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वोर सेवा मन्दिर का मासिक
अनेकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'पुगवीर') वर्ष ३५ कि.१
जनवरी-मार्च
इस अंक में
विषय १. बादिनाथ जिन-स्तवन २. यह कैसा अपरिग्रहबाद है ?
-डा. ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ ३.पं. शिरोमणिदास की द्वादसानुप्रेका
-श्री कुन्दनलाल जैन, प्रिन्सिपल, दिल्ली ४. पं० अनदेव कृतवण द्वादशी कथा
-श्री १० रतनलाल कटारिया, केकड़ी ५. मेघदूत और पार्वाभ्युदय--श्री कपूरचन्द जैन,
खातौली ६.हेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं
-श्री नरेश कुमार पाठक ७. उत्तम ब्रह्मचर्य : एक अनुशीलन
-डा. कस्तूरचन्द्र 'सुमन' श्री महावीर जी १६ ८ आधुनिक युग मे जैन सिद्वान्तों का महत्व
-कुमारी डा. सविता जैन ६. श्रुत स्वाध्याय का फल-पुण्याश्रव कथा कोश से २३ १०. तीर्थंकर महावीर और अपरिग्रह---
-श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली ११. अपरिग्रह और उत्कृष्ट ध्यान
- श्री पचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली १२. जरा सोचिए-सम्पादक
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प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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विद्वानों के बाशिष श्री पं० बालचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री:
अनेकान्त' अच्छा निकल रहा है । सामग्री भी उसमें यमेष्ट रहती है। इसी प्रकार से जितने भी शोष-खोज पूर्ण लेख उसमें समाविष्ट हो सकें अच्छा है। मैं 'अनेकान्त' के उत्कर्ष को चाहताई। डा.कस्तरचन्द्र जैन काशलीवाल :
अनेकान्त' को नियमित एवं शोधपूर्ण सामग्रीयुक्त देखकर बड़ी प्रसन्नता होती है। उसकी सामग्री, सम्पादन, प्रिंटिंग सभी में निखार आया है और अब उसे किसी भी विद्वान् के हाथों में दिया जा सकता है । जैनसाहित्य, संस्कृति एवं कला पर शोध कार्य करने वाले विद्यार्थियों के लिए 'बनेकान्त' महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अगते अंक से मैं भी अपना निबन्ध भेजना चाहूंगा । भविष्य में 'अनेकान्त' पत्र देश-विदेश में और भी लोकप्रिय बने ऐसी मेरी हार्दिक कामना है। मा. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर:
'अनेकान्त' दिगम्बर जैन समाज में अपने प्रकार का विशिष्ट पत्र है। इसके 'जरा सोचिए' "विचारणीय प्रसंग' आदि स्तम्भ मन की गहराई को छु लेते हैं । अनेकान्त के निरन्तर उन्नयन हेतु मेरी शुभ कामनाएँ प्रेषित हैं। स.सि. श्री धन्यकुमार जैन, कटनो?
अनेकान' मिला। निर्भीकता, स्पष्टवादिता एवं स्वच्छ आगम-सम्मत रीति-नीति के लिए विशेष धन्यवाद स्वीकार करें। प्रिसिपल श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली :
'आगम विपरीत प्रवृत्तियां' पढ़ा, मंगलकलश, धर्मचक्र प्रवर्तन, ज्ञान-ज्योति, सेमीनारों, कान्फ्रेंसों, अभिनन्दनों आदि को अच्छा खींचा है सो खुशी हुई। पर, समाज के कानों पर ज रेंगती है क्या? वही 'ढाक के तीन पात' वाली बात है ! समाज जड़ और मदान्ध हो रहा है। डा. दरबारीलाल कोठिया,न्यायाचार्य :
'आप निर्भय होकर लिखिए, अच्छा और स्पष्ट लिखते हैं । यह अवश्य है कि जिन विद्वानों की गली से गलत परम्पराएं या प्रवृत्तियां चल पड़ती हैं और जिन्हें हम जानते हैं, उनके नाम लिखने में भय खा जाते हैं । आज उन्ही के कारण (सूर्यकीति-मूर्ति स्थापन जैसी) यह दुःखद स्थिति बनी। श्री लक्ष्मीचन्द जैन एम० ए०, दिल्ली :
आपने 'मूल-संस्कृति अपरिग्रह पर अपने विचार बहुत ही स्पष्टता से प्रगट किये है जो मन पर प्रभाव छोरते है । प्रतिक्रमण, प्रत्याखान और सामायिक पर प्रसंगतः स्पष्ट ढंग से प्रकाश डाला है । आगम-विपरीत प्रवृत्तियां ऐसा विषय है जिस पर अनेकान्त में आपके विचार आने ही चाहिए थे। जो व्यक्ति इस प्रकार की मूर्ति के निर्माग की बात करते हैं उनकी दृष्टि घोर मिथ्यात्व की है ही. प्रवृत्ति भी गहित है। आपने शोध-खोज शीर्षक आध्यात्मिक आयाम दिया यह भी विचारने की बात है।
सूचना :- वीर पेवा मन्दिर, मोसायटी की साधारण सदस्यता का पिछला व आगामी वर्ष का सदस्यता-शुल्क जिन
सदस्यों ने नही भेजा है उनसे आग्रह है कि वे सदस्यता-शुल्क- अविलम्ब भेज दें। संस्था का आधिक वर्ष जून में समाप्त होता है।
सुभाष जैन : महासचिव वीर सेवा मन्दिर सोसायटी, २१, दरियागंज, नई दिल्ली
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ओम् बहन
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परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण संवत् २५११, वि० सं० २०४२
वर्ष ३८
जनवरी-मार्च
१९८५
प्रादिनाथ-जिन-स्तवन कायोत्सर्गायताङ्गो जयति जिनपति भिसुनुर्महात्मा मध्याह्न यस्य भास्वानुपरिपरिगतो राजतिस्मोग्रमूतिः। चक्र कर्मेन्धनानामतिबहु बहतादूग्मोदास्यवातस्फर्जल बचानय हरिव रुचिस्तर: प्रोद्गतो विस्फुलिङ्गः॥१॥
चल अंग मेरठाई रिषभरिपनन्धाचा,
काउसग्ग मद्रा धरि बनमें ठाडे रिषभ रिडितजि बीनी। निहिचल अंग मेरु है मानो वोऊ भुजा छोर गिनि दोनी। फैमे अनन्त जन्तु जग-बहले दुखी देख करुणा चित्त लीनी। काढ़न काज तिन्हें सररथ प्रभु, किधों बांह ये वीरघ कोनो।
-भूधरवास अर्थ-कायोत्सर्ग के निमित्त से जिनका शरीर लम्बायमान हो रहा है, ऐसे वे नाभिराय के पत्र महात्मा आदिनाथ जिनेन्द्र जयवन्त होवें, जिनके ऊपर प्राप्त हुआ मध्यान्ह (दोपहर)का तेजस्वी सूर्य ऐसा सुशोभित होता है मानो कर्मरूप ईन्धनों के समह को अतिशय जलाने वाली एवं उदासीनतारूप वायु के निमित्त से प्रगट हुई समीचीन ध्यान रूपी अग्नि की देदीप्यमान चिनगारी हो उन्नत हुई हो।
विशेषार्थ-भगवान आदिनाथ जिनेन्द्र की ध्यानावस्था में उनके ऊपर जो मध्यान्ह काल का तेजस्वी सूर्य आता था उसके विषय में स्तुतिकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि वह सूर्य क्या था मानों समताभाव से आठ कर्मरूपी ईन्धन को जलाने के इच्छुक होकर भगवान आदिनाथ जिनेन्द्र द्वारा किये जाने वाले ध्यानरूपो अग्नि का विस्फुलिंग ही उत्पन्न हुआ है।
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यह कैसा अपरिग्रहवाद है ?
डा. ज्योतिप्रसाद जैन नोट: डा. सा. इतिहास के ख्याति प्राप्त प्रकाण्ड मनीषी हैं । अनेकांत के हर अलू को उनका आशीर्वाद लेख के रूप
में प्राप्त होता है । गत अङ्क में 'पट्ट महादेवी सान्तला' कृति पर आपका समीक्षात्मक लेख प्रकाशित हुआ था। समीक्षा इतनी प्रभावक रही कि कृतिकार श्री सी. के. नागराजन् बैगलोर से जब लखनऊ डा. साहब के घर उन्हें बधाई देने पहुंचे। उन्होंने डा. साहब का आभार निम्न शब्दो मे प्रकट किया। 'उत्तर भारत मे कर्नाटक के इतिहास एवं सस्कृति साहित्य आदि के विषय मे कोई इतना जानता होगा इसका मुझे अनुमान नही था, आदि ।'
-सम्पादक सहयोगी बन्धु श्री पद्मचन्द्र शास्त्री अनेकान्त के विगत उपाय उपरोक्त पाप प्रवृत्तियो का सम्यक् निरोध है। कई अको (३७/१ पृष्ठ-३१-३२, ३७/३ पृष्ठ-२३-२४, ये सभी कुप्रवृत्तियां एक दूसरी की पूरक एव पोषक पृष्ठ-२६-२८) मे अपरिग्रहवाद पर विशेष बल देते आए हैं । व्यक्ति-व्यक्ति के भेद से किसी मे किसी एक का, किसी हैं। उनकी धारणा है कि जैन परम्परा मे अहिंसा पर में किसी दूसरी का प्राबल्य या आधिक्य दृष्टिगोचर होता आवश्यकता से अधिक बल दिया गया है और उसके पीछे, है, किन्तु अल्पाधिक रूप में प्राय: सभी परस्पर सहयोउमसे भी अधिक महत्वपूर्ण अपरिग्रह को, जो मूल जैन गिनी हैं और साथ-साथ ही रहती हैं। इसी प्रकार यदि सस्कृति का प्रतीक है, प्रायः भुला दिया गया है । कम से किसी व्यक्ति में सच्चे अर्थों मे धर्माभिरुचि जागृत हो कम अधुना जैन धर्मावलम्बियो के आचार-विचार एव जाती है, तो वह इन पाप प्रवृत्तियों को हेय एव त्याज्य व्य म्हार मे ऐसा ही चरितार्थ हो रहा है । पण्डित जी का समझने लगता है, और परिणामस्वरूप उनके निरोध या यह चार यदि पूर्णतया नहीं तो, अनेक अशों मे सत्य उच्छेद के लिए प्रयत्नशील भी हो जाता है। यदि वह इन प्रतीत होता है।
पांचों में से किसी एक से भी मनसा-वाचा-कर्मणा निवृत्त आत्मा की विभाव परिणति स्थल रूप से हिसा-झुठ- होने का प्रयास करने लगता है तो शनैः शनैः शेष चारों चोरी-कुशील-परिग्रह रूपी पांच पाप प्रवृत्तियो के रूप मे से भी निवृत्त होने लगता है। पूर्णतया अहिंसक आत्मा में मुखरित होती है । सप्त-व्यसनादि का सेवन, नानाविध सत्य, अस्तेय, शील या ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की प्रतिष्ठा चनाचार, दुराचार, व्यभिचार, शोषण, ईर्ष्या, द्वेष, असूया, स्वत हो जाएगी। इमी प्रकार पूर्णतया अपरिग्रही आत्मा घणा, मात्सर्य, बैर, विरोध, उच्छलता आदि उसी के में भी शेष चारो गुण स्वतः प्रकट हो जाएंगे। प्रतिपल हैं । इन समस्त कुप्रवृत्तियों के मूल में प्राणी को परन्तु आज तथाकथित जैनों में, चाहे वे दिगम्बर यह पर्याय-सम्बन्धी दैहिक एवं भौतिक आसक्ति है जो तेरहपंथी, बीसपथी, तारणपंथी, कान्हजीपंथी, या उसे आत्मस्वरूप या आत्मधर्म मे विमुख करके बहिर्मुखी, श्वेताम्बर मन्दिरमार्गी, स्थानकवासी, तेरापथी अथवा बहिरातम, परावलम्बी एवं पराधीन बना देती है। इसके कोई अन्य भी हों प्रायः सभी मे दिनोदिन वृद्धिंगत ऐहिक विपरीत, निर्ग्रन्थ श्रमण या जिन धर्ममाधना का प्रधान आभक्तियों का मोह-मायाजाल चतुर्दिक दृष्टिगोचर है। एवं परम लक्ष्य वीतरागता, समत्व तथा शुद्धात्मोपलब्धि कितना ही अध्यात्मवाद झोंकें, कितना ही तत्वज्ञान बघारें, है, जो सच्चे, स्वाधीन, शाश्वत, निराकुल सुख, ब्रह्मानन्द कितने ही शास्त्रज्ञ, क्रियाकांडी या भक्त बनें, आबालवृद्ध भा परमात्मानन्द का प्रतीक है। और इसका अनिवार्य गृहस्थ स्त्री-पुरुष हों, अथवा साधु-साध्वी आदि किसी भी
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यह कैसा अपरिग्रहवाब है? श्रेणी के त्यागी वर्ग हों, अधिकांश में ऐहिक स्वार्थ, मान, कहना है कि "हमने दिगम्बरों से उनकी आम्नाय थोड़े ही लोभ एवं अहंमन्यता का पोषण, आत्मब्रह्मदर्शन, आत्म- ली है-हमने तो केवल उनका तत्वज्ञान लिया है।" घोर विज्ञापन, पाखण्ड और आडम्बर का अतिरेक बहुधा गुरुडमवादी, पंयवादी तथा परिग्रहवादी मनोवृत्ति के दिखाई पड़ता है। और इस सबका मूल कारण है- प्रतीक इस कयन पर कोई भी टीका-टिप्पणी अनावश्यक धर्मतत्व की या वस्तुस्वरूप की अनभिज्ञता अथवा सही हो जाती है। पकड़ न होना । साथ ही, ऐहिकस्वार्थ, मोह-मूर्छा, विष- एक बार एक जैनेतर मनीषी से, जो अच्छे भगवद्भक्त यासक्ति, अहभाव, और क्रोध-माया-मान-लोभादि कषायों भी थे, एक मित्र ने पूछा "भक्ति के अमृतसागर को त्याग के पोषण की ललक । सामूहिक रूप से यही मिथ्यात्व है, कर आप वेदान्त के झाड़-मखाड़ मे क्यो घुस पड़े?" तो अधार्मिकता है, नास्तिकता है।
उन्होंने उत्तर दिया-'वेदान्त इसीलिए पढ़ रहा हूं जिससे ऐसी मिथ्या मनोवृत्ति का ही प्रताप है कि जीवन में भक्ति शास्त्र में दृढ़ विश्वास हो जाए "यह तो एक अपने व्याख्यानो एव प्रवचनो मे अध्यात्मवाद को सर्वोपरि दृष्टान्त है जो एकागी अध्ययन-मनन एव मान्यता पर ही नही, एकमात्र महत्त्व देने वाले तथा 'सदगुरुदेव' प्रश्न चिन्ह लगाता है । वास्तव मे, जैसा कि हम पहिले उपाधि से विभूषित महानुभाव के निधन के तुरन्त उप
भी कई बार सकेत कर चुके हैं, चारों अनुयोग एक दूसरे रान्त उनकी गद्दी की उत्तराधिकारिणी उनकी प्रिया के पूरक हैं। चारों का ही शुद्धाम्नायानुसारी यथावश्यक शिष्या एवं कतिपय अन्य भक्तो ने उन्हें तीर्थकर ही
सम्यक् अध्ययन-मनन करने से ही दृष्टि समीचीन बन घोषित कर दिया, भले ही भावी हो और सर्वथा
सकती है । निश्चय सम्यक्त्व की बात फिाहाल छोड़ भी
दें, तो व्यवहार सम्यग्दर्शन, धार्मिक क्षेत्र मे समीकल्पित 'सूर्यकोति' नाम से उनकी प्रतिमाएं भो बनबा
चीन दृष्टि, और सद्-असद् या हेयोपादेय विवेक प्राप्त या डाली तथा उक्त प्रतिमाओ की प्रतिष्ठा कराकर जिन
जागृत करने के लिये वैसा करना एक धार्मिक जन के मन्दिरो मे विराजमान करना भी प्रारम्भ कर दिया।
लिए धर्मपार्ग में अग्रसर होने का प्रथम सोपान है। तभी यह घोर मिथ्यात्व कैसे पनप सका, इसका कारण
जो कुछ और जितना बन सके सयम या चारित्र का हमे तो ऐसा लगता है कि उक्त तथाकथित 'सद्गुरुदेव'
अभ्यास स्वत. हाता जायेगा, और वह भी समीचीन जैन अध्यात्म के अपने आविष्कार से इतने अभिभूत होगए ही होगा। कि वह यह भूल गए कि उस अध्यात्म विद्या को सम्यक् वस्तुतः जब और जहां ऐसा होता है, वही अपरिग्रह रूप से आत्मसात् करने के लिए सर्वप्रथम चारों अनुयोगो महाव्रत के धारी मुनि-आर्यिका बादि नानाविध अन्तरग के मूल शास्त्रीय ज्ञान का अवगाहन अत्यावश्यक है। एव बहिरग परिग्रहो से घिरे दिखाई नही पडते, वे अपनी उसकी उपेक्षा की और द्रव्यानुयोग के भी दार्शनिक एवं मूर्तिया निर्माण कराके जिन प्रतिमाओ के साथ प्रतिष्ठित नैयायिक अगों को छोड़कर केवल उसके चरमाश अध्यात्म नही करवाते, अपनी जयन्तियो के मनवाने, उपाधिया को ही पकड़ कर बैठ गए। कर्मसिद्धान्त की सुदृढ़ नीव बटोरने, अभिनन्दन प्रथो या पत्रो को लेन देने तथा पर निर्मित जैन सिद्धान्त एवं तत्वज्ञान की सम्यक् पकड़ किसी प्रकार के भी चन्दे-चिट्ठे कराने के चक्कर मे नही के बिना निरा अध्यात्मवाद बहुधा प्रमादियो का शब्द
पड़ते । परिग्रह-परिमाण के रूप मे व्रत का एकदेश अभ्यास विलास बनकर रह जाता है। मूल सिद्धान्त की वह पकड़
करने वाले गृहस्थ स्त्री-पुरुष भी सच्चे अर्थो मे स्वय को उन्हें होती तो उन्हे स्वय को तथा उनके अनन्य भक्तो को
तथा दूसरो को दु.खकर अपनी ऐहिक-दैहिक आसक्तियों
तथा र इस प्रकार की सिद्धान्त-विरुद्ध, आगम-विरुद्ध, आम्नाय-
को उत्तगेत्तर कम करने कराने में प्रयत्नशील होते
को उत्तरोत्तर कम करने में विरुद्ध, पर्यायबुद्धिजन्य, अविवेकपूर्ण कल्पनाओं के लिए हैं। एसे धाभिक जनो से ही वीतराग जिनेन्द्र की भक्ति अवकाश ही नही होता। सुना तो यह भी गया है कि एव उपासना भी निष्काम, अर्थात् फल की वाछा से सर्वथा गुरुदेव की सम्पत्ति एव ट्रस्ट के एक प्रमुख स्तम्भ का यह
(शेष पृ० ४ पर)
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पंडित शिरोमणि दास जी की द्वादशानुप्रेक्षा
1) कुन्दनलाल जैन प्रिन्सिपल
अनेकान्त के गांक अक्तूबर-दिसम्बर ८४, वर्ष ३७ आशा है सुधी पाठक गण इनका रमाम्वादन कर किरण ४ मे पं०शिरोमणि दास और उनकी धर्मसार सतसई अध्यात्म मार्ग पर पग धरने का सतत् प्रयाम करेंगे, इसी पर मेरा निबन्ध प्रकाशित हुआ था जिसमे मैंने अथकार में अपने श्रम को सार्थक समझूगा । और प्रथ के विषय में संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया था। दोहा-तहां ध्यान मुनि दृढ धरै, कर्म क्षय निज हेत । उसी प्रथ में कवि ने बारह भावनाओ का सुन्दर वर्णन द्वादश अनुप्रेक्षा चितव, सुवर्णन करौं सुचेत । किया है जिन्हें अविरल प्रस्तुत कर रहा हूं।
अथ अध्र वा नुप्रेक्षा/चौपाई यद्यपि बारह भावनाओ का जैन शासन मे बड़ा
धन यौवन नारी सुख नेह, पुत्र कलत्र मित्र तनु एह । महत्वपूर्ण स्थान है इसी लिए आचार्य कुन्द कुन्द ने प्राकृत
रथ गज घोड़े देश भण्डार, इन्हें जात नही लागत वार ॥ मे, आचार्य शुभ चन्द्र ने संस्कृत मे, वीर कवि ने अपभ्रंश
जैसे मेघ पटल क्षण क्षीण, तसे जानो कुटुम्ब सगुदीन । में तथा हिन्दी में तो अनेको कवियों ने बारह भावनाओ
जल सयोग आम (कच्चा) घट जैसो, सकल भोग विधि की रचना की है। प्रस्तुत बारह भावनाएं सर्वथा अप्रकाशित और अनुप.
जानहु तैसो॥
दोहा-जो उपज सो विनसई, यह देखो जगरीति । लब्ध हैं। इनमे बुन्देलीभाषा का प्रभाव होने से इनकी
अध्र व सकल विचारिक, करह धर्म सौं प्रीति ॥ मधुरता और अधिक बढ़ गई है तथा हिन्दी की बारह भावनाओ मे एक कड़ी और जुड़ गई है जो तत्वज्ञान से
इति अध्र वानुप्रेक्षा ॥१॥ भरपूर है।
अथ अशरणानुप्रेक्षा/चौपाई (पृ. ३ का शेषांष)
जैसे हिरण सिंह वश पर्यो, तैसे जीवन काल ने धर्यो। अछूती-भक्ति के लिए ही भक्ति बन पाती है। तब कति- कोऊ समर्थ नही ताहि बचाव, कोटि यत्न करि जो पय तीर्थ क्षेत्रों पर मनौतियों द्वारा सच्चे-देव का अवर्ण
दिखरावै॥ बाद करने वाले मूठे भक्तों, कुदेव-कुदेवियो की पूजा-उपा- मन्त्र तन्त्र जे औषधादि घनी, बल विद्या ज्योतिष अति सना करने वाले बन्ध-श्रद्धालुओं और गण्डे-तावीज, मन्त्र
गुनी। यन्त्र के लालच मे तथाकथित चमत्कारी महाराजों और ए सब निष्फल होहि विशाला, जव जीव आनि पर वश माताओं की भाव-विभोर भक्ति प्रदर्शित करने वाले
काल ॥ अन्ध-विश्वासी स्वार्थियों की भीड़ भी नहीं जुटती। दोहा-इन्द्र चक्री हरि हर सबै, विद्याधर बलवन्त । खेद है कि इस तथ्य में किसी की आस्था है, ऐसा
काल पाश तें ऊपरो सुको किह रक्षहि अन्त ॥ लगता नहीं । यह घोर परिग्रहवाद का ही परिणाम है।
इति अशरणानुप्रेक्षा ॥२॥ कहने में हम अपरिग्रह के उपासक और साधक हैं, किन्तु
अथ संसारानुप्रेक्षा/चौपाई अपनी मनोवृत्ति तथा जीवन व्यवहार में परिग्रहवाद से द्रव्य क्षेत्र पुनि काल जु आनि भव अरु भाव जुतही ओत-प्रोत हैं । तो मूल जैन संस्कृति से तो हमने स्वयं को
बखानि । बहिकत ही किया हुआ है।
यह संसार पंच विधि कहीज, जीवन मरण जीव दुख -चारबाग, लखनऊ
लीजै॥
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पंरित शिरोमणिवासीकीसानुप्रेक्षा
समय अनंतानंत जु लए, अनंत काल तंह पूरण भए। दोहा-सच्छिद्र नाव जल में रहे, जल आवै चहुं ओर । समय एक कहु बचऊ न तीव, जामन मरण लही नही तैसें आश्रवद्वार तें, कर्म बंध को जोर ॥
जीव ।।
इति आश्रवानुप्रेक्षा ॥६॥ दोहा-जिन तें बहु सुख पाइए, ते भए दुख को रूप ।
अथ संवरानप्रेक्षा/चौपाई परावर्तन बहु पूरियो, यह संसार स्वरूप ।। जीव परिणाम वह शुभ चेत, भावाश्रव रोधन के हेत ।
इति संसारानुप्रेक्षा ॥३॥ यह जु भावसंवर है अभइ (य), द्रव्यसंवर पुनि सुनिजे अथ एकत्वानुप्रेक्षा/चौपाई
राय॥ एकाकी होइ चहुंगति फिर, काहु को कोऊ सग न घरै। पंच पंच व्रत समिति कहीज, गुनितीन दश धर्म नहीजी मरहि अकेलो ऊपज प्राणी, सुख दुख भुगतै एकहु जानी। बाईस परीषह कहिजै भारी, अनुप्रेशा द्वादश हितकारी। जो जैसी करनी उपजाव, पो तैसो फल एक पाये। दोहा-छिद्र नाव जज देखि के, डाढ़े रचे जो कोई। अपने अपने स्वारथ मिले, दूसरों साथ न कोऊ चले। तैसे आश्रय द्वार को, रोधे सवर सोई॥ सोरठा-एकाकी जीव जानि, दूजो कोऊ न जानि ।
इति संवरानुप्रेक्षा ॥८॥ धर्म दया मन आनि, मो अपनो करि भानि ।
अय जिरानुप्रक्षा/चौपाई इति एकत्वानुप्रेक्षा ॥४॥ सकल कर्म क्षय कारण हेत, भाव निर्जरा कही सुचेत । अथ अन्यत्वानुप्रेक्षा/चौपाई।
सकल कर्म भय कीन्हें, जवही, द्रव्य निर्जरा जानहु तबहीं। मातापिता पृथक् विधि लए,बाधव पुत्र अन्य हित किए।
कर्म उदय जब पूरण होय, सो सविपाक निर्जरा सोय । कुटुम्बस्वभाव अन्य हित होई, नारी अन्य मिली पुनि सोई॥
न उदय बिना जो कर्म नशाव, अविपाक निर्जरा सोई कहावै॥ चह गति आय इकट्ठे भए, अपनी अपनी गति पूनि गए। सविपाक मब जीवन होई, अविपाक मुनि साधे सोई। जैसे हाट लगै विधि जोग, स्वारथ भए रहै नही लोग ॥ सवर सहित जा निर्जरा कर, सो परमातम पद को धरै। दोहा-इन्द्रिय देह जु जीव इह, एक स्वभाव न जानि ॥ दोहा-संवर सहित जो निर्जरा, तप करि साधे संत। अवर कहों ते एकता, यह अन्यत्व बखानि । संवर विना जुत तप करै, सो अज्ञानी अत ॥ इति अन्यत्वानुप्रेक्षा ॥५॥
इति निर्जरानुप्रेक्षा ।।।
अथ लोकानुप्रेक्षा/चौपाई अथ अशुचि अनुप्रेक्षा/चौपाई
अनंतानंत जु लोकाकाश, तामे लोक अनंत है बास । शुक्र रुधिर तें उपज देह, मांस हाड़ मल मूत्र जु गेह।
अनादि निधन यह लोक बखानि, न कोऊ कर्ता हर्ता जानि ।। कृमि अनेक उपजै दुर्गधि, चर्म नसा दीसै पट बन्ध ॥
अधो लोक सरवा आकार, मध्य लोक सालरि सम कार । उपमा अनेक जे चिखई ठान, करि तह मोह महा सुख ठाने । जैसे विष बल्ली दुख देह, तैसे जानि शरीर सुख नेह। मृदंग समान जुऊरष लोक, अवतर अनेक भेद बह पोक। दोहा-चन्दन केशर अगर शुभ, पुप्प वस्त्र धनसार। दाहा-ततालीस अरु तीन सी, राजू गिरदा (चौकोर)
जानि। तन सगत के होत ही, छिन में होत असार ॥
चौदह राजु उचित्त (उतंग) है, इह विधि कहीं बखानि ।। इति अशुचि अनुप्रेक्षा ॥६॥
इति लोकानुप्रेक्षा ॥१०॥ अथ आश्रव अनुप्रेक्षा/चौपाई
अथ धर्मानुप्रेक्षा/चौपाई करनी जब शुभ अशुभ जु साधे, पुण्य पाप तब आश्रव बांध। दुगंतिते काढ़े धरि बाह (हाप) सो यह धर्म कल्पतरु छांह। जीव परिणाम कर्म संयोग, भावाश्रव यह जानह लोग ॥ मक्ति नगर को थाप राज. सो दश भेद कहे जिन राज।। मिथ्यात्व पच पन्द्रह प्रमाद, द्वादश अव्रत गणहु विषाद। समकित सहित करनी मन लावै, सोयह निर्मल धर्म कहा। कषाय पच्चीस मिले संयोग, यह द्रव्याश्रव जानहु लोग ॥
(क्षेव पृ० १०पर)
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पं. प्रभ्रदेव कृत 'श्रवण द्वादशी कथा'
प्रणम्य परमं ब्रह्म केवलज्ञान गोचरं । वक्ष्ये भव्य प्रत्रोषाय, श्रवण द्वादशी कथां |१| जम्बूद्वीपो महारम्यो, भरत क्षेत्रमुत्तमं । अवंती विषयस्तत्र सजातोज्जयिनी पुरी |२| राजा तत्र नर ब्रह्मा, राशी विजयवल्लभा । तस्याः शीलमती पुत्री, काण खुंजा च कुब्जको |३| पुत्री शीलमती नक्ता वकाषी द्रोदनं मुहुः । भणित्वेति तपः कार्यं जातं कर्म ममेदृश |४| सुतां शरीरमालोक्य जननी दुःखतां गता । अपश्यती स्वकीयस्यापरापत्य भवस्थिति: |५| मालाकारिकया प्रोक्त, तत्पुरस्तात्समासतः । वने स्वामिनि ! दिव्यागः स्वागतो मुनिपुंगवः ॥ ६॥ राज्यापि मालिनी योग्य सन्मान दानपूर्वकम् । प्रदत्तं जैन धर्मस्य वासना दधानया ॥७॥ तया विज्ञेयिका चक्रे महिष्या भूपति प्रति । यद्देवात्र समायातो नंदने श्रवणो मुनिः || राजा तद्वचनं श्रुत्वा काननं सपरिच्छदो । जगाम भावनायुक्तो यति दर्शन तत्परः || तेन तस्य पदद्वंद्वं नमश्चक्रे स्वभावतः । अशीर्वादं ददौ तस्मै नरेशाय मुनीश्वरः ॥ १० ru श्रवणतः श्रुत्वा धर्माधर्मं नराधिपः । पप्रच्छ पापहन्तारं तनूजा देह दूषणम् ॥ ११ ॥ परमावधि सम्पन्नो मुनीन्द्रो वचनामृतम् । उवाच शृणु धात्रीश ! कर्म पुत्र्या पुराकृतम् ॥ १२ ॥ अवन्ती विषयस्यान्तनंगरे पाटली पुरे । राजा संग्राममल्लोऽभूत्पट्ट राज्ञी वसुंधरा | १३| तस्य भूपस्य सज्जातः शिवशर्मा पुरोहितः । भार्या कालासुरा पुत्री कपिला योवनोन्नताः | १४ | एकदा सा सखी युक्ता, गतोद्याने द्रुमाकुले । ध्यानारूढ़
तपस्यान्तमद्राक्षीपिहिताभवं ॥ १५॥
श्री मिलापचंद रतनलाल कटारिया, केकड़ी
काम संग मदारंभ प्रमाद कलहादिभिः । कषाय रति मिथ्यात्व स्नेह दोषविवजितम् ।१६। षडावश्यक सयोगैस्तपश्चारित्र बंधुरैः । सम्यग्दर्शन सम्पूर्ण विचारः प्रति सयुतः ॥ १७ मासोपवासिनं ध्येय धारणा गुण भावितम् । मुक्ति स्त्री परमानद वासना वासितं सदा ॥१८ आम्रवृक्षतले स्थित्वा शिलापट्टे समाश्रितम् । पद्मासन समासन्नं काय योग निरोधकम् ॥१६ रागद्वेष भयैर्मुक्त, मोह सतति भेदकम् । कालज्ञं भव पर्याय द्रव्य पर्याय सूचकम् ॥ २० प्राशुक निरवद्यं च निर्दोष जन्तुवजितम् । स्थानमासादितं नाना पादप श्रेणि शोभितम् ।।२१ ततः सा कपिला दृष्ट्वा मुनि प्रत्यक्ष वेदिनां । भाषमाणा वचो दुष्ट, प्रचुर कोपातिनिर्दया ॥२२ भो नग्नाट ! मम स्थान त्व निर्लज्ज ! परित्यज । त्वं केन विधिना नीतो मम सौख्य निरोधकः ॥ २३ पाखंडेन कृतं मौन, पाखडेन घृत तपः । पाखण्डेन ममाग्रे त्वं, दम्भ दर्शयसि स्वयं ॥ २४ ॥ एता सां मे वयस्यानां पश्यन्तीनां तवाकृति | लज्जापि ते न सजाता, लिंगं गोपय गोपय ॥२५ यदि राजा समाकर्ण्य, तवागमन लक्षणम् । विज्ञास्यति तदा दुःख तव देव भविष्यते ॥ २६॥ ॥ गच्छ गच्छ दुराचार, यावद्राजा शृणोति नो । पुरोहित तनूजाहं निजं दर्शय मा मुखं ||२७ सदा मदान्धया ब्रूतं दुष्ट वाक्यमृषीश्वरे । कर्म प्रकृति सश्लेष सजातश्लथ बन्धने ॥२८ तया हल्लीसको स्थान धूल्यास्पृष्टो महामुनिः । तांबूलेनाहतो ध्यानी मौनी निःशकितो व्रती ॥ २e पश्चात्कपिलया पाप, तदेव समुपार्जितम् । मृत्वा येन हि सा दुष्टा, प्रथमे नरके गता ॥ ३०
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पं० अभ्रदेव कृत 'भावहाबलीचा
तत्र पंच प्रकारेण दु:ख विसहतेस्म सा। नारकेभ्यो वधच्छेद बंध ताड़न मारणम् ॥३१ शूलिका रोपणं तीवां वेदनामग्नि पातनम् । रासमारोहणं गात्र खण्डनं यंत्र पीलनम् ॥३२ भोजनं विहितं तस्याः स्वकीय रुधिरैः पलैः । शयनं कंटकाप्रेषु, कीलकेषूपवेशनम् ।।३३ आयुरुत्कृष्टतो भुक्त्वा तया निःसरितं ततः । पापिष्टया महात्यन्त दुःख राजी समाकुलम् ।।३४ रासभी शूकरी व्याली, मार्जारी सर्पिणी तथा। चण्डालिनी तथा तस्य जाता दुःख परम्परा ॥३५ अनादिकाल संसृत्या जीवेनाजितमात्मना । मनुष्य भव मासाद्य यत्पुण्य कस्यचिद् गृहे ॥३६ तस्य पुण्यस्य महात्म्य, सयोगेन महीपते । तव गृहे पुनः जाता शुभनामा शुभस्थितिः ॥३७ उपसर्ग त्रयेणासोन्मुनीन्द्रस्य महात्मनः । शीलमत्यां त्वदीयायां पुश्यां दोषत्रयावली ॥३८॥ केवल ज्ञान सम्प्राप्ति पिहिताश्रव संयते । बभूव तद् मोक्षं गामिनः पूजित: सुरैः ।३६॥ ततः पाद द्वयं नत्वा श्रवणस्य महामुनेः । उवाच वचनं शुद्ध नर ब्रह्मा नरेश्वरः ॥४०॥ कथं महामुने ! पुत्री मदीया निस्तरिष्यति । कल्मषं गात्र सकोचं समर्थ कर्तुमुद्यतम् ॥४१॥ अथावाद्य विनिर्मुक्त मब्रवीद् वचनं मुनिः। तद् व्रतं श्रूयता राजन् येनेयं स्वगंजाभवेत् ।४२॥ मासे भाद्रपदे शुक्ले, पक्षे च द्वादशी दिने । करोत्येव नरो नारी श्रवण द्वादशी व्रतम् ॥४३॥ प्रोषधस्योपवासेन ब्रह्मचर्यस्थ कर्मणा । जिनवास निवासेन तद्दिने क्यिते व्रतम् ॥४॥ प्रभात समये स्थाने प्रासुके जिन मूर्तयः । चतुर्दिक् कुर्वश्चापि स्थापनीया जिनालये ।४५॥ पूजा चाष्ट निधा कार्या स्नपनेन जिनेशिना । साधं महाभिषेकस्य संसारास्थिति भेदिनी ॥४६॥ जल गन्धाक्षतं पुष्पश्चरु दीपोर्ध्वगः फले।। मध्यान्हे चाष्टकं देयं सामयिक पुरस्सरम् ।४७। अपराजित मंत्रेण करणीयस्त्रिशुद्धिपः । साय जाप्य विधि जाती शतपत्र सरोरुहैः ।४।
जलगालन वस्त्रेण छादिनस्तोय पूरितः । जिमाने करको देय बीजपूर समन्वितः ॥५६ दातव्यो| जिनेन्द्राणां कुष्माड फल शोभित । जिनाग्रे दीयते साधं भ्रामरी जय मालया ।५०। जय तर्क विसजित कुमतवाद,
जय सकल सुरासुर विनुतपाद । जय परम योग निर्मल विचार,
जय चरणाहत ससार भार ५१॥ जय निजित मिथ्यावचन बोध,
जय सुविहित विपदिन्द्रिय निरोध । जय केवल लक्षित जीव बध,
जय सुधागम कृत सत्य संधः ।२। जय खण्डित कर्मा राति देह,
जय परिहरिताखिल दिव्य गेह। जय लोक समुदरणक धीर,
जय पाप निराकरणक वीर ॥३॥ जय मोह वृक्ष भेदन कुठार,
जय मुक्ति पुरधी हृदयहार । जय छिन्न भिन्न कन्दर्प सार,
जय रागद्वेष मद बल प्रहार ॥५॥ जय रलत्रय भूषित शरीर,
जय मार विशोषित विषय नीर। जय विगलित मद निचयप्रमाद,
जय करुणा भस्मित रति विषाद ॥५॥ जय लोक त्रय भवदीय रेष,
जय निर्दित पर सग्रंथ वेष । जय कांचन मेरु पवित्र करण,
जय बोधि समाधि विशुद्धिकरण ॥५६॥ जय शत्रु मित्र सम हेम लोह,
जय दूरी वासित पाप रोह । जय सकल विमल केवल विलास,
जय सहज बुद्धि हंसी मराल ।५७। जय सप्त पंच षण्णव चरित्र,
जय सव्यंजन लक्षण चरित्र ५। इत्यादि जयमालायाः स्तोत्रेणा! जिनेशिनाम् । दत्वा प्रदक्षिणास्तिस्रः समुत्तायौँ नराधिपः ।५।।
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पर्व ३८, कि.१
अनेन विधिना चैतद्वतं द्वादश वार्षिकम् । क्रियते भूप धर्मस्य मंडनं पाप खण्डनम् ।६०॥ पश्चाद् उद्यापन कार्य, द्वादश द्वादश स्थिति । जिनोपकरणादीनां नैवेद्यान्त जिनालये ।६१॥ कारयित्वा प्रतिष्ठाप्यं जिन बिम्बचनुष्टयम् । पित्तलोपल काश्मीर भेदज पाप हानये ।६२। येषमेतानि वस्तूनि सपद्यते न देहिनाम् । प्रकुर्वन्तु यथा शक्त्या ते व्रत भाव पूर्वकम् ।६३॥ बिना भावेन नो दान, बिना भावेन पूजनम् । बिना भावेन कार्याणि, बिना भावेन मिद्धयः । ६४॥ आत्मायत्तो भवे भाव: कर्मायत्त धनं नृणाम् । काले अर्थस्य सम्प्राप्तिस्तस्माद् भाव: प्रकाश्यते। ६५॥ प्रजापालक ! कर्तव्य तद्दिनं न निरर्थकम् । अव्रते तद्दिने जाते, व्यर्थ जन्मापि भुपते ।६६। अनेकानि व्रतानीश भाषितानि जिनेशिना । तानि सर्वाणि लोक नयन्ति परम पदम् ।६७। प्रते कृते शीलमती त्वदीया,
पुत्री गृहे ते भविता तनुजा । पट्टास्त्रियो गर्भमवाप्य सद्यो,
मृत्वा दधाना हृदये जिनेशमम् ।। तस्यार्क केतुः भवितेति नामा,
परसुपुत्रस्य च चन्द्रकेतुः। भूपत्वमासीज्जयनाय भावी,
पूर्वाय दत्त्वा युवराज पट्टम् ।६६। त्वदीय धौरेय सुत बवाणो,
बेराग्यतां यास्यति वाक्यमेतत् । माताजिका भूत कलहस राजा,
रणे पिता मृत्यु वश जगाम ७० कृत्वा कनिष्ठाय जनस्य भारं,
राज्यं पितुश्चात्मपदं धरित्री। वने गमिष्यत्यर्षनेककेतुः
स्वर्गापवर्गा स्थिति कारणाय ।७१॥ ज्येष्ठः प्रभासेन मुनिस्समीपे,
दीक्षां समादाय तपो विधाता। मासोपवासेन गुहा निवासी,
सद् ब्रह्मचर्येण हत प्रमादः १७२।
देवः सहस्रारसुरालये सोऽवनीश,
भूत्वा सुर सौख्य माला। भोक्ता समं चारु सुरांगनाभिः
गतापि कालान्तरतोऽपि माक्ष !७३। साक्रांति प्रथमे मुरालय पदे देवस्थितिः लप्स्यमे । रागद्वेष कषाय मोह विषय व्यापारता नोगता ॥ प्रान्ते निज राज्य लग्नमनसा स्व चन्द्र केतोः सुतः । तत्कालेन भविष्यति जैनेऽपि मार्ग स्थिति: १७४। नृप प्रभृतिभि सर्वः श्रुत्वा काल त्रयात्मिका । धर्माधर्ममयी वार्ता बभूवे हर्ष तत्पर. १७५॥ उज्जयिन्यां नर ब्रह्मा, विपूर्वा जपवल्लभा । गता शीलमती नत्वा श्रवण युग पद् गुरुम् ।७६। तथा व्रत कृत पुत्र्या भाषितं मुनिना यथा । यादृशं श्रवणेनोक्तं सर्वेषां तादृशं स्थितम् ।७७। मुनीश्वराः प्रभाषते, सावधि ज्ञान लोचनः । असत्य वचनं नैव यतः कारणतो भुवि ७८॥ परिलिखति पठति कथयति,
करोति भावयति यो व्रत शृणुते । स च लभते फलमतुलम्,
निः पाप जिन मतोद्दिष्टम् १७६। चन्द्रभूषण शिष्येण, कथेयं, पापहारिणी। सस्कृता पण्डिताघ्रण, कृता प्राकृत सूत्रतः ।।
॥ इति श्रावण द्वादशी कथा समाप्त ॥ संवत् १५६३ वर्षे भाद्रपद मासे शुक्लपक्षे शनि दिने लिखितं ब्रह्मजमरु कर्मक्षय निमित्तं शुभ भवतु लेखक पाठकयोः ॥ नोट-यह कथा कांजी बारस व्रत की है यह व्रत भादव
सुदी१२ को किया जाता है,इस रोज कुमारी कन्यायें कांजिकाहार (२॥ चमची चावल-भात या छाछ में बाजरादि द्वारा एकाशन) करती हैं और नरनारी उपवास करते हैं यह व्रत १२ वर्ष तक किया जाता है और अन्त में उद्यापन भी करते हैं। भादवा सुदी १२ को ज्योतिष नियमानुसार श्रवण नक्षत्र माता है इसलिए इसका नाम "श्रवणद्वादशी" भी है। कथाकार ने श्रवण शब्द से श्रवण नामा दि. मुनि लिया है उन्हीं के श्रीमुख से यह कथा कहलाई
राज्य:
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पं.मदेव कृतभावण बावशीबवा
गई है । अन्तिम श्लोक से जाना जाता है कि- का रहा हैं। ये अतसागर ज्यादातर वर्णी रूप से ही चन्द्रभूषण के शिष्य पंडित अम्र देव ने यह कथा उल्लिखित रहे हैं मुनिरूप से नहीं, इसके सिवा श्रवणप्राकृत से संस्कृत में रची है। भादवा सुदी में ही द्वादशीकथा की एक प्रति का लिपिकाल ऊपर संवत् १५१९ सं० १५६३ मे ब्रह्म अमरु ने वसवा गटके में इसकी दिया है तब उसका रचना काल तो उससे कुछ पूर्व ही प्रति लिपि की है। अभ्रदेव के विषय में बृहज्जैन- होना चाहिए ऐसी हालत में ये श्रतसागर पं० अघ्रदेव शब्दार्णव भाग २ में ब. शीतल प्रसाद जी ने द्वारा सम्मत नही हो सकते । मेरे खयाल से इस विषय में लिखा है :-"ये एक गृहस्थ थे जिन्होने व्रतोद्यो- श्रत मुनिकृत त्रिभंगीसार की सोमदेव कृत सुबोधा टीका तन श्रावकाचार रचा है"। यह श्रावकाचार की प्रशस्ति से सारी समस्या हल हो सकती है। प्रशस्ति जीवराज प्रथमाला, शोलापुर से श्रावकाचार संग्रह में लिखा है :भाग ३ में छप चुका है। इसका मगलाचरण भी
यथामरेन्द्रस्यपूलोमजा प्रिया, नारायणस्याब्धिसुता बभूव । इस कथा के मगलाचरण की ही तरह है देखो
