उसे आचार्य एव उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित करना कल्प्य है। आठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण यदि आचारकुशल, प्रवचनप्रवीण एव असंक्लिष्टमना है तथा कम से कम स्थानांग व समवायाग सत्रो का ज्ञाता है तो उसे आचार्य
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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