तथाभ्रदेवस्य विजेणीनाम्ना प्रिया सुधर्मासुगुणासुशीला ॥३॥ प्रणम्य परम ब्रह्मातीन्द्रिय ज्ञान गोचरम् । तयोः सुतः सद्गुणवान् सुवृत्तः सोमोऽमिधः कोमुद वृद्धि वक्ष्येऽह सर्व सामान्य ब्रतोद्योतनमुत्तमम् ।।
कारी। दोनों कृतियो की रचना शैली भी एक सी है। एक
व्याघ्ररवालांबु-निधेः सुरत्नं जीयाच्चिरं सर्वजनीनवृत्तः ॥४॥ उदाहरण लीजिए, सस्कार अर्थ में वासना शब्द का प्रयोग श्रीपदाधियुगे जिनस्य नितरांलीनः शिवाशाधरः । दोनों में एक सा पाया जाता है देखो-श्रावकाचार का सोमः सद्गुणभाजनः सविनयः सत्पात्रदानेरतः॥ श्लोक न. ४०८ तथा कथा का श्लोक न०७ और १८। सद्रलत्रययुक् सदा बुधमनोह्लादी चिर भूतले । इससे दोनो के कर्ता एक ही सिद्ध हैं।
नंदयादयेन विवेकिना विरचिता टीका सुबोधाभिधा ।। राजस्थान ग्रंथ सूची भाग २ पृष्ठ २४० तथा भाग
या पूर्व श्रुतमुनिना टीका कर्णाटभाषया विहिता । ३ पृष्ठ ३४ मैं पं0 अभ्रदेव को लब्धिविधान कथा और लाटीयभाषयासा विरच्यते सोमदेवेन ॥४॥ व्रतोद्योतन श्रावकाचार का कर्ता बताया है इस तरह
(इन्द्र की पुलोमजा और नारायण की लक्ष्मी की तरह इनकी तीन रचनाओ का पता लगता है।
आम (अघ्र) देव की विजणी (विजयिनी) प्रिया थी उनसे राजस्थान ग्रंथ सूची भाग ४ पृष्ठ २४५ में अभ्रदेव सोम देव पुत्र हुआ जो बघेरबाल वश का रत्न था उस कृत-"श्रवण द्वादशी कथा" की एक प्रति का लिपिकाल शिवाशाधर-मोक्ष की आशा के धारी-मुमुक्ष-और संवत् १५१६ लिखा है।
विवेकी सोम देव ने त्रिभंगीसार की विद्वज्जनमनरंजनी आमेर शास्त्र भण्डार अथ सूची पृष्ठ २०५ मे व्रतो- सुबोधा टीका रची वह चिरकाल तक संसार में नंदित योतन श्रावकाचार की एक प्रति का लिपिकाल सवत् (प्रकाशित) हो। यह टीका पहिले अतमुनिने कर्णाटक १५४१ लिखा है।
भाषा में रची थी उसी को सोमदेव ने लाटी भाषा में इस श्रावकाचार के अन्तिम श्लोक मे कवि ने मुनि रचा है।) प्रवरसेन की प्रेरणा से इस प्रथ के बनाने का उल्लेख इसमें पं० सोमदेव ने -- अपने को अभ्रदेव का पुत्र किया है :
बताया है दोनों नाम देवान्त हैं। अभ्र-अकाश में ही कारापित प्रवरसेन मुनीश्वरेण, ग्रंथचकार जिनभक्त । सोम-चन्द्र होता है, दि. आम्नाय में उर्ध्व दिशाबुधाघ्रदेवः ॥५४॥
आकाश का दिग्पाल सोम ही माना है इसलिए दोनों नाम इस ग्रंथ के श्लोक २९३ मे ऋद्धियों के विस्तृत कथन पिता पुत्र रूप से सार्थक हैं। दोनों व्यक्ति गृहस्थ पंडित के विषय में श्रुतसागर का समय १५०२ से १५५६ तक हैं प्रशस्ति में सोमदेव ने विवेकी शब्द से और अभ्रदेव ने
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१० बर्ष ३५,कि.१
अनेकान्त
पंडित और बुध शब्द से ऐसा अपने को व्यक्त किया है। किया है वह अशाधर के द्वारा अपने ग्रंथों की टीका
वैदिक और श्वे. आम्नाय में आकाश-उर्ध्व दिशा प्रशस्ति में प्रयुक्त 'नन्द्यात्' या नन्दताच्चिर' का ही का दिग्पाल (देव) ब्रह्म माना गया है और ब्रह्म-सिद्ध अनुकरण है। पं० आशाधर नालछा (मध्य प्रदेश) के उध्र्व दिशा में ही होते हैं । अत: अभ्रदेव-आकाश के देव निवासी थे। उनके बंशज होने से पं० अभ्रदेव भी वहीं -ब्रह्म होने से श्रमण द्वादशी कथा और व्रतोदयोतन के निवासी होने चाहिए । इसी से कथा में उन्होने मध्यश्रावकाचार के मंगलाचरण में नाम के श्लेष रूप से ब्रह्म प्रदेश की राजधानी उज्जयिनी का उल्लेख किया है। नमस्कार किया गया है। और कथा में उज्जयनी के
पं० अभ्रदेव ने श्रवण द्वादशी कथा के श्लोक नं. राजा का नाम भी नर ब्रह्म दिया है और अपनी पत्नी के
४७ में लिखा है। नाम पर रानी का नाम भी विजयबल्लभा दिया है। यह
जल गन्धाक्षत पुष्पश्चरु दीपोर्ध्वगः फलैः । सब परस्पर एकरूपता को द्योतित करते हैं।
मध्यान्हें चाष्टकं देयं सामायिकपुरस्सरम् ।। प्रशस्ति में पं० सोमदेव ने जिन स्वोपज्ञ टीकाकार
अर्थात्-सामायिक करने के बाद मध्यान्ह में अष्टश्रुतमुनि का उल्लेख किया है। उनकी एक कृति परमागम
द्रव्य पूजा करना चाहिए । इस कथन से अष्टद्रव्य पूजा सार शक संवत् १२६३ (वि. स. १३९८) में रचित है।
तपः कल्याणक (आहारदान) की प्रतीक है इस नई बात इन्हीं श्रुत मुनि का प० अभ्रदेव ने श्रावकाचार मे उल्लेख
का ज्ञान होता है । शास्त्रों में मुनिका आहार काल भी किया है। ऐसा प्रतीत होता है।
मध्याह्न की सामायिक के बाद ही बताया है। पं०आशाधर इस सब से पं. अभ्रदेव का समय १५वी शनी ने भी अष्टद्रव्य पूजा इसी तरह मध्याह्न मे ही करना (विक्रम की) योतित होता है।
बताया है, देखो-सागर धर्मामृत अध्याय ६ श्लोक पं० सोमदेव ने प्रशस्ति में 'शिवाशाधर का प्रयोग २१-२२ ।। किया है । सागार धर्मामत (श्रावक धर्म दीपक) के अन्त हमारी सारी जिन पूजा विधि पचकल्याणक का ही मे पं० आशाधर ने भी ऐसा ही शब्द प्रयोग किया है। प्रतिरूप है। इस विषय मे स्वतन्त्र रूप से अलग लेख पं० सोमदेव ने प्रशस्ति में 'चिरं नंन्द्यात्' शब्दों का प्रयोग द्वारा प्रकाश डालने का विचार है।
(शेष पृ० ५ का शेषांश) मन वचकाय धरै दृढ चित, यह अपनो पद जानहु मित्त॥ दोहा-जुवा सैल सयोग तुल्ल, भए पुनि मानिर्ज। दोहा--दया ज्ञान सतोष अति, निर्वेद भाव निःसंग। जैनधर्म अति सार, सो अति दुर्लभ जानिज ।। निनिदान शुभ ध्यान अति, ए पुनि धर्म जु अंग ।।
इति दुर्लभानुप्रेक्षा ॥१२॥ इति धर्मानुप्रेक्षा ॥११॥
चौपाई अथ दुर्लभानुप्रेक्षा/चौपाई
एद्वादश अनुप्रेक्षा सुख देनी, स्वर्ग मोक्ष पद जानि न सैनी ।।
जो मुनिराज चितवह हेत, धर्म शुक्ल साधे शुभ चेत ॥ अनंतकाल इक इन्द्रिय रहो, बस पद पाय जु दुर्लभ भयो।
इति द्वादशानुप्रेक्षा समाप्ताः कष्ट-कष्ट करि नरतन पाय,कर प्रमाद विषपन मन लाय॥ उत्तम देव धर्म गुरु लीक, इन्द्रिय मन पुनि रह्यो न ठीक । यनस्तर तह दुर्लभ जोग, करण लन्धि दुर्लभ सयोग ।।
६८, कुन्ती मार्ग, विश्वास नगर
शाहदरा, दिल्ली-११००३२
श्रुतकुटीर
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मेघदूत और पाश्र्वाभ्युदय के कथानकों का तुलनात्मक अध्ययन
0 श्री कपूर चन्द जैन
कवि कुलगुरु महाकवि कालिदास की अमर कृति (२) वे श्लोक जिनमें द्वितीय चरण मेषदत का कोई मेघदूत न केवल संस्कृत साहित्य अपितु विश्वसाहित्य की चरण है बाकी तीन कवि रचित । ऐसे भी कुल अप्रतिम कृति है। परवर्ती काल मे अनेक जैन कवियों ने २ श्लोक हैं।' एक नवीन उद्देश्य को ग्रहण कर मेघदूत के चरणों / चतुर्थ (३) वे श्लोक जिसमें चतुर्थ चरण मेघदूत का कोई चरण चरण को लेकर समस्यापूर्ति के रूप मे अनेक पादपूति- है बाकी के तीन कवि रचित । ऐसे कुल २.५ काव्यों की रचना की ऐसे काव्यों में पाश्वाभ्युदय, नेमिदूत,
श्लोक हैं।' शीलदूत, चतोदूत आदि अति प्रसिद्ध हैं।
(४) वे श्लोक जिनमें प्रथम और तृतीय चरण मेघदूत के आठवी-नौवी शती के महान जैन कवि आचार्य जिन- कोई चरण हैं बाकी दो कवि रचित । ऐसे कुल सैन अपने आदि पुराण के कारण संस्कृत पुराणकारों में
९ श्लोक हैं।
श्लोक है। तो महत्वपूर्ण स्थान रखते ही हैं पार्वाभ्युदय के कारण
(५) वे श्लोक जिनमें प्र० और च० चरण मेघदूत के कोई संस्कृत गीतिकाव्यकारो की विदग्ध मडली मे भी वे जा बैठ
चरण है बाकी दो कवि रचित । ऐसे तीन प्रलोक हैं।' हैं । मेघदूत के प्रत्येक श्लोक के एक या दो चरणो को सम
(६) वे श्लोक जिनमें द्वितीय तृतीय चरण मेघदूत के कोई स्यापूर्ति के रूप में लेकर लिखा गया यह काव्य संस्कृत जैन
चरण हैं बाकी दो कविरचित। ऐसा केवल १ श्लोक है।' गीतिकाव्यो में सर्वाधिक महत् कलेवर वाला काव्य है। (७) वे श्लोक जिनमे द्वितीय और चतुर्थ चरण मेघदत के जिनसेन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होने श्रृंगार
कोई चरण हे बाकी दो कवि रचित । ऐसे कुल १२ के वातावरण को अपनी प्रतिभा से शान्त रस मे परिणत
__ श्लोक हैं। कर दिया है।
(८) वे श्लोक जिनमे तृतीय चतुर्थ चरण मेघदूत के कोई ३६४ श्लोक प्रमाण प्रस्तुत काव्य की कथा वस्तु चार
चरण हैं बाकी दो कवि रचित । ऐसे कुल ९७ सर्गों में बंटी है जिनमें क्रमश: ११८, ११८, ५७, ७१
श्लोक है। श्लोक हैं । समस्यापूर्ति का आवेष्टन ८ प्रकारो मे किया
इसके अतिरिक्त ६ श्लोक ऐसे भी हैं जिसमें मेघदत गया है
का कोई चरण नही है। ये अन्तिम मगलस्वरूप हैं और (१) वे श्लोक जिनमें प्रथम चरण मेघदूत का कोई चरण
काव्य के अन्त में हैं। है बाकी तीन कवि रचित । ऐसे कुल २
पाश्र्वाभ्युदय के उक्त विवरणी को एक विवरणी श्लोक हैं।
द्वारा इस प्रकार दिखाया जा सकता हैक. सर्ग मे० का मे० का मे० का मे० का मे० का मे० का म० का मे० का योग
चतुर्थ १+३ १+४ २+३ +४ ३+४ चरण चरण चरण चरण चरण चरण चरण चरण
द्वारा ३०
१००
27
११८
१ प्रथम २ द्वितीय ३ तृतीय ४ चतुर्थ योग मेघदूत
६५
२३२६३ १/२ १/२ ५८ ४॥ ३५८+६=३६४ (छः श्लोकों में पादपूर्ति नही)।
६७ ४८॥
३५८ १२०
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१२, वर्ष ३८, कि..
अनेका पाश्र्वाभ्युदय मेघदुत पर समस्या पूर्ति के रूप में गिरा देता है, जिससे मरुभूति मर जाता है । अनन्तरं लिखा गया है । अतः मेघदूत के पाठ निर्धारण में महत्त्व- दोनों अनेक जन्मों में एक दूसरे को कष्ट देते रहते हैं। पूर्ण आधार का काम करता है। जिनसेन मेघदूत के कुल मरुभूति का जीव वाराणसी में पार्श्वनाथ होता है । दीक्षा १२० श्लोकों से परिचित थे यह उक्त बिवरणी में स्पष्ट धारण के पश्चात तपश्चरण करते समय कमठ का जीव, कर दिया गया है । मेघदूत के समान ही इस काव्य में जो इस जन्म मे शम्बर नाम का देव है, उसे देखता है मन्दाक्रान्ता छन्द व्यवहृत हुआ है । छः श्लोकों में छन्द और उसका पूर्वकालीन बैर जाग्रत हो जाता है वह सिंह परिवर्तित है।
के समान गर्जना करता है और युद्ध के लिए ललकारता मेघदत के उपजीव्य के सन्दर्भ में विद्वान् एक मत
है। युद्ध में मृत्यु पाने के बाद स्वर्गस्थित अलकापूरी जाने नही हैं । कुछ विद्वानों ने ऋग्वेद मे आये सरमापणि सवाद
का परामर्श देता है, जहा शम्बर की प्रेयसी को मेघदूत के रूप मे स्वीकार किया है।"मेघदूत के
वसुन्धरा विद्यमान है। पार्श्वनाथ के मौन रहने पर शम्बर प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ का कथन है कि भगवान
उसे पूर्व भवों की याद दिलाता है और युद्ध मे पार्श्वनाथ राम ने सीता के लिए हनुमान के द्वारा जो सन्देश भेजा
के मारे जाने की सम्भावना को लेकर स्वयं मेष रूप उसी को ध्यान में रख कर कालिदास ने मेघदूत को रचना
धारण करने के कारण पार्श्वनाथ को भी मेघ का रूप की है।" डा० भीखनलाल पात्रेय प्रभृति विद्वानो की
देकर उत्तर दिशा में स्थित अलकापुरी आने का परामर्श दृष्टि मे योगवाशिष्ठ रामायण मे मेघदूत का मूल है किंतु
देता है। रामायण के उक्त अश में प्रक्षिप्तता तथा योगवाशिष्ठ
इतने पर भी पार्श्वनाथ शान्त रहते हैं। शम्बर पुन: का काल निश्चित न होने के कारण स्वय डा. आत्रेय
युद्ध के लिए प्रेरित करता है तथा माया शक्ति से स्त्रियो दोनों के पूर्वापर का निर्धारण नहीं कर सके है । "कुछ
का गाना प्रारम्भ करा देता है जब पार्श्वनाथ विचलित विवेचकों की दृष्टि में कुवेर ने यक्ष को जो शाप दिया
नही होते तो वह पाषाण की वर्षा प्रारम्भ करता है तभी उसका आधार ब्रह्मवैवर्तपुराण में योगिनी नामा आषाढ़
धरणेन्द्र और पद्मावती नागदेव वहां आते हैं । और कृष्ण पक्ष एकादशी के महात्म्य में एक कथा आती है।
उपसर्ग दूर करते हैं। पार्श्वनाथ को केवलज्ञान हो जाता और कुछ विद्वानों की दृष्टि में स्वयं महाकवि कालिदास
है तथा शम्बर क्षमा याचना करता हुआ धर्म ग्रहण करता के जीवन में कोई ऐसी घटना घटी जिसे उन्हें अपनी परम आकाश से फलो की वर्षा होती है। प्रिया का वियोग सहन करना पड़ा, तभी उनकी हृदयतंत्री
मेघदूत का कथानक जहा एकदम स्पष्ट है और संदेश से अचानक मेघदत फूट पड़ा । इसके विपरीत पाश्वर्वाभ्यु- तथा संदेश के वचन भी एकदम स्पष्ट है वहां पाश्र्वाभ्युदय दय का कथानक पुराण प्रसिद्ध है। जैन पुराणों में २३वें
का कथानक कुछ उलझा हुआ है। डा० नेमिचन्द शास्त्री तीर्थकर पाश्वनाथ का चरित्र विशदता से वर्णित है और
का यह कथन कि--"काव्य शैली की जटिलता के कारण कमठ द्वारा उपसर्ग की घटना और भी विशिष्टता से
पाम्युिदय की कथावस्तु सहसा पाठक के समझ नहीं वणित है। जिनसेन ने इसी घटना से अपना ग्रन्थ प्रारम्भ आ पाती।" ठीक ही है।" कवि ने मेघदूत के ही कथानक किया है। पुराण की कथा को काव्योचित रीति से परि- को पल्लवित करने का सफल प्रयास किया है। किन्तु मेघ. वर्तित परिवषित किया गया है। स्वय जिनसेन कथा गुणभद्र दत की ही तरह वर्णनों के लोभ के कारण जिनसेन काव्य रचित आदि पुराण को पाश्र्वाभ्युदय का मूल कहा जा में उतना चमत्कार नही ला सके हैं। यदि किसी दूसरे सकता है। पाश्र्वाभ्युदय की कथा संक्षेप मे इस प्रकार है- कथानक को जिनसेन उठाते तो निश्चय ही वह इस
पोदनपुर नरेश अरविन्द के द्वारा बहिष्कृत किया कथानक से अधिक हृदयावर्धक होता। हुआ कमठ सिंधु नदी के तट पर तपस्या करता है । मरु- इसी प्रकार पाश्वयुदय के संदेश-वचन भी स्पष्ट भूति कमठ के समीप आता है, जिसे देखकर कमठ की नहीं है । डा. गुलाब चन्द्र चौधरी का यह कहना ठीक ही क्रोधाग्नि भड़क उठती है और वह ऊपर पाषाणशिला है कि-"वैसे पाश्र्वाभ्युदय, मेघदूत की समस्यापूर्ति में
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मेषतौर पाश्र्वान्युबचानकों का तुलनात्मक अध्ययन
रचा गया है इससे इसे सन्देश काव्यों की श्रेणी में रख है। अलका में पूर्व जन्म की पत्नी वसुन्धरा से मिलन का सकते हैं पर इसमें दूत या सन्देश शैली के कोई लक्षण वर्णन किया है। इस प्रकार कुल मिलाकर जिनसेन ने नहीं है । इसे हम एक अच्छा पादपूर्ति काव्य कह सकते मेघदूत के कथानक को ही पल्लवित किया है। किन्तु
अपनी प्रतिभा से उसमें विलक्षणता ला दी है, किसी पलोक मेघदूत की तरह पाश्र्वाभ्युदय मे रामगिरि से अलका के चरण को लेकर पूरे श्लोक और कथानक मे सयोजन तक के मार्ग का वर्णन किया गया है। रामगिरि मे करना कितना दुष्कर कार्य है। यह पाठकों से छिग नहीं आम्रकूट पर्वत, नर्मदा नदी, विन्ध्यवन, दर्शार्ण देश और है। पाश्र्वाभ्युदय में कमठ यक्ष के रूप में उसकी प्रेयसी उसकी राजधानी विदिशा, वेतवती नदी उसके पश्चात प्रातृपली वसुन्धरा यक्षपत्नी रूप मे अरविन्द कुबेर रूप में नीचः पर्वत, निविन्ध्या नदी तथा सिन्धु नदी का उल्लेख तथा पाश्र्वनाथ मेघराजरूप में कलित है। वसुन्धरा की है। तदनन्तर उज्जयिनी में जिनेन्द्र के मन्दिर में जिन विरहावस्था का वर्णन मेघदूत की यक्षप्रेयसी की विरहावस्था स्तुति करने तथा महाकाल नामक वन में जिनालयों के के समान सरस तथा भावुकतापूर्ण है। पर सन्देश मेघदूत दर्शन करने की सलाह पाश्र्वानाथ (मेघ) को शम्बर ने से भिन्न है। शम्बर पावनाय के धैर्य, सौजन्य सहिष्णुता दी है । मेघदूत की तरह ही उज्जयिनी का वर्णन है। और अपारशक्ति से प्रभावित होकर स्वयं वैर भाव का आगे गम्भीरा नदी, देव गिरि पर्वत, चर्मण्यवती नदी, त्याग कर उनकी शरण मे पहुचता है और पश्चाताप दशपुर नगर, ब्रह्मावर्त देश, कुरुक्षेत्र, कनखल, हिमालय, करता हुआ अपने अपराध की क्षमा याचना करता है। क्रौंचरन्ध्र का वर्णन किया है। ये सभी स्थान मेघदूत में इस प्रकार काव्य की समाप्ति शृगार में न होकर शान्त आये हैं इस दृष्टि से इसे परापरमगत वर्णन कहा जा रस मे होती है। सकता है । अलकापुरी का भव्यचित्र जिनसेन ने खीचा कुन्द कुन्द जैन डिग्री कालेज, खतौली (उ.प्र.)
सन्दर्भ १. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री : आदि पुराण में प्रतिपादित २।२१ से ३६, ४७, ५०, ५३, ५६, ५६, ६२, ६३,
भारत, गणेश प्रसाद वर्णी प्रथमाला वाराणसी, पृष्ठ ६४, ६८,७४,७६, ७७ । ३१ ।
१०. वही ४१६५ से ७१।। २. पार्वाभ्युदय : सम्पा० मो० गौ० कोठारी, प्रकाशक
११. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री : संस्कृत काव्य के विकास में गुलाब चन्द्र हीराचन्द बम्बई, ४१३६ तथा ३६ ।
जैन कवियों का योगदान, भारतीय ज्ञानपीठ काशी ३. वही ४१३७ तथा ४०। ४. वही सर्ग प्रथम १ से १००।
१२. 'सीता प्रति रामम्य हनुमत्सग्देशं मनसि निधाय मेघसर्ग द्वितीय-१ से २०, ३७ से ४६, ४८, ४६, ५१,
सन्देशं कवि कृतवानित्याह:-मेघदूत के प्रथम ५२, ५४, ५५, ५५, ५८, ६० ६१, ८१ से ११८ । श्लोक पर मल्लिनाथ कृत टीका। " सर्ग तृतीय-१८ से १५। ।
१३. डा. भीखन लाल आत्रेय, (योगवाशिष्ठ में मेषदूत सर्ग चतुर्थ-१ से २४, ३० से ३५, ४६, ४७, ५१, शीर्षक लेख) कालिदास ग्रन्थावली, अलीगढ़। ५२, ५४ से ६५।
१४. आचार्य शेषराज शर्मा कृत मेघदूत की व्याख्या, चौ० ५. वही २२६५, ६६, ७३, ७५। ३।३८, ४०, ४८,
विद्या भवन वाराणसी देखें। ५०,५२।
१५. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत गीतिकाव्यानुचिन्तनम ६. वही २०६६, २३६ तथा ३८ ।
__सुशीला प्रकाशन धौलपुर १९७०, पृष्ठ ६६ । ७. वही २।११३।
१६. डा. गुलाब चन्द्र चौधरी : जैन साहित्य का वहन १. वही २०६७, ७०,७१, ७२२३८, ४१ से ४६, १४।।
इतिहास भाग ६, पाठ विद्याश्रम शोध संस्थान १. १११०१ से ११२, ११४, ११५ से ११०।
वाराणसी पृष्ठ ५४७।
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"केन्द्रीय संग्रहालय गूजरी महल ग्वालियर में संरक्षित" तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं
0 नरेश कुमार पाठक भगवान पार्श्वनाथ इस अवसपिणी के तेईसवें जिन वैताल आदि के स्वरूप धारण कर पार्व को अनेक प्रकार हैं। पार्श्वनाथ को जैन धर्म का सर्वज्ञ तीर्थकर माना की यातनाएं दीं। उपसगों के बाद भी पार्श्व विचलित गया है । वाराणसी के महाराज अश्वसेन उसके पिता और नही हुए तो मेघमाली ने माया से भयंकर वृष्टि प्रारम्भ बामा या (बर्मिला) उनकी माता थीं।' जन्म के समय की जिससे सारा वन प्रदेश जलमग्न हो गया । पाव के बालक सर्प के चिन्ह से चिन्हित था । आवश्यक चूणि एवं चारों ओर वर्षा का जल बढ़ने लगा जो धीरे-धीरे उनके त्रिषाष्टिका पुरुष चरित्र में उल्लेख है, कि माता ने गर्भकाल घुटनों, कमर, गर्दन और नासाग्र तक पहुंच गया। पर में एक रात अपने पाश्व में से को देखा था; इसी कारण पार्श्वनाथ का ध्यान भंग नही हुआ। उसी समय पार्श्व बालक का नाम पार्श्वनाथ रखा गया। उत्तर पुराण के की रक्षा के लिए नागराज धरणेन्द्र पद्मावती एवं वैरोट्या अनुसार जन्माभिषेक के बाद इन्द्र ने बालक का नाम जैसी नागदेवियो के साथ पार्श्व के समीप उपस्थित हुए। पार्श्वनाथ रखा। पार्श्वनाथ का विवाह कुशस्थल के शासक धरणेन्द्र ने पार्श्व के चरणों के नीचे दीर्घनालयुक्त पद की प्रसेनजित की पुत्री प्रभावती से हुआ, दिगम्बर ग्रंथो मे __ रचना कर उन्हें ऊपर उठा दिया, उनके सम्पूर्ण तन को अपने पार्श्वनाथ के विवाह प्रसंग का उल्लेख नहीं है । श्वेताम्बर शरीर से ढक लिया साथ ही शीर्ष भाग के ऊपर सप्तसर्प, परम्परा के अनुसार नेमि के भित्ति चित्रो को देखकर और फणों का छत्र भी प्रसारित किया । उत्तर पुराण (७३दिगम्बरों के अनुसार ऋषभ के वांगमय जीवन की बातों १३६-४०) के अनुसार धरणेन्द्र ने पार्श्वनाथ को चारी को सुनकर, तीस वर्ष की अवस्था में पार्श्वनाथ के मन में ओर से घेर घर कर अपने फणो पर उठा लिया था और वैराग्य उत्पन्न हुआ। पार्श्वनाथ ने आश्रमपद उद्यान मे उनकी पत्नी पद्मावती ने शीर्ष भाग में बज्रमय छत्र की अशोक वृक्ष के नीचे पचमुष्टि से केशों को लुञ्चन कर छाया की थी। मेघमाली ने अपनी पराजय स्वीकार कर दीक्षा ली।
पाव से क्षमा याचना की। इसके बाद धरणेन्द्र भी देवपार्श्व वाराणसी से शिवपुरी नगर गए और वही लोक चले गए। उपर्युक्त परम्परा के कारण ही मूर्तियों कौशाम्ब बन मे कायोत्सर्ग में खड़े होकर तपस्या प्रारम्भ पार्श्व के मस्तक पर सात सपंफणो के छत्र प्रदर्शन की में की। धरणेन्द्र ने फण से पार्श्व की रक्षा के लिए उनके परम्परा प्रारम्भ हुई । मूर्तियों में पार्श्व के घुटनों या मस्तके पर छाया की थी। अपने एक भ्रमण में पाव चरणों तक सर्प की कुण्डलियों का प्रदर्शन भी इसी परंपरा तापसाश्रम पहुंचे और सन्ध्या हो जाने के कारण वही से निर्देशित हैं । पार्श्व को छत्र से युक्त दिखाया गया है। एक वक्ष के नीचे कायोत्सर्ग में खड़े होकर तपस्या प्रारंभ पार्श्वनाथ को वाराणसी के निकट आश्रम पद उद्यान की। उसी समय आकाश मार्ग से मेषमाली (याशाम्बर) में धात की वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग मुद्रा में केवल ज्ञान नाम का असुर (कमठ का जीव) आ रहा था। जब उसने और १०० वर्ष की अवस्था में सम्मेद शिखर पर निर्वाण तपस्यारत पाव को देखा तो उसे पाश्र्व से अपने पूर्वजन्मों पद प्राप्त हुआ।' केबर का स्मरण हो आया । मेघमाली ने पार्श्व की केन्द्रीय संग्रहालय गूजरी महल ग्वालियर में तेईसवें तपस्या भंग करने के लिए तरह-तरह के उपसर्ग उपस्थित तीर्थकर पार्श्वनाथ की ६ दुर्लभ प्रतिमाएं संग्रहित हैं। किए। पर पार्व पूरी तरह अप्रभावित और अविचलित जिन्हें मुद्राओं के आधार पर दो भागों में बांटा गया है। रहे । मेघमाली ने सिंह, गज, वृश्चिक, सर्प और भयंकर (म) कायोत्सर्ग (ब) पपासन।।
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तेईसवें तीर्थकर की पावनायकी प्रतिमाएं
(ख) कायोत्सर्ग-कायोत्सर्ग मुदा में निर्मित अहमद- में निर्मित तीर्थकर पार्श्वनाथ के मुख, हाथ व पैर खण्डित पुर (जिला विदिशा) से प्राप्त (सं० ऋ० ११९) तेईसवें है। सिर पर सप्तफण नागमौलि, वक्ष पर श्री वृक्ष अंकित तीर्थकर पार्श्वनाथ के सिर पर कुन्तलित केश ऊपर पांच है। सिर के ऊपर त्रिछत्र दोनों ओर विद्याधर पुष्पहार फणों का छत्र शैय्या बनी हुई है । वक्ष पर श्रीवत्स अंकित लिये प्रदर्शित है । परिकर एवं वितान में पांच पदमासन है । तीर्थकर के दायें सौधर्मेन्द्र और बाएं ओर ईशानेन्द्र में एवं छ: कायोत्सर्ग में जिन प्रदर्शित है। परिकर एवं चंवरी लिए खडे हैं। परिकर में दो कायोत्सर्ग में जिन वितान में पांच पद्मासन मे एवं छ: कार्योत्सर्ग में जिन प्रतिमाएं एव दो पद्मासन मे पार्श्वनाथ की नागफण मौलि प्रतिमाओं का अंकन हैं। तीर्थकर के दायें सौधर्मेन्द्र और युक्त लघु प्रतिमा अकित है। पादपीठ पर दो सिंहों के बायें ईशानेन्द्र चवरी लिये खड़े है। पादपीठ के नीचे दोनों बीच धर्मचक्र स्थित है। सिंहों के पास क्रमश: यक्ष घर- सिह आकृतियां एवं सिंहों के पार्श्व में यक्ष धरणेन्द्र और णेन्द्र और बाएँ यक्षी पद्मावती का आलेखन है। एस० बाय यक्षी पद्मावती का अंकन है। निकट ही दो भक्तों आर० ठाकुर ने इस प्रतिमा को जैन तीर्थकर लिखा है।' का आलेखन है।' १४वीं शती ईस्वी की यह प्रतिमा तोमर ११ वी शती ई० को यह प्रतिमा कलात्म अभिव्यक्ति को कालीन कला की उत्कृष्ट कृति है। दृष्टि से परमार कालीन शिल्पकला के अनुरूप है। इमों काल खण्ड की (सं० ऋ० ४७५) प्रतिमा भी
(ब) पद्मासन--पद्मासन में निर्मित तेईसवें तीर्थकर ग्वालियर से ही प्राप्त है । पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में पार्श्वनाथ की पांच प्रतिमायें संग्रहालय में संरक्षित है। तीर्थकर पार्श्वनाथ का अकन है। तीर्थकर के दायें पढावनी (जिला मरैना) से प्राप्त मति में (सं०० १२४) सौधर्मेन्द्र और बायें ईसानेन्द्र चवरी लिए बड़े हैं पादपीठ पद्मासन मे बैठे हुए तीर्थंकर पार्श्वनाथ के दोनों पैर भग्न पर मध्य में चक्र दोनो पार्श्व मे विपरीत दिशा में मुख हैं । ऊपर सप्त फण नागमौलि का अङ्कन है । प्रभावली, किये सिंह आकृतियो का आलेख है । परिकर में दोनों और सिर पर कुन्तलित केशराशि बक्ष पर श्री वत्स का प्रतीक सिंह व्यालो का शिल्पांकन है। है। सप्तफण के छत्र के ऊपर दुन्दभिक है। दोनों ओर ग्वालियर दुर्ग से प्राप्त (सं० ऋ० १२०) तीर्थकर एक एक हायी अभिषेक करते हुए प्रदर्शित हैं। तीर्थकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा का केवल पादपीठ ही प्राप्त हुआ है। के दाएं ओर सौधर्मेद्र और बाएं ओर ईसानेन्द्र चवरी जिस पर दोनो ओर सामने मुख किये सिंह बैठे हैं, जिनके लिए हाथियों पर खडे है। परिकर मे दोनो ओर दो-दो मध्य में धर्मचक्र और दोनों ओर भक्तगण अंजली हस्त जिन प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी है। प्रतिमा की मुद्रा में बैठे हुए हैं। दोनों पार्श्व यक्ष धरणेन्द्र एवं यक्षी चौकी पर दो सिंहो के बीच धर्मचक्र स्थित है। सिंह के पद्मावती का अंकन हैं । पादपीठ पर विक्रम संवत १४९६ बायी ओर यक्षी पद्मावती बैठी है । बाएं ओर स्थित यक्ष (ईस्वी सन् १५३९) का स्थापना लेख उत्कीर्ण है। घरणेन्द्र की प्रतिमा टूट चुकी है। बाहरी अलकरण मे ग्वालियर दुर्ग से ही प्राप्त (सं० ० ३०६) तीर्थकर मकर आदि व्याल आकृतियो का आलेखन है। एस. पार्श्वनाथ का केवल सिर ही प्राप्त है। जिस पर सप्तफणों आर० ठाकुर ने इन प्रतिमाओं को भी जैन तीर्थपुर लिखा मे युक्त आकर्षक नागमौलि का अच्छादन है। सिर पर है। ग्यारहवीं शती ईस्वी की यह प्रथम प्रतिमा शारी- कुन्तलित केश सज्जा का अंकन है। चेहरा अण्डाकार, र कि अवयवों को देखते हुए छपघात का प्रभाव दृष्टि- आंखें आधी बन्द है । हालाकि नाकथोड़ी ठूटी हुई है। गोचर होता है।
परन्तु चेहरो की भाव दृष्टि से प्रतिमा १०वी शती ईस्वी ग्वालियर दुर्ग से प्राप्त (२०१०१३०) पद्मासन की है।
सन्दर्भ सूची १. महापुराण (पुष्पदंत कृत) सं० पी० एल० वैद्य मानिक पापर्व के माता-पिता का नाम ब्राही और विश्वसेन चन्द्र दिगम्बर जीपाला पर बम्बई १९४१ में बताया गया है। (शेष पृ० १६ पर)
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उत्तम ब्रह्मचर्य : एक अनुशीलन
लेखक : 810 कस्तूरचंद 'सुमन'
जैन धर्म में दस धर्म बताये गए हैं, उनमे यह शांति है।" किन्तु वे सुख साधन उपलब्ध होने पर भी उन्हें तब धर्म है।' आवार्य समन्तभद्र ने धर्म की संज्ञा उसे दी है तक ग्रहण नही करते जब तक कि वे उनसे परिचित नही जो जीवो को समार के दुःखों से निकाल कर उसम सुखों हो जाते। अतः ब्रह्मचर्य के विविध रूपों को आइए हम में पहुंचाता है, कर्मों का नाशक होता है, और उभय लोक समझें । में उपकार करता है। ब्रह्मचर्य एक ऐसा ही धर्म है। याचार्य उमा स्वामी ने "मैथुनमब्रह्म" कह कर मेथुन इसका धर्मों के अन्त में कहा जाना इस तथ्य का प्रतीक है क्रिया को अब्रह्म कहा है। तथा अमृतचन्द्राचार्य ने वेद कि इसके पूर्व कथित धर्मों की साधना के उपरान्त ही इस और राग के योग को मथुन संज्ञा दी है और उसे ही अब्रह्म धर्म की साधना सम्भव है। इस धर्म के सम्बन्ध में मुनि कहा है। भगवती-आराधना में ब्रह्म का अर्थ जीव बताया विद्यानन्द जी के विचार उल्लेखनीय है "जिस प्रकार है तथा पचनन्दि पञ्चविंशतिका में आत्मा। मन्दिर बनाने के बाद स्वर्ण कलश चढ़ाते हैं उसी प्रकार अतः इन उल्लेखों के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है यह धर्म पर चढ़ा हुआ स्वर्ण कलश है। अतः कहा जा कि आत्मा का उपयोग आत्मा में ही लीन होने लगना, सकता है कि मानव जीवन में इसका उतना ही महत्व है ब्रह्मचर्य है । जैसे कछुआ दुःखों का संकेत पाकर अपने जितना महत्व है मन्दिर के स्वर्ण कलश का मन्दिर के अंगों का संकोच कर लेता है इसी प्रकार सुखाभिलाषी निर्माण में।"
जीव को भी विषयों से मुख मोड़ना होगा। ___ संसारी प्राणी दुःखों से भयभीत हैं वे सुख चाहते अब्रह्म अर्थात् मथुन के त्याग में आचार्यों की अन्त(पृ. १५ का शेषांश)
निहित भावना यही है कि प्राणी सुखी हो । सुख का २. त्रिषष्टिशालाका पुरुष चरित्र खण्ड ५ (हेमचन्द्रकृत)
कारण धर्म, जीव-दया पर आश्रित है तथा मैथुन है हिंसा अनु० हेलेन एम० जानसन, गायकवाड़ ओरियण्टल
जनित दोषों से पूर्ण ।' राग-जनित होने से भाव-प्राणों का सिरीज १३९ बड़ोदा १९६२ पृष्ठ ३६४-६६ ।
भी घातक है: रज और वीर्य जनित कीटाणुओं का घात ३. तिवारी मारुति नन्दन प्रसाद जैन प्रतिमा विज्ञान होने से द्रव्य प्राणो की हिंसा होती ही है। वाराणसी १९८१ पृष्ठ १२४-२५।
जीव दया का तात्पर्य शरीर दया नही है क्योकि ४. ठाकुर एस. आर. कैटलाग आफ स्काचर्स आर्केला- जीव नहीं है। जीव तो शरीर से भिन्न है । चैतन्य
जीकल म्यूजियम मध्य भारत पृष्ठ २१ क्रमांक ७। स्वभावी है। यथार्थ में उसकी रक्षा करता है-उसे ५. वही पृष्ठ २२ क्रमांक १२।
विकृति में नहीं जाने देना । अब्रह्म से हटकर ब्रह्म में रमण ६. वही पृष्ठ २३ क्रमांक १८ ।
करने से ऐसी ही जीव दया का संरक्षण होता है। और ७. दीक्षित एस० के० ए गाईड टू दो सेन्ट्रल आर्केलो- इसीलिए आवश्यक है कि हम ब्रह्म मे रमण करें । हिंसा
जीकल म्यूजियम ग्वालियर १९६२ पृष्ठ ४२, जनित अब्रह्म से बचें। एव ठाकुर एस० आर० पूर्वोक्त पृष्ठ २१ क्रमांक । निश्चय नय से तो ब्रह्मचर्य का यही स्वरूप है। मुनि
केन्द्रीय पुरातत्व संग्रहालय, ऐसे ही ब्रह्मचर्य को धारते हैं, किन्तु व्यवहार से स्वकीय
गूजरीमहल, ग्वालियर परकीय दोनों प्रकार की स्त्रियों का त्याग हो जाना ब्रह्म
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उत्तम ब्रह्मचर्य : एक अनुशीलन • चर्य है । जो नारी के मर जाने से ब्रह्मचारी बन जाते हैं वेश्याओं से सम्बन्ध रखते । काम सेवन के लिए निश्चित
तथा ब्रह्मचारी बन जाने पर भी जिनकी नारियों के प्रति अंगों को छोड़कर अन्य अंगों से काम-सेवन करते हैं और आसक्ति नही घट पाती वे ब्रह्मचर्य को दूषित करने काम-सेवन की तीव्र अभिलाषा रखते हैं ।" ऐसे लोग वाले दोषों से नहीं बच पाते । वे तो "मारि मुयी हुए ब्रह्मचर्य की साधना नहीं कर पाते । अतः इन्हें ब्रह्मचर्य सन्यासी" कहावत को चरितार्थ करते है।
का घातक जान परित्याग करें। इनके रहते संते इस व्रत सांसारिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करने या वंश की साधना सम्भव नही है। परम्परा चलाने हेतु जो लोग उत्सुक है, ऐसे लोगो के सम्प्रति कुसंगति भी एक प्रधान बाधा है। जो इस लिए आचार्यों ने स्वदार-सन्तोष वन धारण करने के लिए कुचक्र में पड़ जाते हैं : वे बुरी आदतों से अपने को बचा कहा है। ऐसा मानव पाप के डर मे मन, वचन, काय से नही पाते । क्योकि कहा भी है कि "काजल की कोठरी में पर स्त्री का सेवन नही करता तथा दूसरो को भी मन, कसो ह सयानो जाय, एक दाग काजर की लागि है 4 वचन, काय से सेवन नही कराता । वेश्याओ को भी नही लागि है।" अतः आवश्यक है कि सगति की जावे अवश्य सेवता, न सेवन हेतु दूसरो को कहता है।
किन्तु सुसमति ही जो कि व्रत साधना में सहायक सिख प्रश्न होता है कि ऐसा क्यों कहा गया ? क्या इसमे हो। बाधक नही। हिंसा नही होती ? हिंसा तो अवश्य होती है, परन्तु गृहस्थ काम की प्रबलता-पचेन्द्रिय विषयों मे स्पर्श जनित की मर्यादा बनी रहे, मा नाजिक नैतिकता और व्यवस्था काम वेदना के आगे ज्ञानियो का ज्ञान भी बेकार हो जाता भंग न हो इस दृष्टि मे ऐसा करना न्यायोचित प्रतीत है। इस तथ्य मे एक साधु सहमत न था। लेखक ने होता है । इस व्रत के कथन मे आचार्यों की दूरदर्शिता ही परीक्षार्थ एक युवती के रूप में उसके निकट जाकर परीक्षा परिलक्षित होती है। ऐसा व्रती स्वदार सेवक तो अवश्य चाही। सूर्यास्त हो रहा था युवती के रूप मे उमने साधु है, किन्तु अनासक्ति पूर्वक ।
से कहा कि मुझे एक रात कुटिया में रहने दीजिए, किन्तु इस उल्लेख का तात्पर्य यह नही है कि स्वदार सतोष साधु ने स्वीकृति न दी। रात में मनोहर गीत गाये । गीत व्रत को केवल पुरुष ही माने । स्त्रियो का भी कर्तव्य है सुन साधु से रहा न गया, वे अपने आप को भूल गए । कि वे स्व-पुरुष में हो सन्तुष्ट रहें । परपुरुष का मन में काम वेदना से पीड़ित हो उन्होने कपाट खोलने चाहे किंतु भी चिन्तवन न कर अपने आभूषण शील की रक्षा करें। युवती ने बाहर की साकल दन्द कर दी थी। माधु ने
ब्रह्मचर्य पालन में सहायकअग ब्रह्मचर्य पालन हेतु एक सांकल बन्द करने का कारण पूछा-तो युवती ने कहाओर जहा बाह्य परिस्थितियो का आचार्यों ने उल्लेख आप ही अपने मन से पूछिए कि मेरे ऐसा विकल्प क्यो किया है । दूसरी ओर आन्तरिक परिस्थितियों को भी हो रहा है ? आपके हृदय मे कल कमय भाव उत्पन्न हुए दर्शाया है । बाह्य कारणो को उन्होंने अतिचार और अन्तर बिना मेरे ऐसे भाब नही हो सकते । आप पुरुष हैं किन्तु से सम्बन्धित कारणो को भावना नाम से सम्बोधित किया विकृत हो जाएं तों इस निजन वन मे मेरी कौन रक्षा है। स्त्रिगे म राग-1ईक कथाओ का श्रवण, उनके मनो- करेगा। साधु ने बार बार आग्रह किया किन्तु जब युवती हर अङ्गो का दर्शन, भोगे हुए विषयों का स्मरण, काम- ने कपाट नहीं खोले तब साधु कुटी का छप्पर काट कर वर्द्धक गरिष्ठ भोजन और शारीरिक मस्कार ये पाच काम-वेदना शान्त करने के लिए बाहर आए और उन्होंने भावनाएं है।" जिनका चित पर प्रभाव पड़े बिना नहीं देखा कि वह युबती वहा पर नहीं है, युवती के स्थान पर रहना, ब्रह्मचर्य की भाधना । इनस बाधा उत्पन्न होती है। वही पुरुष है जिमने कहा था कि काम-वेदना के आगे
इसी प्रकार जो दूसरो के पुत्र-पुत्रियो का विवाह करते ज्ञानियों का ज्ञान बेकार हो जाता है । साधु लज्जित हुआ कराते हैं, पति सहित या रहित स्त्रियो के पास आते- और उसने इस कथन को स्वर्णाक्षरों मे लिखने हैं लेन-देन रखते हैं, राग-भाव पूर्वक बातचीत करते हैं। को कहा।
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१८, ३८,कि.१
आचार्य रविसेन का इस सम्बन्ध में कथन है कि "सूर्य प्रवृत्तियाँ पुन: उत्पन्न हो जाती है। विषयों को छोड़ना तो दिन में निकलता है पर काम रात-दिन । सूर्य का तो तथा विषयों का छूट जाना इसमें महान् अन्तर है। छोड़ने बावरण है पर काम है आवरणहीन ।" इसी प्रकार में उनके प्रति रहने वाला राग-भाव नहीं छूट पाता जबकि भर्तृहरि का यह कथन भी उल्लेखनीय है कि काम को छूट जाने में किंचित भी राग-भाव शेष नहीं रहता। खण्डित करने वाले विरले ही मनुष्य है । अतः काम भगवान महावीर के सम्बन्ध में जो यह कहते हैं कि प्रबल है, बलवान भी इसके आगे नत मस्तक हैं । ज्ञानी "वे राज-पाट छोड़कर चले गए थे" मूठ कहते हैं । उन्होंने भी पराजित है, फिर भी अजेय है ऐसा नही कहा जा राज-पाट छोड़ा नही था छूट गया था। वस्तुओं के प्रति सकता। भेद विज्ञानियों ने इसे पराजित किया है। यथार्थ राग-भाव उनका समाप्त हो गया था और यही कारण मे जितने लोग काम के वशीभूत हुए हैं उनके वशीभूत था कि माता-पिता के अनेक प्रकार के आग्रह करने पर होने का कारण रहा है भेद-विज्ञान का अभाव।
भी वे पुनः नही लौटे । कभी विषयों ने उन्हें नहीं लुमाया। प्रथमानुयोग में देशभूषण और कुलभूषण दो राज- ब्रह्मभाव निश्चित है । जब अन्तर मे उत्पन्न होगा कुमारों का वृत्तान्त मिलता है । वे पढ़कर गुरु-गृह से अपने तो बाह्य प्रवृत्तियां स्वयमेव वैमे ही प्रवर्तित होगी। विषयों घर आते हैं। उनके स्वागत मे मां के साथ एक कन्या भी की फिर दाल नहीं गलेगी। ब्रह्मचर्य की साधना पूर्ण होगी
और नर भव सफल होगा इसमें दो मत नहीं है।" देख कामासक्त दोनों राजकुमार उसे पाने के लिए झगड़ने नारी और ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध मे चर्चा लगते हैं। दोनों को झगड़ते देख मां ने झगड़े का कारण चलने पर प्रायः नारी को चर्चा का विषय बनाया जाता पूछा । कारण ज्ञात कर उसने कहा-तुम दोनों व्यर्थ ही
नो व्यथ हा
है। उसे बरा
है। उसे बुरा कहा जाता है । आचार्य रविसेन ने स्त्री को झगड़ रहे हो, यह तुम्हारी बहिन है । दोनों का चित्त 'संसार मे समस्त दोषों की महान खान कहा है। उनका ग्लानि से भर गया। जाग गया उनमे भेद- ज्ञान । वे कथन है कि ऐसा कौन-सा निन्दित कार्य है जो उनके लिए न द्वार से ही आंगन की ओर लौट गए और मुनि दीक्षा से किया जाता हो। कवि द्यानतराय ने भी "ससार मे कुन्धलगिरी से तप कर उन्होंने मुक्ति प्राप्त की। देखिए विष बैल नारी तज गये योगीश्वरा" कह कर नारी को ऐसा परिवर्तन कैसे हुआ ? इसमें एक मात्र कारण है भेद- विष बेल की उपमा दी है।" विज्ञान । अमृतचन्द्राचार्य ने ठीक ही कहा है-
जैन दर्शन के तत्वज्ञदर्शी विद्वान स्व० कानजी स्वामी भेद विज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । ने इस सम्बन्ध में कहा था कि ऐसा कथन निमित्त की अस्यवाभावतो बद्धाः वद्धा. ये किल केचन ।। अपेक्षा से हैं । वास्तव में स्त्री ससार का कारण नही है।
कवि चानतराय का चिन्तन-कवि ने दशलक्षण-पूजा उन्होंने दलील दी है कि यदि नारी बुरी है तो पूर्व भवों मे में "ब्रह्मभाव अन्तर लखो" कह कर सकेत किया है कि भी अनन्त बार द्रव्यलिंगी साधु हुआ, उसने स्त्री का संग ब्रह्म भाव अन्तर मे ही देखना चाहिए ।" तात्पर्य यह है छोडा, ब्रह्मचर्य पालन किया, फिर भी उसका कल्याण कि जब तक पान्तरिक प्रवृत्तिया ठीक नहीं होगी, अन्तर क्यो नही हुआ ?" किसी हिन्दी कवि का कथन भी यहां से ब्रह्म की साधना नहीं होगी, केवल बाह्य साधना फली- उल्लेखनीय है । नारी पुरुष से कहती हैभन नही होगी। जितने ऋषि-महा-ऋषि, ज्ञानी-ध्यानी, अन्धकार की मैं प्रतिमा हूं जब तक हृदय तुम्हारा। ब्रह्मचर्य से च्युत हुए हैं, उनमें निश्चित ही ब्रह्म साधना तिमिरावृत है तब तक ही मैं, उस पर राज्य करूंगी। अन्तर मे न थी भले ही वे ब्रह्म का कारी प्रावरण ओढ़ और जलाओगे जिस दिन तुम, मुझे हुये दीपक को। हुए रहे हैं। ऐसे लोग इन्द्रिय विषयों को रोकते हैं, उनका मुझे त्याग दोगे वसन्त मे, रजनी की माता सी॥ दमन करते हैं। स्वयमेव विणय जनित प्रवृत्ति शान्त नही इन उल्लेखों के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि होती। यही कारण है कि समय पाकर दबी हुई विषयज नारियां बुरी नहीं हैं। उन्हें जो बुरा बताया जा रहा है,
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उत्तम ब्रह्मचर्य : एक अनुशीलन उनकी जो निन्दा की जा रही है, वह केवल निमित्त अपेक्षा प्रथमानुयोग में अनेक प्रेरक दृष्टान्त मिलते हैं । असिसे है। जब तक अज्ञान है तभी तक नारीगत सुखों में धारा-व्रत के सम्बन्ध मे कहा गया है कि इस व्रत के धारी जीव मग्न रहता है। ज्ञान किरण के उदय होतेही नारियों पत्नी-पति दोनो साथ-साथ रहते हुए भी दोनों में से पति का संग छोड़ना नहीं पड़ता स्वयमेव छूट जाता है । चक्र- एक पक्ष में ब्रह्मचर्य से रहने का नियमधारी होता है और वर्ती भरत चुकि भेद-विज्ञानी हैं, क्षायिक सम्यग्दृष्टि थे, पत्नी द्वितीय पक्ष में । इस प्रकार वत के धारी जीवन भर यही कारण था कि ९६ हजार रानियाँ होते हुए भी ब्रहमचर्य व्रत की साधना करते है । इस व्रत के प्रभाव से स्वप्न में भी उनके अन्तर मे किंचित भी स्त्री राग उत्पन्न ऐसे व्रती जहां आहार करते हैं वहा वांधा गयां चन्दोवा नहीं हुआ । गुरु गोपालदास जी बरैया और पण्डित दया- भी अपनी मलिनता त्याग सफेद हो जाता है। ऐसे मुनियों चन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री, सागर के नाम भी इस सम्बन्ध को अहार देने से कहा गया है कि जीवानी नीचे में स्मरणीय हैं । जिन्होंने स्त्रियों के साथ रहते हुए भी गिर जाने से उत्पन्न दोष का निवारण हो जाता है। निज कल्याण किया है। अत: यह स्पष्ट है कि नारियां अतः इम दृष्टान्त के परिप्रेक्ष्य में भी नारियां निन्दनिन्दित नही हैं और न उनकी निन्दा ही की जानी नीय प्रतीत नहीं होती। व्रत साधना में आवश्यक है कि चाहिए । जहाँ कही भी ऐसा कथन मिलता है उसमें चित्त मे नारी जनित विकृति उत्पन्न न होने देना। उनके विषयो के प्रति विरक्ति उत्पन्न करना ही लेखक का लक्ष्य सद्भाव मे भी पारणामिक निर्मलता बनाए रखने रखना । रहा ज्ञात होता है।
निमलता भी ऐमी जैसी लक्ष्मण के चित्त मे थी। नारियां आज भी साधक सिद्ध हो रही हैं । पूज्य वर्णी जब राम अपने भाई लक्ष्मण को सीता के केयूर कुंडल जी ने अपनी झीवन गाथा में लिखा है कि "मैं पण्डिन आदि आभूषण दिखाते हैं तो लक्ष्मण ने कहा था कि मैं ठाकूरदास जी के पास पढ़ता था। वे बहुत विद्वान थे। भाभी के कुण्डल, केयूर आदि नही जानता, मैं तो केवल उनकी दूसरे विवाह की पत्ती थी पण्डित जी की जब दो भाभी के पैर मे पहने हुए सुहाग-चिन्ह स्वरूप बिछुमो को संतान हो चकीं तब एक दिन पण्डितजी की नवोढा पत्नी ने ही जानता हूं, क्योंकि प्रति दिन चरण-स्पर्श करते समय कहा पण्डित जी अपने दो सन्ताः -एक पुत्र व एक पुत्री मेरी दृष्टि उन पर पड़ती थी।" हो चके हैं अब पाप का कार्य बन्द कर देना चाहिए। लेखक की दृष्टि में ब्रह्मचर्य धर्म-बहु चर्चित "धर्म पण्डित जी उसकी बात सुनकर कुछ हीला-हवाला करने के दशलक्षण" पुस्तक के लेखक ने स्पर्शन इन्द्रिय के विपय लगे तो वह स्वयं उठ कर पंडित जी की गोद में जा बैठी सेवन के त्याग रूप व्यवहार बह चर्य को ही ब्रह्मचर्य माना और बोली कि अब तो आप मेरे पिता तुल्य हैं और मैं है। वहां पर अपने कथन की विशद व्याख्या की है। आपकी बेटी। पंडित जी गद् गद् स्वर मे बोले-बेटी! यथार्थ मे इस स्पर्शन इन्द्रिय के विषय सेवन से त्याग के तने तो आज वह काम कर दिया जिसे मैं जीवन भर लिए आचार्यों ने यद्यपि बार बार कहा है, दृष्टान्त भी अनेक शास्त्र पढ़ कर भी न कर सका । उस समय से दोनो दिये हैं अवश्य, परन्तु इसका तात्पर्य आचार्यों का यह ब्रह्मचर्य से रहने लगे।
कदापि नही है कि वे अन्य शेष इन्द्रियों के विषय का इस दष्टान्त से भी यही अर्थ प्रतिफलित होता है कि त्याग न करें। यदि हम उनके कथन के अन्तर मे मांकने नारी संग बुरा नही है, बुरा अज्ञान भाव है जो स्त्री राग का प्रयास करें तो ज्ञात होगा कि उनका कथन वंसा नहीं बनाए रहता है। यथार्थ में कारणों के अभाव में व्रत की था जैसा कि विद्वान लेखक ने समझा है क्योतिब्रह्मचर्य साधना तो सम्भाव्य है किन्तु कारणों के रहते हुए व्रत की साधना तभी सम्भव है जब साधक अन्य शेष इन्द्रियों की साधना बिना भेद-विज्ञान हुए सम्भव नही है । कारणों के विषय का भी त्याग करें। कामोत्तेजक गरि ठ भोजन के सदभाव में व्रत की साधना का अपर्व फल होता है। का उसे साधना हेतु त्याग करना ही पडता है, इसी प्रकार देखिए असिधारा व्रत का प्रभाव ।
सुगन्धित पदार्थों का सूंघना, कामोत्तेजक कथाओंका श्रवण'
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२०१०
स्त्री आदि का दर्शन-स्मरण भी छोड़ना होता है क्योकि है। ब्रह्मचर्य के बिना जितने काय-क्लेश किये जाते हैं वे इन सद्भाव में ब्रह्मचर्य की साधना सम्भव नहीं है। सब निष्फल है। अत: आचार्यों के निर्देशानुसार ब्रहमबाचायों ने अलग इन्द्रिय विषय सेवन के त्याग की चर्चा चर्य का पालन करे। विषयों की रुचि छोड स्त्रियों को न कर उन्हें स्पर्शन इन्द्रिय के विषय सेवन त्याग में उसी माता, बहिन, पुत्री के समान माने । क्योकि जैसे कुम्हार प्रकार सम्मिलित कर दिया है जैसे तीर्थकर पार्श्वनाथ ने के चाक का बाधार कीली है, चाक पर रखे हुए मिट्टी के अपने चातुर्माम में (परिग्रह में) ब्रहचर्य को सम्मिलित पिंड से जैसे विविध रूप बनते हैं । इसी प्रकार ससार कर दिया था।
रूपी चाक का आधार स्त्री है, जीव उससे सम्बन्धित अनेक अतः केवल मैयन के अभाव को ही ब्रह्मचर्य मानना प्रकार के विकार करके चारो गतियों में भ्रमता है।" या कहना युक्ति सगत नहीं है। आचार्यों को भी ऐसी इसी धर्म की रक्षार्थ केवली जम्मू स्वामी नव-विवाहिता भावना नहीं थी। इस धारणा से तो ऐकोन्द्रय जीवो को पत्नियों को हम दीक्षत हुए थे। भी ब्रह्मचारी मानना पड़ेगा । आचार्यों के कवन मे उक्त इम धर्म के सम्बन्ध में मुख्यतया पुरुष को सकेत कर भावना अन्तनिहित रही ज्ञात होती है कि ब्रह्मवर्य की कहा गया है, परन्तु पुराणो में ऐसे कथानक भी उपलब्ध साधना के लिए सभी इन्द्रिय विषयो का त्याग अपेक्षित हैं जहां नारियों ने पुरुषो को शील से च्युत करने का है। आचार्य उमा स्वामी ब्रह्मवर्य सम्बन्धी अनाचार और प्रयास किया है । सेठ सुदर्णन के ऊपर झूठा आरोप रानी भावनाओं का उत्लेख क्यों करते यदि उनकी या परमाग · ने लगाया ही था, उस माती भी लगवा ६ थी किन्तु सेठ गत अन्य आचार्यों की दृष्टि मे स्पर्शन इन्द्रिय विषय के के ब्रह्मचर्य का महा म्य था कि शूली भी फूत की सेज बन सेवन का त्याग ही ब्रह्मचर्य होता हो ।
गई थी। इसी प्रकार गीता के लिए अग्नि कुण्ड, नीर हो सारांश यह है कि ब्रा को साधना ज्ञान के बिना गया था। अन. आवश्यक है कि जीवन सफल बनाने के नही । अतः हम रवाध्याय करें। ब्रहमवत्र से ही जीव लिए ब्रहमचर्य व्रत को धारण करें, यही है इस धर्म के ससार से पार होता है। उसके बिना व्रत तर सब असार उपदेश का मार।
सन्दर्भ-सूची १. उत्तम क्षमामादंवा वशीचसत्यसयम तपस्त्यागाकिंचन्य जन्मवर्मसु कण्डूति जनयन्ति तथा विधाम् । ब्रहमचर्याणि धर्मः तत्वार्थ सूत्र: अध्याय ६, सूत्र ६।
प० बलभद्र जैन, अहिंसाध्वनिः पृ. २३२ टिप्पण-२ २. देशयामि समीचीनं धर्म कर्म निबर्हणम्
१०. सोऽस्ति स्वदार सन्तोषी योऽन्यस्त्री प्रकटस्त्रियो संसार दु:खतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥
न गच्छत्हसो भीत्या नान्यर्गमयति विधा। रत्नकरण्ड श्रावकाचारः श्लोक २
पं० आशाधर जी, मागार धर्मामृत; ४/५२ 1. शुक्रवाणी : ई० १९७६, पृष्ठ ८
११. स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्ग निरीक्षण पूर्व रता. ४. पं० दौलतराम छदढालाः ढाला १ पत्र २
नुस्मरण वृत्येष्ट रसस्वशरीरं सस्कार त्यागा: पंच ।
तत्वार्थ सूत्रः अध्याय ७, सूत्र; ७; ५. तत्वार्थसूत्र: अध्याय ७, सूत्र १६
१२. परविवाह करणेत्वरिका परिगृहीतापरिग्रहीता गम६. यवेदरागयोगान्मथुनमभिधीयते तदब्रहम
नानग क्रीडाकामतीवाभिनिवेशा: । -पुरुषार्थसिन्युपायः श्लोक १०७;
वही, अध्याय ७, सूत्र २८और सागारधर्मामृत: ४/५% ७. महकुमचन्द्र भारिल्ल, धर्म के दश लक्षण : उत्तम ब्रहमचर्य टिप्पण-१-२
१३. बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमयकर्षति
उपदेश दृष्टान्त मालिका : भाग २' पृ०६० ८. हिंस्यन्ते तिलनाल्यो तप्तायसि विनिहते तिलायत
१४. दिता तपति तिग्नांशूर्मदनस्तु दिवानिशम् बहवो जीवा योनी हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ।।
समस्ति वारणं भानोर्मदनस्य न विद्यते। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय: श्लोक १०८
पपपुराण : पर्व १०६, फ्लोक ५०१ ९. रक्तजाः कमयः सूक्ष्मा: मृदु मध्यादि शक्तयः
(शेष पृ०२२ पर)
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प्राधुनिक युग में जैन-सिद्धान्तों का महत्त्व
डा० (कुमारी) सांवता जन,
बीसवीं शताब्दी मे भी जैन-धर्म के मूलभूत सिद्धान्त जिसमे सामान्यतः व्यक्ति अपरिचित होता है और वही उतने ही महत्वपूर्ण एवं सार्थक हैं जितने कि आदि तीर्थकर समस्त मानसिक विकारो के मूल मे किसी न किसी रूप श्री ऋषभदेव के समय मे थे, बल्कि आज के इस अति में निहित होता है । जैन-दर्शन में दृष्टि को अन्तर्मुखीकर, भौतिकवादी एव यान्त्रिक युग में जबकि आणविक विनाश भेद-विज्ञान द्वारा उसे 'पर' से विमुख कर 'स्व' को जानने के काले बादल हर क्षण हर व्यक्ति के सिर पर मंडराते और पहचानने पर विशेष बल दिया गया है । फायड, रहते हैं इनकी चहुंमुखी उपयोगिता इन्हें और भी अधिक एडलर और युंग जैसे मनोविज्ञान वेत्ताओ का मनःविश्लेअर्थवान एवं महत्वपूर्ण बना देती है।
षण (Psycho-analysis) इससे भिन्न नहीं हे अपितु 'स्व' जैन धर्म के मूलभूत सिद्धान्त न केवल व्यक्तिगत के इस विश्वेषण की पहली सीढ़ी मात्र है। अपितु राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी आधुनिक कार्ल मार्क्स ने जिस सम वितरण की चर्चा की है वह युग को समस्याओं को सुलझाने मे फ्रायड, मासं अथवा जैन-धर्म के मूलभूत सिद्धान्त अपरिग्रह का ही एक छोटालेनिन जैसे विचारकों के सिद्धांतों से कही अधिक उपयोगी सा अंश मात्र है। किसी भी भौतिक वस्तु का आवश्यकता सिद्ध हो सकते हैं क्योंकि इन अयवा इन जैसे अधि।शि से अधिक सचय न केवल व्यक्ति के नैतिक पतन के लिए विद्वानों की दृष्टि एकांगी थी जबकि जैन-दर्शन अपनी उत्तरदायी होता है अपितु समाज में वर्ग-भेद को भी जन्म अनेकान्तवादी दृष्टि के कारण किसी भी समस्या को हर देता है । ऐश्वर्य अथवा सत्ता की लालसा न केवल भाईसम्भव दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करता है। भाई के बीच दीवार खड़ी कर देती है अपितु दो राष्ट्रों
सर्वोदय को आज लोग गांधी जी की देन मानते है को भी युद्ध के भयानक कगार पर ला खड़ा करती हैं। लेकिन आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व जबकि समाज आइंस्टाइन के सापेक्षता के सिद्वान्त और अनेकान्तवाद में वर्णाश्रम व्यवस्था का बोलबाला था और शूद्रों को न मे भी मूलतः एक ही विषय को वैज्ञानिक तथा दार्शनिक केवल मानव के सामान्य अधिकारो से वंचित कर रखा दृष्टिकोणो के अन्तर से भिन्न शब्दावली मे, भिन्न रूपों था अपितु उन्हें पतित मानकर अन्याय, दमन और शोषण मे प्रस्तुत किया गया है। के कुच में पीसा जा रहा था, महावीर ने मानव-मात्र सह-अस्तित्व की भावना तथा अनेकता में एकता की की समानता का सन्देश देते हुए सबके उदय का जयघोष स्थापना आज राष्ट्रीय एकता की अखंडता के लिए अत्यकिया था।
धिक आवश्यक है। जैन धर्म का प्राण तत्व है अहिंसा जो इसी प्रकार यदि गहराई से जन-दर्शन एवं सिद्धान्तों न केवल व्यक्तिगत स्तर पर जीवन की विभिन्न समस्याओं का अध्ययन किया जाय तो फ्रायड का मनोविश्लेषण, को सुलझाकर मानव को एक उदात्त धरातल पर प्रतिष्ठित मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद, आइंस्टाइन का सापे- कर सकता है अपितु 'वसुधैव कुटुम्बकं' की भावना को क्षता का सिद्धान्त, जिन्हें हम आज के युग की महत्त्वपूर्ण जागृत कर विश्वशान्ति की सम्भावनाओं को साकार रूप देन मानते हैं, सभी वहाँ किसी-न-किसी रूप में उपस्थित देने में सहायक हो सकता है। यहाँ 'अहिंसा' शब्द का मात्र मिलेंगे । आधुनिक मनोविज्ञानवेत्ता फ्रायड के मतानुसार अभिधापरक अर्थ न लेकर उसे इतने अधिक विस्तृत रूप हमारे अन्तर्गत का ३/४ हिस्सा बचेतन में छिपा हुआ है, में ग्रहण किया गया है कि उसमें 'स्व' और 'पर' की सीमा
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२२, ०१ रेखा का लोप हो जाता है क्योंकि जब तक व्यक्ति सभी बालादित कर निर्भय बनाता है। प्राणियों को आत्मतुल्य नहीं समझेगा तब तक वह पूर्ण सह-अस्तित्व की भावना तथा अनेकता में एकता की अहिंसक नहीं हो सकता। जैसी भावना हम अपने प्रति स्थापना (अनेकान्तवाद) आज राष्ट्रीय एकता की अखंडता रखते हैं यदि वैसी ही दूसरों के प्रति भी रखें तो समाज के लिए अत्यधिक आवश्यक है। जैन धर्म के पंच महाव्रतों से शोषण एवं उत्पीडन स्वयमेव समाप्त हो जाएगा। द्वारा उन समस्त मानवीय वृत्तियों पर नियन्त्रण रखा जा सच्चा अहिंसक न केवल मानव-मात्र की समानता मे सकता है जो व्यष्टि एवं समष्टि सभी के लिए अहितकर हैं, विश्वास करता है अपितु संसार के लघुतम जीव के लिए जो व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य राग-द्वेष, हिंसा-षणा एवं ऊंचभी उसके 'उर से करुणा स्रोत' बहता है। ऐसे में जाति- नीच की दीवारें खड़ी कर देती हैं और सम्यक् दर्शन, ज्ञान भेद एवं वर्गभेद की दीवारों का खोखला होकर ढह जाना एवं चारित्र वे जगमगाते हुए अमूल्य रत्न हैं जिन्हें पाकर स्वाभाविक है।
और कुछ पाना शेष नही रह जाता, जो व्यक्ति की क्षुधा __ अहिंसा का अर्थ पलायन अथवा कायरता कदापि नहीं को सदा के लिए शान्त कर उसे अमरत्व की राह दिखाते है। अहिंसक तो निर्भय होकर जीवन-संग्राम से जूझता है । और सुख दुःख को समभाव से ग्रहण करता है, जिसके
आणविक युद्ध की विभीषिकाओं से आतंकित, अमानुलिए अपराजेय मनोबल, धैर्य और संयम की आवश्यकता षिक हत्याओं, चोरी-डकैती से संत्रस्त तथा दिनों-दिन है, जबकि इसके ठीक विपरीत कायर हिंसा को झेलने में।
बढ़ते भ्रष्टाचार के पाशविक पंजों में जकड़े, मुक्ति के लिए 'असमर्थ होकर प्रतिहिंसा से भर उठता है अथवा पलायन
छटपटाते आज के मानव के लिए जैन सिद्धान्त इसी प्रकार वादी बन जाता है। हिंसा का हिंसा द्वारा प्रतिकार उसकी
महत्वपूर्ण एवं शान्तिदायक सिद्ध हो सकते हैं जैसे रेत से सत्ता को स्वीकारना है जबकि अहिंसक के लिए उसका
तपती, जलती हुई मरुभूमि के मध्य निर्मल एवं शीतल जल अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। इसीलिए गांधी जी ने
का सुखद 'ओएसिस'। हिंसा की पूर्ण उपेक्षा ही उसका सही प्रतिकार माना था। अहिंसा और करुणा का मधुर संगीत प्राणिमात्र को
. ७/३५, दरियागंज नई दिल्ली
हा
(पृ. २०का शेषांष) १५. मत्तेभ कुम्भने भुवि सन्ति शूरा:
२२. दश लक्षण धर्म : शास्त्रि परिषद् प्रकाशन केचित्प्रचण्ड मृगराज वधेऽपि दक्षाः
२३. नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसा
नपुरे त्वभि जानामि नित्यं पादाभिनन्दनात् । कन्दर्प दर्प दलने विरला मनुष्याः ।
२४. नेणा सहुजि लन्भऊ भवपारउ, बभय विण तउजि • १६. ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि; दशलक्षण धर्म पूजा पृ०३१२ असारउ बंभन्वय विणु काकितोशो विहल लसय १७. शीलबाढ़ नीराखबह मभाव अन्तर लखो
श्रासियऊ विणेसो। एलाचार्य मुनि विद्यानन्द करि दोनों अभिलाख करह सफल नरभव सदा।
गुरुवाणी पृ०१६ वही :पृ. ३१२
२५. यत्संगाधारमेतच्चलति लषु च यत्तीषण दु:खौषधारम् १५. जीवलोकेऽवला नाम सर्वदोष महारवमिः
मृत्पिण्डीभूतभूतं कृतवहुविकृति प्रान्ति संसारछेकम् । कि नाम न कृते तस्याः क्रियते कर्म कुत्सितम् ।
ता नित्वं यन्मुमुनूर्यतिरमलकमतिः शान्तमोहः प्रपमयेपमपुराण : पर्व १०६ श्लोक २१७
ज्जामीः पुत्रीः सवित्रीरिव हरिणदशस्तत्परं ब्रहमचर्यम् १६. कानपीठ पूजाञ्जलि : दशलक्षण पूजा
पानन्दि पंचविशतिका : श्लोक १०४ २०.७० हरिलाल जैन, दश लक्षण धर्म हु० ७६
-जैनि विद्या २२. लेखक की गृहिणी सतक अप्रकाशित स्वना
श्री महावीर जी
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श्रुत-स्वाध्याय का फल
उष्ट्र देश के धर्मनगर का राजा यम सम्पूर्ण शास्त्रों हो, यम मुनि अपने इस कर्म की निर्जरा के लिए उपाय का जानने वाला बड़ा भारी विद्वान था। उसकी मुख्य पूछ तीर्थक्षेत्रों की वन्दना को अकेले ही निकल पड़े। रानी का नाम धनमती था। उसके दो सन्तान थीं । एक मार्ग में एक यव (जी) के खेत के पास से एक पहब पत्र जिसका नाम गर्दप था, और एक पुत्री जिसका नाम गधे के रथ पर चढा हा जा रहा था । सो वह कभी तो कोणिका था । राजा की और भी बहुत सी रानियां थीं, गधे को यव चगने के लिए उस रथ को खेत मे ले जाता जिनसे पांच सौ पुत्र उत्पन्न हुए थे। राज्य मंत्री का नाम और कभी बाहर ले आता था। यह देख कर यम मुनि ने दीर्घ था।
निम्नलिखित खण्ड श्लोक बना कर पढ़ा;एक बार एक निमित्तज्ञानी ने आकर कहा कि जो "कडलं पणणिक्खेवसि रे गहहा जब पच्छेसि बादि" कोई पुरुष कोणिका को ब्याहेगा वह समूर्ण पृथ्वी का
अर्थात् “रे मूर्ख, तू जवो को खिलाने के लिए गर्दभ स्वामी होगा। तब राजा यम ने इस डर से कि कमा वह को क्यो बार बार निकालता और पठाता है ?" मेरा भी राज्य न छीन ले, कणिका को एक भोहरे (भूमिगह) में छपा दिया। केवल एक दो सेवक इसको खाने-पीने
पश्चात् आगे चलकर दूसरे दिन मार्ग में कुछ बालक आदि की सार संभाल के लिए रख दिए गए, वे ही इस
खेल रहे थे, उनके खेलने की एक काठ की कोणिका किसी विषय को जानते भी थे। उन्हें इस बात की कठिन आज्ञा
गड्ढे में जा पड़ी । बालक उसको ढूढ़ने के लिए इधरथी कि इस विषय को किसी से न कहें।
उधर फिरने लगे। सो उन्हें देखकर यम मुनि ने एक
दूसरा खण्ड श्लोक पढ़ा :एक बार धर्मनगर में पांच सौ यतियों के सब सहित
"अण्णत्व किं पलोवसि तुम्हे एत्यम्मि श्री सुधर्माचार्य का आगमन हुआ । उनकी वन्दना के लिए
णिन्ब ड्डिया छिद्दे अच्छा कोणिया" सम्पूर्ण नगर निवासी बड़े उत्साह के साथ चले जा रहे थे।
बर्थात् "रे मूर्ख बालको, तुम यहां वहां क्यों ढूंढ़ते उन्हें देख कर राजा यम अपनी विद्या के घमण्ड में आकर
फिरते हो, कोणिका बिल में पड़ी है।" मुनियों की निन्दा करने लगा; और शास्त्रार्थ में हरा देने
पश्चात् वहां से चलकर एक दिन उन्होंने एक मेंढक के विचार से उनके पास गया । परन्तु जिस मतलब से वह
को अपने घर से कमल पत्र में छिपते हुए देखा। परन्तु वहां से चला था, उसे भूल गया । वहा पहुंचते-पहुंचते
जिस ओर को वह जा रहा था, उस ओर से एक सांप आ मुनिराज के प्रभाव से उसका घमण्ड जाता रहा, इसलिए
रहा था। तब आपने तीसरा खड श्लोक बनाकर पढ़ा:उसने सुधर्म गुरु को नमस्कार किया और धर्म श्रवण कर
"अम्हादो णत्थि भयं दीहादो भयं दीसते तुम्भ ।" अपने गर्दभ पुत्र को राज्य दे अन्य पांच सौ पुत्री सहित वह मुनि हो गया । कुछ काल में वे सब मुनि (पुत्र) तो अर्थात् "रे मेंढक, तुझे मुझसे भय नहीं करना चाहिये, सम्पूर्ण बागमों के पाठी हो गए, परन्तु यम मुनि को पंच- परन्तु दीहादि अर्थात् सांपादि से तुझे भय की संभावना नमस्कार का उच्चारण मन्त्र भी ठीक से नहीं आया। है।" इस प्रकार तीन खंड श्लोक बनाकर यम मुनि ने यह दशा देख गुरु ने बहुत निन्दा की। तब उससे लज्जित आगे गमन किया । और अन्य कोई पाठादि न माने
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२४, १८,कि.. से इन्हीं का स्वाध्यायादि करना प्रारम्भ कर दिया। आये, परन्तु हमको मालूम नहीं है, इसलिए कोणिका को अर्थात् जिस समय स्वाध्याय का समय होता, वे इन्ही तीन (पुत्री को) बतलाने के लिये आए हैं । देखो, वे कहते हैं संर श्लोकों का पाठ किया करते थे। निदान बिहार कि "अण्णथ किं पलोवसि तुम्हें एपम्मिणिबुढ़िया छिरे करते हुये वे धर्म नगर के बाग में जा, कायोत्सर्ग ध्यान- अच्छा कोणिया" अर्थात् यहां वहां खोज क्या करते हो, पूर्वक ठहरे। यह वही नगर था, जहा कि ये पूर्व में राजा कोणिका बिल में अर्थात् तहखाने में पड़ी है।" पश्चात थे।इनके आने की खबर सुन गर्दभ राजा और दीर्घमन्त्री जब मुनि ने तीसरा बण्डश्लोक पढ़ा, तब गर्दभ ने विचार ये दोनों यह समझ कर कि कहीं ये हमारा राज्य लेने को किया कि मुनि यह कहते हैं कि "अम्हादी गत्यि भयं न पाए हों, मारने को आये और यम मुनि के पीछे आ दीहादो भयं दीसते तुम्भ" अर्थात् मेरा भय कुछ नहीं है, बड़े हो गए। दीमत्री बार बार मारने के लिए तलवार तुझे दीहादि अर्थात् दीर्धादि से भय करना चाहिये" इससे उठाता परन्तु यह सोच कर कि व्रती का वध करने में जान पड़ता है कि दोर्ष मेरे साथ कुछ दुष्टता करेगा। बड़ा भारी पाप होता है, फिर रह जाता । और यही हाल बेचारे मुनि ती दयावान हैं। मोह के वश मुझे सचेत गर्दभ का था, अर्थात् वह भी इसी प्रकार तलवार उठा करने को आये हैं । इस प्रकार श्रदान करके वे दोनो मुनि शंकित चित्त हो रह जाता था। इसी समय मुनि के के पैरों पर गिर पड़े और धर्मश्रवण करके श्रावक होगये । स्वाध्याय का समय हुआ, अतएव उन्होंने अपने पूर्व रचित यह देख मुनि भी उत्कृष्ट वैराग्य को प्राप्त हुये और खम लोकों का पढ़ना प्रारम्भ किया और पहले प्रथम उत्तम चरित्र के प्रभाव से अणिमादि सात ऋविधारी हुए। खण्ड प्रलोक को पढ़ा। उसे सुन गर्दभ ने दीर्घ से कहा- पश्चात् कुछ दिनों में घोर तपस्या कर अष्ट कमों को खपा मन्त्री जी, मुनि ने हमको जान लिया । देखो, वे कहते हैं कर मोक्ष को चले गये। कि "कहढं पुण णिवखेवसि रे गद्दहा जव पच्छेसि बादिउ" सारांश यह है कि इस प्रकार ऐसे श्रुत-स्वाध्याय से अर्थात "रे गधे, बार बार क्यो तलवार निकालता है, भी यम मुनि मोक्ष को प्राप्त हुए, यदि दूसरे लोग भी और फिर क्यों भीतर कर लेता है।" पश्चात् मुनि ने श्रेष्ठ शास्त्रों का अभ्यास करें, तो क्यों न अभीष्ट पदको दूसरे खण्ड फ्लोक का पाठ किया । तब गर्दभ ने अनुमान पावें ? अवश्य ही पावें। करके कहा-मन्त्री जी, मुनि हमारा राज्य लेने को नहीं
-'पुण्यात्रव कथा कोश से
( आवरण पृष्ठ ३ का शेषांश ) १२. किसी के अवगुण को कषाय से मत देखो, हितको दृष्टिसे देखना कोई हानिकर नहीं। मात्मश्लाघाके लिए अच्छा कार्य करने का संकल्प मत करो। ऐसे कार्य करो जो लोगोंकी दृष्टि में मान पोषक न समझे जावें । आवेगमें आकर व्रत ग्रहण मत करो। प्रत ग्रहणका फल निवृत्तिमार्गकी प्राप्तिमें पर्यवसान हो । जो कार्य करो उसका फल उस कार्यकी सामग्री फिर न हो यही लक्ष्य रखना चाहिए।
(३०१४) ११.क्यों परकी ओर देखते हो? कोई कुछ करे तुम उस ओर लक्ष्य ही मत दो। यदि कोई तुम से कहे-बड़े अज्ञानी हो सुन कर शान्त रहो । शब्द वर्गणाएं पुगलका परिणमन हैं, उनका तादात्म्य पुद्गलसे है, वाम्यासे नहीं । वाच्या काल्पनिक है जिससे लौकिक व्यवहार चल रहा है।
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तीर्थकर महावीर और अपरिग्रह
श्री पाचन शास्त्री, नई दिल्ली हर साल महावीर जयन्ती मनाते हैं और गत दिनों कसौटी दी है। जैसे स्वर्ण को कसौटी पर कसकर उसके भी महावीर जयन्ती मनाई गई। यह सिलसिला काफी गुण-दोषों की परीक्षा की जाती है वैसे ही भगवान-रूप की वरसों से चला आ रहा है। हमारी दृष्टि में यह सब पहिचान के लिए जैन-दर्शन में 'अपरिग्रह रूप कसौटी का दिखावा लोक-रजन के लिए ही हो रहा है। आज प्रचलित निर्धारण किया गया है। जो अपरिग्रही हो वह शुद्ध और रीति के लोगो ने महावीर को न जाना है और ना ही जो परिग्रही हो वह अशुद्ध होता है। अब यह आपको जानने की कोशिश को है। लोगो को तो जयन्ती ऐसा देखना है कि भगवान महावीर शुद्ध थे या अशुद्ध? उत्सव बन कर रह गया है, जिसके माध्यम से उनका मन
जहां तक वाह्य अम्बरादि परिग्रह का प्रश्न है, सभी तुष्ट हो जाता हो। वरना, इनसे कोई पूछे कि महावीर
३ पूछ कि महावार मानते हैं कि तीर्थकर महावीर केवलहान अवस्था (जिसके का क्या रूप था; उनके क्या उपदेश थे? तो ये उन्ही कारण वे सर्वज्ञ भगवान कहलाए) में पूर्ण अपरिग्रहीबातों को दुहराएंगे जो चिरकाल से इनके दिमागो मे
नग्न ही थे। दिगम्बरों के अनुसार दीक्षा काल से ही और घर किए हुए हैं और जिनके मूल में साम्प्रदायिक पक्षपात श्वेताम्बरों के अनुसार केवलज्ञान प्राप्ति के १०-११ वर्ष का भाव है। कोई कहेगा-वे श्वेताम्बर थे तो कोई
पूर्व से। कहा भी है-'समणं भगवं महावीरे संबच्छर कहेगा वे दिगम्बर थे। कोई कहेगा कि-महावीर हमारे माहियं मासं ताबीवर बारी हत्या। तेणं पर अचेले थे और कोई कहेगा हमारे थे। सभी की मान्यता है कि जितियाहिए।'-कल्पसत्र। अन्तरंग परिग्रह त्याग के महावीर ने अहिंसा का झण्डा गाड़ा-'अहिंसा परमो विषय में जैन के सभी पन्थों में परस्पर सामंजस्य हैधर्म:' उनका मूल नारा था, आदि ।
सभी मानते हैं कि वे वीतरागी थे। जब हम उक्त बातों पर विचार करते हैं तो यह बात पर, जब हम वीतराग 'जिन' और उनके धर्म 'जैन' तो निर्विवाद मिद्ध होती है कि केवली अवस्था मे तीर्थकर को बात करते हैं तब हम पहिचान करने में जिन-मार्ग से महावीर सर्वथा दिगम्बर थे। उनम भौतिक अम्बर या स्खलित हो जाते है। तत्कालीन स्थिति के प्रभाव में हम अम्बरान्तरों की कल्पना सर्वथा ही मिथ्या है। यत: जैन- कभी कहते हैं-'महावीर ने अहिंसा का उपदेश दिया। धर्मानुसार प्रत्येक वस्तु अपने में पूर्ण होती है, अपनी कभी सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का उपदेश स्वतत्र सत्ता रखती है, उसमें 'स्व' के सिवाय पर का प्रवेश दिया ऐसा कहते हैं । गरज मतलब यह कि, हम जैसा सर्वथा ही नहीं होता। एतावता न कोई वस्तु स्वाभाविक अवसर देखते हैं तदनुरूप कल्पनाओं में महावीर का रूप में मलिन है और न न्यूनाधिक है। भला सोचो, जब हम उपदेश फलित करने लगते हैं और वैसा प्रचार करने महावीर को पूर्ण और भगवान मानने चले है तब क्या हम लगते हैं और यह भूल जाते हैं कि वीतरागी महावीर इसे पसन्द करेंगे कि वे मलिन, न्यून या अधिक जैसे कुछ वीतरागता के कारण ही अहिंसक बने, उनमे सत्य, हों। यदि वे मलिन थे तो भगवान कैसे? न्यून थे तो अचौर्य, ब्रह्मचर्यादि धर्म भी वीतरागी-अपरिग्रही केवलज्ञानी कैसे? और अधिक थे तो पर-सयुक्तरूप में होने से ही फलित हुए। काश, वे परिग्रहधारी रहे स्व-स्वभावी कैसे?
होते तो न उनमें अहिंसा हाती न सत्य, अचौर्य और ब्रह्मउक्त सभी बातों के निर्णय के लिए जैन धर्म ने एक चर्य ही होते । फिर, "जिन' और 'जन' में अन्यों से कुछ
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बनेकान्त
ऐसी विशेषता तो होनी ही चाहिए जो औरों में न हो। अपरिग्रह का पाठ रक्खा जिसे हमने भुला दिया और उसके सो यह विशेषता है-उनका अपरिग्रही होना। जब फलीभूत अहिंसादि धर्मों में अटक गए। संमारी मत-मतान्तर अहिंसा, सत्य अचौर्य और ब्रह्मचर्य
अपरिग्रह को गौण करके अहिंसा, दया आदि को पर जोर देते हैं तब जैनधर्म इन सबके मूल अपरिग्रह को
प्रधान बताने में मानव की एक और कमजोरी कारण बनी प्रमुखता देता है, यही 'अपरिग्रह' महावीर का मार्ग है
मालुम होती है और वह कमजोरी है-मनुष्य का विषयशेष अहिंसादि सभी इसी पर आधारित हैं।
वासना का कीड़ा बनना, इन्द्रियों का दास बनना । वासनास्थिति ऐसी है कि आज हम मोक्षमार्ग को बिसराकर
सक्त प्राणी जब अपने को विषयों का दास बना बैठता है सांसारिक वासनाओं के कीड़े बन चुके हैं और सांसारिक
तब वह भौतिक परिग्रह आदि सामग्री को त्यागने से कतप्राणियों की हाँ में हां मिनाए बिना हमारा गुजारा नहीं
राता है - उसे नहीं छोड़ पाता और छोड़ना नही चाहता। चल सकता । फलत.-हम नीति से काम लेने के अभ्यासी
फलतः वह धार्मिक बने रहने का कोई अन्य मार्ग दंढ़ता है। जैसे बन गए हैं। जब कि नीति-राजनीति और धर्म आपस
प्रतीत होता हैं कि बाद के जन-नामधारियों ने ऐसा ही में बहुत दूर; यहां तक कि परस्पर विपरीत दिशाओं के
मार्ग अपनाया। उन्होंने सोचा कि हमे कुछ छोड़ना भी मार्ग हैं। उदाहरणत:-लोक मे नीति है कि पानी में रह
न पड़े और हम सम्ते मे धर्मात्मा, दयालु और दानी बन कर मगर से बैर नही किया जाता-'मगर' जैसे हिंसक
समाज में प्रतिष्ठित होते रहें। बस, उन्होने मूल नारे को प्राणी को अमलियत जानते हुए भी उसे भइया, दहा आदि
अहिंसा जैसे गौण नारो मे विलीन कर दिया। इसके लिए जैसे संबोधन देने पड़ते हैं। पर इससे मगर का मगरपन
वे अहिंसादि का सूक्ष्मरूपता में विवेचन कर दूसरों से तो छूट नहीं जाता। हां, उसकी झूठी प्रशंसा से भौतिक
अपनों को ऊंचा मानने का प्रयल भी करने लगे। इससे वे प्राण-रक्षा अवश्य हो जाती है। उसी प्रकार स्वार्थ-वामना
लाख के दो लाख बनाते रहे और बढी धनगशि का प्रेरित मनुष्य जब दूसरों में बैठता है तब वह अपनी हृदयगत कमजोरी छुपाने या यश-प्रशंसा आदि के लालच सूक्ष्मांश दया, अहिंसा आदि के नाम पर दान करके में दूसरों की हां मे हां मिलाता है और अपरिग्रह धर्मात्मा बनने के अभ्यासी बनने लगे। आज स्थिति ऐसी को गोण कर उससे फलित जैन के अहिंसादि को प्रमुखता है कि वे परिग्रह के पुन बनकर रह गये और महावीर
'जिन' का धर्म-आरिग्रह उनसे दूर जा पड़ा। दूसरे शब्दो देने लगता है। ऐसा करने से यद्यपि यह क्षणिक या दीर्घ
में ऐसे समझिए कि परिग्रही धर्मभीरु लोग महावीर के सांसारिक लाभ तो प्राप्त कर लेता है पर अपना मूल-धर्म गंवा बैठता है। हाँ मे हाँ मिलाना, तो मुंह-देखी कहना
अपरिग्रही वीर-धर्म के ठेकेदार बन गए। इससे सबसे बड़ी हा, पगवलनन हुआ, और हआ राजनीति प्रेरित हानि यह भी हुई कि अपरिग्रह जैमा मूल धर्म लप्त जैसा नोकिक-रक्षण । जबकि धर्म स्वावलम्बी और पारलौकिक हो गया । काश, लोगो ने ऐना न २ र अपरियट को . सुख प्राप्ति का माधन है। यदि हम हां मे हो मिलाने की खता दा होती तो लोगो मे सयम भी होता और वे सचय वजाय हिम्मत के साथ अपनी मूल बात कहें तो हमारे के विविध आयामो--टैका चोरी, ब्लैक मार्केटिंग आदि से
को भी बचे रहते । जी धर्म का प्रभाव भी होता और देश मे हमारी मूल बात है-अपरिग्रह और इस अपरिग्रह से वे अधिक सुख-शान्ति भी होती। लोगो मे सवय-भावना न सब बातें स्वयं फलित हो जाती हैं जिन्हें सर्वसाधारण होती और सब सुखी होते।। अहिमा आदि के रूप में कहते हैं। यदि प्राणी अपरिग्रही अपरिग्रह-धर्म को भुलाने से आज स्थिति ऐसी बन गई होगा तो उसमें अहिंसा, सत्य, अत्रौर्य, ब्रह्मचर्य आदि स्वयं है कि धर्म की वह बागडोर जो कभी साधु-सन्तों और ही होगे। इसीलिए वीतराग भगवान ने जीवो के समक्ष विद्वानों के हाथो मे थी, वह धन के हाथो जा पड़ी है और अपने साक्षात् दिगम्बर-रूप द्वारा और उपदेश द्वारा भी जिसका फल धर्म-ह्रास के रूप मे सामने है। यदि हमें
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तीर्थकर महावीर और अपरिग्रह महावीर के सच्चे अनुयायी और सच्चे जैनी बनना है तो हमारी दृष्टि से तो जिन पर पराया कुछ नहीं होता वे हमे 'अपरिग्रहवाद' पर बल देना पड़ेगा और अपरिग्रही वीतराग सर्वज्ञ देव ही सबसे बड़े दानी है। भला, शान साधु-सन्तों के चरणों में जाना पड़ेगा-अपने को उनके दान से बड़ा दान क्या होगा और शान-संचय से बड़ा भांति ढालना होगा-उन्हें अपने हाथो का खिलौना बनाने सवय क्या होगा? इन सब प्रसंगों से यही सिद्ध होता है से भी वाज आना होगा। जो लोग आज सच्चे साधु की कि श्रावक परिग्रह का परिमाण करे और साधु पूर्णत्याग पहिचान करने पर जोर दे रहे हैं-उन्हें भी पहिले स्वय को करे। यह तो हम पहिले ही लिख चुके हैं कि अपरिग्रह से पहिचानना होगा कि-सच्चा थावक कौन ? परिग्रह बढ़- अहिंसादि सभी धर्म स्वय फलित हो जाते हैं। तीर्थकर भी वारी का धनी या परिमाण में रहने वाला?
दीक्षा के समय पहिले सब परिग्रह छोड़ते हैं। तब बाद में 'अपरिग्रह-वाद' को गौण करने की हानिरूप में हम अन्य व्रत धारण और पचमुष्टि लोच आदि करते हैं । पिछले दिनों, सोनगढ़ी कान जी भाई, जो परिग्रही थे, पहिले वे पर-निवृत्ति के भाव से ओत-प्रोत होते है तब उनको तीर्थकर प्रचारित करने की लीला देख ही उनका पर से लगाव छूटता है और तभी बाद मे उनमें चके हैं। और आगे शायद चम्पावेन को भी किसी रूप में अहिंसादि महाव्रतों का संचार होता है। देखें। हमारा तो निवेदन है कि यदि 'जैन' को जीवित रखना है तो सोनगढ़ ही क्यो? कान जी जैसी स्थापित आग्रही लोगों का मत हो, कि जैन दर्शन अनेकान्तात्मक सभी अन्य शाखाओ से भी हम सतर्क रहें। और कान है। फलतः आचार्यों ने जब जिसको आवश्यक समझा मुख्य जी पन्थ के सभी अनुवादों, आयामो व विचारो को अपनी कर लिया और अन्य को गौण कर लिया। अहिंसादि पांचों कसोटी पर कसें । महावीर के अपरिग्रहवादी धर्म को व्रतों को भी उसी पद्धति से प्रधानता और गौणता देनी सुरक्षित बनाने में यह उपाय भी परम महायक सिद्ध हो चाहिए। स्व प. श्री जुगलकिशोरजी 'मुख्तार' ने जनहितैषी सकेगा, ऐसा हमारा अनुमान है।
(अगस्त १९१६) मे एक लेख लिखा था 'जैन तीर्थंकरों आगम मे सम्यक् श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र को माक्ष का शासन भेद' और इसके बाद वि० स० १९८५ मे एक मार्ग कहा है और श्रावक से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। पुस्तक प्रकाशित की थी-"जैनाचार्यों का शासन भेद।" जो श्रावकाचार मे अभ्यस्त होगा वह सहज रीति मे इस इनमे उन्होने अनेक प्रसंगों द्वारा प्रसिद्ध किया था कि मार्ग पर बढ़ने में भी समर्थ हो सकेगा और मुनि भी सहज धर्मोपदेश के माध्यमो और क्रमो मे समय-समय पर परिबन सकेगा। श्रावक शब्द के श्रा, ब, क, तीनो वर्ण हमे वर्तन होते रहे हैं। जैसे प्रयम और अन्तिम तीर्थंकर के इंगित करते हैं कि हम श्र-श्रद्धावान्, व-विवेकवान् रामय मे छेदोपस्थापना और बीच के २२ तीर्थकरो के समय
और क-क्रियावान् अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से मे सामायिक चारित्र का प्राधान्य रहा। ऐसे ही अष्टमूल पूर्ण हों। अब जरा सोचिए, जो सम्यग्दर्शन सम्पन्न- गुण आदि की नामावलि मे भी भिन्नता रही आदि । तत्त्वों का श्रद्धालु होगा, जिसे भली भाति तत्त्व स्वरूप का उक्त आधार को लेकर कुछ लोग अहिंसादि व्रतो मे भी ज्ञान होगा, जो सम्यक् प्रकार सच्चारित्र पालन के प्रति प्रधानत्व और गौणत्व मे बदलाव की कल्पना करते हो जागृत होगा वह परिग्रह की बढ़वारी करेगा या उसका और कहते हों कि समयानुसार कभी अहिंसा को, कभी परिमाण करेगा? हमारी समझ से तो परिग्रह-सचय करना सत्य या अपरिग्रह आदि को प्रधानता मिलती रही है, यतः मूढ़ता ही है। जो लोग ऐसा सोचते हो कि संग्रह से त्याग उनकी दृष्टि मे सभी परस्पर मापेक्ष है, इनमे कोई निश्चित का मार्ग सरल होता है-जितना अधिक होगा उतना ही एक ही प्रधान नहीं है आदि। ऐसे विचारकों को मूल अधिक दान-कर्म किया जा सकता है। ऐसे लोगो से भी कारण प्रमाद तथा जैन और जैनत्व के अर्थ और भागे हमारी प्रार्थना है कि-कीचड़ में सानकर पैर धोने से तो की गहराई को छूना चाहिए और यह भी देखना चाहिए यह ही उत्तम है कि कीचड़ में पैर साने ही न जायें ।
(शेष पृ. ३२ पर)
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विचारणीय प्रसंग
अपरिग्रह और उत्कृष्ट ध्यान
अपरिग्रहत्व से तात्पर्य है-मात्र "स्व" और ऐसे 'स्व' से जिसमें पर - परिग्रह का विकल्प ही न हो। अरहततीर्थकर अपरिग्रही पूर्ण दिगम्बर हैं 'स्व' में विराजमान और 'स्व' रूप मे स्थित भी । ज्ञान रूप आत्मा के सिवाय उनका स्व तत्व अन्य कुछ नहीं—वे ज्ञाता दृष्टा कहलाते हैं सो भी परकीय दृष्टि से ही । क्योंकि उनमें पर की कल्पना को अवकाश ही नहीं होता। जो पदार्थ उनके ज्ञान में प्रतिविम्बित होते हैं वे भी अपनी, पदार्थ की सना मात्र
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हो प्रतिविम्बित होते हैं - केवली के ज्ञान से उन पदार्थो की सत्ता का तादात्म्य नही— मात्र ज्ञेय-ज्ञायक भाव है और वह भी व्यवहारी है । क्योंकि स्व-वस्तु किसी विकल या कथन की चीज नहीं, मात्र अनुभव की चीज हैसर्वथा अनुभव की । आश्चर्य है कि उक्त वस्तु-स्थिति में भी हम स्वत्व - दिगम्बरत्व - अपरिग्रहत्व के अर्थ से अजान हैं और दिगम्बरत्व या अपरिग्रहत्व को मात्र बाह्य शरीरादि के आधार पर पहिचानने में लगे हुए हैं - मात्र निर्वस्त्र को दिगम्बर मान रहे हैं और उसे अपरिग्रही कह रहे हैं । खैर, कोई हर्ज नहीं; हम निर्वस्त्र को अपरिग्रही या दिगम्बर मानते रहें पर वस्त्र का भाव अवश्य हृदयंगम करें : वस्त्र (वेष्टन) आवरण का द्योतक है जो असलि यत को आच्छादित करता है-उसे प्रकट नहीं होने देता । उक्त भाव में स्व-रूप से भिन्न मभी दशाएं वस्त्र से आच्छादित जैसी हैं-सवस्त्र रूप ही है। इसी आच्छादन करने वाले सत्त्व को जेन-दर्शन में परिग्रह नाम से सम्बोधित किया गया है और इससे मुक्त रहने का पाठ दिया गया है । इस दर्शन में अपरिग्रही को पूज्य माना है क्योकि वह ही निर्दोष है और वह ही स्व-स्वभावी सर्वज्ञ दशा में स्थित होने में समर्थ है। कहा भी है-यस्तु न निर्दोष: स
श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, ई दिल्ली
न सर्वशः । आवरण रागादयोदोषास्तेभ्यो निष्क्रान्तत्वं हि निर्दोषत्वम् ।' -जो निर्दोष नहीं है वह सर्वज्ञ नहीं है और रागादि अन्तरग व धनादि बहिरंग आवरणों परिग्रहों से रहित होना ही निर्दोष है। और जैनागम में शुद्धात्मा को ही निर्दोष कहा है- 'स त्वमेवासि निर्दोषो युक्ति शास्त्राविरोधि वाक्।' इसी निर्दोषता को लक्ष्य कर १८ दोषों को भी स्थूल रूप मे दर्शाया गया है'छुत भीरुरोसो रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू । स्वेदं खेदं मदो रइ विम्यिणिद्दा जणु वेगो ॥ - नियमसार ६ । जम्बूदीपणत्ति और द्रव्य संग्रह टीका आदि मे भी इन दोषों का खुलासा है और ये सभी दोष स्व-स्वभाव न होने से पर - परिग्रह हैं - जिनसे आत्मा की अनन्त शक्ति आच्छादित होती है ।
हम यहां जैन मान्य उन अपरिग्रह की बात कर रहे हैं जिसमें जैनत्व व्याप्त होकर निवास करता है और जिससे जैनत्व जीवित रहता है । परिग्रह की बढ़वारी कर जैनी बने रहने का प्रयत्न करना मुर्दे मे हवा देकर उसे जीवित मानने जैसा है । मृत शरीर वायु से फूल सकता है, हिल भी सकता है। पर वह हिलना उसका जीवित होना नहीं होता मात्र पोद्गलिक क्रिया होती है ! ऐसे ही परिग्रह की बढ़वारी के प्रति जागृत जीव की बाह्य पर क्रियाएं भी जेनत्व की साधिका नहीं । क्योकि सारा का सारा जेनत्व परिग्रह को होनता में समाहित है. फिर चाहे वह परिग्रहहीनता अहिंसा में आती हो, सत्य या अचौर्य आदि में आती हो । यदि अहिंसादि के मूल में अपरिग्रहत्व की भावना नहीं तो सब व्यर्थ है। और यहाँ अपरिग्रहत्व से तात्पर्य राग-द्वेषादि कषायों के कुश
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अपरिग्रह और उत्कृष्ट ध्यान करने से और वाह्य-संग्रह की मर्यादा और त्याग आदि से अपरिग्रहत्व है-जैसा कि ध्यान में होता है या होना है। स्मरण रखना चाहिए कि सब व्रत-क्रियाएं आदि भी चाहिये । क्योंकि ध्यान और अपरिग्रहत्व दोनो में अन्यत्वपने तभी सार्थक हैं जब वे अपरिग्रह की भावना और अपरि- का अभाव होने से संवर-निर्जरा है। जबकि अन्य चिताबों ग्रही-क्रियाओं से अपरिग्रह की पुष्टि के लिए हों। से हटकर मन का एक और लक्ष्य होने में भी चिंतन रूप
हमारी भूल रही है कि हम अन्य व्रत आदि की क्रिया विद्यमान होने से आस्रव है-'कायवाग्मनः कर्मयोगः' क्रियाओं को (वह भी दिखावा रूप में) जैनत्व का रूप 'स आस्रवः। भले ही मन एकाग्र हो जाय-वह चिन्तन देने में आमत औरामति से नाता क्रिया तो करेगा ही। और जहां चितन रूप क्रिया होगी तोड़े हुए हैं। आज देश का जन-जन दुखी है वह भी परि- वहां आस्रव होगा ही। मन की क्रिया (चिन्तन) का नाम ग्रह की ज्यादती या लौकिक अनिवार्य पतियो के अभाव हा ती चिता है। यदि चिता-चितन क्रिया है तो योग है मे दुखी हैं । हिंसादि सभी प्रवृत्तिया भी परिग्रह से तथा आर याग का आस्रव कहा है, जो निर्जरा-प्रसग-गत परिग्रह की बढ़वारी के लिए ही की जा रही हैं । आश्चर्य के लक्षण से मेल नही खाता । प्रसग मे तो उसी ध्यान से है कि सरकार ने भी परिग्रह की बढ़वारी को किन्ही तात्पर्य है जो सवर-निर्जरा में हेतु हो। हम पुनः स्मरण अपराधो की परिधियों में नहीं बांधा । भारतीय दंडसहिता करा दें कि मन का कार्य चिंतन है और चितन कम होने से मे हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील के लिए जमे दंड निर्धा- आस्रव है । इस विषय में किसी समझौते को खोज कर रित है, वैसे परिग्रह की बढ़वारी की रोक के लिए शायद अन्य निर्णय सर्वथा अशक्य है। ही कोई धारा हो। यदि सरकार ने जैन मूल-सस्कृति सभी जानते हैं कि पूज्य उमास्वामी जी ने तत्वार्थअपरिग्रहत्व से नाता जोड़ा होता-ऐसी कोई धारा सूत्र के छठवें अध्याय से आठवें अध्याय तक आस्रव-बंध का निर्धारित की होती जो परिग्रह-परिमाण पर बल देती और नवम अध्याय मे संवर-निर्जरां का वर्णन किया है। होती-अति-परिग्रहियो के लिए दण्ड विधान करती होती इनमे पहिले उन्होने मन-वचन-काय की क्रिया को मानव तो देश को त्रास से काफी हद तक छुटकारा मिला होता। और फिर उसके निरोध को संवर कहा है। और इसी तब न हर कोई हर किसी के भाग पर कब्जा करता होता प्रसंग में नवम अध्याय मे ही तप को संबर और निर्जरा और न ही टैक्सो की चोरी आदि जैसी बातें ही आई होती। दोनो का कारण कहा है । और ध्यान की गणना तपों में व्यक्ति की सचय सीमा निश्चित होती और परिवार भी कराई है। इसका भाव यही है कि प्रसंग में ध्यान वही
में मदद कर पाते । इसमे (निरोध) है जो सवर-निर्जरा में कारण हो । ऐसे में ध्यान एक घर सम्पदा से अनाप-शनाप भरा और दूसरा सम्पदा के शुभ-अशुभ या मार्त-रौद्र जैसे भेदों को इसमें स्थान ही से सर्वथा खाली न होता । जैसा कि वर्तमान मे चल रहा कहो है जो उन्हें इस ध्यान में शामिल किया जा सके या है और जो जनसाधारण को परेशानी का कारण बन रहा प्रसगगत ध्यान (चितानिराध) को शुभ-अशुभ के मानव में है। अस्तु ।
कारण माना जा सके । वे दोनों और निचली दशा के यहाँ हम यह कहना भी उचित समझते हैं कि जिस मनोगत भाव-अ-त-रौद्र तो आस्रव ही हैं। ध्यान को तत्त्वार्थ सूत्र के नवम अध्याय के २७वें सूत्र द्वारा इसके सिवाय ध्यान के फल का जो वर्णन है और जो दर्शाया गया है वह ध्यान भी अपरिग्रह मूलक और संवर- स्वामी का वर्णन है उससे भी स्पष्ट पता चलता है कि निर्जरा का साधक ही है । दूसरे रूप में यह भी कह सकते प्रसंग मे ध्यान संवर-निर्जरा का ही कारण है और वह हैं कि-अपरिग्रहत्व और वह ध्यान समकाल भावी और मिथ्यादृष्टि के नहीं होता । इसीलिए धवला में ध्यान के एक है। वैसा ध्यान तभी होगा जब अपरिग्रहत्व होगा- दो ही भेद कहे हैं-धर्य ध्यान और शुक्ल ध्यान । मोह की बिना अपरिग्रहत्त्व के ध्यान कसा? प्रसंग गत ध्यान के सर्वोपशमना करने से धर्म ध्यान को और शेष घातिलक्षण में 'अपने मे रह जाना' ध्यान है और वही पूर्ण अघाति का क्षय करने से शुक्ल ध्यान को ध्यान की श्रेणी में
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१० वर्ष १८ कि.. रखा गया। यहां इतना विशेष समझना चाहिए कि- हो। और जब अन्य स्वाभाविक हट गया तब 'निरोध' शब्द दोनों ही ध्यानों मे 'आप में रह जाना' ही सर्वथा इष्ट ही व्यर्थ पड़ जाता है। ऐसे में यदि आचार्य ऐसा कहते है.-कायवांग्मन की क्रिया करने से तात्पर्य नहीं। कि 'एकाग्र चिता ध्यानम्' तब भी काम चल सकता था। 'अट्ठावीसभेयभिण्णमोहणीयस्ससव्वुवसमा-बट्ठाणफलं पुषत्त- इससे मन की क्रिया (एकाग्र प्रवृति) को बल भी मिल विदक्क वीचार सुक्कज्माणं ।' मोहसम्वुवसमो पुण धम्म- सकता था। और चारों धर्म ध्यान भी ध्यान की परिभाषा ज्माणफलं । 'तिग्णधादिकम्माणं णिम्मूल विणासफलमेय- में आ जाते । फिर यदि आचार्य को कहना ही था तो वे तविदक्क अवाचीरमाणं'-धव. १३,५,४,२६ पृ.८०-८१। 'निरोध' के स्थान पर 'रोध शब्द से भी काम चला सकते
'अघाइ कम्म च उक्कविणासं (चउत्थ सुक्कज्झाणफलं) थे। क्योकि सूत्र ग्रंथ में वैयाकरण लोग आधी मात्रा के वही पृ० ८५ । ण च णवपयत्यविसयरुइ-पश्चय सदाहि विणा- कम होने पर भी पुत्रोत्पत्ति जैसी खुशी मनाते हैं-'अर्ध ज्झाण सभवदि।' वही पृ०६५।
मात्रा लाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः' । ऐसा मालम ___ अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय की सर्वोपशमना होने होता है कि यहां संवर-निर्जरा सम्बन्धी ध्यान के प्रसंग मे पर उसमें स्थित रखना पृथक्त्ववितकवीचार नामक शुक्ल आचार्य श्री को 'एक का चितवन और अन्य चितवन का ध्यान का फल है।
रोध' ऐसा अर्थ इष्ट नही था, इसीलिए उन्होने रोधके स्थान मोह की उपशमना करना धर्म ध्यान का फल है। पर 'निरोष' शब्द का प्रयोग किया और निरोध का अर्थ तीन घातिया कर्मों का विनाश करना एकत्ववितर्क शुक्ल है-नि:शेषेण-पूर्णरूपेण रोध । सभी प्रकार से सभी रीति ध्यान का फल है।
की क्रियाओं का रोध। चार अघातिया कर्मों का विनाश चतुर्थ शुक्ल ध्यान निरोध' को तुच्छाभाव मान उसके निराकरणार्थ का फल है । नव-पदार्थों की रुचि (श्रद्धा) के बिना ध्यान किसी चिंतन को पुष्ट करने मे लगे लोगों को राजवार्तिकनही हो सकता अर्थात् सम्यग्दृष्टि ही ध्यान का कार ने स्पष्ट रूप में संकेत दिया है कि निरोध तुच्छाभाव अधिकारी है।
नहीं अपितु भावान्तर रूप है। 'अभावो निरोध इति चेत्; सूत्र में ध्यान के स्वामी के निर्देश से तो यह और भी ना...' विवक्षार्थविषयावगमस्वभावसामापेक्षया सदेवेस्पष्ट हो जाता है कि प्रसंग में आचार्य को ध्यान का वही ति।'-उत्कृष्ट ध्यान की अवस्था मे आत्मा को लक्ष्य लक्षण इष्ट था जिसके द्वारा संवर-निर्जरा होकर मोक्ष बनाकर चिन्ता (मन की क्रिया) का निरोध किया जाता प्राप्त होता हो : यदि आचार्य को उक्त प्रसंग में आम्रवरूप है और वहां आत्मा का लक्ष्य आत्मा ही होता है-अन्य मन की क्रिया (एकाग्रत्व रूप ही सही) अर्थ अभीष्ट होता तो नहीं। यह भी ध्यान रहे कि इस उत्कृष्ट ध्यान के प्रसग मे वे सूत्र में 'उत्तम संहननस्य' पद को भी स्थान न देते। 'अय' शब्द भी आत्मावाची है। आचार्य यह भी कहते हैं क्योंकि चितवन रूपी ध्यान तो साधारण सभी संहनन कि ध्यान स्व-वृत्ति (आत्म-वृत्ति) होता है-इसमें वाह्यवालों और मिथ्यादृष्टियो तक को भी सदा काल रहता है। चिंताओं से निवृत्ति होती है-अङ्गतीत्यग्रमात्मेत्यर्थः ।
जब हम ध्यान के लक्षण-सूत्र पर विचार करते हैं तो द्रव्यातयकस्मिन्नात्मन्यग्रे चिन्तानिरोधो ध्यानम् । ततः सूत्र में 'एकाग्र चिता निरोध' ऐसा पद भी मिलता है। स्व-वृत्तित्वात् बाह्यध्येय प्राधान्यापेक्षा निवतिता भवति ।' इसमें 'एकाग्र चिता' से विदित होता है कि एकाग्र-एक -इससे यह भी फलित होता है कि जहां अग्रशब्द अर्थको मुख्य लक्ष्य कर उसका चितवन करना ध्यान है। जरा वाची है अर्थात् जहां द्रव्य-परमाणु या भाव-परमाणु या सोचिए, जब एक वस्तु मुख्य कर ली तब वहाँ अन्य वस्तु अन्य किसी अर्थ में चित्तवृत्ति को केन्द्रित करने को 'ध्यान' के प्रवेश को अवकाश ही कहां रहा ? यदि अन्य को अव- नाम से कहा गया है। वहां 'ध्यान' शब्द का लक्ष्य शुक्ल काश (स्थान) है तो एकाग्रपना कैसे ? एकाग्र होने ध्यान के दो पायों तक सीमित है। का अर्थ ही यह है कि जिसमें अन्य का विकल्प हट गया एक बात और -ध्यान एक तप है और तप शब्द से
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अपरिह बार उतारन्यान
मात्म-लक्ष्य के सिवाय अन्य का परिहार इष्ट है-इसी रूपस्य जैसे परावलम्बी ध्यानों को मोक्षमार्ग में परम्परित भाव में इच्छा निरोध को तप नाम दिया गया है- कारण होने से व्यवहार-ध्यानरूप और 'बहिरम्भंतर'तिणं रयणाणभाविब्भावट्ठमिच्छा निरोहो।'
किरियारोहों और रूपातीत जैसे स्वावलम्बी ध्यान को
निश्चय ध्यान रूप कहा है। यदि हम विचारें तो धवला'समस्तभावेच्छात्यागेन स्व-स्वरूपे प्रतपनं, विजयनं तप ।' कार के शब्दों से यह वात सर्वथा मेल खाती जैसी दिखती
प्रव० सा० ता. वृ०७४।१००११२ हैउक्त इच्छानिरोध में स्व और पर के भेद का संकेत अंतोमहत्तमेतं चितावल्याणमेगवति। भी नहीं है जिससे कि स्व की इच्छा को भी ग्राह्य माना जा छदुमत्थाणं झाण, 'जोगणिरोहो' जिणाणं तु॥' (उद्धृत) सके। यहां तो ऐसा ही मानना पड़ेगा कि ध्यान में सभी
___एक वस्तु मे अतर्मुहूर्त काल तक चिना का अवस्थानप्रकार की इच्छाओं (मन की क्रियाओं) का अभाव ही
रूप ध्यान छपस्थों का ध्यान है और योग निरोध रूप आचार्य को इष्ट है और वे आत्मा मे आत्मा के होने को
निश्चय ध्यान अर्हन्त भगवान का ध्यान है आदि। ही उत्कृष्ट ध्यान मानते हैं जो अपरिग्रहरूप है।
ऊपर के प्रसग से यह भी स्पष्ट है कि जिन्हें बात किन्हीं मनीषियों ने हमे 'एक पदार्थ को मुख्य बनाकर और रौद्र ध्यान के नामों से संबोधित किया जा रहा है वे उसके चिंतन में (मन का) रोध करना-मन को ठहरा सम्यग्दष्टी के लिए न तो व्यवहार ध्यान है और ना ही वे लेना ध्यान है' ऐसा अर्थ भी बतलाया है यानी उनके मत निश्चय की परिभाषामे आते हैं । अपितु यह कहा जाय कि में निरोध का अर्थ मन का स्थापित करना है। ऐसे मनी- वे सर्वथा अव्यवहार्य और जीव की दशा की अनिश्चिति में षियों को धवला मे आये 'निरोध' शब्द के अर्थ पर विचार कारण हैं, तो अधिक उपयुक्त होगा यतः वे मित्थ्याभाव करना चाहिए । और यह भी सोचना चाहिए कि मन को हैं। लगाने की क्रिया से आस्रव होगा या संवर-निर्जरा? एक साधारणत: 'ध्यान' शब्द ऐसा है जो जन साधारण में स्थान पर धवला मे निरोध के अर्थ को इस भांति स्पष्ट चिंता या चिंतन के अर्थ में प्रसिद्ध है-'ध्ये चितायाम्। किया गया है-को जोग णिरोहो? जोग विणासो।' उव. इसलिए लोग इस शब्द को विचार करने जैसे अर्थ में लगा यारेण जोगो चिता, तिस्से एयग्गेण णिरोहो विणासो जम्मि बैठते हैं। लोगों को समझना चाहिए कि यदि सर्वषा तं झाणमिदि।'
-वही पृ०६५-६६ विचार-चिन्तन ही ध्यान होता तो आचार्य शुक्ल ध्यान योग का निरोध क्या है ? योग का विनाश । उपचार की ऊपरी श्रेणियों में विचार का बहिष्कार न करते जैसा से चिता का नाम योग है। उस चिंता का एकाग्ररूप से कि उन्होंने किया है। वे कहते हैं-'अवीचारं द्वितीयं ।' जिसमे विनाश हो जाता है वह ध्यान है । किसी (एक की दूसरा एकत्ववितर्क नामा शुक्ल ध्यान वीचार रहित है भी) चिंता में लगे रहना, प्रसंग गत ध्यान नही और ना (तीसरा और चौथा शुक्ल ध्यान भी वीचार रहित है)। ही उस चिता में लगे रहने में, उससे संवर और निर्जरा विज्ञपुरुष इस बात को भली भांति जानते हैं किही है। यदि संवर निर्जरा है भी तो वह अन्य प्रवृत्ति से 'वीचारोऽर्थ व्यंजनयो संक्रान्तिः।' अर्थ और व्यंजन में निवृत्ति मात्र के कारण और उसी अनुपात में है-ध्यान विचारों की पलटती दशा संक्रान्ति कहलाती है और (क्रिया) से नहीं; वहां ध्यान नाम तो मात्र उपचार है। वीचार व विचार दोनों शब्द एकार्थक है यानी जब यह ऊपर के पूरे विवेचन से स्पष्ट होता है कि धवला निर्दिष्ट जीव अर्थ का विचार करते-करते कभी पर्याय पर चला दो ध्यानों के प्रकाश में ध्यान वही है जो संवर-निर्जरा का जाता है और कभी अर्थ पर चला जाता है तब उस पलहेतु हो? सि. च. नेमीचंद्राचार्य जी ने जो 'दुविहं पि टने की दशा को सक्रान्ति कहा जाता है। और वह ऊपरी मोक्खहे रूप में दो ध्यानों को प्ररूपित किया है उनमें अवस्थाओं में नहीं है। अब सोचिए ! कि जब मन का 'पणतीस सोलछप्पणचदुद्गमेग' तथा पिण्डस्थ, पदस्थ, अर्थ चिन्तन है और चिंतन मे पलटना अवश्यंभावी है।
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१२, बर्ष ३८ कि.१
भनेकान्त
यदि पलटना नहीं तो चिंतन कैसा? वह तो कूटस्थपना ही अपितु मन को हटाना पड़ता है और इस मन को हटाना है और मन कटस्थ है तो वह मन कैसा ? फिर यदि मन ही-पर से निवृत्ति करना ही अपरिग्रह है और जैनसंक्रान्ति नही करता तो वहां कौन सी क्रिया करता है? दर्शन को यही निवृत्ति इष्ट है। फलत:-इस मायने में और जो क्रिया करता है वह क्रिया 'आस्रव' क्यों नही? उत्कृष्ट ध्यान और अपरिग्रह दोनों एक ही श्रेणी में ठहरते जब कि आचार्य ने मन, वचन या काय की क्रिया को हैं और ऐसा किए बिना 'तपसा निर्जरा च' सूत्र की सार्थमानव कहा है ?
कता भी नहीं बनती और जिन-दशा तथा मुक्ति भी नही उक्त सभी परिस्थितियों से हम इसी निष्कर्ष पर बनती । विचार दीजिए । इसमें हमें कोई आग्रह नहीं। पहचते हैं कि- उक्त ध्यान में मन लगाना नही पडता,
7 (पृ० २५ का शेशा४) कि जैन के विधाता और गुरुओं की क्या विशेषता रही है? श्रेणी में आते हैं) से रहित, एकाकार शुद्ध ज्ञान-ज्योति से प्रथमतः वे प्रमाद-परिहार मे ही सन्नद्ध रहे हैं । युक्त हों वे देव और जो वाह्याभ्यंतर सभी प्रकार के जहां तक देव का प्रसंग है वे सदा ही वीतरागी कहलाए परिग्रहों से रहित-निर्ग्रन्थ हो वे गुरु होते हैं। ये देव और है और जैन के गुरू भी निग्रंथ रूप में प्रसिद्ध रहे हैं और गुरु सर्व-शुद्धि अर्थात् पर से मुक्ति का मार्ग बतलाते हैं। उनका चरम-लक्ष्य भी वीतरागता की प्राप्ति हो रहा हैं।
शास्त्रों में भी पढ़ा जाता है कि मुनिगण निकट आए वे कभी भी किसी आचार्य के द्वारा- समय के प्रभाव में
हुए श्रावकों को धर्मोपदेश देते समय प्रथम अपरिग्रह रूप भी कभी अहिंमक या सत्यवादी (हरिश्चन्द्र) जैसे विशेषणो
मुनिमार्ग और तदनन्तर श्रावकाचार का उपदेश देते हैं। से प्रसिद्ध नही किए गए और ना ही उनके निश्चित
इसमें उनका भाव ऐसा ही रहता है कि श्रोता पहिले लक्षणों में कभी कोई अन्तर ही आया। तथाहि-देव का
वास्तविकता को समझें कि सर्वपापों की जड परिग्रह है। लक्षण-'अष्टादशमहादोषविमुक्तं मुक्तिवल्लभ ।
यदि श्रोता के.भाव हुए तो वह इसी जड़ पर प्रथम प्रहार ज्ञानात्मपरमज्योतिर्देव वन्दे जिनेश्वरम् ॥'
करेगा और परिग्रह त्याग के साथ उसके शेष सभी पापों गुरु का लक्षण-वाह्याभ्यंतरभेदेन निर्ग्रन्थं ग्रन्थ सयुतं ।
के धुल जाने का मार्ग खुल सकेगा। विना परिग्रह मे कर्मणालघुमप्युच्चैर्गुरु हि गुरुवो विदुः ।।' संकोच किए, कोई भी व्रत फलित नही होगा। जरा जो अठारह प्रकार के दोषों-(जो परिग्रह की ही सोचिए !
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'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रकाशन स्थान-चीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त श्री बाबूलाल जैन, २, अन्सारी रोड, दरियागंज नई दिल्ली-२ रराष्ट्रीयता-भारतीय प्रकाशन अवधि-त्रैमासिक सम्पादक-श्री पत्रचन्द्र शास्त्री, वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ मैं बाबूलाल जैन, एतद् द्वारा घोषित करता हूं कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है।
बाबूलाल जैन
प्रकाशक
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जरा सोचिए!
१. प्रामाणिकता कहां है ?
बसूल हो जाएंगे। मैंने रुपयों का जुगाड़ करके एम.ए.
की डिग्री ले ली और मुझे आफिस में काम मिल गया। वे बोले- मुझे वे दिन याद आते है जब मैं एक बड़े दफ्तर में कार्यरत था। अच्छा पैसा मिलता था। रहने
होनहार की बात है कि एक दिन मेरा बाफिस के को बंगला, कार, नौकर-चाकर सम्बन्धी सभी सुविधाएं
एक साथी से सगड़ा हो गया और उसने किसी तरह मेरी प्राप्त थी। सैकड़ों लोग सुबह से शाम और रात तक भी
जाली डिग्री की बात कहीं न कहीं से जान ली और मेरी मेरे मुख की ओर देखते थे कि कब मेरे मुंह से क्या निकले
शिकायत कर दी। मैं जांच के लिए निलंबित कर दिया और वे तदनुरूप कार्य करें। कोई ऐसा पल न जाता था
गया। मुकद्दमा चला और आठ वर्ष के कार्यकाल में जो जब कोई न कोई मेरी ताबेदारी में खड़ा न रहता हो।
कुछ जोड़ा था वह सब खर्च हो गया। पर, मैं निर्दोष न पर, क्या कहूं? आज स्थिति ऐसी है कि बेकार बैठा हूं।'
छूट सका । नौकरी भी गई और जुर्माना भी भरना पड़ा। रहने का ठिकाना नहीं। नौकर-चाकर की क्या कहूं? मैं मैंने कहा-आपने जाली सार्टीफिकेट क्यों बनवाया ? खुद ही मेरा नौकर हूं। मैं कहीं नौकरी करना चाहता हूं क्या आप नहीं जानते कि वही सार्टीफिकेट काम देता है, -कोई नौकरी नहीं देता । कई टायम तो भूखों रह केवल जो किसी स्वीकृत और प्रामाणिक बोर्ड या विश्वविद्यालय से पानी के दो बूंट पीकर खाली पेट ही सोता हूं। मिला हो--किसी ऐसे व्यक्ति, संस्था या समाज से मिला ___ मैंने पूछा-यह सब कैसे हो गया ? दफ्तर के कार्य प्रमाण-पत्र जाली होता है जिसे उतनी योग्यता न हो का क्या हुआ?
और जो प्रमाण-पत्र देने के लिए अधिकृत न हो।
दिया सार्टीफिकेट तो बोगस और झूठा ही होगा। वोले-क्या कहूं? बचपन से मेरा खेल-कूद में मन रहा। घर वालों के बारम्बार कहने पर भी मैं पढ़ने से जी चुराता
वे बोले-वक्त की बात है, होनी ही ऐसी थी। रहा और जब बड़ा हुआ तब देखा कि मेरे साथी यनि- वरना कई लोग तो आज भी अयोग्य और अनधिकृत लोगों वसिटियों की डिग्री लेकर अच्छे-अच्छे पदों पर लगे चैन से उपाधियाँ, अभिनन्दनादि ले रहे है- सम्मानित भी को बन्सी बजा रहे हैं। मुझे अपने पर बड़ा तरस आया। हो रहे हैं और उनकी तूती भी बोल रही है। मैंने सोचा, यदि मेरे पास डिग्री होती तो मैं भी कहीं न मैंने कहा-आपकी दष्टि से आपका कहना तो ठीक कहीं कोई आफीसर बन गया होता । बस, इसी सोच मे है पर, इसकी क्या गारण्टी है कि उनकी प्रामाणिकता भी काफी दिनों रहा कि एक दिन मेरे किसी जानकार ने मुझे आपकी तरह किसी न किसी दिन समाप्त न होगी? फिर, कहा कि तू डिग्री ले ले । मैंने कहा-कहां से कैसे ले लू? ऐसे उपक्रमों की प्रामाणिकता है ही कहां? सभी लोग तो अब तो उम्र भी बड़ी हो गई है। उसने मुझे बताया कि ऐसे उपक्रमों के वैसे समर्थक नहीं होते जैसे वे विश्वविद्यापड़ोस के मुहल्ले में एक संस्था गुप्त रूप में डिग्रियां देती लयों द्वारा प्रदत्त उपाधियों के पोषक होते हैं। आप है। तेरे कुछ पैसे जरूर लगेंगे, पर तेरा काम हो जायगा। निश्चय समझिए कि प्रामाणिक उपाधि सभी स्थानों पर, बस, क्या था? मरता क्या न करता-मैं उस संस्था में सभी की दृष्टि में प्रामाणिक ही रहेगी-एक भी व्यक्ति पहुंचा और जैसे-तैसे दो हजार रुपयों में सौदा बन गया। ऐसा नहीं होगा जो पिसी विश्वविद्यालय द्वारा दी गई मैंने सोचा इतने रुपये तो दो मास की तनख्वाह है, बस उपाधि को जाली बताने की हिम्मत कर सके। जबकि
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अनेकान्त
भीड के द्वारा दी गई उपाधियों के विषय में सभी एकमत २. प्रमाद : परिग्रह नहीं होते-कुछ न कुछ लोग उसे नकारने वाले अवश्य ही
'मूल जन-संस्कृति अपरिग्रह है और हिंसादि सभी पाप
परिग्रह-फलित हैं' यह एक ऐसा तथ्य है जिसे किसी प्रमाण उक्त कथन से हमारा तात्पर्य ऐसा नहीं कि हम या तर्क से झुठलाया नहीं जा सकता। हमें आश्चर्य है कि अभिनन्दनों या उपाधियों का जनाजा निकाल रहे हो। जब जैनाचार्य पापों की जड़ में प्रमत्त भाव (परिग्रह) की अपितु ऐसा मानना चाहिए कि हम गुण-दोषों के आधार अनिवार्यता स्वीकार कर रहे हैं, तब कुछ लोग शास्त्र
अनिवार्यता दी पर ही रूप में किसी सम्मान के पक्षपाती हैं-सम्मान सम्मत हमारी इस बात को आक्षेप को सज्ञा दे रहे है। होना ही चाहिए। पर, हम ऐसे सम्मान के पक्षपाता है ऐसे लोगों से हमारी प्रार्थना है कि वे जिनधर्म के तथ्य को
किसी ऐसे अधिकृत, तद्गुणधारक, पारखी और आभ- हृदयंगम करें-जिनवाणी का आदर करें। हमे कोई नन्दित के द्वारा किया गया हो-जिनकी कोई अवहेलना विरोध नहीं, हम धर्म सम्बन्धी 'अहिंसा परमोधर्मः' जैसे न कर सके। उदाहरण के लिए जैसे मैं "द्यिावाचस्पात सभी नारों को सम्मान देते हैं। पर, हम देखते हैं कि इन नहीं-शास्त्रों में मूढ़ हूं और किसी को 'सकल शास्त्र नारों का वर्तमान में दुरुपयोग और दिखावा किया जाने पारंगत' जैसी उपाधि से विभूषित करने का दुःसाहस करू लगा है, तब क्यो न इन नारों के मूल को खोजा जाय? यपि ऐसा करूंगा नहीं) तो आप जैसे समझदार लोग जिससे दुरुपयोग की बढ़वारी रुके । हमारी समझ '.
महामर्द' ही कहेंगे और उस उपाधि को से यदि हमने उक्त नारो के मूल 'अपरिग्रह परमोधर्मः' को - जाली. झठी और न जाने किन-किन सम्बो- लक्ष्य मे रखा होता तो छलावे का प्रसग उपस्थित न हआ धनों से सम्बोधित करेंगे? और यह सब इसलिए कि मैं होता
होता । अस्तु : उस विषय मे अकिंचन हूं, मुझमें तदर्थ योग्यता, परख नही।
वास्तव मे अपरिग्रह ही 'जिन' बनने का उपाय है है। फलतः
और 'जिन' का धर्म भी अपरिग्रह है तथा अहिंसादि सभी मारी दृष्टि में वे ही उपाधियां और अभिनन्दन युक्ति- धमों के मूल में अपरिग्रह की ही प्रधानता है। जहां परि. यक्त और प्रामाणिक हैं जो तवगण धारक किसी अधि- ग्रह है वहाँ पाप है और पापो को छोड़ने के लिए परिग्रह
नया समवाय की ओर का छोडना अनिवार्य है। फिर चाहे वह परिग्रह अतरंगसे दिए गए हों और जिनका दाता (व्यक्ति या समाज) परिग्रह हो या बहिरंग परिग्रह हो । किसी पूर्वाभिनन्दित व्यक्ति या समाज द्वारा कभी अभिनंदित हमें स्मरण रखना चाहिए कि आचार्यों ने पापों को हो चुका हो। उक्त परिप्रेक्ष्य में वर्तमान में बंटने वाली पाप तभी माना है जब उनमें : मत्त (परिग्रह) भाव हो। उपाधियो या अभिनन्दनों का स्थान या महत्त्व कब, कैसा जब वे कहते हैं-'प्रमत्तयोगात् प्राण व्यपरोपण हिंसा' तब और कितना है ? है भी या नहीं? जरा सोचिए ! कही वे 'असमिधानमन्त', 'अदत्तादानमस्तेय' आदि सभी वर्तमान के पदवी आदान-प्रदान जैसे कोई उपक्रम, गुट- पापों में भी 'प्रमत्तयोगात्' लगा लेने का आदेश देते हैं। बाजी, अहं-वासना या पैसे से प्रेरित तो नहीं है ? यदि हाँ, उनके मत में कोई भी प्रवृत्ति तब तक पाप नहीं है जब तो 'अहं' के पोषक ऐसे उपक्रमों पर ब्रेक लगाना चाहिए। तक उसमें प्रमत्त भाव न हो।-'मरदु व जियदु व जीवों फिर, आप जैसा सोचें सोचिए । हां, यह भी सोचिए कि आदि। यदि हम प्रमत्त की परिभाषा हृदयंगम करें तो पूर्वाचार्यों को उपाधियों और अभिनन्दनों की प्राप्ति में हमें स्पष्ट हो जायगा कि सभी पापो की जड़ में परिग्रह भी क्या हम चालू जैसी 'तुच्छ' परम्परा की कल्पना बैठा है । तथाहिकर उनके स्तर की अवहेलना के पाप का बोझ अपने "जो प्रमादयक्त है. कषायसयुक्त परिणाम वाला है सिर लें?
उसे प्रमत्त कहते हैं। इन्द्रियों की क्रियाओं में सावधानता
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परासीपिए न रखता हुवा स्वछंदता से प्रवृत्ति करने वाला जो मनुष्य है एक-एक के छत्तीस-छत्तीस भेद संरंभ के भेद हए। इसी उसे प्रमत्त कहते हैं । अथवा जिसके मन में कषाय बढ़ गए प्रकार एक-एक के छत्तीस-छत्तीस भेद समारम्भ के हुए है, जो प्राणघात आदि के कारणों में तत्पर हुआ है, और एक-एक के ३६-३६ भेद आरम्भ के हुए। इस प्रकार परन्तु अहिंसा आदि में शठता प्रवृत्ति दिखाता है, कपट से सब मिलाकर १०८ भेद हिसा के, १०८ भेद झूठ के, अहिंसादि में यल करता है, परमार्थ रूप से अहिंसादि में १०८ भेद चोरी के, १०८ भेद कुशील के और १०८ भेद प्रयत्न जिसका नहीं है उसे प्रमत्त कहते हैं। अथवा चार परिग्रह के होते हैं।"-(उधृत) विकथा, चार क्रोधादि कषाय, पांच स्पर्शनादि इन्द्रिया -उका सभी भेद प्रमाद की मुख्यता में बनते हैं और निद्रा तथा स्नेह ये पन्द्रह प्रमाद हैं। इनसे जो युक्त और सभी पाप भी प्रमाद (परिग्रह) के अस्तित्व में ही है उसे प्रमत्त कहते हैं। ऐसे प्रमत्त पुरुष की जो मन, बनते हैं, यह वस्तुस्थिति है। आचार्य तो यहां तक कहते वचन और शरीर की प्रवृत्ति उसे प्रमत्तयोग कहते है। इस हैं किप्रकार के प्रमत्त योग से जो प्राणियों के इन्द्रियादि दश 'साधौ व्रतानि तिष्ठन्ति राग-देष विवर्जनात् ।'प्राणों का घात करना-वियोग करना उसे हिंसा कहते अब पाठक विचारें कि पापों के जनक राग-द्वेषादि भाव हैं। (इसी प्रकार असत्य आदि पापों में समझना चाहिए)।' परिग्रह में परिगणित हैं या अन्य किसी में ? जरा अंतरंग
चौदह परिग्रहों की गणना कीजिए और देखिए-तीन "(हिंसादि के एक सौ आठ, एक सौ आठ भेद)
वेद-स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुसक वेद, हास्य, रति संरंभ, समारंभ और आरम्भ इनसे मन, वचन, काय को।
(राग) अरति (द्वेष) शोक, भय और जुगुप्सा, क्रोध, मान, गुणा करने पर नौ भेद होते हैं। फिर इन नौ भेदो से
माया ओर लोभ ये चार कषाय तथा मिथ्यात्व। क्या कृत-कारित और अनुमदिन का गुणा करन स सत्ताइस उक्त परिग्रहों के बिना कोई पाप संभव है या सभी पापों भेद होते हैं। तथा इन सत्ताईस भेदों से चार कषायों को केमल में उक्त परिग्रहों में से किसी की कारणता विद्यगुणा करने से एक सौ आठ भेद (एक के) होते हैं।" मान है? जरा सोचिए । ___ "स्पष्टीकरण-प्रमादयुक्त पुरुष का प्राणि हिंसा आदि में जो प्रयत्न करना उसे संरंभ कहते हैं । हिंसादि के ३. श्रार एक यह भीसाधनों को प्राप्त करने को समारम्भ कहते हैं और हिंसादि चर्चा है श्रावकाचार वर्ष मनाने की । हम तो इसे कार्य करने में प्रवृत्त होने को आरम्भ कहते हैं। कृत- काल लब्धि ही कहेंगे कि जो पुण्य कार्य सर्वथा विस्मृत हो स्वयं हिंसादि करना, कारित-दूसरों से हिंसादि कराना, चुका था वह सहसा स्मृति में आया। इसके माध्यम से अनुमत-हिंसादि करने वालों को अनुमोदन देना। क्रोध, जैनत्व को बल मिलेगा और भव्य जीवों का कल्याण भी मान, माया, लोभों को कषाय कहते हैं। क्रोधकृतकाय- होगा । धन्य है उन विचारकों, संचालकों और प्रचारकों हिसादि--सरम, मानकृतकाहिंसादि सरभ, मायाकृतकाय- को जिन्होंने इस उपयोगी कार्य का बीड़ा उठाया । सफलता हिंसादि संरभ, लोभकृतकाहिंसादि सरभ । क्रोधकारित- मिले इसी में सबका गौरव है। हमारी प्रार्थना है कि सभी काहिंसादि समरम्भ, मानकारितकायहिंसादि संरभ, जन इस धर्म-यज्ञ मे प्राण-पण से लग जायें। हम से जो हो मायाकारितकाहिंसादि संरंभ, लोभकारितहिंसादि संरंभ। सकेगा, बिना शक्ति छुपाए भर सक करेंगे। क्रोधानुमोदितकाहिंसादि संरंभ, मानानुमोदितकाहिंसादि हमें यह सोच लेना चाहिए कि यह एक ऐसा कठिन संरंभ, मायानमोदितकाहिंसादि सरंभ, लोभानुमोदितकाय कार्य है जिसे पूरा करना लोहे के चने चबाने जैसा है। हिंसादि संरंभ। ऐसे काहिंसादि संरंभ के बारह-बारह आज जब प्राचार-विचार का सर्वथा ही लोप है, तब हमें भेद। ऐसे ही वचन द्वारा हिंसादिसंरंभ के बारह-बारह उसकी बुनियाद शुरू से ही रखनी होगी। और उसके भेद । तथा मनो हिंसादि संरभ के बारह-बारह मेद होने से लिए हमें आचारवान त्यागियों से मार्ग दर्शन लेना होगा
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अनेका
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उनकी सेवा करनी होगी। हमारे देखते २ हमें याद है कि किन्हीं दिनों सप्तम प्रतिमाधारी का जो सम्मान था, वह कदाचित् आज साधारणतः मुनि को भी दुर्लभता से प्राप्त है । पहिले लोग जहां किसी ब्रह्मचारी त्यागी के आगमन की खबर सुनते थे वे बासों उछल पड़ते थे, भक्तिभाव से उनकी अगवानी करते थे, श्रद्धावनत हो भक्तिभाव से उनके प्रवचन सुनते थे और उनकी वैयावृत्त करते थे और इसमें उनकी पूरी दृष्टि स्व-सुधार में केन्द्रित रहती थी । अत्र आज सारा का सारा वातावरण बदला हुआ है। लोग जो कुछ भी करते हैं उसमें पर-सुधार का लक्ष्य और प्रचार का दिखावा ही मुख्य होता है। गोया, धर्म आज केवल प्रचार और पर-सुधार का माध्यम बन गया । उसमें विचार और स्व-आचार नाम की कोई चीज ही नहीं रही। जबकि वास्तव में धर्म, प्रचार की चीज न हो, आचार की ही चीज है ।
आज लोगों के लिए 'लोग क्या कहेंगे' यह प्रश्न भी मुख्य आड़े आ गया है । वे सोचते हैं-यदि हम ऐसा करेंगे या न करेंगे तो लोग क्या कहेंगे? बस, वे लोगों को तुष्ट करने के ख्याल से, प्रचार को माध्यम बना मैदान में कूद पड़ते हैं और लोग समझ लेते हैं कि अमुक बहुत अच्छा काम कर रहा है । आखिर क्यों न समझें ? आज तो प्रचार का जमाना है, सो हो ही रहा है । पर याद रहे — 'लोग क्या कहेंगे ?' यह प्रश्न लोगों के सामने पहिले भी था और वे इसे हल भी करते थे । अन्तर मात्र इतना है कि तब वे इसे हल करने में प्रचार को माध्यम न बना, स्व-आचार-विचार को माध्यम बनाते थे-अपने में सुधार लाते थे। जबकि आज प्रचार को माध्यम बनाया जा रहा है। स्मरण रहे कि प्रचार और आचार में बड़ा भेद है । प्रचार तो आज सरकार भी करती है- 'शराब जहर है मत पियो ?' पर, सरकार का वैसा आचार न होने से इस प्रचार का लोगों पर कुछ असर नहीं होता। सभी को मालूम है कि शराब की बिक्री सरकार के दिये हुए ठेकों की मार्फत सरकार द्वारा ही होती है और शराब बन्दी का प्रचार भी सरकार ही करती है। इससे मिलती-जुलती
बात ही बीड़ी-सिगरेट आदि के निर्माता भी करते हैं। आदि ।
यदि हमें श्रावकाचार वर्ष मनाने की वास्तविक ललक है तो हमें स्वयं को श्रावकाचार रूप में ढालना होगा । हमें अपने, अपने परिवार के, गली-मुहल्ले और नगर के वन्धुओं को पहले श्रावक बनाना होगा — उन्हें धर्म के आचार पालन के लिए तैयार करना होगा। हम बात करते हैं सम्प्रदाय, सारे देश और विश्व को सुधारने की, जबकि अपने सुधार की हमें सुध ही नहीं। हमने उन बहुत सी भीड़ों को भी कई बार देखा है जिनमें भाषणों से प्रभावित होकर समुदाय के समुदाय हाथ ऊंचे उठाकर शराब और मांस जैसे अन्य बहुत से हेय पदार्थों के सेवन न करने का दृढ़ संकेत देते रहे हैं और बाद में ललक उठने पर नियम- च्युत हो गए हैं। हमने ऐसे जैनों को भी देखा है जो किन्हीं महाराज को आहार देने के लिए आजन्म शूद्र जल त्याग का नियम लेकर बाजार में हलवाई की दुकान पर कचौड़ी आदि खाकर कहते रहे हैं कि हमने तो शूद्र जस मात्र का त्याग किया है-अन्य चीबों का नहीं, आदि। गरज मतलब यह कि कुछ लोग दीर्घकालीन व्यसनी होने से और कुछ कानूनी दांव-पेंचों का सहारा लेकर भ्रष्ट होते रहे हैं। अतः नियम देने-लेने और उन पर दृढ़ रहने व रखने के लिए पहिले उनकी चित्तभूमि को बारम्बार उसी भांति तैयार करते रहना पड़ेगा जैसे चतुर किसान बीज बोने से पहिले खेत को भलीभांति तैयार करता है। बाद में फसल की देख-भाल की भांति लोगों को पुनः पुनः सम्बोधन भी देना होगा । उनकी देखभाल भी करनी होगी। अब जरा सोचिए ! हममें वैसे चतुर किसान कितने हैं और वैसी भूमि कम किसने तैयार कर रखी है। कहीं ऐसा तो नहीं हो कि मेघ ऊपर जमीन में बरस रहा हो और हम किसान भी बनाड़ी हों मात्र लोगों में 'कृषक' नाम कायम रखने के लिए ही हल चला रहे हों यानी - शुद मियां फजीहत दीगरी मसीहत ।'
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-सम्पादक
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वर्णी-वाणी के रत्न
१. किसी कार्य के करने का जो निश्चय कगे उसे सहस्रों बाधाएं आने पर भी न छोड़ो। यदि उस निश्चयसे बात्मधात होता हो और आत्मा साक्षीभूत होता है तब उसे छोड दो। परकी बात वहीं तक मानो जहाँ तक स्वार्थ में बाधा न आवे । यथार्थसे तात्पर्य निरीहवृत्ति से है। आत्माका स्वार्थ यही है कि परसे भिन्न है; एक परमाणुमात्र भी आत्मीय नहीं यही भावना दृढ होना । जब एक परमाणु भी अपना नही तब स्पर्शादि सुखोंके लिए परमेश्वर की उपासना करना विफल है।
(३।०४७) २. मेरा निजी अनुभव है जो मनुष्य धीर नही वह मनुष्य किसी भी कार्यमे सफलीभूत नहीं हो सकता । मैं जन्मसे अधीर अत: मेरा कोई भी कार्य आज तक सफल नहीं हुआ। पर्याय बीत गई पर पर्यायबुद्धि नहीं गई। पर्याय नश्वर है यह प्रति दिन पाठ पढ़ते हैं परन्तु इसमें कोई तत्व नही निकलता । तत्व तो जहां है वही ही है । (२७४४८)
३. परको प्रसन्न करनेकी चेष्टा मत करो। जब यह अभ्रांत सिद्धान्त है कि एक द्रव्य अन्य द्रव्यका उत्पादक नहीं तब तुम्हारे प्रयत्नसे तो अन्य प्रसन्न न होगा। अपनी ही परिणति से प्रसन्न होगा। तुम व्यर्थ खिन्न मत होबो कि हमने परिणमाया । अन्य द्रव्यका चतुष्टय अन्य से भिन्न है।
(३११७।४७) ४. कोई भी काम करो निर्भीकता से करो।
(२०१६।४७) ५. संसारमें कर्तव्यनिष्ठ बनो, दूसरों की भलाई की चेष्टाके पहिले अपनी शक्तिका विकास करो। केवल गल्पवादसे मलाई नही हो सकती। कुछ कर्तव्यपथ पर आओ, यही ससार बन्धनसे छूटने का मार्ग है । जो मनुष्य कर्तव्यको जानते हैं वही शीघ्र ही अभीष्ट पद के पात्र होते हैं।
(२०८।४७) ६. बहुत जल्पवाद दम्भमे परिणत हो जाता है । जितना जल्पवाद करोगे उतना ही कार्य करने में त्रुटि करोगे। १००बात कहनेकी अपेक्षा एक काम करना श्रेयस्कर है। उपदेश उतना दो जितना अमल में आ सके। पुण्य कार्यों का तिरस्कार मत करो। शुद्धोपयोग उत्तम वस्तु है परन्तु शुद्धोपगंगकी कथासे शुढोपयोग नहीं होता।
(११९४७) . ७. कोई भी काम करो उतावली मत करो।
(१२।९।४७) ६. जो काम करो शान्तिसे करो। प्रथम तो कार्य करनेके पहिले अच्छे प्रकारसे निर्णय कर लो कि हम यह कार्य करने की शक्ति रखते हैं अथवा नही? यदि योग्यता न हो तो उस कार्यके करनेका साहस न करो तथा जब उस कार्यके करनेके सम्मुख होओ तब अन्य कार्यकी व्यग्रता मत रक्खो । उनावली मत करो, चित्तको प्रसन्न विशुद्धता ही प्रत्येक कार्यमें सहायक होती है।
(१५४६/४७) ९. शान्तिसे काम करो, आकुलता दूर करने के लिए अशान्त होना पागलपनकी चेष्टा है। (
१४ ) १०. स्वाध्यायमें उपयोग लगाना, किसीसे नही बोलना, यदि कोई गल्प करे तो उसे निषेध कर देना। केवल मागम की कथा करना, किसीका सकोच नहीं करना, कलिमल दोषको दूर करने के लिए अपने अन्त:करणसे विचारपूर्वक कार्य करो। परकी गुरुता लघुतासे हमको न लाभ है, न हानि है।।
(१७१५४४८) ११. सरल व्यवहार करो, आभ्यन्तर कषाय मत करो, किसीके परिणामको देख हर्ष विषाद मत
(२२१५४८) (शेष पृष्ठ ३४ पर)
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62
बीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
मी धर्मशार: स्वामी समन्तभद्र का गृहस्याचार-विषयक धत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुस्तार श्रीयुपखकिर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी माध्य और मरणात्मक प्रस्तावना से युक्त, जिल्द,
- प्रशस्ति संग्रह ग्राम १ संस्कृत और प्राकृत के १७१ प्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित पूर्व संग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टों घोर पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास विषयक साहित्यपरिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द ।
पथ-प्रशस्ति संग्रह भाग २ : अप के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रथस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह पंचपन सम्भकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित सं. पं. परमानन्द शास्त्री । सजिल्द । समातिन्त्र र इष्टोपदेशात्मकृति पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित
:
:
पृष्ठ संख्या ७४ सजिल्द
७-००
बेलगोल और जिनके अन्य तीर्थ श्री राजकृष्ण न न्याय-दीपिका पा० अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० ० १०.०० जैन साहित्य और इतिहास पर विवाद प्रकाश सायात मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व भी ममराचार्य ने की, जिस पर भी पतिषाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार लोक प्रमाण पूर्णिसूम लिये सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री | उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में पुष्ट कागज और कपड़े को पक्की जिल्द ।
२५-००
७.००
- रत्नावली श्री मिलापत्र तथा श्री रतनलाल कटारिया surance (ध्यानस्तव सहित ) : संपादक पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री मानक धर्म संहिता : श्री दयासिंह सोधिया
१२-००
५-००
जैन लक्षणावली (तीन भागों में) : सं० पं० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ४०.००
जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, बहुचचित सात विषयों पर शास्त्रीय प्रमाणयुक्त तर्कपूर्ण विवेचन । प्राक्कथन सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित
Jain Monoments: टी० एन० रामचन्द्र
...
Jaina Bibliography: Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942)
आजीवन सदस्यता शुल्क : २०१.०० ३० बार्षिक मूल्य : ६) ४०, इस अंक का मूल्य : १ रुपया ५० पैसे
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मण्डल
सम्पादक परामर्श मदन डा० ज्योतिप्रसादन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादन- श्री पात्र प्रकाश जैन बता, मीर सेवा मन्दिर के लिए, गोठा ब्रिटिव एजेन्सी, डी०-१०१ सीपुर-११
- बाबूलाल
मुि
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वर्ष ३८ : कि० २
बीर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक
अनेकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर)
इस अंक में-
विषय
पृ०
१. जिनवाणी स्तुति
१
२. मुच्छा परिन्हो बुत्तो : डा० ज्योति प्रसाद जैन २
३. ५० शिरोमणिदास कृत धर्मसार सतसई
क्रम
---श्री कुन्दनलाल जैन प्रिंसिपल
४. भ० महावीर जन्म स्थान विषयक विवाद डा० ज्योति प्रसाद जैन
५. पूर्व मध्यकालीन भारत में नैतिक धर्म का पतन -प्रदीप श्रीवास्तव
१२
६. ग्राम पगारा की जैन प्रतिमाएँ
-नरेशकुमार पाठक
७. शान्तिनाथ पुराण में प्रतिबिम्बित कथानक रूढ़ियां कु० मृदुला
८. धर्म ध्यान का स्वरूप एवं भेद
-- पं० नरेन्द्र कुमार जैन, सोरया
१. कुवेरप्रिय सेठ की कथा
१०. जैन होने में बाधक : मूर्च्छा-भाव-परिग्रह
- पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली
११. जरा सोचिए -सम्पादक
€
१७
१५
२१
२३
२५
२६
अप्रैल-जून १८४
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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बी-वाणी से
संसार में परिग्रहही पांच पापों के उत्पन्न होने में निमित्त होता है। जहाँ परिबह है
हामह बहा राग.हां राग है वहीं मारमा में आकुसता रूप दुःख है बोर वहीं सुख गुण का पास है, और सुबगुण बात का नाम ही हिसा है। संसार में जितने पार है उनकी जड़ परियर है। प्रानको भारत में बदसंखयक मनुष्यों का बात हो गया है या हो रहा है उसका मूल कारण परिग्रह ही है। यदि हम इससे ममत्व घटा देखें तो अगणित जीवों का चात स्वयमेव न होगा। इस अपरिग्रह के पालने से हम हिसा पाप से मुक्त हो जाते है और अहिंसक बन सकते हैं। परिग्रह के त्यागे बिना हिसा-तत्त्व का पालन करना असम्भव है । भारतवर्ष में जो यागादिक से हिंसा का प्रचार हो गया था उसका कारण यही प्रलोभन तो है कि इस पाग से हमको स्वर्ग मिल जायेगा, पानी बरस जावेगा, अन्नादिक उत्पन्न होंगे, देवता प्रसन्न होंगे। वह सर्व, क्या या परिषद की बोबा । यदि परिग्रह की चाह न होती तो निरपराध जन्तुओं को कौन मारता?
आज यदि इस परिग्रह में मनुष्य आसक्त न होते तब यह 'समाजवाद' या 'कम्युनिष्टवाद' क्यो होते ? आज यदि परिग्रह के धनी न होते उब ये हड़ताले क्यों होती? यदि परिग्रह पिशाब न होता तब जमींदारी प्रथा, राजसत्ता का विध्वंस करने का अवसर न आता? यदि यह परिग्रह-पिशाच न होता तब कांग्रेस जैसी स्वराज्य दिलाने वाली संस्था विरोधियों द्वारा निन्दित न होती और वे स्वयं इनके स्थान में अधिकारी बनने की चेष्टा न करते? आज ' यह परिग्रह पिशाच न होता तो हम उच्च हैं, ये नीच हैं, यह भेवन होता । यह पिशाच तो यहाँ तक अपना प्रभाव प्राणियों पर जमाये हुए है जिससे सम्प्रदायवादियों ने धर्म तक को निजी धन मान लिया है। और धर्म की सीमा बांध दी है । तस्वदृष्टि से धर्म तो 'मात्मा की परिणति विशेष का नाम है। उसे हमारा धर्म है यह कहना क्या न्याय है? जो धर्म चतुर्गति के प्राणियो में विकसित होता है उसे इने-गिने मनुष्यों में मानना क्या न्याय है? परिग्रह पिशाच को ही यह महिमा है जो इस कुएं का जन तीन वर्षों के लिए है, इसमे यदि शूद्रों के घड़े पड़ गए तब अपेय हो गया ! जबकि टट्टी में से होकर नल मा जाने से भी जल पेय बना रहता है ! अस्तु, इस परिग्रह पाप से ही संसार के सब पाप होते हैं । श्री वीर प्रभु ने तिल-तुष मात्र परिग्रह न रखके पूर्ण अहिंसा व्रत की रक्षा कर प्राणियों को बता दिया कि कल्याण करने की अभिलाषा है तब दैगम्बर पद को अंगीकार करो। यही उपाय संसार बन्धन से छूटने का है। परियह अनर्थों का प्रधान उत्पादक है यह किसी से छिश नहीं, स्वयं अनुभूत है। उदाहरण की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता उससे विरक्त होने की है । आवश्यकतायें तो इतनी हैं कि संसार के सब पदार्थ भी मिल जावे तो भी उनकी पूर्ति नहीं हो सकती । अतः किसी की आवश्यकता न हो यही आवश्यकता है। संमार का प्रत्येक प्राणी परिग्रह के पंजे में है। केवल सन्तोष कर लेने से कुछ हाथ नहीं आता । पानी विलोड़ने से घी की आथा तो असम्भव ही है छांछ भी नहीं मिल सकता । जल व्यर्थ जाता है और पीने के योग्य भो नही रह जाता है। परिग्रह की लिप्सा में आज संसार की जो दशा हो रही है वह किसी से अज्ञात नहीं। बड़े-बड़े प्रभावशालो तो उसके चक्कर में ऐसे फंसे हैं कि वे गरीब दीन-हीन प्रजा का नाश कराकर भी अपनी टेक रखना चाहते हैं। जो कहता है, "हमने परिग्रह छोड़ा" वह अभी सुमार्ग पर नहीं आया। रामभाव छोड़ने से पर पदार्थ स्वयमेव छूट जाते हैं । अर्थात् लोभकपाय के छूटते भी धनादिक स्वयमेव छूट जाते हैं। पखिह पर वही व्यक्ति विजय पा सकता है जो अपने को, अपनों, अपनेसे, अपने लिए, अपने द्वारा आर ही प्राप्त करने की चेष्टा करता है। चेष्टा बोर कुछ नही, केवल अन्तरंग मे पर पदार्थ में न तो राम करता है और न देष करता है।
(वर्णी वाणी से साभार) मुचना:--वीर सेवा मन्दिर सोसायटी की साधारण सदस्यता का पिछला व आगामी वर्ष का सदस्यसा-शुल्क जिन
सदस्यों ने नहीं भेजा है, उनसे आग्रह है कि सहस्पता-शुल्क अविलम्ब भेज है। संस्था का आर्थिक वर्ष जून मे समाप्त होता है।
सुमाव बन : महासचिव और सेवा मन्दिर, सोसायटी २१ बरियागंज, नई दिल्ली-२
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ओम महंम्
MADHumanen
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।
LA
॥
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परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यासन्धुर्रावधानम् । मकलनविलसितानां विरोधमथन नमाम्यनेकान्तम ।।
।
वष३८ किरण २
वोर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज. नई दिल्ली-२ वीर-
निर्माण गवत २५११, वि० म०२०४२
अप्रैल-जन
१९८५
जिनवाणी-स्तुति परम जननी धरम कथनी, भावपारको तरनी ॥परम०॥ अनग्घिोष सापतको, अछरजुत गनघरों वरनी ॥रम०॥
गि द नयन जोगन ने, भविन को तत्व अनुमरना। पिथग्नी गडदरमर की, नित्थातममोह को हग्नी परम।। मुकनि मंदिर के बढ़ने को सुगमसो मरल नीस नी । अंधेरे कप में परतां, जगन उद्धार को करनी ॥परमा०॥ तपा के ताग मेटन कों, करन अमिरत वचन झरनो । कथंचितवाद याचरनो, प्रवर एकान्त परिहरिनी ॥परम०॥
तेरा अनुभव करत मोकों, बहुत प्रानंद उर भग्नी । जिर्यो मंमार दुखिया हूं, गही अब ग्रान तुम मरनी परम। अरज 'बुध' जन को सुन जननी, होमेरी जनमानी। नमं कर जोर मन-वच ते, लगाके मोस को धरनी परम०॥
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मुच्छा परिग्गहो वुत्तो
D डा. ज्योति प्रसाद जैन
अपरिग्रह का अर्थ है परिग्रह का अभाव और 'परिग्रह वैभव से नहीं मापा जा सकता। उसे कहते हैं जो आत्मा को सर्व ओर से घेरे व बांधे पुरातन जैनाचार्य कह गए हैं कि जो निर्ग्रन्थ होता रखता है-"परितो गृह णाति आत्मानमिति -परिग्रहः" । है, भीतर-बाहर दोनों से सर्वथा निष्परिग्रह होता है, वही घेतन-अचेतन, घर-जायदाद, धन-दौलत आदि अनगिनत सच्चा चक्रवर्ती होता है-लौकिक चक्रवर्ती सम्राट का बाह्य भौतिक पदार्थ मनुष्य को बांधे रखते हैं । वह अह- अपार वैभव भी उस महात्मा की दिव्य विभूति के समक्ष निश उनके अर्जन, संग्रह, सुरक्षा की चिन्ता में तथा उनके सर्वथा नगण्य है, हेय है। प्रसिद्ध दार्शनिक हेनरो डेविड नष्ट हो जाने या छिन जाने के भय से व्याकुल रहता है। थोरो की उक्ति है कि "सबसे बडा अमीर वह है जिसके वह उन्हें ही अपना जीवन-प्राण समझता है। अतएव वे सुख सबसे सस्ते हैं-आत्मा की आवश्यकताएं जुटाने के सब पदार्थ सामान्यतया परिग्रह कहलाते हैं । किन्तु, लिए पैसों की आवश्यकता नही होती ।" गोल्ड स्मित्र वास्तव में स्वयं वे पदार्थ परिग्रह नहीं है, वरन् उनमें जो कहता है कि "हमारी प्रमुख सुविधाएं व बारामतलबियां व्यक्ति की मूछा है, ममत्वभाव है, आसक्ति है, वही ही बहुधा हमारी सर्वाधिक चिन्ना का कारण होती हैं परिग्रह है, और इस परिग्रह का मूल कारण उसकी और जैसे-जैसे हमारे परिग्रह मे-हमारी धन-सम्पत्ति मे कामनाएं, इच्छाएं, आकांक्षाए, लोम, तृष्णा या आशा बढोत्तरी होती जाती है। हमारी चिन्ताएं भी बढ़ती हैं । जिसका चित्त इन आशा-तृष्णादि विकारों से ग्रस्त जाती हैं, नित्य नवीन चिन्ताएं उत्पन्न होती जाती हैं, हो रहता है, उसके पास अटूट धन वैभव हो तो भी उसे शायद इसीलिए किसी ने कहा कि जिसने धन की सर्वसुख व शान्ति प्राप्त नहीं होती। इसीलिए एक शायर ने प्रथम खोज की, उसी ने मनुष्य के सारे दुःख भी साथ कहा है कि
ही साथ खोज लिए।" जमीयते दिल कहां हरीपो को नसीव ।
__अपने धर्म की, स्वरूप को, आत्मा और चित्त की निन्नानवे ही रहे कभी सो न हुए।
शान्ति को प्राप्त करने का आधार धन-सम्पत्ति या परितृष्णा प्रस्त जीवों को कभी भी चित्त की शान्ति ग्रह नही है, वरन् उसके त्याग मे, उसकी आशा व तृष्णा प्राप्त नही होती । वे सदा निन्यानवे के चक्कर में पड़े के घटाने में ही निहित है। रहते हैं, क्योकि पुरानी इच्छाओं की पूर्ति के साथ ही अहमक पूछता हैं वहां जाने की राह क्या है ? साथ तृष्णा की सीमा आगे-आगे बढ़ती जाती है। अतः जेब गर हल्की करे हर जानिब से रास्ता है। बह धनी होते हुए भी निर्धन हैं, वैभव सम्पन्न होते हुए भी जिन महानुभावों ने 'परिग्रह पोट उतारकर लीनो चारित रक हैं-'स हि दरिद्री यस्य तृष्णा विशाला'। वह यह पंथ' उन्ही ने आत्मधर्म प्राप्त किया है। जरा यह सोचना भूल जाता है कि
तो शुरू कीजिए कि धनवान होने की वह कौन सी सीमा दिल की तस्की भी है जिन्दगी की खुशी की दलील। है कि जिस पर पहुंचकर आपके और अधिक धनवान जिन्दगी सिर्फ जरोसीम का पैमाना नहीं बनने की इच्छा समाप्त हो जाय ? स्वय समझ में बा
जीवन के सुख का प्रयास चित्त का सन्तोष व शांति जाएगा कि इस मगतृष्णा से पार नही पाया जा सकता। है, मात्र धन-दौलत उसका माप-दण नही है-वह वाह्य
- (शेष पृष्ठ ३ पर)
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"श्री महावीराय नमः" पं० शिरोमणिदास कृत धर्मसार सतराई
सम्पादक-कुन्दन लाल जैन प्रिंसिपल
चौपाई वीर जिनेश्वर पनहु देव,
इन्द्र नरेन्द्र करत सत सेव । अरु बन्दों हो गये जिनराय,
सुमिरत जिनके पाप नसाय ॥१॥
(पृ. २ का शेषाश) आशव मदिराक्षाणाम आशव विषमंजरी । आशाभूतानि दु.खानि प्रभवन्ती देहिनाम् ॥ येषामाशा कुतस्तेषा मन. शुद्धि शरीरिणाम् । अतोनैराश्यमवलम्ब्य शिवीभूता मनीषिणः ।। तस्य मत्य-श्रुत वृत्त-विवेकस्तत्त्वनिश्चयः । निर्ममत्त्वच यस्याशा पिशाची निर्धनगता ॥
बड़ी भयकर है यह धनलिप्सा ! यह तृष्णा ही समस्त दुखो की जड़ है । इस आशा पिशाचिनी के नष्ट होने पर ही सत्य, श्रुतज्ञान, चारित्र, विवेक, तत्वनिश्चय और निर्भमत्व या अपरिग्रह जैसे गुण आत्मा में प्रगट होते हैंउसके रहते वे व्यर्थ हैं।
अस्तु, परिग्रह में निरासक्त रहने का अभ्यास करने, उसका परिमाण करने का तथा उक्त परिमाण की सीमा को निरन्तर घटाते जाने का अभ्यास करने से ही व्यक्ति शनैः शनेः अपरिग्रही हो जाता है, और सच्चे सुख एवं शान्ति का उपभोग करता है।
इस सन्दर्भ मे ज्ञातव्य है कि कृपालु जातृपुत्र भगवान महावीर ने पदार्थों को परिग्रह नही कहा, वरन् उन पदार्थों में होने वाली मूछा या बासक्ति को परिग्रह कहा है
न सो परिग्रहो वृत्तो नाय पुतण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इह वृत्तं महेसिणा॥
वर्तमान जे जिनवर ईस,
कर जोरों निज नाऊं (नम) सीस। जे जिनेन्द्र भावी मुनि कहे,
पूजहूं ते मैं सुर मुनि महे ॥२॥ जिन वाणी पनहुँ (प्रणम्) धरि भाव,
भव जल राशि उतारन नाव । पुनि बन्दो गौतम गणराय,
धर्म भेद जिन दिये बताय ॥३॥ आचार्य कुन्द कुन्द मुनि भये,
सुमिरत जिनके सब दुख गये। अरु जे जिनवर भये अपार,
पनहु तिनहिं ते भव दघि तार ॥४॥ सेवू सकल कीति के पाय,
सकल पुगन कहे समुन्नाय । जिन सद् गुरु कहि मगल लहों,
धर्मसार शुभ ग्रन्थहि कहीं ॥१॥ जानवन्त जे मति अति जानि,
ते पुनि प्रन्थ न सकइ बबानि । मैं निल रज्ज मूरख अति सही,
कह न सकों जैसे गुरु कहि ॥६॥ अरु वा सुन जो बहुमद जन,
तो कह सूरज किरणें गर्न । जिनवर से ए मन बच काय,
धर्मसार के हो सुख दाय ॥७॥ भव्य जीव सुनि के मन धरै,
मूरख सुनि बहु निन्दा करें। सुगति कुगति को यह स्वभाय,
गहे जीव नहीं मैलो जाय ॥८॥
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४, वर्ष ३८ कि.२
अनेकान्त
सुनह भव्य तुम थिरु चितु लाय,
मुकति पन्थ मारग यह आय । श्रावक जतिवर भेद आचार,
वर्णन कर सकल हितकार || दीप असंख्य कहे जिन राय,
जम्बू द्वीप तामे सुखदाय । मेरु सुदर्शन तामे कहै,
दक्षिण दिशा भरत वर्णनये ॥१०॥ आर्य खण्ड पुनि सोहै जहा,
मुनिवर विहरै आरज तहा। तामैं मगध देश सुख खानि,
स्वर्ग खण्ड मनु उतर्यो आनि ॥११॥ राजगृह तहां नगर वसाइ,
भोग भूमि मनु सोहै आइ । दीस जिनवर भुवन प्रकासु,
सुर नर बन्दन आ'त तासु ॥१२॥ पूजा जाय बहु सरजन कर,
मिथ्या दोष पाप परि हरे। नर नारी मनु देवी देव,
छांडि कुधर्म करें जिन सेव ॥१३॥ राज कर तहं श्रेणिक भूप,
कामदेव जीतो निज रूप । दाता शीलवन्त परवीन,
तजि कुधर्म जिन धर्महिं लीन ॥१४॥ सती शीलवन्त रम्भा समवाम,
तिन्हकें रानी चेलना नाम । राजा रानी सहित विराज,
कामदेव मानो सति छाजे ॥१५॥ वारिषेण सुत अभय कुमार,
इन्द्र उपेन्द्र सोहै दोइ सार । अवर अनेक सोहै शुभ राज,
मन बाछित सब पूरै काज ॥१६॥ बैठि सिंहासन श्रेणिक भूप,
मनी इन्द्र धरि प्रायो रूप । सभा सहित देखें नर ईस,
वनपा (मा) ली निज नायौ सीस ॥१७॥
षट्ऋतु फूल फल आगे धरै,
देखत दृष्टि सबके मन हरै। गजा देखत हर्षितगात,
वन माली बोले शुभ बात ॥१८॥ महाराज राजनि के राज,
पुण्य तुम्हारे सब सरै काज । समोशरण विपुलाचल रची,
रल पदारथ मोतिन खचौ ॥१६॥ प्रभु श्री पौर जिनेश्वर देव,
आये, इन्द्र करत सब सेव । सुनिकर राजा हपित भयो,
सान पंडि चलि बन्दन गयो ॥२०॥ दिशा देख तिन सीस न वाइ,
पुनि सिंहासन पर बैठे जाइ । मन बांच्छित बन पालहि दियो,
आनन्द भेरी नगर मे कियो ॥२१॥ गोठि सहित चालेऊ नरेन्द्र,
अन- मर्याद भयऊ आनन्द । मान स्तम्भ जब देखे राय,
गलित मान सब ही को जाय ॥२२॥ रथ ते उतरि पायदे भये,
जय जय करत सभामे गये। श्री जिनेन्द्र जब बन्दे जाय,
जनम जनम के पाप नसाय ॥२३॥ दोऊ कर जोड़ि प्रदक्षिणा दई,
निर्मल मति राजा की भई । सीस नवाइ जिनेन्द्रहिं पेखियो,
जनम सफल गजा देखियो ॥२४॥ अष्ट भेद विधि पूज कराय,
जाते आवा गमन नसाय । तुम जिनेन्द्र त्रिभुवन आधार,
मुक्ति कामिनी तुम उर हार ॥२५॥ निष्कलंक परमातमा ईस,
वीतराग पावन जगदीश । ज्योति रूप निरजन शुद्ध,
चिदानन्द भगवान सुबुद्ध ॥२६॥
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. शिरोमविकास कृत धर्मसार सतसई
अजर अमर तुम दीन दयाल,
पुरुषोत्तम पावन जगपाल । तुम्हरो ध्यान धरै र कोइ,
त्यागि देह परमातम होइ ॥२७॥ अष्ट भेद विधि पूज कराय,
जात आवागमन नाय । तुम जिनेन्द्र त्रिभुवन आधार,
मुक्ति कामिनी तुम उर हार ॥२५॥ जो नर पूज तुम्हारी कर,
भव सागर मो लीज तर। जो जस करै तुहागे आय,
ताकी कीरति रही जग छाय ॥२८॥ जो नर शरण म्हारो लेट,
मो भव दुख जलाजलि देइ । जो तुम्हरो पनु राखे देव,
सुरपति आय कर तमु सेव ॥२६॥ गणधर देव जो मनि अति सार,
तबहु न तुम गुण पावहिं पार। हमसे नर जउ दोपनि बन,
तुम गुण जाइन हममों गर्न ॥३०॥ नमो नमो तुम दया निवास,
नमो अरहन्त नमो गुण वास । तुम्हरी सेवा यह फल पाऊ,
जातें भव सागर तरि जाऊं ॥३१॥ इह विधि राजा सुकृत कमाए,
क्षायक समकित फल तिन पाए । पुनि श्रेणिक तव गये तहा,
गौतम गणघर बैठे जहाँ ॥३२॥ दोऊ कर जोडि जु बन्दे पाय,
पुनिनर कोठा बैठ जाय । अशोक वृक्ष जब देखो भूप,
शोक रहित पेखो निज रुप ॥३३॥ पुण्य वृष्टि वरसें असरार,
महा सुगन्ध सकल हितकार। चौसठ चवर ढोर सुरराय,
चन्द्रकिरण दोस अधिकाय ॥३४॥
सिंहासनत्रिक तापरि दीस,
अन्तरीक्ष कमलासन ईस । तीन छत्र ऊपरि अति रहे,
तीन लोक की प्रभुता कहै ॥३॥ भामण्डल धुनि अधिक पकास,
कोटि सूर्य शशि छवितहि नास । दुदुभि देव बजावहिं तार,
___ साढ़े बारह कोटि अपार ॥३६॥ जिनवर वाणी जबहुं छल,
सकल जीव के संशय गल । द्वादश जग मुनि गणधर कहैं,
सकल जीव मुनिक मन धरं ॥३७॥ श्रेणिक पूछ मन बच काय,
धर्म भेद कहिए समुन्माय । म्वर्ग मोक्ष फल कैसे होय,
मो कृपा करि वरणे सोई॥३०॥ श्रावक जतिवर भेद है जैसे,
सो समुझावो मुनिवर तसे । कसे जीव चहुगति में पर,
कमे जीव भव सागर तिरं ॥४०॥ पगु अन्ध निर्धन धनवन्त,
नउ पण्डित पद पावहिं सन्त । पुत्र हीन बहु रोग अपार,
बहुत दुख भुगत ससार ॥४१॥ ए पुनि अवर कहै हित जानि,
तुम उपकार करो सुख खानि । ___ दया दान दोर्ज उपदेश,
जातें तिरं ससार अशेष ॥४२॥ द्वादश कोठा के सब प्राणी,
श्रेणिक प्रश्न यह मन मानी। धन्य धन्य श्रेणिक तुम उपकारी,
गणधर पूछ सब हितकारी ॥४॥
दोहा हस्त कमल दोऊ जोड़िकर श्रेणिक प्रश्न जु कीन । मनमें अतिढ़ता मई, सुभये धर्म पर लीन men
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६ वर्ष ३८, कि०२
श्री जिन चरण हृदय रह सकल कौति उपदेश । चार लब्धि इह जीव के, भई अनन्त जु वार । पण्डित सिरोमणि दास कों शिवपुर-देहु-प्रवेश ॥४॥ करण लब्धि जब आव ही, उपजे समकित सार ॥८॥ इति श्री धर्मसार अन्य भट्टारक श्री सकल कोतिउपदेशात् पण्डित शिरोमणि विरचिते राजा मुनु श्रेणिक समकित को वास, मेणिक प्रश्न करण वर्णनो नाम प्रथमो सन्धि ॥१॥
समकिति उत्पति चिन्ह विनास । अथ द्वितीय सन्धि प्रारम्यते :
भूषण, दूषण, हैं अतिचार,
पुनि गुण वरनो अष्टो सार ॥६॥ चौपाई प्रभु मुख निर्मल ध्वनि जब ठई,
अथ सम्यक्त्व यथा
सत्य प्रतीति अवस्था जाकी, अर्ध मागधी वाणी ठई।
समता सब सों दिन दिन ताकी। द्वादशांग मुनि गण घर कर,
सत्य को लाभ क्षण क्षण होय, सकल भव्य के पातक हरे॥१॥
समकित नाम कहावै सोय ॥१०॥ गणधर कहै सुनिर्मल वाणी, सुन श्रेणिक तुम थिर चित आनी।
अथ उत्पत्ति धर्म मूल सम्यक्त्व कहावे,
के तो सहज ऊपज आय, जातें जीव महा सुख पावै ॥२॥
के मुनिवर उपदेश बताय ।
चारो गति में समकित होई, जिनवर वाणी निश्चय कर,
यह उत्पत्ति जो तुम लोई ॥११॥ गुरु निर्ग्रन्थ सत्य मन धरै । दया धर्म कहिए संसार,
अब चिन्ह यह समकित तार भव पार ॥३॥
आपा पर सों कर विशेष, सात प्रकृति जब उपशम कर,
उपज नही सन्देह अशेष । उपशम समकित तव जीव धर।
सहज प्रपच रहित हितकारी, पुनि सातऊ की कर निरासा,
समकित चिन्ह धरै सा चारी ॥१२॥ क्षायक समकित है गुण वासा ॥४॥
अथ नाश दोहा कछु उपशम कछु नासै लोइ,
ज्ञान गर्व मति मन्दता, निठुर वचन उद्गार । वेदक समकित कहिए सोइ। रुद्र भाव आलस दशा, नाश पांच प्रकार ॥१३॥ तीनों मिलि पुनि नवधा भए,
अब दूषण दसधाभेद अवर जिन कहै ॥५॥ चित्त प्रभावना मन में ठाने, हेय उपादेय लक्ष्य न जाने । अब समकित उत्पत्ति, चिन्ह, नासन, भूषण, दूषण, धारज सहज हरषता हाय, प्रवानजुपच भूषण सोय ॥१४॥ अतिचार गुण, गति, फल वर्णन कम्यते
अब दूषण
षट् अनायतन मूढ़ त्रिक, मद अष्टौजिय जानि । अध, अपूर्व, बनवृत्ति त्रिक, करण कर जो कोह। शंकादिक अष्टो कहै, ए पच्चीस वखानि ॥१५॥ मिथ्या ग्रन्यि विदारि के गुण प्रकटे समकित होइ॥६॥
अब षट् अनायतन सात बीस जे तत्व है, वर्तत तीनो काल । कुगुरु कुदेव कुधर्म धर कुगुरु कुदेव कुधर्म । तिनके भेद विचार में, समकित होय तत्काल ॥७॥ इनकी कर सराहना, यह षट् अनायतन कर्म ॥१६॥
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पं०शिरोमनिवास त धर्मसार सतसई
अब मूह प्रय देव कुदेव जु एकहू जान, सुगुरु कुगरु जो समकरि मान । शास्त्र कुशास्त्र जु एकहु लहै, मूढ़ तीन ए सद्गुरु कहै ॥१७॥
अब अष्ट मद जाति लाभ कुल रूप वय, विद्या तप अधिकत जानि । एक अष्टौ मद है दुखदाई, इनकी संगति दुर्गति जाई ॥१८॥
अथ शंकादिक बोष आशका अस्थिरता वाछा,
ममता दृष्टि सदा दुर गछा। वत्सल रहित दोष पर भाष,
चित्त प्रभावना माहि न राख ॥१९॥
अब अतिचार लोग हास भय भोग रुचि धरै,
अग्र सोच थिति निश्चय करें। मिथ्या आगम भक्ति प्रकास,
मृषा अदर्शनो सेवा भास ॥२०॥
___अप अष्ट गुण देह भोग ससार विनामी,
इनते जबनर होय उदासी। इनकी सगति दुर्गति लहिए,
सवेग भावना तासौं कहिए ॥२२॥ न कोऊ काहू को हितकारी,
न हम काहू के अतिभारी। आप आपुको आपहि बाधे,
यह निर्वेद भावना साध ॥२३॥ पर निन्दा कीन्हे सन्ताप,
पर को दु:ख दिये बहु पाप । अपनी निन्दा आपुहि कर,
__सो समकित को गुण ले तिरं ॥२४॥ व्रती साधु देखे साचारी, ताकी महिमा कीजै भारी। जो विषयी की महिमा कर,सोनर निश्चय दुर्गति भर ॥२५॥ दया दान सब ही को दीज,
क्षमा भाव सब ही सो कोज । दुख सुख निदान न कबहुं करे,
सो समकित पचम गुण धरै ॥२६॥
नवधा भक्ति कही गुरु जैसी,
की आप जिनिवर की तैसी। आपनु करहि और सो कई,
अष्टम गुण समकित को लहई ॥२७॥ ज्ञानी व्रती असहायी देखें,
यती साधु जो रोगी पेखें। ताको सहाय करै निज हेत,
यह वत्सल गण जानो चेत ॥२८॥ अस थावर जे कोई जान,
सूक्ष्म, वादर जिय में आने । दया जीव की पालह वीर,
अनुकम्पा गुण जानहु धीर ॥२६॥ ए आठहु गुण मावहिं जबही,
जियको ऊपजे समकित तवही । पुनि पाचहु मिथ्यात्व नसावं,
समकित निर्मल तव जीव पाये ॥३०॥ अथ पंचमिथ्यात्व के नाम कवित इकतीसा प्रथम एकात नाम मिथ्यात्व, अभिग्राहिक दूजो विपरीत,
आभिनिवशिक गोत है। तोजो विनय मिथ्यात्व, अनाविग्रह नाम जाकी, चौथो संशय
जहां चित भंवर कैसों पोत है। पांचमों अज्ञान अनभोगी, कगहल रूप जाके उदय चन
अचेतन सो होत है। यही पाचों मिथ्यात्व भ्रमावे जीव को, जगत में उनके
विनास समकित को उदोत हैं ॥३१॥
अथ एकान्त जो एकांत पक्ष मन आनं,
मय अनेक जो भेद न जाने । मृषावन्त हठ दक्ष कहावे,
सो एकांत मिथ्यात्व कहावै ॥३२॥
अब विपरीत आदि अन्त जे भेद बताए,
सुनि सब गुन घरके मन भाये । ताको उथपि जु नौतन धरै,
सोविपरीत मिथ्यात बर्च ॥३॥
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८,
३८, कि.२
अनेकान्त
अप विनय दोहा देव कुदेव सुगुरु कुगुरु गर्न समान जो कोई। नमै भक्ति सो सबनिको, विनय मिथ्यान्वी सोई ॥३४॥
अथ सशय जो नाना विकलप गहै, रहै हिये हैरान । थिर के तत्व न श्रद्ध है, सो जिय सशय पान |॥३५॥
अथ अज्ञान : चौपाई निजको सुख दुख जाने है चेत,
परपीडा जो करइ सुचेत । अपने स्वारथ पहिं सताव,
सो अज्ञान मिथ्यारा कहावै ॥३६॥
अथ सादिमिथ्यात्व मिथ्यात्व सकल जो उपशम कर,
____ अथ भेद बुध पापहिं हरे । फर उदय मिथ्यात्वहि आवं,
साहु सादि मिथ्यात्व कहावै ॥३७॥
अब अनादि मिथ्यात्व उपशम भाव न कबहुं भयो,
अन्तकाल जीव भ्रमनि गयो । ममता मगन विकलप ह रहो,
अनादि मिथ्यात्व यह सद्गुरु कहो ॥३८॥
अथ मिथ्यात्व करनी अरु मिथ्यात्व करनी दुखदाई,
तजिए समकित हेतु जु भाई। . हाथी घोड़ो बैल जु गाय,
पूजा इनकी है दुखदाय ॥३९॥ पूरब पाप कर जीव घोर;
तब जीव मर के होय जु ढोर । जो नर पूजा इनकी कर,
सो नर निश्चय दुर्गति पर ॥४०॥ बड़, पीपल, ऊमर आवरी,
तुलसी दूब निगोदह भरी । इनकी सेवा जो नर करे,
सो नर निश्चय दुर्गति परै ॥४१॥
व्यतर भूत सती शीतला,
सूरज दिया (दीपक) चन्द्र की कला । यक्ष नाग ग्रह देवी जाने,
नदी होय जे आयुध माने ॥४२॥ गोबर थापि जु पूजा थान,
गाय मूत्र ले मुख मे आने । बवें (बोना) भुजरिया मोटें भूठ,
करे श्राद्ध जानि जन रूठ ॥४३॥ ५ पुनि अवर सुनो तुम राजा,
तजिए समकिन हेतु के राजा । मिथ्या मारग छोई रहो,
सो समकित जीव निश्च लहौ ॥४॥
अथ सम्यक्त्व महिमा थावर विकल त्रय कहै, निगोद असैनी जानि । म्लेच्छखंड जे जिन भण, कुभोगभूमि मन आनि ॥४५॥ षट् अघ भूमि जु नरक की, खोटी मानुष जाति । तीन वेद होइ वेद पुनि, ए जानो दुख पाति ॥४६॥
चौपाई जब समकित उपजे सुनि भूप,
ए सब पदवी धरै न रूप । यह मब महिमा समकित जानि,
होई जीव को सब सुख खानि ॥४७॥ नर गति में नर ईश्वर होय,
देवनि मे पति जानो सोय । इह विधि भव जीव पूरण कर,
पुनि सो मुक्ति रमणी को बरै ॥४८॥ नभ में जैसे भानु है ईस,
रत्ननि मे चितामणि दीस । कल्प वृक्ष वृक्षनि में हार,
देव जिनेन्द्र देबनि में सार ॥४६॥ सकल नगनि (पर्वत) में मेरु है जैसे,
सब धर्मनि में समकित तैसे । यही जानि जीव समकित धरी,
भव सागर दुख जाते तरी ॥५०॥
(शेष पृ०१६ पर)
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भ. महावीर जन्मस्थान विषयक विवाद
O. ज्योतिप्रसार जैन
कैसी विचित्र बात है कि प्राचीन भारत के सर्वमहान के विषय में कई-कई मत भेद है-निर्वाणभूमि पावा या परम पुरुषों में परिगणित निग्रन्थ-श्रमण जैन परम्परा के पावापुरी के कम से कम चार विकल्प सामने बाये, अन्तिम तीर्थकर निग्रंन्य-शातपुत्र भगवान वर्धमान केवलज्ञानस्थल, ऋजुपालिकानदी तटवर्ती भिकग्राम के महावीर (५६९-५२७ ईसापूर्व) जैसे असदिग्ध रूप से बहिउंद्यान की स्थिति मात्र अनुमानाधारित है, और ऐतिहासिक व्यक्तित्व के पावन जीवन से सम्बद्ध प्रमुख ज्ञातृखण्डवन नामक उनकी दीक्षाभूमि को क्योंकि जन्मस्थानों की पहचान अभी तक सुनिश्चित नहीं हो पाई- भूमि कुण्डपुर का निकटस्थ बन सूचित किया गया है, उनकी जन्मभूमि, दीक्षावन, कैवल्य प्राप्ति स्थान और जन्मभूमि की मान्यता के सान्यता के साथ ही उसके भी निर्वाण भूमि की सही-सही चिन्ह आज भी विवाद का तीन विकल्प हो जाते हैं। छदमस्थकाल तया तदुपरान्त विषय बनी हुई है। उनका जीवन, व्यक्तित्व एव कृतित्व भी उन्होंने किन-किन स्थानों में विहार किया, या कहांआधुनिक इतिहास वेत्ताओ की दृष्टि से भी प्रमाण सिद्ध कहां उनका समवसरण गया, तविषयक पर्याप्त ऊहापोह शुद्ध इतिहासकाल की परिधि के भीतर आते हैं। उनके के पश्चात भी उनमे से अनेक स्थानों की पहिचान सुनिनिर्वाणोपरान्त के गत अढाई सहस्र वर्षों में उनकी शिष्य श्चित नहीं है-केवल राजगृह (वर्तमान पटना जिले का परम्परा के आचार्यों की तथा उनके द्वारा पुर्नगठित मुनि- राजगिर) अपरनाम पवशीलपुर, जो महावीर युग में आयिका-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध सघ की परम्परा मगधदेश एवं साम्राज्य की राजधानी थी, और जिसके प्राय: सम्पूर्ण भारत महादेश व्यापी होकर अविच्छिन्न विपुलाचल, वैभारगिरि आदि पर भगवान का समवसरण रहती आई है। प्राप्त शिलालेखो मे उनके उल्लेख ई० पूर्व अनेक बार जहा और उनका लोक कल्याणकारी दिव्य पाचवी शती से उनकी प्रतिमाएँ अथवा कला में उनके उपदेश हआ, की पहिचान एवं स्थिति ही सुनिश्चित है। मूत्तीकन तीसरी शती ई० पूर्व से और लिखित साहित्य उपरोक्त प्रान्तियो का एक कारण तो शायद यह में भी ईस्वी सन् के प्रारम्भ के पूर्व से ही उनके उल्लेख रहा कि भगवान महावीर की परम्परा के प्रारम्भिक तथा जीवन की घटनाओ के सन्दर्भ मिलने लगते हैं- आचार्य, कमसे कम लगभग छ:-सात शताब्दियो पर्यन्त, जैन साहित्य में ही नहीं, ब्राह्मण एव बौद्ध परम्परा के सर्वथा निरारम्भी निष्परिग्रही ज्ञान-ध्यान-तपोरत निग्रन्थ प्राचीन साहित्य में भी उनके उल्लेख प्राप्त होते हैं। वनवासी सन्त रहे, जिनका लोकसंग्रह तथा स्थूल इतिहास उनके पचकल्याणक स्थान भी पवित्र तीर्थ क्षेत्रो के रूप मे जैसे लौकिक ज्ञान के प्रति उपेक्षा भाव रहा । अतएव, वन्दनीय रहते आये हैं । देश के अनगिनत जिन मन्दिरो मे यद्यपि उस काल मे भगवान महावीर से सम्बद्ध स्थान जैन परम उपास्य के रूप मे उनकी प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं। धर्म के प्रमुखगढ़ या केन्द्र रहते रहे, तत्सम्बन्धित भौगोविभिन्न प्राचीन एव अर्वाचीन भाषाओ तथा विविध लिक एवं ऐतिहासिक सूचनाएँ भावी सन्ततियों के लिए शैलियों में रचित उनसे सम्बन्धित साहित्य भी विपुल हैं। सुरक्षित नही रह पाई। दूसरे, उक्त काल के उपरान्त, किन्तु जबकि उनके पूर्ववर्ती ऋषमादि-पार्श्वनाथ पर्यन्त जब जैनाचार्यों की ऐतिहासिक जिज्ञासा जागत भी हुई तो २३ तीर्थंकरों के जन्म-दीक्षा-ज्ञान-निर्वाण स्थल, एकाध वे स्थान काल दोष से-प्राकृतिक, आपिक आदि अनेक अपवाद को छोड़कर, प्रायः असदिग्ध रूप से सुनिश्चित कारणों से-जैनजनशून्य हो गये, उनमे जो सुन्दर एवं रहते आये हैं, स्वय भगवान महावीर की जन्मभूमि विशाल महानगर थे वे भी अधिकांशतः ध्वस्त एवं निर्जर दीसावन, कैवल्य प्राप्ति स्थल और निर्वाण क्षेत्र की स्थिति होकर शनैः-शन: विस्मृति के गर्भ में विलीन हो गये
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१०, वर्ष, कि०२
अनेकान्त
परम्परा अनुश्रुतियों में उनके नाम मात्र बच रहे । लगभग बावस्ती, साकेत, प्रयाग, कौशाम्बी, कम्पिल, सारनाथ एक-डेढ़ सहस्त्र वर्ष के इस अन्धान्तराल का परिणाम यह आदि बौद्ध अनुश्रुतियों के महत्वपूर्ण स्थानों की खोज एवं हुआ कि लोग उनकी ठीक स्थिति की पहिचान भी भूल पहिचान की गई। किन्तु स्वय भगवान बुद्ध के पिता की गये। उत्तरमध्य काल, अर्थात गत चार-पांच शताब्दियों राजधानी कपिलवस्तु की निश्चित पहिचान अभी नही हो मे ज। व्यापार व्यवसाय या अन्य ऐसे ही कारणों से अन्य पाई है । उनको जन्मस्थली लुम्बिनि की स्थिति भी सर्वथा प्रदेशों के जैन बिहार-बगाल के प्रमुख नगरो में जाकर सुनिश्चित नहीं है और उनके जीवन से सम्बन्धित मल्लों बमने लगे तो उन्होने अपने भगवान महावीर सम्बन्धी की पावा की पहिचान भी, जहाँ चुन्द लुहार ने उन्हें तीर्थस्थानों की खोज की। जहां कुछ ठोस आधार मिले "शूकर मद्दाव" का आहार दिया बताया जाता है, जिसे तथा राजगिर विषयक, अथवा अपेक्षाकृत कुछ पुरातन खाकर कुछ ही समय पश्चात् कुशीनगर मे उनका परिमान्यता प्राप्त हुई यथा पावापुर विषयक, उन्हे तो मान्य निर्माण हुआ । अभी विवादस्थ है-देवरिया जिले के कर ही लिया गया, और जहां यह सुविधा नही वहां अनु- पडरौना, पपउर और सठियावडीह-फाजिलनगर, तीन मान, कल्पना, अथवा किसी भट्टारक या यति की प्रेरणा विकल्प प्रस्तुत किये जाते हैं । अन्तिम स्थान को पावासे तीर्थ स्थापना कर ली गई । भगवान की जन्मभूमि के नगर नाम देकर अनेक जैन उसे ही महावीर को निर्वाण विषय में कुछ ऐसा ही हुआ लगता है । दिगम्बरो ने भूमि भी मानने लगे हैं। राजगिर के निकटस्थ नालन्दा के खण्डहरो के उस पार प्राचीन बौद्ध स्थानों की खोज के सिलसिले मे वज्जिस्थिति बडागाव के बाहर मन्दिर निर्माण करके जन्मभूमि गण सघ की केन्द्र विदेह देशस्थ महानगरी वैशाली का कृण्डलपुर की स्थापना कर ली और श्वेताम्बरो ने मुगेर अनुसन्धान भों चाल था । अन्ततः गगानदी के उत्तर में, जिले मे जमुई के निकट सिकन्दरा प्रखण्ड के एक गांव को उत्तरी बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में स्थित बसाढ़ या जिस लछाडया लिछुआड़ भी कहते हैं, जन्म-स्थान बनियाबसाढ नामक गांव व आस-पास के क्षेत्र को प्राचीन की मान्यता दे दी। ये दोनों मान्यताएँ डेढ-दो सौ वर्ष वैशाली के रूप में चीन्हा गया । इस विषय मे देशी-विदेशी पुरानी प्रायः आधुनिक ही हैं । किन्तु जब एक मान्यता जैन व अजैन विद्वानो मे प्रायः मतभेद नहीं है। चल पाटनी है तो अनुयायी समुदाय उसे पकडकर बैठ जाता सयोग से. महावीर-बदकाल में जिस वजिजगणसघ है, उममे परिवर्तन करने से उसकी भावनाओं को ठेस की महानगरी वैशाली थी, उसके गणाध्यक्ष लिच्छविकुलोलगती है।
त्पन्न महाराज चेटक थे। उनकी सुपुत्री त्रिशता देवी, लगभग डेढ सौ वर्ष पूर्व भारत सरकार के तत्वाव
अपरनाथ प्रियकारिणी एवं विदेहदत्ता, कुण्डलपुर, वधान में देश के विभिन्न प्रांतो के पुरातात्विक सर्वेक्षण
प्राता के पुरातात्विक सवक्षण (कुण्डपुर, कुण्ड ग्राम, क्षत्रियकुण्ड, क्षत्रियकुण्ड ग्राम या का कार्य जोर शोर के साथ प्रारम्भ हुआ। जनरल बसकण्ड) के नरेश सिद्वार्थ के साथ विवाही थी, और इस कनिपम आदि ये सर्वेक्षण प्राय. तब ही विदेशी थे, और महाभाग दम्पति के मात्र ही तीर्थकर महावीर थे। उम ममय तक बौद्ध धर्म एवं बौद्ध अनुश्रुतियो से भली- पुज्यादीय निर्वाणक्ति (पाचवी शती ई०) जिनभांति परिचित हो चुके थे। अतः तत्सम्बन्धित प्राचीन सेनीय हरिवंश पुराण (७८३ ई०), गुणभद्रीय उत्तरपुराण स्थानों की खोज और पहिचान उनका प्राथमिक लक्ष्य (लगभग ८५०ई०) प्रभूति पुरातन दिगम्बर साहित्य मे रहा । फाहयान (चौथी शती ई०), युवान च्वाग (सातवी “विदेह देशस्थ कुण्डपुर" को भगवान महावीर को जन्म - शती ई०) प्रभृति कई चीनी बौद्ध यात्रियो के यात्रा- भूमि सूचित किया है। श्वेताम्बर परम्परा के आचारांग, विवरण भी उन्हें उपलब्ध थे। अतः उक्त बौद्ध स्थलों की कल्पसूत्र, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र आदि पुराण ग्रयों में पहिचान मे इन वृत्तांतों को प्रायः मूलाधार बनाया उसका वर्णन "उत्तर क्षत्रिय कुण्डपुर सनिवेश", क्षत्रियगया । फलस्वरूप राजगृह, पाटलिपुत्र, बोधिगया, नालंदा, ग्राम नगर, क्षत्रियकुण्डग्राम नामरूपो में हुआ है।
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भ० महावीर जन्मस्थान विषयक विचार
अस्तु, विद्वत्समुदाय की अधिकांशतः यह धारणा से यह बात प्रगट है।" तदनन्तर श्वेताम्बर मुनि कल्याण आई है विदेहदेश (उत्तरी बिहार) की महानगरी वैशाली विजयजी ने अपनी पुस्तक "श्रमण भगवान महावीर" का ही एक सन्निवेश उपनगर अथवा नातिदूर स्थित नगर (पृ. २५) मे इसी मत की पुष्टि की और "आजकल" गा अथवा नातिदूर स्थित नगर ही भगवान महावीर की "आधुनिक" क्षत्रियकुण्ड (अर्थात लछाड) विषयक नवीन जन्मभूमि कुण्डपुर (कुण्डग्राम वा क्षत्रियकुण्डग्राम) था। मान्यता का खण्डन किया । श्वेताम्बराचार्य विजयेन्द्रमूरि प्राचीन जैन साहित्य मे भगवान का एक विशेषण ने १९४६ ई. मे प्रकाशित अपनी पुस्तक "वैशाली" में "वैशालिक" भी प्राप्त होता है-इससे भी उपरोक्त पर्याप्त ऊहापोह करके अन्त मे (पृ. ४०-४१) लिखा हैनिष्कर्ष की पुष्टि है। हेमचन्द्राचार्य ने एक स्थान पर "यह स्पष्ट है कि प्रान्तिवशलिच्छुआड के निकट पर्वत के उक्त नगर को "सिद्धार्थपुर भी कहा है। यतिवृषभ ने ऊपर के स्थान को क्षत्रियकुण्ड मान लिया गया है। यहां "कुण्डल" और पट्ख हागम के वेदनाखण्ड में 'कुण्डलपुर' भगवान का कोई भी कल्याणक-चवन, जन्म और दीक्षानाम रूप मिलते है ।
नही हुआ। शास्त्रो के अनुसार हमारी यह सम्मति है कि वर्तमान गती के द्वितीय दशक तक वर्तमान बसा के
जो स्थान आजकल बमाढ नाम से प्रसिद्ध है वही प्राचीन के साथ प्राचीन बैशाली का समीकरण प्राय. सुनिश्चित वैशाली है। दमी के निकट क्षत्रियकुण्डग्राम था जहां हो चका पा । सुनने में तो यह भी आया है कि उत्तरी भगवान के तीन कल्याणक हुए थे। डा. जगदीशचन्द्र जैन बिहार के छपरा आदि जिलो के जैन उक्त स्थान को ने भी अपनी पुस्तक "भारत के प्राचीन जैन तीर्थ" (बनाजन्मभूमि मानकर वहा पहले भी जाते-आते रहे है। रम, १९५२, पृ० २८-२६) में लिखा है कि "मुजफ्फरपुर किन्तु तीसरे दशक से उसका प्रभूत प्रचार भी हुआ। जिले के बगाढ ग्राम को प्राचीन वैशाली माना जाता है। जिसमें पटना के इन्जीनियरिंग कालेज के प्रो० अनन्तप्रसाद वैशाली के पास कुण्डपुर नाम का एक नगर था। यहा जैन लोकपाल छपरा के श्री कन्हैयालाल मरावगी प्रभनि महावीर का जन्म हुआ था । कुण्डपुर क्षत्रिय कुण्डग्राम कई सज्जनो ने विशेष योग दिया। शनै शनैः वैशाली और ब्राह्मण कुण्डग्राम नामक दो मोहल्लो मे बटा था। बिहार नाम से बनाढ़ में एक जैन धर्मशाला तथा महावीर कुण्डपुर में ज्ञातृ ण्ड नाम का सुन्दर उद्यान था। महावी. जिनालय का निर्माण हुआ। स्व. माहू शान्तप्रमादजी की न दीक्षा ग्रहण को यो । आधुनिक वसुकुण्ड को कुण्डपुर प्रेरणा एव दानशीलता के फलस्वरूप वहा बंगाली जन माना जाता है।" म्यानकवानी आचार्य हस्तीमल्लजी के अहिमा एवं प्राकृत शोध सम्थान की स्थापना हुई। प्रति ग्रथ "जैन धर्म का मौलिक इतिहाम-प्रथम भाग (जयवर्ष भगवान महावीर जयन्ती उत्सव भी वहा निर्यात पुर, १९७१ पृ० ३५०.३५२) मे तथा प० बनभद्र जन रूप में मनाया जाने लगा। बसान मे लगभग पांच कि० को "भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ-द्वितीय भाग" मी० की दूरी पर उत्तर दिशा में स्थित एक स्थल के (बम्बई, १६७५ पृ० ३६.४२) मे भी नालन्दा वाले कुण्डलसाथ वसुकुण्डपुर का समीकरण करके वहा भगवान के पुर और लिछाड वाले क्षत्रियकुण्ड, दोनो को ही आधुजन्मस्थान के अतिभव्य स्मारक का शिलान्यास भी ममा- निक एवं भ्रान्ति मान्यताएं सिद्ध किया है, तथा बसाढ़ रोह पूर्वक हो चुका है।
(वैशाली) के कुण्डपुर को ही जन्मस्थान सूचित किया है। अनेक पाश्चात्य एव भारतीय जनेतर विद्वानो के अन्य अनेक विद्वानो का भी यही अभिमत है। अतिरिक्त ब्र० शीतल प्रसाद जी ने १९२२ ई० मे प्रका- गत नवम्बर ८४ में मधुबन (णिबर जी) मे आयोशित अपनी पुस्तक "बिहार, बगाल, उड़ीमा के प्राचीन जित तथाकथित सेमीनार में यह विवाद पुन: उठाया गया जैन स्मारक" (पृ. २८) मे स्पष्ट लिखा था कि "इसी और लछाड़ का पूरा समर्थन किया गया । किन्तु उसकी वैशाली मे जो कुण्डग्राम है वही श्री महावीर स्वामी का सिोर्टो एवं प्रतिक्यिाओं को देख से तो नहीं लगता कि जन्म स्थान है। वहां पर तीर्थंकरो की मूर्तियों के निकलने इस विवाद का निवेड़ा हो गया है।
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पूर्व मध्यकालीन भारत में नैतिक धर्म का पतन
[१००० ई० से १२०० ]
प्रदीप श्रीवास्तव
व्याख्याता : अग्रवाल कालेज, जयपुर सतीत्व को नष्ट किया ।' कथासरित्सागर में राजाओं के सोमेश्वर के "मानसोल्लास" से इस काल के राजाओं नैतिक पतन की अनेक कथाएँ हैं।' हम्मीर महाकाव्य से के जीवन पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। दक्षिण-पश्चिमो- हमे ज्ञात होता है कि चाहमान राजा हरिराय ने अपने भारत के चालुक्य राजा ऐसे प्रासादो में रहते थे जिनमे राज्य की पूरी आय स्त्रियो और नर्तकियो के चक्कर में ऋतुओ के अनुरूप कक्ष थे। वे ऋतुओ के अनुरूप ही खाद्य उड़ा दी थी।" और पेय का सेवन करते थे। उनकी अनेक रानियां होती मद्यपान : थी। वे अपना अधिकतर समय अस्त्र-शस्त्रों की प्रतियो- मानसोल्लास के अनुसार राजा को मद्यपान नही गिताओ, हाथियों के प्रदर्शनों, घोडो के पोलो जैसे एक करना चाहिए किन्तु विवाह के अवसर पर सब लोग खेल, पहलवानों की कुश्तियों, मृगों, बटेरो, मेढ़ो, भैसों मदिरा सेवन करते थे। गोष्ठियों मे राज-परिवार के लोग, कबूतरो के युद्धों को देखने मछली मारने, शिकार करने, गुड, चावल के आटे, अमूरो और नारियल, कटहल और सगीत और कहानी सुनने में बिताते थे। राजसभा में आम के रस से बनी मदिराओं का सेवन करके मनोअनेक प्रदेशों की सुन्दरियां राजा का मनोविनोद करती विनोद करते थे। इन अवसरो पर स्त्रियां भी मदिरापान थी। इसी प्रकार का भोगविलास का जीवन तत्कालीन करती थी।' ग्यारहवी-बारहवी शताब्दी मे पानोत्सवों अन्य राजा विताते थे। उनमें उम कर्तव्य-परायणता का का राजकीय परिवारों में सामान्यतः आयोजन किया पूर्ण अभाव था जिस का उल्लेख कौटिल्य ने अपने अर्थ- जाता था। हेमचन्द्र के अनुसार जब सिद्धराज गर्भ में शास्त्र में किया है कि प्रजा के सुख मे ही राजा का था रानी मयणल्ल देवी को मदिरापान छोड़ना पड़ा सुख है।
था।"लक्ष्मीधर" और चंडेम्बर" के अनुसार ब्राह्मणों नैतिकता की दृष्टि से इन राजाओं का जीवन बहुत को गुड़, शहद और चावल से बनी शराब नहीं पीनी गिरा हुआ था। वे बनेक प्रदेश की सुन्दरी स्त्रियों के साथ चाहिए किन्तु क्षत्रिय और वैश्य उत्सवों के अनुसार ऐसा रंग-रलियां करने में अपना अधिकतर समय व्यतीत करते कर सकते हैं। नैषधचरित से हमें ज्ञात होता है कि थे उन्हें प्रजा के सुख की लेशमात्र भी चिंता न थी।' विवाह में व्यवस्था में सम्मिलित होने वाले व्यक्तियों को कुंतल नरेश परमर्दी नंगी स्त्रियों का नृत्य देखकर अपना मदिरा दी जाती थी।" कथा-सरित्सागर से ज्ञात होता मनोविनोद करता था।' बंगाल का राजा लक्ष्मणसेन एक है कि अनेक व्यापारी मदिरापान करते थे। कल्हण के चांडाल स्त्री के साथ सहवास करता था।' वाराणसी के वर्णन से भी इस बात की पुष्टि होती है।" क्षेमेन्द्र ने राजा जयचन्द्र ने एक नागरिक की पत्नी सुहवा का अप- "तक्षक यात्रा" नामक उत्सव का वर्णन किया है जिसमें हरण करके उसे अपनी पटरानी बनाया ।' कल्हण ने भी लोग खूब शराब पीते थे।" बिल्हण से ज्ञात होता कामीर के कई राजाओं के व्यभिचार-पूर्ण जीवन का है कि स्त्रियां भी काम-कीड़ा से पूर्व मद्यपान करती थीं। विशद वर्णन दिया है। कलश और हर्ष अपना पूरा समय कुमार-पाल ने गुजरात में शराब बनाने व पीने पर प्रतिविषयासक्ति में बिताते थे। हर्ष ने अपनी बहनों तक के बन्ध लगाना चाहा था किन्तु वह ऐसा करने में असमर्थ
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पूर्व मध्यकालीन भारत में मैतिक धर्म का पतन
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रहा।" इसका यही अर्थ है कि गुजरात में अधिकतर अत्याचार से बचना चाहिए।"मानसोल्लास से" बोर व्यक्ति मद्यपान करते थे। इससे यही निष्कर्ष निकलता है। राजनीति-रलाकर में भी कायस्थो के विषय में ऐसे ही कि भारत में इस समय धनी परिवारो मे मद्यपान को विचार व्यक्त किए गए हैं। कल्हण ने कायस्थों की तलना बुरा नही समझा जाता था।
दीमक से की है। क्षेमेन्द्र नेनर्ममाला में कायस्थों की आत्म हत्या:
बेईमानी, मूठे व्यवहार और उनकी रिश्वत लेने की आदत लक्ष्मीधर ने मत्स्यपुराण को उद्धृत करते हुए लिखा का स्पष्ट उल्लेज किया है। उनके अत्याचारो के कारण है कि वाराणसी में अपने को अग्नि मे जलाकर, प्रयाग जनता को निश्चय ही बहुत कष्ट सहन करने पर होंगे। मे संगम पर डूब कर और अमर कटक. पर्वत से कूदकर व्यापारी वसाहकार : नर्मदा नदी मे डूबकर आत्महत्या करने से मनुष्य पुण्य का भारत के व्यापारी अपनी ईमानदारी के लिए प्रसिद्ध भागी होता है। चौलुक्य राजा मूलराज ने ६E ई० मे थे कि दूर-दूर से व्यापारी यहा व्यापार करने के लिए सिद्धपर अग्नि में प्रवेश करके प्राणत्याग किया था।" आते थे।" किन्तु कल्हण के वर्णन से ज्ञात होता है कि १००२ ई० मे चदेल राजा धग ने प्रग में आत्महत्या कश्मीर मे अनेक साहूकार ऐसे थे कि ऊपर से तो अपनी की थी। इसी समय शाहीय राजा जयमाल ने महमूद धार्मिकता का दिखावा परते थे किन्तु वैसे धरोहर का गजनबी से पराजित होकर अग्नि में प्रवेश किया था। माल उठाकर जाते थे। व्यापारियो को भी कल्हण ने कलचूरि राजा गागेय देव ने १०४० ई० मे अपनी सो घोखेबाज कहा है।" हेमचन्द्र के वर्णन से ज्ञात होता है रानियो के साथ प्रयाग में आत्म-हत्या की थी।" १०६८ कि गुजरात में भी अनेक बेईमान व्यापारी थे।" कथाई० मे चालुक्य राजा सोमेश्वर प्रथम ने तुगभद्रा मे डूब मग्लिागर में भी बेईमान व्यापारियो की अनेक कथाएं कर" पाल राजा रामपाल ने ११२० ई." मे और है।४ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ग्यारहवी तथा जयचन्द्र ने ११९४ ई० मे आत्महत्या को । उपर्युक्त बारहवी शताब्दी के भारतीय व्यापारी अपने उच्च नैतिक विवेचन से स्पष्ट है कि इस काल के राजा कई बन्धन मे स्तर से बहुन गिर गए थे। मुक्त होने का बहाना करके आत्म हत्या करने मे ही पुण्य वेश्या: समझते थे। इन आत्म हत्याओ से ममाज का क्या पूर्व मध्यकालीन भारत में प्रायः सभी नगरी में कल्याण हो सकता था । उपनिषदो के अनुसार तो आत्म- वेश्याएं रहती थी। सख्याकर नन्दी ने रामावती की हत्या करना भीरता है और कर्तव्य विमुख होना है इस- वेश्याओ का विशद वर्णन किया है।"धोपी के अनुसार लिए हमे इसे नैतिक पतन का द्योतक मानने में लेशमात्र लक्ष्मणसेन की राजधानी विजयपुर मे भी अनेक वेश्याए' भी सन्देह नहीं है।
रहती थी।" क्षेमेद्र ने भी मथुरा और श्रावस्ती की भ्रष्टाचार:
वेश्यामो का उल्लेख किया है। क्षेमेन्द्र के वर्णन से शात भागवत पुराण के अनुसार राजा को अमात्यों और होता है कि धनी व्यक्तियो के इकलौते पुत्र ऐसे नवयुवक चोरों से प्रजा की रक्षा करनी चाहिए। क्षेमेन्द्र के अनु- जिनके पिताओ की मृत्यु हो गई थी, राजाओ के अमात्य सार भी राजा को ऐसे मन्त्रियों को तुरन्न पद से हटा व्यापारियों के पुत्र, वैद्य, कामुक तपस्वी और राजकुमार, देना चाहिए जो रिश्वत लें।" लक्ष्मीधर ने लिखा है कि सगीता विद्वान और शराबी सभी वेश्याओं के पास राजा को मन्त्रियों की गतिविधि की पूरी जानकारी रखनी जाते थे।" ये गणिकाएं अनेक कलाओं में प्रवीण होती चाहिए। कल्हण ने ऐसे अनेक मन्त्रियों के उदाहरण दिए थी।" कुमारपाल ने व्यभिचार, जुए और पशुहिंसा को हैं जिन्होंने अवैध ढंग से अपार-धन सम्पत्ति इकट्ठी कर रोकने के लिए अनेक प्रयत्न किए किंतु वेश्यावृत्ति को ली थी।"धनपाल ने भी दुष्ट अमात्यो का उल्लेख किया समाप्त करने के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया। मानसोहै। लक्ष्मीधर ने लिखा है कि राजा को कायस्थों के ल्लास से स्पष्ट है कि राजा लोग जब कवियों और
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१४, वर्ष १८ कि.२
अनेकान्त
विद्वानों की गोष्ठियों का आयोजन करते थे उस समय के समय भी नवयुवक और नवयुवतियां, गाते नाचते और गणिकानों को भी आमन्त्रित किया जाता था।" इन्द्र- अनेक प्रकार से मनोविनोद करते।" मदनोत्सव के समय ध्वज के उत्सव के समय भी गणिका-निगम को निमन्त्रण भी पुरुष और स्त्रियां काम-क्रीड़ाएं करते थे। भेजा जाता था।" इससे स्पष्ट है कि समाज मे गणिकाओं समाज में इतना नैतिक पतन होने का प्रमुख कारण का पर्याप्त आदर था और सन्त और जैन श्रावक भी संभवतः तंत्रयान की लोकप्रियता थी। तंत्रयान में सभोग उनके साथ सहवास करने में अपनी प्रतिष्ठा की हानि ने धार्मिक कृत्य का स्वरूप ले लिया। बौद्ध तात्रिकों का नहीं समझते थे ।
विश्वास था कि बिना स्त्री-सभोग किए मोक्ष नही मिल देवदासियां:
सकता।" वे माता, बहन वा अन्य सम्बन्धिनी स्त्री से भी कुछ व्यक्ति अपनी कन्याओ को मन्दिरों को अपित समोग करना अनुचित नही समझते थे। इस प्रकार की करते थे। ये कन्याएं वेश्यावृत्ति से जो धन कमाती थी अनैतिक विचाराधारा के फैलने से जनसाधारण की शक्ति मन्दिरों के पुजारियो को देती थी। इनमें से कुछ देव- निश्चय ही बहुत कम हो गई होगी। ऐसे निःशक्त जनता दासियां मन्दिरों में नृत्य करती थी। हम गुप्तोत्तर काल विदेशियों के आक्रमणों का कैसे डटकर मुकाबला कर के विवेचन मे कह चुके हैं कि कुछ सच्चरित्र व्यक्तियो ने इस प्रथा को समाप्त करने का प्रयल किया किंतु राजाओ कवियों का स्तर: के विरोध के कारण वे अपने इस कार्य मे सफल नहीं
इस काल के कवि जैसे बिल्हण और जयदेव सहवास हए। ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल में देवदासियों का विस्तत विवरण देने मे लेशमात्र की सख्या बहुत बढ़ गई थी।
करते । बिल्हण का और चौरपंचशिका का वर्णन निश्चय ___ गुजरात के मन्दिरों मे ही २० हजार से अधिक देव- ही व्यभिचार का वर्णन प्रतीत होता है। जयदेव के गीत दासिया थी .५. बंगाल के घुम्नेश्वर" और ब्रह्म श्वर
गोविन्द मे भी मथुनिक प्रेम का स्पष्ट विवरण मिलता
गोविन्ट मे भी थनिक पेस । मन्दिरों में भी अनेक देवदासियाँ रहती थी। कटक के
है। लक्ष्मणसेन ने अपनी रतिक्रीडाओं का वर्णन अपने एक निकट शोभनेश्वर शिव मन्दिरो मे भी अनेक देवदासिया अभिलेख में किया है। इससे समाज के नैतिक पतन का रहती थी।" एक साधु द्वारा स्थापित बदायूं (उत्तर
अनुमान लगाया जा सकता है। कश्मीर के लेखकोमें क्षेमेद्र प्रदेश) के एक शिव-मंदिर मे भी देवदासियां रहती थी।"
और दामोदर गुप्त का उल्लेख तो हम पहले ही कर
और दामोटर गएत का उल्लेख तो - कश्मीर" और सामनाथपुर" के मदिरो में भी अनेक चके हैं। देवदासियां रहती थी। जोजल्लदेव चाहमान के दो अभि- जिला. लेखों (१०९०ई०) से स्पष्ट है कि उसने स्वय इस प्रथा गोल भारतीय कला में शिधयों निवा: को प्रोत्साहन दिया और अपनी सन्तान का इस प्रथा का उद्देश्य धार्मिक तथा दार्शनिक था। यह सष्टि और पवित्र इस प्रथा को बन्द करने का आदेश दिया।" इसका यह प्रेम का प्रतीक समझा जाता था। मनुष्य और स्त्री दोनों परिणाम हुआ कि धार्मिक उत्सवों के धार्मिक स्वरूप का जीवन के लक्ष्य के पूरक समझे जाते थे। किंतु खजुराहो इस काल में कोई महत्व न रहा । वे आमोद-प्रमोद और और पुरी के जगन्नाथ मदिर मे जो मैथुनक्रियाओं के दृश्य व्यभिचार के अवसर बन गए । लक्ष्मीधर ने कृत्यकल्पतरु दिखलाए गए हैं वे निश्चय ही कामोत्तेजक हैं।" भोज ने के नियतकालकांड में उदक-सेवा, महोत्सव का जो वर्णन अथ समरांगण सुधार मे लिखा है कि स्त्रियों को प्रेमी के दिया है उससे स्पष्ट है कि इस उत्सव के समय मनुष्य, साथ सहवास करते हुए चित्रित करना चाहिए ।" मंदिरों स्त्री और बालक सभी निर्लज्ज होकर शराब पीकर में पूजा करने के लिए हजारों बादमी प्रतिदिन जाते थे। अश्लील गाने गाते और सम्भवतः चाहे जिसके साथ मह- उपर्युक्त वर्णन से हमें यह नहीं समझ लेना चाहिए वास करना भी बुरा नहीं समझते थे।" कौमुदी महोत्सव कि समाज में सच्चरित्र, परोपकारी और दानशील व्यक्ति
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पूर्व मध्यकालीन भारत में मैतिक वर्मका पतन
बिल्कुल नही थे । परन्तु ऐसे प्रतीत होता है कि ये व्यक्ति करे। भारतीय दर्शन के अनुसार कर्तव्य-पालन करमा केवल अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्रयत्नशील थे। प्रत्येक व्यकित का धर्म है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को उसके उन्होने समाज के नैतिक स्तर को ऊचा करने के लिए कर्मों का फल इस जन्म मे या आगामी जन्म में अवश्य कोई सक्रिय उपाय नही किए । इम काल में ऐसा कोई भोगना पडेगा। राजा का चरित्र बादर्श होना चाहिए। कोई सतया महापुरुष नही हुआ जिसने जन-साधारण को क्योकि प्रजा अधिकतर उसी का अनुसरण करती है। संमार्ग पर चलने की प्रेरणा दी हो।
राजा भी धैर्य, क्षमा, सयम, चोरी न करता, पवित्रता, प्राचीन काल के भारतीयो का विश्वास था कि इस इन्द्रियो पर नियत्रण, सत्य पालन, विद्याभ्यास, क्रोध न ससार मे प्रत्येक मनुष्य धर्म, अर्थ और काम तीन पुरुषार्थी करना आदि साधारण धर्म का पालन करता था। प्रजा को करके अपने जीवन के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कर पालन और दुष्ट-निग्रह को राजा अपना विशेष धर्म सकता है। वे तीनो पुरुषार्थों को महत्व देत थे। किंतु समझते थे। समाज मे जो व्यक्ति साधारण धर्म और उनका विश्वास था कि जीवन के सूत्रो का उपभोग और वर्णाश्रम धर्म का पालन नही करते थे राजा उन्हें दण धन कमाना दोनो पुरुषार्थ धर्म की सीमा के अन्दर करके देता था। गुप्तकालीन सम्राटो के यही आदर्श और ही मनुष्य वास्तविक सुख प्राप्त कर सकता है। धर्म का वैदिक काल से गुप्तकाल तक समाज का नैतिक स्तर विवेचन तीन रूपों में किया गया है। साधारण धर्म, बहुत उच्च रहा किंतु गुप्तोतरकाल में अधिकतर राजा वर्णाश्रम धर्म और राज धर्म । प्राचीन भारत में नैतिकता भोग-विलाली होकर कर्तव्य विमुख हो गए और तांत्रिकों का विवेचन धर्म के अन्तर्गत ही किया गया है। नतिकता ने इन्द्रिय सुख को ही परम सुम्ब मानकर मांस, मदिरा का अर्थ था कि प्रत्येक व्यक्ति साधारण-धर्म के नियमो और स्त्री सभोग को परम लक्ष्य मान लिया । एसी दशा का अनुमरण । वर्णाश्रम श्रम का पालन करके आध्या- मे जन साधारण के नैनिक स्तर का पतन होना स्वाभात्मिक उन्नति करे और समाज के प्रति अपने की पूर्ति विक थी।
सन्दर्भ-सूची १. कलचुरि नरेश युवराज का बिलहारी अभिलेख । १३. गृहस्थ रत्नाकर पृ० १६४ ।
उद्धत डायनास्टिक हिस्ट्री आफ नार्दन इण्डिया, १४. नैषधचरित सर्ग, १६,६६। जिल्द २ पृ० ७६० ।
१५. कथासरित्नागर कथा ५४, १७० आदि । २. मेरूतगे प्रबन्ध चितामणि अनु० टानी पृ० १८६ ।।
१६. राजतरगिणी ८, १८६६-६७ । ३. वही पृ० १८३-१८५।
१७. समयमातृका २, ८८। ४. वही पू० १५४ (सिंधी जेन प्रथमाला) पृ०६६।
१८. चौरपज्वाशिका श्लोक, ६ । ५ राजतरगिणी ७:३०४.३०,५८४-८८६, १९४७-४८
१९. ए. के. मजूमदार, चोलुक्यराज आफ गुजरात
. के. मजमदार ६. कथासरित्सागर अनुवाद आनी १:२८६ : २.४१० पृ०३४४-३५५ । ७. हम्मीर महाकाव्य (इण्डियन एटिक्वरी) ८:८७६ २०. कृत्यकल्पतरू, तीर्थ विवेचन पृ० २१,११८-१३६, पृ० ६२।
१४२-४६, २००। ८. मानसोल्लास ४ : १० : ४२६.४४६ ।
२१. हेमचन्द, दयाश्रय काव्य ६:१००.२०७, इण्डियन है. वही ५, १०, ४८१ : तिलकम जरी १५, ६-६१, १२ एटिक्वरी ४,१११। १०.ति कमजरी ६,३:४१, ४:१६६, ५:२११. २२. एपिग्राफिका इंहिका १,१४॥ २.,२४५, १६, ३२४, २१ ।
२३. डायनास्टिक हिस्ट्री आफ नार्दर्म इण्डिया, जिल्द ११. द्रव्याश्रम काव्य १,१३।
१. पृ.८७ । १२. कृत्यकल्पतरू नियतकालकठि पृ० ३३१ ।
२४. एपिग्राफिया इरिखका २, ४, १२, २११, २१,१४
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अनेकान्त
२५. भक्तप्रसाद मजूमदार, सोश्यो इक्नोमिक हिस्ट्री आफ ४६. मक्तप्रसाद मजुमदार वही पृ० ३७१।
नार्दर्न इण्डिया कलकत्ता १९६: पृ० ३६२ । ४७. मानसोल्लास २, पृ० १५५ । २६. वही।
४८. लक्ष्मीधर कृत्यकल्पतरू, राजधर्म कां४ उद्धृत भक्त२७. प्रबंध चितामणि अनु. टानी पृ० १५८-१८६ ।
प्रसाद मजुमदार । वही पृ० ३७ ।। २८. भागवत पुराण ४, १४, १७ ।
४६. जिनेश्वर सूरि, कथाकोशप्रकरण भूमिका वटस्थानक
प्रकरण पृ० १५२-५३ ।। २९. दशावतारचरि सर्ग १० ।
५०. रमेशचन्द्र मजुमदार, दि स्ट्रगल फार एम्पायर ३०. भक्तप्रसाद मजुमदार सोश्योइक्नोमिक हिस्ट्री ग्राफ
पृ०५२-५३ । नार्दनं इण्डिया, कलकत्ता १८६० पृ० ३६२ ।
४१. एपिग्रा इंडिया जिल्द १ पृ. ३१० श्लोक ३० । ३१. राजतरगिणी ७, ५४७,५५५, ६६३-६६५। ५२. जर्नल रायल एशियाटिक सोसायटी, बंगाल, जिल्द ३२. तिलकमंजरी पृ० ८५।
१३ (९४७) पृ०७१। ३३. कृत्यकल्पतरू राजधर्मकाड पृ० ८३ ।
५३. जर्नल भडारकर ओरियंटल रिसर्च सोसायटी १९३१ ३४. मानसोल्लास विंशति २,१४५-१५६ ।
५४. एपिग्राफिया इंडिका जिल्द १ पृ० ६१-६६ श्लोक१७ ३५. राजनीति रत्नाकर पृ० १४ ।
५५. राजतरंगिणी ७ ८५८ । ३६. राजतरंगिणी ४; ४३, ११२ ।
५६. प्रबंध चितामणि (सिंधी जैन ग्रंथमाला) पृ० १०८। ३७. कलाविलास श्लोक ७, राजतरंगिणी ७; ४३, ११२। ५७. एपिग्राफिया इंडिया ११ पृ. २६ । ३८. इलियट और डाडसन जिल्त १, पृ० ८८ । ५८. कृत्यकल्पतरू, नियत काल कांड पृ० ३११-४१६ । ३९. राजतरंगिणी ८, १२८, १३१, १३३; ७०६-७१०। ५६. कृत्यकल्पतरू, राज धर्म कांड उद्धृत भक्तप्रसाद ४०. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित उद्धृत ए० के० मजुम
मजुदार, वही पृ० ३७५ । दार पृ० ३३६ ।
६०. कुट्टनीमतम् पृ० १६४। ४१. कथासरित्सागर जिल्द २, पृ० ३।
६१. प्रोसिडिंग्स आफ थर्ड प्रोनियंटल कान्फ्रेंस मद्रास
१९२५ पृ० १३०-४० । ४२. रामचरित ३, ३७ ।
६२. चौरपंचाशिका श्लोक ७ तथा ४६ । ४३. भक्तभक्तप्रसाद मजुमदार सोश्योइक्नोमिक हिस्ट्री
६३. जर्नल एशियाटिक सोसायटी, बंगाल (न्यू सीरिज) आफ नार्दनं इण्यिा पृ० ३७० ।
५, पृ० ४७३। ४४. समय मालिका ५, ६३, ६७ ।
६४. रमेशचन्द्र मजुमदार : (सम्पादक) दि स्ट्रगल फार ४५. दामोदर गुप्त, कुट्टनीमतम् श्लोक १२३: १२५, एम्पायर १ पृ० ६५३ । ३४६, ३५५।
६५. समरागण सुधार-३४; ३३-३४ ।
(पृ. ८ का शेषांश) व्रत तप सयम धरै अनेक,
धर्म मूल मैं तुम सों कहो, ___समकित बिन नही लहै विवेक ।
सुनि श्रेणिक दृढ़ के श्रद्ध हो ॥५३॥ जैसे कृषि करि सेवा कर, मेघ बिना नहिं फल को धरै ॥५॥
रोम रोम सुनि हषियो; राजा श्रेणिक राय। जे नर मुक्ति गए जिन कही,
जनम सफल निज लेखियो, सुख दे गणघर पाय ॥५४॥ आगे जै पुनि जैहैं सही।
समकित महिमा जानि के, सकल कीति मुनि राय। अबै जात हैं भव्य अनेक,
पंडित शिरोमणि दास जिन, भव भव होउ सहाय ॥५॥ ते समकित फल जानहु एक ॥५२॥ इति श्री धर्मसार ग्रंथे भट्टारक भी सकलकोति उपगणधर कह सुनो हे राय,
देशात् पंडित शिरोमणिदास विरचिते सम्यक्त्व महिमा समकित महिमा अन्त न आय । वर्णनो नाम द्वितीय सन्धिः समाप्त।
बोहा
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ग्राम पगारा की जैन प्रतिमाएं
नरेश कुमार पाठक पगारा मध्यप्रदेश के धार जिले में तहसील मनावर मण्डल है, वितान में त्रिछत्र एवं पार पपासन में बैठी के अन्तर्गत एक छोटा सा ग्राम है। यह इन्दौर से लगभग हई जिन प्रतिमानों का अंकन है। १००कि.मी. की दूरी पर अवस्थित है। इन्दौर से बस ,
जन प्रतिमा पाव पीठ: द्वारा धामनोद, धरमपुरी से होते हुए, पगारा पहुंचा जा सकता है। धरमपुरी से यह लगभग ८ कि. मी. उत्तर
जैन प्रतिमा पापीठ से सम्बन्धित शिल्पबह तीन पश्चिम में अवस्थित है। इस गांव में स्थित टीले का
हनुमान मन्दिर से और एक-एक बावड़ी एवं गणपति उत्खनन मध्य प्रदेश पुरातत्व एव सग्रहालय विभाग द्वारा
मन्दिर से प्राप्त हुए हैं। इन पादपीठों के मध्य धर्मचक्र १९८१-८२ में कराया गया जिसमें शुंगकाल से लेकर मुगल दोनो पाश्व में हाथा एव सिह का
दोनों पार्श्व में हाथी एवं सिंह की आकृतियों का बालेकाल तक के अवशेष प्राप्त हुये। पगारा ग्राम एवं टीले बन है। के आसपास कई जैन प्रतिमाएं रखी हुई हैं। जिनका जन प्रतिमा वितान: विवरण निम्नलिखित है :
जन प्रतिमा वितान से सम्बन्धित शिल्प कृतियों में जन शासन देवी पद्मावती:
६ बावड़ी से तीन हनुमान मन्दिर एक-एक टीले एवं हनुमान मन्दिर से प्राप्त चतुभुजी देवी पपावती सव्य गणपति मन्दिर से प्राप्त हुए है। इन पर विछत्र, दुन्दुललितासन में बैठी हुई निर्मित है। देवी की भुजाओं में भिक अभिषेक करते हुए हाथी, विद्याधर युगल, कायोदक्षिणाधः क्रम से अक्षमाला सनालपप, समालपन एव सर्ग तथा पपासन में जिन प्रतिमा एवं मकर व्यालों का बायी नीचे की भुजा भग्न है। नीचे देवी के वाहन हस का आलेखन है। मंकन दोनों पावं मे परिवारिका प्रतिमा बनी हुई जैन शिल्प खण्ड: है। वितान में पद्मासन में जैन तीर्थकर प्रतिमा कित
जैन प्रतिमा शिल्प खण्ड से सम्बन्धित तीन कलाहै। देवी करण्ड मुकुट, चक्र कुडल,उरोजों को स्पर्श करता
कृतियां बावड़ी से प्राप्त हुई है। प्रथम जैन प्रतिमा का हुवा हार, केयूर, बलय, मेखला, नूपर से अलंकृत है। दायाँ भाग है, जिममें एक कायोत्मग एवं एक पपामन में लांछन विहीन तीर्थकर प्रतिमाएं :
तीर्थकर प्रतिमा अकित है। दाएं पार्श्व में चामरधारी हनुमान मन्दिर के सामने से प्राप्त प्रथम प्रतिमा एवं मकर व्याल का बंकन है। में पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में तीर्थकर अकित
द्वितीय में दो जिन प्रतिमा एवं दायीं ओर एक है। वक्ष पर श्रीवत्स का आलेख है। पार्श्व में सिर विहीन
चांवरपारी का शिल्यांकन है। परिचारिका का त्रिभंग मुद्रा में अंकन है । मूर्ति का सिर व पादपीठ भग्न है।
तृतीय पर पपासन की ध्यानमुद्रा में जिन प्रतिमाओं दूसरी प्रतिमा में भी तीर्थकर पद्मासन में अंकित है। का बालेखन है। बावड़ी से प्राप्त तीर्घकर का ऊवं भाग ही शेष है।
-केन्द्रीय संग्रहालय, प्रतिमा कुन्तलित केशराशि से युक्त सिर के पीछे प्रभा
गूजरी महल, ग्वालियर।
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शान्तिनाथ पुराण में प्रतिबिंबित कथानक रूढ़ियां
कुमारी मृदुला शोध छात्रा, बिजनौर
रूढ़ि या अभिप्राय वह छोटा और पहचान में आने विद्या दी, जिससे उसने अमनिघोंष की बहुरूपिणी तथा वाला तत्व है जो यह बतलाता है कि किसी विशेष प्रकार भ्रामरी विद्या छेद दी।' की कथा के कौन-कौन से उपकरण दूसरे प्रकार की कथा (ग) कथानकके प्रण को परीक्षा : सौधर्म इन्द्र की में प्रयुक्त हुए हैं।'
सभा में किसी व्यक्ति विशेष के व्रतों की प्रशंसा की जाती कथा के क्षेत्र में अलौकिक और अमानवीय शक्तियों है। कोई ईाल देव उन प्रशंसात्मक बातों पर विश्वास से सम्बन्धित लोक विश्वासों ने बहुत प्रभावित किया है। नहीं करता और उसकी परीक्षा के लिए चल देता है।' पराण कथाओं था निजधरी आख्यानों की सृष्टि भी इन्ही .
इस कथानक रूढ़ि का प्रयोग 'असग' ने लघु कथा में विश्वासों के आधार पर हुई है।'
लिया है। दशम सर्ग में कनकशान्ति जब एक वर्ष का शान्तिनाथ पुराण में इस श्रेणी की निम्नलिखित कथा- निमार
प्रतिमायोग लेकर खड़े रहे, तबउनको देखकर तीन क्रोध नक रूढ़ियां पाई जाती हैं
से अतिवीर्य और महाबल असुर मुनिराज का घात करने (क) विद्या द्वारा नायक को धोखा देना-शान्तिनाथ के लिए प्रवृत्त हुए किन्तु रम्भा तथा तिलोत्तमा अप्सराओं पुराण के सप्त सर्म में इस कथानक रूढ़ि का प्रयोग द्वारा मुनि की पूजा करते देख कर शीघ्र ही भाग गए। मिलता है-"दीपशिख नामक विद्याधर आकाश से आकर (घ) तीर्थंकरों की महत्ता प्रकट करना-प्राकृत स्वयंप्रभा से कहता है कि जब मैं अपने नगर जा रहा था संस्कृत दोनों ही भाषाओ के जैन कथाकार कथानों को तो मैंने एक स्त्री के रोने का शब्द सुना । उस स्त्री ने मुझे चमत्कृत बनाने एवं तीर्थकरों की महत्ता बतलाने के लिए बताया कि ज्योतिवन मे विद्या से मेरे पति को छल कर देवों का कल्याणकों के समय आना दिखलाते हैं । जन्म के यह अशनि घोष मुझे बलपूर्वक अपनी नमरी ले जा रहा समय देव सुमेरु पर्वत पर तीर्थकरों की महत्ता बतलाने के है। अतः मेरे पति की रक्षा करो। मैं वहां से लौटा। लिए जन्माभिषेक सम्पन्न करते हैं। वैराग्य होने पर बात यह हुई कि सुतारा का रूप धारण करने वाली विद्या लोकान्तिक देव आते हैं और तीर्थकर वैराग्य की पुष्टि कुक्कुट सर्प के विष के बहाने झूठ मूठ मर गई और उसे करते हैं । केवल ज्ञान होने पर समवशरण रचना देवों मृत जानकर राजा श्री विजय बहुत व्याकुल हुआ और द्वारा होती है । निर्वाण प्राप्त होने पर अग्नि कुमार जाति उसे लेकर चितारूढ़ हो गया। इसी बीच अशनिघोष के देव अग्नि संस्कार तथा वैमानिक देव निर्वाणोत्सव सुतारा को हर.कर ले गया।'
सम्पन्न करते हैं।' विद्याधरोंका संसर्ग-ग्रंथकार नायक को कठिना- शान्तिनाथ पुराण में तीर्थंकर शान्तिनाथ के जन्म इयों में डालकर किसी विद्याधर या अमानवीय शक्ति के के समय इन्द्रादिदेव सुमेरु पर्वत पर जन्माभिषेक सम्पन्न साप उसे सम्बद्ध दिखलाता है।'
करते हैं। वैराग्य होने पर लौकान्तिक देव तीर्थकर की शान्तिनाप पुराण के सप्तम सर्ग में राजा श्री विजय वैराग्य पुष्टि करते हैं। कैवल्य ज्ञान होने पर देवों द्वारा को विद्याधर नरेश ने हेविनिवारणी तथा विमोचिनी समवसरण निर्माण होता है"निर्वाण प्राप्त होने पर
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शान्तिनाप पुराण में गतिविपित पाय दिया
अग्निकुमारपतवा वैमानिक देव निर्वाणोत्सव सम्पन्न करना एक प्रसिद्ध कथानक रूहि है। शान्तिनाथ पुराण
में अपराजित तथा अनन्तवीर्य का नर्तकी रूप बनाना, (ब) तन्त्र, मन्त्रबादमत्कार तथा औष- महाबल विधा के द्वारा राजा अपराजित का सैकड़ों रूपों धियों से सम्बढ़ियां-तन्त्र, मन्त्र के प्रति लोक में आकाश में चले जाना और अनि घोष का करोड़ों मानस की पूरी बास्था है। योगी, सिख, तान्त्रिक, मांत्रिक रूप बनाना।" इसी प्रकार की रूढिका परिचायक है। तथा चमत्कारी व्यक्तियों के प्रति मनुष्य सदा नतमस्तक
(ज) लोकिक कथानक रुढ़िया-प्रेम व्यापार को रहता।शान्तिमाय पुराण में निम्न चमत्कार स्वरूप
सम्पन्न करने के लिए लौकिक कथानक रूढ़ि का प्रयोग रूढ़ियों का प्रयोग हुवा है
किया जाता है। यषा-किसी निर्जन स्थान में अचानक (अ) औषधियों का चमत्कार-लोक मानस का रूपवती रमणी का साक्षात्कार और प्रेमाधिक्य के कारण विश्वास है कि औषधियों के प्रयोग से मृत प्राय व्यक्ति वियोग की स्थिति में आत्महत्या की विफल चेष्टा । जीवित हो जाता है और स्वस्थ व्यक्ति तत्काल मृत्यु को शान्तिनाथ पुराण के षष्ठ सर्ग में सुमति की बहन उसके प्राप्त कर सकता है । शान्तिनाथ पुराण मे इस कथानक पूर्वभव कहनी है 'एक बार अशोक वाटिका में कीड़ा सदि का प्रयोग कथा की दिशा मोड़ने में बड़ी कुशलता से करती हुई हम दीनो को देखकर त्रिपुरा के स्वामी वांग किया गया है । षष्ठ सर्ग में पूर्व जन्म की बहिन के मुख विद्याधर ने हरण कर लिया। से अपना पूर्वभव सुनकर सुमति मूच्छित हो जाती है और
दशम सर्ग मे 'विध्यसेन का पुत्र नलिन केतु सदा चन्दन, पखा बादि से उसकी मूच्छी दूर की जाती है।
कामातुर रहता था, उसके पुत्र दत्त का विवाह प्रियंकरा शान्ति पुराण के अष्टम सर्ग मे विषलिप्त पुष्प को नाम की स्त्री से हुआ। एक बार सखियों के साथ उसे सूष कर बीषण, सत्यभामा तथा राजा की दोनो पत्नियो उद्यान में विहार करते देखकर नलिनकेतुकामावस्या मर जाने का उल्लेख है।"
ने आश्रय दिया।" (ब) मन्त्र शक्तियों का चमत्कार-लोक मानस (झ) परिस्थितियों को द्योतकड़िया-समस्त अनादि काल से आश्चर्ययुक्त शक्तियों पर विश्वास करता कथानक रूढ़ियां सामाजिक और सांस्कृति परिस्थितियों चला आ रहा है । मन्त्र प्रधानतः चार प्रकार के होते हैं से उत्पन्न होती हैं । शान्तिनाथ पुराण में इस प्रकार की वेदमत्र, गुरुमंत्र, प्रार्थनामंत्र चमत्कारमत्र । चमत्कार मन्त्रो कथानक रूढ़ियां उपलब्ध हैंके मरण, मोहन और उच्चाटन ये तीन मुख्य भेद हैं।" (अ) शरणागत की रक्षा-शान्तिनाथ पुराण के शान्तिनाथ पुराण के एकादश सर्ग में राजा अभय घोष की अष्टम सर्ग में राजा श्रीषेण के दरबार में सात्यकि की रानी कनकलता ने अपने प्रति राजा की विरक्ति तथा पुत्री सत्यभामा 'रक्षा करों' कहती हुई पहुंची तथा राजा नव विवाहिता रानी के प्रति आसक्ति देखकर, नव विवा- ने उसे अपने अपने अन्त:पुर में शरण दी। हिता को राजा से अलग करने के लिए मन्त्र-तन्त्र कराया वादश सर्ग में मेघरब के दरबार में बाज से कतर और अपनी सखियों द्वारा राजा के लिए मन्त्र और धूप की रक्षा के लिए राजा द्वारा कबूतर को गोद में शरण से संस्कार की गई कृत्रिम माला आमन्त्रित की, जिससे देने का उल्लेख है।" राजा के लिए उसी क्षण से अपनी नव विवाहिता के प्रति (अ) प्राध्यात्मिक और मनोवंज्ञानिक दियाविरक्ति का भाव उत्पन्न हो गया है।"
भारतीय संस्कृति का मूलाधार बात्मा का अस्तित्व है तथा (E)प परिवर्तन-रूप परिवर्तन द्वारा लोगों जन्मान्तर और कर्मफम की अनिवार्यता में विश्वास करना को चमकत करना और अपने अभीष्ट कार्य की सिद्धि भी आवश्यक है । शान्तिनाथ पुराण में इस वर्ग की का.
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२० वर्ष ३००
नक रूढ़ियां निम्नांकित हैं
(१) संसार की कठिनाइयों से संतप्त नामक को केवली या गुरु की प्राप्ति - शान्तिनाथ पुराण के प्रत्येक धर्म में
(२) आचार्य या गुरु से निर्वेद का कारण पूछना - शा० पु० ८८०, १२।१३ ।
(३) पूर्व भवावली का कथन हा० ० ७११, पूछना, ११।१२३ ।
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।
११२७, ११२२ ।
अनेकान्त
(४) निदान का कथन - ८११२१, ११।१५४ । (५) कथाक्रम में धर्म का स्वरूप और ज्ञान प्राप्ति की जिज्ञासा था० पु० १२।१३, १२।१४।
(६) जाति स्मरण - पूर्वभव का स्मरण होने पर पात्र की जीवन धारा ही बदल जाती है। द्वादश सर्ग में कबूगर बाज का जाति स्मरण इसी सन्दर्भ में है। शा०पु० १२।४६
(७) जन्म जन्मान्तरों की शृंखला तथा एक जन्म के शत्रु का दूसरे जन्म मे भी शत्रु के रूप में रहना — जैसे धनरथ के दरवार में मुर्गो की कथा ।
१. डा० नेमीचन्द्र शास्त्री हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन पृ० २६१ । २. यही ० २६६
३. असग शान्तिनाथ पुराण ७।७१-७२
४. डा० नेमीचन्द्र शास्त्री हरिभद्र के प्रा० क० सा० आलोचनात्मक परिशीलन १० २६८ ।
५. शा० पु० ७ १३ ।
६. हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन पु० २६० ।
१० २७२ ।
१. शा० ५० १३१५२-१५५ ।
१०. वही १५६, १५ ।
७. शा० पु० १०।१२४, १२६-१३१ ।
हरिभद्र के प्रा० कसा आलोचनात्मक परिशीलन
(८) सम्यक्त्व प्राप्ति का कारण जानना अष्टम सर्ग में अमित तेज द्वारा विजय केवली से सम्यक्त्व प्राप्ति का कारण पूछना तथा उत्तर में भवावली का कथन शा० पु० ८१-११२ ।
(e) असंभव बात का कारण जानना - एकादश सर्ग में रानी प्रियमित्रा द्वारा मेघरथ विद्याधर के पूर्वभव
(१०) वैराग्य प्राप्ति के निमित्तों की योजना - द्वादश सर्ग में सरीर की निःसारता का उपदेश सुनकर प्रियमित्रा की विरक्ति १२।१२७ ।
सम्ब-सूची
(११) कैवल्य ज्ञान की उत्पत्ति के समय विचित्र आश्चर्यो के दर्शन - भगवान शान्तिनाथ के कैवल्य ज्ञान उत्पत्ति के समय पद्यमान का प्रकट होना, रत्न बुष्टि होना आदि आश्चर्य, १६२१८-११ ।
(१२) तपस्या के समय उपसर्ग तथा उनका जीतना - इसका व्यवहार शान्तिनाथ पुराण में सर्वत्र हुआ है। 00
११. यही १९३६-४१ ।
१२. यही १६।२१०-२२० ।
१३. शा० पु० ६।९६-९७ ।
१४. वही १००।
१५. हरिभद्र के प्रा० क० सा० आलोचनात्मक परिशी
लन पृष्ठ २७६ ।
१६. शा० पु० ११०४९-५१ ।
१७. शा० पु० २।४६,५६६६।१२। १८. वही ६८६ ।
१६. वही १०।४३ ।
२०. शा० पु० ११।२३ ।
२१. शा० पु० ४१५४ ।
२२. शा० पु० १२४ ॥
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धर्मध्यान का स्वरूप एवं भेद
नरेन्द्र कुमार जैन सोरया एम० ए० शास्त्री
जैनधर्म मे ध्यान को तप का साधन माना गया है। उन आगम को जानते हैं। जिनशासन की तत्वज्ञानियों को ध्यान सर्वोत्कृष्ट तप है, ध्यान की अवस्था में ही सर्वज्ञता आराधना करना चाहिए। जिनमासन आदि अन्त से की प्राप्ति होती है।' उत्तम सहनन वाले का एक विषय रहित, अनादिनिधन, अति सूक्ष्म पर्चा वाला, मोगमार्ग मे चित्तवृत्ति का रोकना ध्यान है जो अन्तर्मुहुर्त काल तक का उपदेश देने के कारण जीवन का हितकारी, अत्यन्त होता है।' आत रौद्र धर्म और शुक्ल ये ध्यान के चार अथाह तथा अतिगम्भीर है। इस प्रकार तत्वज्ञानी जिनभेद माने गये हैं। इन चार ध्यानों में अन्त के दो ध्यान शासन की आज्ञा प्रमाण श्रद्धान, चिन्तन करता है, यही मोक्ष के हेतु हैं लेकिन इनमें भी घय ध्यान का विशेष आशाविषय है। महत्व है।
__ अपाय विचय--जन्म, जरा मरण, रागद्वेष, मोह, धम्यंध्यान का स्वरूप-वस्तु का यथार्थ स्वरूप रोग, विद्युत्पादादिरूप, आधिदैविक, देव मनुष्य तथा (स्वभाव) धर्म है। वस्तु सत्तास्वरूप है । मत्ता पर्याय की त्रियचों द्वारा उत्पन्न वाधारूप अधिभौतिक तथा मन की अपेक्षा उत्पाद व्ययरूप है तथा वस्तु तथा गुण की अपेक्षा चिन्ता, सकला-विकल्प रूप आध्यात्मिक इन तीन तापत्रय सदा ध्रव है। इस प्रकार अपने धर्म से व्युत न होकर से भरे हुए गमाररूपी समुद्र में जो अनेक प्राणी कष्ट में स्वभाव में बारूद रहना धर्मध्यान कहलाता है। तात्पर्य हुए हैं उनके कष्ट दूर करने तथा गाविक शत्र यह कि आत्मा चैतन्य स्वभावी है। अतः अपने स्वभाव में नाश के उपाय का चिन्तन करना चाहिए। इस अपायनिश्चल रहना, जड़ स्वभाव के प्रति रागद्वेष न करना यह विचय नामक धर्मध्यान में अनित्यादिगारह भावनामों का घयंध्यान का लक्षण है।
चिन्तन करना चाहिए अथवा मिष्यादर्शन, मियाज्ञान बम्यंध्यान के भेद-आशाविचय, अपायविचय, और मिष्याचारित्र से यह प्राणी कैसे रहित हो ऐसा विपाकविचय और सस्थानविचय ये धर्म्यध्यान के चार चिन्तन करना चाहिए । अपाय यभाव को कहते हैं, मिथ्याभेद तत्वार्थसूत्र मे कहे गये हैं।
दृष्टियों के मार्ग के अभाव का चिन्तन करना बपायविषय प्रामाविचय--उपदेश दाता के अभाव से, अपनी है। मन्दबुद्धि के उदय से तथा कर्म के वश जिसे स्वयं न जान विपाक पिचय-शुभ और अशुभ भेदों में विभक्त सके ऐसे सूक्ष्म पदार्थों के विषय में जमा सवंश ने कहा हुए कर्मों के उदय से संसार रूपी आवर्त की विचित्रता वंसा ही है, क्योंकि जिनदेव वीतरागी हैं, वे अन्यथा कथन चिन्तवन करने वाले मुनि के जो ध्यान होता है उसे बागम नहीं करते हैं, उस प्रकार पदार्थ का बखान कर बर्ष का के जानने वाले गणधरादिदेव विपाकविषय नाम का धर्मअवधारण करना माशाविचय है। चित्त मे ऐसा सन्देह ध्यान मानते हैं। जैन शास्त्रों में कर्मों का उदय दो प्रकार नहीं करना चाहिए कि जो सूत्र में कहा है, वह प्रत्यक्ष तो का माना गया है। जिस प्रकार किसी एक वृक्ष के फल दिखाई देता नही है, अनुमान से भी नहीं जाना जाता है। एक तो समय पाकर अपने बाप पक जाते है और दूसरे अतः न जाने कैमा है, इस प्रकार का सन्देह कभी भी नहीं किन्हीं कृत्रिम उपायों से पकाये जाते है, उसी प्रकार कर्म करना चाहिए। श्रुति, सुनत, माशा, आप्तवचन, वेदाङ्ग भी अपने शुम अपवा अशुभ फल देते है। मूल और उत्तर और बाम्नाय इन पर्यायवाचक शब्दों से बुद्धिमान पुरुष प्रकृतियों के बन्ध तथा सत्ता प्रादिकामाश्रय मेकरम
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२९. कि.२ क्षेत्र, काल, भाव के निमित्त से कर्मों का उदय अनेक स्थानवर्ती) जीवों में ही अतिशय उत्कृष्टता को प्राप्त प्रकार का होता है। तात्पर्य यह है कि शुभकर्म के उदय होता है। इसके सिवाय अतिशय शुद्धिको धारण करने से शुभद्रव्य, स्वर्गादिक शुभक्षेत्र, शीत-उब्ण की बाधारहित वाला और पीत पत्र और शुक्ल ऐसी तीन शुभलेश्यानों शुभकाल तथा संक्लेशरहित प्रसन्नभाव होते हैं। अशुभकर्म केल से वृद्धि को प्राप्त हुआ यह धर्म्यध्यान शास्त्रानुकर्म के उदय से इनके उल्टे अशुभ द्रव्य नरकादि क्षेत्र, सार सम्यग्दर्शन से सहित चौथे गुणस्थान में तथा शेष के शीत, आतपयुक्त काल तथा क्लेश रूप मलिन भाव होते पांचवें और छठे गुणस्थान में भी होता है। यह धर्म्यध्यान है। दोनों कमों के विवेक का वेत्ता विवेकी जीव इनके प्रति छायोपशमिक भावों को स्वाधीन कर बढ़ता है। इसका हर्ष विषाद नहीं करता है। वह कर्म के उदय के अभाव फल भी बहुत उत्तम होता है तथा अतिशय बुद्धिमान लोग हेतु उद्यम करता है। मोक्षाभिलाषी मुनियों के मोम के भी इसे धारण करते हैं। वस्तुओं के धर्म का अनुयायी उपायभूत इन विपाकविचय नाम के धर्म्यध्यान का अवश्य होने के कारण जिसे धर्मेध्यान ऐसा नाम प्राप्त हुवा है चिन्तन करना चाहिए।"
और जिसमें ध्यान करने योग्य पदार्थ का अपर विस्तार संस्थान विय-लोक के आकार का वार बार से वर्णन किया गया है ऐसे इस धर्म्यध्यान का बार-बार चिन्तवन करना तथा लोक के अन्तर्गत रहने वाले जीव, चिन्तवन करना चाहिए। 3 अंगों की स्थिरता, मुख की मजीव आदि तत्वों का विचार करना संस्थान विचय नाम प्रसन्नता होना. दष्टि का सौम्य होना आदि धर्म्यध्यान के का धय॑ध्यान है। संस्थान विचय धय॑ध्यान को प्राप्त
यान को प्राप्त बाह्यचिह्न तथा अनुप्रेक्षायें तथा पहले कही हुई अनेक
है हमा मूनि तीनों लोकों की रचना के साथ-साथ द्वीप, समुद्र, प्रकार की शभ भावनायें उसके आन्तरिक चिन्ह हैं।" पर्वत, नदी, सरोवर, विमानवामी, भवनवासी तथा व्यंतर
आज्ञा आदि के निमित्त से सतत चिन्तन करने को देवों के रहने के स्थान और नरकों की भूमियों आदि धर्म्यध्यान कहा गया है।" अशुभ कर्मों की अधिक निर्जरा पदार्थों का भी शास्त्रानुसार चिन्तन करे। इसके सिवाय होना और शुभ कर्मों के उदय से उत्पन्न हुआ स्वर्ग आदि का उस लोक मे रहने वाले संसारी और मुक्त इस प्रकार जीव सुख प्राप्त होना यह सब इस उत्तम धम्यध्यान का फल है। के दो भेद, जीव का कर्तापन, भोक्तापन तथा दर्शनादि अथवा स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होना इस धर्म्यध्यान का गुणों का भी ध्यान करे। अनेक दुःखरूप यह संसाररूपी फल कहा जाता है। इस धर्म्यध्यान से स्वर्ग की प्राप्ति तो समुद्र सम्यग्ज्ञानरूपी नाव से तैरने योग्य है। अथवा इस साक्षात् होती है परन्तु परमपद मोक्ष की प्राप्ति परम्परा विषय में अधिक कहने से क्या लाभ है? नयों के सैकड़ों से होती है। जो कर्म ईंधन को जलाने के लिए अग्नि का भङ्गो से भरा हुमा जो कुछ आगम का विस्तार है वह सब काम करती है समस्त तपों का सार ध्यान तप है।" और अन्तरात्मा की शुद्धि के लिए ध्यान करने योग्य है।" यह यही अत्मिक सुख देने वाला है। इस प्रकार जैनदर्शन में धधध्यान अप्रम | अवस्था का आलम्बन कर अन्तर्मुहतें धयध्यान का महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय स्थान है। तक तक स्थित रहता है और प्रमादरहित (सप्तम गुण
लखनऊ सन्दर्भ-सूची १.डा. हुकमचन्द भारिल्ल, धर्म के दशलक्षण । "८. आदिपुराण २१३१३४-१४० २. उत्तम संहननस्यैकापचिन्तानिरोधो ध्यान मान्त मुहू. १. आशाविषय एष स्यादपायविचयः पुनः । तापत्रयादि त्, तत्वार्षसूम नवम् अध्याय सूत्र-२७ ।
जन्माधिगतापाय विचिन्तनम् । तदपायप्रतीकारचित्रो३. वातरोबषयं शुक्लानि तत्वार्थ सूत्र नवम् अध्याय पायानुचिन्तनम् । अत्रवान्वगतिध्येयमनुप्रेक्षाविलक्षणम् ॥ ४. सर्वार्थसिडिपृ० ३४। सूत्र नं. २८।
जिनसेन : बादिपुराण २११४१-१४२ १. बत्युसहायो धम्मो-आचार्यकुन्दकुन्द ।
१०. वही २१११४३.४६ १ १. वहीं २११४७ १.तवानपेतं गवर्मान्तक्यानं बम्बंमिष्यते । धयों हि १२.जिनसेन : आदिपुराण २१३१४८-५४
बस्नुयाथात्म्यमुत्पादादि यात्मकम् । आदिपु. २१०१३३ १३. वही २१४१५५-५८ १४. बही २१११५६-६१ .७.बामापायविपाक.संस्थान विचयाय धर्म्यम् । त.सू.३६ १५. सर्वार्थसिद्धि नवमोबध्याय:पृ० ३४७ तमाशापाच संस्थान विपाकषिचयात्मकम् । चतुर्विकल्प १६.आदिपुराण २०१६२-६३ मानात मनमाम्नाप देदिभिः। मादिपु० २॥१३४ १७. धर्म के दशलक्षण हुकमचन्द भारिस पृ० ११४
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कुबेर प्रिय सेठ की कथा
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जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देव और उसमें पुंडरीकिणी नाम की एक नगरी है। वहां का राजा गुणपाल और उसकी एक रानी कुवेरभी से वसुपाल और श्रीपाल नाम के दो पुत्र थे। रानी कुबेरथी का भाई कुबेरप्रिय था, जो रूप में कामदेव के समान और परमशरीरी पा उक्त राजा के एक दूसरी रानी सत्यवती भी थी, जिसका भाई चपलगति राजा का मंत्री था। एक दिन राजा ने एक अपूर्व नाटक देखा और बहुत ही प्रसन्न हुआ। पश्चात् अपने यहां रहने वाली उत्पननेत्रा नाम की वेश्या से उसने कहा कि ऐसा अच्छा नाटक तो मेरे ही राज्य में ही हुआ है। तब उस वेश्या ने कहा- महाराज, यह कुछ भारी कौतुक नहीं है, अपूर्व कौतुक तो मैंने देखा है, जो आप से निवेदन करती हूं। एक दिन आपकी सभा में बैठे हुए कुबेर प्रिय सेठ को देखकर मैं कामदेव को पीड़ा से अत्यन्त व्याकुल हुई। उसी समय एक अच्छी दूती उक्त सेठ के पास भेजी । उस दूती ने जाकर मेरा यह सब हाल सेठ से कहा । परन्तु सेठ ने उत्तर दिया मेरे स्वदारसन्तोष ( परस्त्री त्याग) व्रत है । यह सुनकर मैं लाचार हो गई। एक बार चतुर्दशी के दिन श्मशानभूमि मे वह सेठ योग धारण करके बैठा था। मैं उसको वैसी ही अवस्था में अपने पर ले आई और सोने के महल में ले जाकर उसे अनेक पेण्टा दिखार्थी, परन्तु उस सेठ का चित्त चलायमान न कर सकी । आखिर उसको उसी श्मशान भूमि में पहुंचवा दिया। और मैंने उसी समय से ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लिया। अतः हे राजन, 5 वेश्या होकर भी उस सेठ का चित्त चलायमान न कर सकी, यह बड़ा कौतुक और आश्चर्य है । तब राजा ने कहा- उस सेठ की सब ही सम्मान ऐमी ही शील पालने बाली हैं, कुशील नहीं हैं।
उत्पलनेत्रां ने ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया है, यह किसी को ज्ञात नहीं था, इसलिए एक दिन नगर के कोतवाल का
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पुत्र उसके पर गया और बोला-शृंगार विलेपनादि करो । परन्तु इतने में ही मन्त्री का पुत्र जा पहुंचा। तब बेया ने उसके भय से कोतवाल के पुत्र को किसी सन्दूक मे बन्द कर दिया और मन्त्री पुत्र के साथ बातचीत करने लगी । इतने में ही चपलगति मन्त्री आया । उसको जाते हुए देख कर उसके डर से उस मन्त्रीपुत्र को भी वेश्या ने उसी सन्दूक मे बन्द कर दिया । चपलपति ने आकर कहा हे उत्पलनेने तुगारादि कर सेना में शाम को बहुत-सा द्रश्य लेकर आऊँगा उत्पननेषा ने कहा चपमगति, आप जब अपनी बहिन सत्यवती के विवाह मे मेरा हार ले गए थे, तब आपने कहा था कि सत्यवती के विवाह के बाद तेरा हार दे देखेंगे । सो अब वह हार दे दीजिए चपलपति ने कहा-अच्छा, तेरा हार दे देंगे तब उन ने कहा- सन्दूक में बैठे हुए देवो ! इस विषय में तुम मेरे साक्षी हो ।
1
दूसरे दिन राजा की मभा मे जाकर उत्पलनेत्रा ने चपलगति से हार मांगा। चपलगति ने कहा कहां का हार ? मैं नहीं जानता, तू ने हार किसको दिया था ? वेश्या ने कहा-यदि खबर ही नहीं है तो कल दिन क्यों कहा था कि तेरा हार दे दूंगा ? मन्त्री ने कहा- नहीं, मैंने ऐसा कभी नहीं कहा। तब राजा ने कहा-उत्प तेरा इस विषय में कोई साथी भी है? उसने कहा- हां महाराज है। राजा ने कहा हो उसको बुलाओ, तभी निर्णय होगा । राजा के कहने से सन्दूक मंगाया गया । लब वेश्या ने कहा है सन्दूक में बैठे हुए देवो, सत्य कही कि कल चपलगति ने मुझे हार देने को कहा था या नहीं ? तब सन्दूक में बैठे उन दोनों ने कह दिया हो ! अवश्य ही कहा था। इस कौतुक को देखकर राजा ने सन्दूक बलवाकर देखा तो उसमें मन्त्री- पुत्र और कोतवालपुत्र निकले। उन्हें निकलते हुए देख सब सभा के लोगों ने बड़ी सी की, जिससे दोनों सम्मित हुए राजा को इस
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१४,
१८, कि०२
कुतूहल से बराग्य उत्पन्न हुमा । उसने सत्यवती के पास के दिन पृथु ने ऐसा ही किया और चपलमति ने उसी सेवक भेजा और कि तेरे विवाह में चपलगति उत्पलनेत्रा समय राजा से कहा-महाराज, इस समय कुवेरप्रिय का हार लाया था वह दे दे। सत्यवती ने वह हार सेवक सत्यवती के साथ काम-क्रीड़ा करता है। मैंने पहले यह को दे दिया। सेवक ने राजा को और उसने उस वेश्या को बात कई बार सुनी थी, परन्तु वह बाज प्रत्यक्ष हो गई। दे दिया। पश्चात् राजा ने क्रोध के वशीभूत होकर चपल- राजा ने कहा-नहीं, कुवेरप्रिय ने आज उपवास गति की जिव्हा (जीम) काटने की आशा दी, परन्तु कुवेर- किया है, उसकी यह बात सम्भव नहीं हो सकती। चपलप्रिय ने राजा से निवेदन करके चपलगति की जीभ नहीं गति ने यह कहकर कि महाराज, प्रत्यक्ष में क्या सन्देह काटने दी। राजा ने कुवेरप्रिय को मन्त्री पद दिया। है? चलिए, स्वयं देख लीजिए । राजा को ले जाकर अपने कुवेरप्रिय मन्त्री होने से चपलगति को ईर्षा और क्रोध भाई को कुवेरप्रिय के रूप में दिखला दिया और कहाउत्पन्न हुआ तथा सत्यवती ने हार दे दिया, इससे उस पर महाराज, इन दोनों को दण्ड मिलना चाहिए । राजा ने भी वह क्रोध करने लगा और रात दिन इन दोनों का कहा-अच्छा तुम्ही इसका दण्ड दो। चपलगति ने "बहुत बुरा विचारने लगा।
अच्छा ।" कहकर कुवेरप्रिय का सिर काटने का हुक्म एक दिन यह चपलगति विमलजला नदी पर क्रीड़ा दिया और सत्यवती की नाक काटने का । महा न्यायवान करने के लिए गया। बैलों के मुड में वहां उसने एक सुंदर कुवेरप्रिय को पल सबेरे मारूंगा, और सत्यवती की नाक मुद्रिका (अंगूठी) देखीं और उठा ली। इतने मे ही व्याकुल काटूंगा, ऐसा विचार कर आने भाई को लेकर वह अपने चित्त चिंतागति नाम का विद्याधर वहां आकर इधर-उधर घर गया और भाई को घर छोड़कर श्मशान भूमि से कुछ ढूंढ़ने लगा । तब चपलगति ने उससे पूछा-भाई, कुवेरप्रिय को उठा लाया । नगरवासियों को यह सुनकर इधर-उधर क्या देखते हो ? विद्याधर ने कहा-मेरी बड़ा क्षोभ हुआ। सेठ कुवेरप्रिय ने प्रतिज्ञा की कि जो में मुद्रिका खो गई है, उसको ढूंढ रहा हूं। यह सुनकर चपल
- इस उपसर्ग से बचूंगा, तो पाणिपात्र में भोजन करूंगा। गति ने उसे मुद्रिका दे दी। विद्याधर को सन्तोष हुमा। तथा
तथा ऐसी ही प्रतिज्ञा सत्यवती ने की कि वचूंगी तो रसने चपलगति से पूछा--आप कौन हैं । चपलगति ने
आयिका हो जाऊँगी। और जो इष्टदेव की पूजा करने का कहा - मैं कुवेरप्रिय का देवपूजक (सेवक) हूं। विद्याधर
घर था, वह उसमें कायोत्सर्ग धारण कर बैठ गई। राजा ने कहा-तुम कुवेरप्रिय के सेवक हो तो कुवेरप्रिय मेरा दुःख से व्याकुल होकर अपनी शय्या पर पड़ रहा । सबेरे मित्र है, उसको यह मुद्रिका दे देना । यह काममुनिका है, ही चपलगति कुवेरप्रिय को केश पकड़ कर श्मशान इसके प्रताप से मनचाहा रूप बन जाता है। मैं उससे भूमि में लाया और वहां उसके मारने के लिए चाण्डाल फिर कभी यह मुद्रिका वापिस ले लूंगा । ऐसा कहकर को बुलाया । पश्चात् चाण्डाल को तलवार देकर आज्ञा वह मुद्रिका दे विद्याधर तो चला गया और चपलगति दी-इसका काम तमाम कर दो। जिस समय उसके उसे लेकर वहां से लौटा। घर आकर उसने अपने भाई मारने की आज्ञा हुई, उसी समय उसके परम शील के पृथु को सिखाया कि चतुर्दशी के सायकाल के समय तू प्रभाव से देवों के तथा असुरों के आसन कम्पायमान हुए इस मुद्रिका को पहन कर मत्यवती के घर जाना और और कुवधिज्ञान से कुवेरप्रिय पर उपसर्ग जानकर वे शीघ्र जब वह तुझे बासन पर बिठा दे, तब अपने मन में ऐसा ही वहां माए । इधर कुवेरप्रिय का यह हाल देखकर विचार करके कि "मेरा रूप कुवेरप्रिय का सा हो जाय" समस्त नगर के लोग हाहाकार करने लगे और "कुवेरइस मूठी को अपने चारों तरफ फिराना, तब तेरा रूप प्रिय हाय, यह तुम्हारा यह क्या हाल हुवा ?" ऐसा कुवेरप्रिय का सा हो जायगा । फिर सत्यवती के पास ही चिल्लाते हुए दुःखी होकर उसकी ओर देखने लगे। कामचेष्टा प्रविक्षेपादिक करना। उस समय मैं राजा के चांगल ने यह कह कर कि 'बव कुवेरप्रिय, अपने इष्टपास डूंगा, इसलिए अपना काम बन जाएग।। चतुर्दशी
(मेष पृ. बावरण ३ पर)
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जैन होने में बाधक : मूर्छा-भाव-परिग्रह :
पाचन शास्त्री, नई दिल्ली।
सामाजिक प्राणी और मानव बनने के लिए हिसा, मूल, चोरी और कुशोलका स्मूल त्याग किया जाता है और जैन या जिन बनने के लिए परिग्रह का त्याग करना होता है। ___ कहते हैं सत्य बड़ा कड़वा अमृत है । जो इसे हिम्मत प्रथम लक्षण का सम्बन्ध है, वहां हमें कुछ नही कहना। करके एक बार पी लेता है वह अमर हो जाता है और क्योकि वहाँ तो 'जिन' का अपना स्वभाव ही 'जैन' कहजो इसे गिरा देता है वह सदा पछताता है। हम एक लाएगा । जैसे अग्नि का अपना अस्तित्व है वह उसके अपने ऐसा सत्य कहने जा रहे हैं जिसे जन-मानस जानता है- धर्म उष्णत्व से है। न तो अग्नि उष्णत्व को छोड़ेगी और न मानता नहीं और यदि मानता है तो उस सत्य का अनु- ही उष्णत्व अग्नि को छोड़ेगा। ऐसे ही जिनका यह धर्म गमन नहीं करता । उस दिन एक सज्जन मेरे हस्ताक्षर 'जन' है, वे 'जिन' भी इसे न छोड़ेंगे और ना जैन ही लेने आ गए। दूर से आए ये, कह रहे थे-आपके सुलझे जिन को छोड़ेगा । मोह रागादि परिग्रह को छोड़ने से और निर्भीक विचारों को 'अनेकान्त' में पढ़ता रहता हूं। "जिन' है और उनका धर्म 'जैन' उन्हीं में रहेगा। और कारणवश दिल्ली आना हुआ । सोचा आपके दर्शन करता जो 'जन' बनता जाएगा उसका धर्म न होता चलू । उनके आग्रहवश मैने हस्ताक्षर दे दिए । वे जाएगा । यह बात वही ऊंची और अध्यात्म की है अतः पढ़कर बोले-आप तो जैन है, आपने अपने को जैन हम इसे यही छोड़ते हैं । प्रसग में तो जैन से हमारा आशय नही लिखा- केवल पपचन्द्र शास्त्री लिखा है । मैंने 'जिन' द्वारा प्रसारित उस धर्म से है जो जीवों को ससार कहा-हां, मैं ऐसा ही लिखता हूं। इससे आप ऐमा न के दु.खो से छुड़ाकर 'जिन' बना सके-मोक्ष सुख दिला समझें कि मैं इस समुदाय का नही। मैं तो इसी में पैदा सके। क्योकि इस धर्म का माहात्म्य ही ऐसा है कि जो हमा हं, वहा भी इसी में हपाई और चाहता हूं मर भी इसे धारण करता है उसी को 'जन' या 'जिन' बना देता है यहीं। काश ! लोग मुझे जैन होकर मरने दें। यानी- कहा भी है-'जो अधीन को आप समान, करन सो 'ये तन जावे तो जावे, मुझे जैन-धर्म मिल जावे'। मैंने निन्दित धनवान ।' कहा-पर अभी मुझ जैन या जिन बनने के लिए क्या वर्तमान में हिमा, मन्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य की कुछ, और कितना करना पडेगा? यह मैं नहीं जानता। जैसी धुंधली-परिपाटी प्रचलित है, यदि उसमें सुधार आ हां, इतना अवश्य है कि यदि मैं मूर्छा-परिग्रह को कृश जाय तो लोकिक-मानव बना जा सकता है। प्राचीन कर सकू तो वह दिन दूर नहीं रहेगा जब मैं अपने को समय की सुधरी परिपाटी ही आज तक समाज और देश जैन लिख सकू।
को एक सूत्र में बांधे रख सकी है। निःसन्देह उक्त 'जिन' और 'जैन' ये दोनों शन्द आपस में घनिष्ट नियमों के बिना न तो समाज सुरक्षित रह पाता और ना सम्बन्ध रखते हैं । जिन्होंने कर्मों पर विजय पाई हो, वे ही देश का उद्धार हुआ होता । लौकिक सुख-शान्ति भी 'जिन' होते है और 'जिन' का धर्म 'बन' होता है। इन्हीं नियमों पर आधारित है। इसीलिए भारत के मुख्यता धर्म के लक्षण-प्रसंग में 'बत्यु महाबो धम्मों और विभिन्न मत-मतानरों ने इन पर ही विशेष बल दिया। 'यः सत्वान् संसार दुःसतः उहत्य उत्तमे (मोने) सुखे ताकि मानव, मानव बन सके और लौकिक, सुख-शान्ति धरति सः धर्मः' ये दो लक्षण देखने में आते हैं। जहां तक से ओत-प्रोत रह सके। पर जैन तीर्थकरों की वृष्टि पार
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लौकिक सुमतक भी पहुंची। उन्होंने जीवों को शाश्वत- अन्तरंग हो या बहिरंग या हिंसादि पापों रूप हो-सभी परलोक-मोक्ष का मार्ग भी दर्शाया । उनका बताया तो परिग्रह है। मार्ग ऐसा है जिससे दोनों लोक सघ सकते हैं। वह मार्ग ये तो जिन की देन है, जो उन्होंने वस्तुतत्व को है-मानव से जैन और "जिन बनने का पूर्ण परिपह के बिना किसी भेद-भाव के उजागर किया और अपरिग्रह छोड़ने का अर्थात् पब स्पुन हिसा, भूग, चोरी और कुशील को सिरमौर रखा और अहिंसा आदि सभी में इस अपरिका त्याग किया जाता है तब मानव बना जाता है और ग्रह को हेतु बताया है। पिछले दिनों हमें श्री बशालचन्द्र जब परिग्रह की सीमा बांधी या परिणहका त्याग किया नोरावाला का पत्र मिला है। पत्र का सारांश यह है जाता है तब 'जन' बना जाता है। जैनियों में जो दश-धौ कि चारों कषायों और पांचों पापों में कार्य कारण की का वर्णन है उनमें भी पूर्ण-अपरिग्रह धर्म ही साध्य है. व्यवस्था उल्टी है। कार्य-निर्देषा पहिले और कारण-निर्देग शेष धर्म उस अपरिग्रह के पूरक ही हैं। कहा भी है - अन्त में है। यानी क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार 'क्षमा मार्दव बार्जव भाष हैं, सत्य, शौच, सयम, तप, कषायों में अन्त की लोभ कषाय पूर्व'की कषायों में कारण
त्याग 'उपाय हैं। है। लोभ (चाहे वह किसी लक्ष्य में हो) के होने पर ही आकिंचन ब्रह्मचर्य धर्म दश सार हैं ...'
क्रोध, मान या मायाचार की प्रवृत्ति होगी। इसी प्रकार जब सत्य, शौच, संयम तप और त्यागरूपी उपायों
हिंसा, मूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पांच पापो मे भी से मन को मना, मार्दव, आर्जव, रूप भावों में ढाला जाता
अन्त का परिग्रह पाप पूर्व के पापो मे मूल कारण है। है तब आकिंचन्य (पूर्ण अपरिग्रह) धर्म प्राप्त होता है और पर
परिग्रह (चाहे वह किसी प्रकार का हो) के होने पर ही तभी आत्मा-ब्रह्म (आत्मा) में लीन (तन्मय) होता है।
हिंसा, झूठ, चोरी या कुशील की प्रवृत्ति होगी। ये तो हम यह आत्मा में लीनता (तद्रूरता) का होना ही जिन या
पहिले भी लिख चुके हैं कि-'तन्मूलासर्वदोपानुषङ्गा... जैन का रूप है । और इसे प्राप्त करने के लिए प्रानव से
ममेदमिति, हि सति संकल्पे रक्षणादय सजायन्ते । तत्रच निवृत्ति पाकर संवर-निर्जरा के उपाय करने पड़ते हैं और
हिंसाऽवश्य भाविनी तदर्थमनत जाति, चौर्य चाचरति, वे सभी उपाय प्रवृत्ति रूप न होकर निवृत्ति रूप (जैसा
मैथुनं च कर्मणि प्रतिपतते।'-त. रा. वा. ७।१७१५ कि ध्यान में होता है) ही होते हैं। किन्हीं अशो मे हम आशिक निवृत्ति करने वालो को भी 'जिन' या जैन कह
सर्व दोष परिग्रह मूलक हैं। यह मेरा है, ऐसे सकल्प में सकते है। कहा भी है
रक्षण आदि होते हैं उनमें हिंसा अवश्य होती है, उसी के जिणा विहा सपलदेजिण एण । खविय धाड- लिए प्राणी मठ बोलता है, चोरी करता है और मैथुनकर्म कम्मा सयलजिमा । के ते? अरहंत सिद्धा अवरे आइरिय
में प्रवृत्त होता है, आदि : उवझाप साह देस-जिणा तिव्व कषायेंदिय-मोहविजयादो।' आचार्यों ने मूर्छा को परिग्रह कहा है। और यहाँ -धवला ६,४,१,१,१०।
मूर्छा से तात्पर्य १८ प्रकार के परिग्रह से है। मूर्छा जिन दो प्रकार के हैं-सकलजिन और देशजिन ।
ममत्व भाव को कहते हैं। और ममत्व सब परिग्रहों में पातियाकर्मों का क्षय करने वाले अरहंतों और सर्वकर्म
मूल है । अरति, शोक, भयादि भी इसी से होते हैं । इसीरहित सिद्धो को सकलजिन कहा जाता है तथा कषाय लिए ममत्व का परिहार करना चाहिए। राम की मुख्यता मोह और इन्द्रियों की तीव्रता पर विजय पाने वाले के कारण ही जिन भगवान को भी बीत द्वेष न कह कर आचार्य, उपाध्याय और साधु को देश-जिन कहा जाता वीतरागी कहा गया है। यदि प्राणी का राग बीत जायहै। उक्त गणों की तर-समता मे कपंचित देश-त्यागी
मूच्छ भाव बीत जाय तो वह 'जिन' हो जाय । जिनपरिग्रह को कम करने वाले श्रावकों को भी जैा मान
मार्ग में परिग्रह को सर्व पापों का मूल बताया गया है सकते हैं, क्यो कि-मोक्षरूप उत्तम सुख मिलना परिग्रह और परिग्रह त्यागी को ही 'जिन और जैन' का दर्जा कृश करने पर ही निर्भर है, फिर चाहे वह-परिग्रह दिया गया है।
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न होने में बाधक बच्छा-माव-परिग्रह :
कुछ लोग रागादि को हिंसा और रागादि के अभाव कह तं होई सुसीलं संसारं पवेसेवि ॥ को बहिंसा माने बैठे हैं। और हिंसा व परिग्रह मे भेद
-समयसार ४११४५ नहीं कर रहे। ऐसे लोगों का कहना है कि अमृतचन्द्राचार्य अशुभ कर्म कुशील-बुरा है और शुभ कर्म सुशील-- ने कहा है कि
अच्छा है, ऐसा तुम जानते हो; किन्तु जो कर्म जीव को 'अप्रादुर्भावः खल रागादीनां भवत्यहिंसेति । संसार मे प्रवेश कराता है, वह किस प्रकार सुशीलतेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। अच्छा हो सकता है ? अर्थात् अच्छा नहीं हो सकता।
ऐसे लोगों को सूक्ष्म दृष्टि से कार्य-कारण की व्यवस्था उक्त प्रसग से तात्पर्य ऐसा ही है कि यदि जीव परि. को देखना चाहिए । आचार्य ने यहां कारणरूप रागादिक ग्रह-आस्रव जनक क्रिया को त्याग कर सवर निर्जरा में में कार्य-रूप हिंसा का उपचार किया है। रागादिक स्वय प्रालशील हो-सभी प्रकार विकलो को छोड़कर स्व मे हिंसा नही हैं अपितु हिंसा में कारण हैं। इसीलिए आगे आवे, तो इमे जिन या जैन बनने में देर न लगे। आचार्यों चलकर इन्हीं आचार्य ने कहा है
ने स्व मे आने के मार्ग रूप सवर निर्जरा के जिन कारणों 'सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तु निवधना भवति पंसः।' का निर्देश किया है । वे सभी कारण परिग्रह निवृत्त रूप 'आरम्यकतुंमकृतापि फलति हिसानुभावेन ।' हैं. किसी में भी हिंसा, मूठ, चोरी जैसे किसी परिग्रह का 'यस्मात्सकवायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम्।' सचय नहीं । तथाहि-'स गुप्ति ममिति धर्मानुप्रेक्षा'यत्खलुकषाययोगात प्राणानां द्रव्य भावरूपाणाम् ।' परीषह चारित्रः। 'तपसा निर्जरा च ।'-गुप्ति समिति,
-पुरुषा० धर्म, अनुप्रेक्षा, परीपहजय और चारित्र से संवर होता है हिंसा पर वस्तु (रागादि) के कारणो से होती है और तप से संवर और निर्जरा दोनो होते हैं । उक्त हिंसा कषाय भावो के अनुसार होती है । कषाय के योग क्रियाओ मे प्रवृत्ति भी निवृत्ति का स्थान रखती हैसे द्रव्य-भावरूप प्राणो का घात होता है। और सकषाय- सभी में पर-परिग्रह का त्याग और स्व मे आना है। जीव हिंसक (हिंसा से करने वाला) होता है। तथाहि -
पिछले दिनों हमने जैन बनने मे हेतु-भूत-ध्यान के गुप्ति-'यत: संसारकारणादात्मनो गोपन सा गुप्तिः।' प्रसंग से अपरिग्रह-पूर्ण निवृत्ति को दिखाया था । जो
रा० वा१,२,१। लोग किसी विन्दु पर मन को लगाने की बात करते हैं
- जिसके बल से ससार के कारणों से आत्मा उसमें भी आस्रव भाव होता है फिर जो दीर्घ संसारी हैं, का गोपन (रक्षण) होना है वह गुप्ति है। ऐसे लोगों ने तो ध्यान-प्रचार के बहाने आज देश-विदेशों मनोगुप्ति--'जो रागादि णियत्ती मणस्स जाणाहि में भी काफी हलचल मचा रखी है, जगह-जगह ध्यान
तमणोगुती।'
बचोगुप्ति-'अलियादिणियत्ती वा मौणं वा केन्द्रों की स्थापना की है। वहां शान्ति के इच्छुक जन
होइ बदिगुत्ती ॥' नि. सा. ६भ । साधारण मनः-शान्ति हेतु जाते हैं । पर वहां के, वह कुछ
कायगुप्ति-'काय किरियाणियत्ती काउस्सग्गो नहीं पा सकते जो उन्हें जिन. जैनी या अपरिग्रही होने
सरीरगेगुती ।' नि. सा.७८ । पर-सब बोर से मन हटाने पर मिल सकता है। यहां
समिति-निज परम तत्व निरत सहज परमबालाको मात्मनान मिलेगा और वहां उन्हें परिग्रहरूपी
बोमादि परम धर्मागां संहति समिति । नि.सा.सा. वृ. ६१ पर-विकारी भाव मिलेंगे । फिर चाहे वे विकारी भाव व्यवहारी दृष्टि से-कमशृंखलारूप में 'शुभ' नाम से ही
स्व स्वरूपे सम्यगितो गतः परिणतः समितिः ।' प्रसिद्ध क्यों न हों। वास्तव में तो वे धरूप होने से अशुभ
प्र. सा. ता० ० २४०। ही है; कहा भी है
'अनंत ज्ञानादि स्वभावे निजात्मनि सम सम्यक 'कम्ममसुहं कुसील सुहक्कम चावि जाणह खुसील। सनस्तरागादिविभावपरित्यागेन तल्लीनचितन
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१०,३८, कि२
अनेकान्त रूप तो न रहा, पर जैन के रहस्य को किनारे रख किन्हीं है कि जैन कुल में जन्म लेना पुण्य पर आधारित है तो लोगों ने किन्हीं राजनैतिक लाभों को प्राप्त करने की दृष्टि पहिले तो जन्म ही पाप (बुरा-दुःखरूप) है; दूसरे जिसे से (भी) संख्या बढ़ाने-बढ़वाने के प्रयत्न चालू कर दिये। हम जैन कुल कहते हैं वह जैन है कहाँ ? जैन तो 'जिन' में (हालांकि संख्या बढ़ाने-बढ़वाने से अभी तक शायद ही बैठा है-चारित्र शील व्यक्ति में बैठा है, पुद्गल काया में कोई मात्र प्राप्त हो सका हो। वे ऐसे पुद्गल-कलेवरों की 'जैन' कहाँ ? एतावता जन-संख्या बढ़ाने से जैन बढ़ जाते वृद्धि करने को जैन की वृद्धि मान बैठे। इसका जो फल हैं यह बात सर्वथा अटपटी-सी है। उक्त स्थिति में भी हवा वह हमारे सामने है। जैन जैसा रत्न, जो आत्मा का लोग न जाने क्यों शरीर-पिण्डों की संख्या बढ़ाने को जैन धर्म है, वह नश्वर शरीर-रूप जैसी मिट्टी का धर्म बनकर की संख्या वद्धि मान रहे हैं ? यह आश्चर्य ही है। रह गया। ऐसे लोग किसी कुल में जन्म लेने वाली मिट्टी जैनाचार्यों ने जहां पदार्थों का वर्णन किया है वहां की काया को 'जैनी' मानने लगे और असली जैन, जैनत्व उन्होंने उनके गुण-धर्मों का भी वर्णन किया है। जब भाव लुप्त होता गया। यानी जैन के सर्वथा विपरीत हीन उन्होंने आत्मगुणों के विकास की चरमावस्था को प्राप्त आचरण वाले भी जैन कहलाने लगे। पं. टोडरमल जी आत्मा को 'जिन और उनके धर्म को जैन कहा तब लोग कहते हैं-"जो उच्चकुलविर्ष उपजि हीन आचरन करें, तो इसे कुल में प्राप्त शरीर में कलित करने लगे। यानी वाकों उच्च कैसे मानिए ? जो कुल विष उपजने ही तें आत्मा का धर्म-'जैन', पुद्गल-रूप हो गया अर्थात् जो उच्चपना रहे तो मांस भक्षणादि किए भी वाकों उच्च इस समुदाय में पैदा हो गया वह काया जैन हो गया। ही मानो सो बने नाही।' भारत विर्ष भी अनेक प्रकार यदि हम आत्मा के गुणों के आधार पर जैनत्व का ब्राह्मण कहे हैं। तहा जो ब्राह्मण होय चांडाल का कार्य निश्चय न भी करें और अधिक स्यूल व्यवहार में जाकर करताको चाण्डाल-ब्राह्मण कहिए ऐसा कहा है। सो ही देखें तब भी आज जैनों की संख्या नगण्य ही रहेगी। कुल ही ते उच्चपना होय तो ऐसी हीन संशा काहेकौं जैसे-देवदर्शन करना, रात्रि भोजन का त्यागी होना, छने दई?"-मो. मा० २५८
जल का पीना, अष्ट-मूलगुणो का धारण करना आदि । ये संसार में सबसे बड़े दुख जन्म मरण कहे हैं-अन्य सब ऐसे मोटे चिन्ह है, जिससे साधारण जैन की पहिचान सभी दुःख इन्ही के होने पर होते हैं और इन्ही दोनों के की जा सकती है। पर, आज आलीशान सामिष होटलों में अभाव हो जाने का नाम मुक्ति है। विचारने की बात ये रात्रि में प्रीति-भोज आयोजन जैसे समाचार प्रमुख जनहै कि इन दोनों दुखों में कारण कौन हैं? जहां तक मरण पत्रों में छपते रहे हैं। की बात है हम उस में आयु कर्म के क्षय को कारण कह माचार-विचार की दशा ये है कि रात्रि-भोजन त्याग सकते हैं, सो कर्म का क्षय होना कोई बुरी बात नहीं। आदि जैसे साधारण नियमों का पालन तो दर-किनार, कर्म से क्षय को जैन दर्शनकारों ने इष्ट ही माना है और गाहे-बगाहे अब तो जैनियों के कुछ अंगों को बड़े-बड़े इसके लिए ही सारे उपाय बतलाये हैं। हाँ, रही जन्म की सामिष होटलों तक में भी देखा जा सकता है। लोग अपनी बात, सो उसमें अन्तरंग निमित्त बायु कर्म का बय और आंखों से कई मान्यों को भी होटलों की सैर करते कराते, बहिरंग निमित्त मंयुनक्रिया है और ये दोनों ही जैन-दर्शन उनमें विवाह शादी रचते-रचाते देख रहे हैं। ऐसे मान्यों में अनिष्ट कहे गए हैं। जहां तक कर्म का उदय है उसको में स्टेजों पर धर्म पर मर-मिटने की सौगन्ध खाने-खिलाने हम छोड़ भी दें तो भी मैथुन तो ब्रह्म है ही और अब्रह्म बाले कई मान्य भी शामिल हैं। जो लोग सामूहिक रात्रिको पाप कहा गया है-मैथुनमब्रह्म।' सभी जानते हैं कि भोजन निषेध का प्रचार करते हैं, "दिन में फेरे, दिन में जीवों के जन्म लेने (शरीर धारण करने) में मधुनरूप-पाप बारात' आदि जैसे नारे बुलन्द करते हैं, उनमें कई को निमित्त बनता है और पाप के निमित्त से हमा जन्म पुण्य रात्रि-भोजन करते और होटल की शादियों में सम्मिलित कहलाए, यह बात समझ से बाहर है। जब हम यह कहते होते माराम से देखा जा सकता है।
नाना १२५
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हमें लिखने में संकोच नहीं, अपितु सन्तोष है कि जो बछड़े गाय का दूध पी जाते हों वे एक बाते हैं। जो किन्हीं प्रबुद्धों के प्रयासों से आज हम जैन-नामधारियों ने बैल और ऊंट बनाज खा जाते हो वे भी रुक जाते है। यह तो महसूस किया है कि जैनों का ह्रास हो गया है- हाला कि ऐसा करना भी धर्म सम्मत नहीं। सभी जानते उनमें आचार-विचार नाम की चीज नहीं जैसी रह गई है कि तीर्थंकर ऋषभदेव जैसे महान को भी पूर्वभर में है, वे जेनी नहीं रह गए हैं। इसका जीता-जागता सबूत ऐसे उपदेश देने के कारण ही तीर्थकरभव में छह मात्र है-शाकाहार और श्रावकाचार वर्ष का मनाया निराहार घूमना पड़ा। कदाचित कोई व्यक्ति लौकिक जाना । यह आयोजन हमारे गाल पर ऐसा तमाचा उपयोगिता को समझ, किसी प्रथा का पोषण करे तो है जो हमें शर्मिन्दा करने के लिए काफी है, ऐसा इसलिए किसी अस में कदाचित् मौन धारण किया जा सकता है, कि-जैनी नियम से शाकाहारी और श्रावक होता है। पर, जो व्यक्ति समाज के आचार और धार्मिक प्रवृत्तियों के उसके लिए शाकाहार और श्रावकाचार वर्ष मनाने की ह्रास को देखते हुए भी आचार और धर्म के सरक्षण को सार्थकता ही क्या ? यदि ऐसा नहीं और वह मांसाहारी प्रवृत्तियों में रक्त-किसी व्यक्ति को मुंह न खोलने दे और बन चुका है तो वह जैन कैसे है ?
__ उसकी जुबान पर ताला लगाने-अगवाने के प्रच्छन्न या हम तो तब भी शमिन्दा होते हैं, जब कोई विद्वान उजागर उपक्रम करे तो हम पीडा से कराह उठते है। हम वर्तमान जैन-सभा में आकर वर्तमान जैनियों को शिक्षा नही समझते कि ऐसे लोग सही सुनना क्यों नहीं चाहते। देता है कि सप्त व्यसनों का त्याग करो, पांच पापो का सन्देह होता है कि कही वे दोषी तो नहीं। त्याग करो आदि ! हम सोचते हैं कि वह जैनो को उपदेश आज समाज और धर्माचार का जैसा विकृत रूप दे रहा है या पापियों को तोरने का प्रयत्न कर रहा है? उभर कर सामने आया है उसमे खरीबात सुनने से भयक्योकि जैनी पापी नही होता और निष्पाप को ऐसा उप- भीत होते रहने और खरों के मुह पर ताला लगाते देश नहीं होता।
रहने जैसे उपक्रम ही मूल कारण बने है जो धीरे-धीरे यदि हम ऐसा मानकर चलें कि शाकाहार वर्ष तो परिपक्व होकर सड़ फोड़े की भाति रिसने लगे हैं। हम इतर समाज व देश के लिए मना रहे हैं। तो संवर पिछली कई घटनायें हैं कि जब किसी ने कुप्रथाओं बौर के बिना निर्जरा कैसी? जब तक मछली उत्पादन : मुर्गी आगम-विरुद्ध-वर्तनो के विरुद्ध कोई आवाज उठाई, सभी पालन आदि जैसे मांसोत्पादक केन्द्रो का निरोध न हो कुछ तथाकथित लोगों ने उन्हें रोकने को चेष्टाएं की। तब तक देश के लिए शाकाहार वर्ष की सार्थकता कैसे? फलस्वरूप कुछ कुचले गए, कुछ मैदान छोड़ गए, कुछ पहिले तो उन स्रोतों को बन्द कराना चाहिए जो मांसो- समाज से छिटक गए और इस तरह न्यायमार्ग का प्रास त्पादन कर पाकाहार में गिरावट ला रहे है। चाहे इसमें होता रहा। यदि लोगों में तनिक भी सहनशीलता और सरकार से भी लोहा क्यो न लेना पड़े? पर, बिल्ली के विचार शक्ति रही होती तो वे किसी भी विरोधी गले में घण्टी बांधे कौन? फिर, आज जैनी भी तो पूर्ण बातें सुनते सोचते और पूर्वाचार्यों के परीक्षा-प्रधानी' तया शाकाहारी नही रह गए हैं ? मीठा-मीठा गप, कड़वा- बनने जैसे अमूल्य वाक्यों पर अमल करते, तो समाज कड़वा ! उक्त स्थितियों में क्या हम जैनी है? जरा और धर्माचार की ऐसी दीन दशान होती जैसी आज सोचिए ।
देखने में आ रही है।
बाजबाम लोगों के मुख पर मुरमाहट है। जो पर्व २. ताला कब तक लगाया जायगा?
की राह में है वे अक्सर महमे-सहमे से है। ध्यानी ध्यान हमने उन बछड़ों, बैलों और ऊंटों को देखा है, जिनके करते, पुथरी पूजा करते और दुनियानी मनुष्य पुलिस मासिक मुंह पर छीके (बोच) बाध देते हैं। ऐसा करने से दारी में घूमते ए शंकित बार भयभीत है किकी ससके
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३२,००२
मनेकान्स
मार्ग में कोई रुकावट बड़ी न हो जाय तेरापंथी के लिए कोई बीसपंथी और बीसपंथी के लिए कोई तेरापंथी काबट बड़ी न कर दे। या कहीं कोई श्वेताम्बर किसी दिन म्बर के या दिगम्बरी किसी श्वेताम्बर के हक को हड़पन से हांलाकि उनके दिलों में परस्पर में स्व-सम्प्रदायियों के लिए भी कोई सम्मानित स्थान नही जैसा है वे परस्पर मैं भी एक दूसरे की काट पर तुले हैं। ऐसा क्यों ?
एक बार जब सोनगढ़ वालों की ओर से भावी तीर्थंकर के नाम से सूर्य कीर्ति जैसे कल्पित तीर्थंकर की मूर्ति स्थापित हुई, तब हमने भी उसके अनौचित्य पर दो शब्द लिख दिए । जब काफी लोग सोनगढ़-साहित्य का खुले आम बहिष्कार कर रहे हैं और पूज्य आचार्य धर्म सागर जी महाराज जैसे सन्त भी इसमें सहमत हैं, तब हमने उस विषय में उसके बहिष्कार को पुष्ट न इतना संशोधन ही दिया था हम उसे 'कसौटी पर कसेंयह बात आगम के सर्वथा अनुकूल है और आपायकृत मूल बागमांगों की रक्षा में भी समर्थ है। बत हम
कर
नहीं चाहते कि किन्हीं प्रसंगों से हमारे पूर्वाचार्यो की अवमानना हो । फिर भी हमें आश्चर्य है कि कुछ लोगों को परख की बात खटकी। जब कि हमारे पूर्वाचार्यो का निर्देश, उनके स्वयं के कथनों को भी परख कर ग्रहण करने का रहा है-परीक्षा प्रधानी होने का उनका आदेश है। कुछ लोगों ने हमें कहा कि आपको संपादक अनेकान्त के नाम से किसी खास नाम को इंगित नहीं करना चाहिए आदि। सो हम तो ऐसा समझे हैं कि बागम और बनेकान्त जन साधारण की यें बोलने के लिए है, किसी का अब मींचकर तिरस्कार या सम्मान करने के लिए नहीं हूँ और ना ही मौन रहने के लिए। हमने तो ऐसा खास कुछ नहीं लिखा है - परीक्षण की ही बात की है। जब कि न्यायप्रसंग में अनेकान्त और उसके संस्थापक मुख्तार सा० की नीति इससे भी कड़ी रही है और वे विपरीत प्रतिभासित होने वाली प्रवृत्तियों के खिलाफ सहा मावाज उठाते रहे हैं। मुख्तार सा मे अनेकान्त में ही स्व० काम भी स्वामी की घोषित अवस्था में 'समयसार की १२ वीं गाया और कान जी स्वामी'
शीर्षक में उनको लक्ष्य कर-विचारार्थ को दिया था, उसकी झलक देखिए
१ "कानजी स्वामी का 'वीतरागता ही जैनधर्म है'। इत्यादि कथन केवल निश्चयावलम्बी एकान्त है, व्यवहार नय के वक्तव्य का विरोधी है. वचननय के दोष से दूषित है और जिन शासन के साथ उसकी संगति ठीक नहीं बैठती।" अनेकान्त वर्ष १२ कि० पृ० २७७.
२ (कानजी स्वामी का ) " सारा प्रवचन प्राध्यातित्मक एकान्त की ओर ढला हुआ है, प्रायः एकान्त मिष्यास्व को पुष्ट करता है और जिन शासन के स्वरूप विषय में लोगों को गुमराह करने वाला है। इसके सिवाय जिन शासन के कुछ महान स्तंभों को भी इसमें 'लौकिक जन' तथा अन्यमतो जैसे शब्दो से याद किया है और प्रकारान्तर से यहां तक कह डाला कि उन्होंने जिनशासन को ठीक समझा नहीं।" वही कि ६ पृ. १५०
उक्त प्रसंगों को देखते हुए हमने नीति और बागम सम्मत ही किया है। किसी पक्ष का नाम तो हमें प्रसंगवा लेना पड़ा है- भक्तगण इसका बुरा न मानें। हमें खुशी है कि कुछ प्रबुद्धों ने हमारे निश्पक्ष और साहसिक खुशी है कि कुछ प्रबुद्धों ने हमारे निष्पक्ष और साहसिक विचारो को सराहा भी है। हम आभारी हैं ।
इसी प्रसंग मे एक बात और सभी जानते हैं कि गणधर ने तीर्थंकर की वाणी को प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और इम्यानुयोग जैसे चार विभागों में बांटा और उक्त वाणी का सगह आगम कहलाया । जैन मंदिरों मे इसी आगम को गद्दी पर और साधारणरीति
से भी प्रवचन और स्वाध्याय के लिए स्थापित किया जाता रहा। पर आज स्थिति ऐसी हो रही है कि आचायों कृत मूल शास्त्रों की भाषा- प्राकृत, संस्कृत आदि से लोगो का नाता टूट सा चुका है। वे प्रादेशिकी और हिन्दी आदि भाषाओं की ओर दौड़ पड़े हैं। यहां तक कि उन्हें १० प्रवर टोडरमल जी और पं० सदासुख की जैसे मनीषियों की भाषा भी नहीं रुचती। वे आधुनिक हिन्दी गद्य और काव्यमयी कृतियों को ही शास्त्र- जिनबानी बना रहे हैं, मंदिरों में उनकी वाचना कर रहे हैं। फलतः - मंदिरों में भी इन कृतियों की भरमार हो रही है और मूल गायब हो रहा है।
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हमारे लिखने से संबंधित लोय इष्ट भी हो सकते हैं कल्पित सौर्यकर 'सूर्यकीति की मूर्ति हमारे देखते-देखतेपर लिखना तो हमें है ही। सो-इधर इस युग में, विरोध करते भी माजे बाजे के साथ जोर-शोर से स्थाबहुत से अभिनन्दन अंध भी प्रकाशित हुए और हो रहे पित्त हुई और हम उसे शेक न सके विरोध में सत्याग्रह हैं। उनमें कई तो जिन मंदिरों में भी पहुंच चुके हैं। का ऐलान करने वाले भी गायब रहे। कुछ लोय असफल यद्यपि ऐसे ग्रंथ किसी अनुयोग में नहीं आते फिर भी कुछ होकर भी शेप मिटाने के लिए "ये हो गया, पो हो गया लोग इन्हें मंदिरों में चौकियों पर रख इनका वाचन जब हम गागे यह करेंगे, वो करेंगे" धादि नारों से समाज करने लगे हैं। हमने जब एक प्रबुद्ध सज्जन को तथ्य बल- को भ्रमित या आश्वस्त करते रहे। तब अभिनन्दनपथ आदि लाया तो वे विरमित तो हो गए; किन बोले- इसमे प्रज्छन्न रूप में हमारी जिनवाणी के स्थान पर विराजआगम विरुद्ध तो कुछ भी नहीं है; आदि।
मान होकर भविष्य में अभिनादन नायका को शलाका आशंका है कि कमी ऐसे ग्रंथ जिनवाणी का स्थान पुरुषों में शामिल कराई तो आश्चर्य नहीं। भले ही ही न ले लें। क्योकि साधारण जन की दृष्टि में ये भी बलाका पुरुषो में अभिनन्दित व्यक्ति के नाम का अभाव जिनवाणी की भांति पूर्वापरविरोध रहित होते है। इन ही क्यों न हो? सूर्यकोति का नाम भी तो थंकरों की ग्रंथो में शलाका पुरुषों के चरित्रो की भाति ग्रन्थ नायक सूची में नही था । अन हमे कहने में तनिक भी संकोच के (वह भी) प्रशसिन-चरित्र मात्र का ही वर्णन होता है। नहीं कि सभी असल साहिय की भाति अभिनदन ग्रंथ आदि उनमें कुछ धार्मिक, ऐतिहासिक और ताजिक कई लेख को भी मंदिरों-शस्त्र पंडारो से बाहर निकाला जाता भी शामिल होते है। ये प्राकृत-सस्कृत जैमी क्लिट मूल- चाहिए । लाग बुगन माने जोर मोचे कि खरी बात भाषा मे भी नहीं होते। पाठक इन्हें चि से और आसानी बहने वालो का विरोध कब तक कर रहेगे- उनके मुह मे पढ़ लेते हैं। उन्हें जैन से कोई विरोध भी प्रनीत नही पर ताला कब ना लगा रहेग? क्या वे पाहत है कि होता। यानी उनकी दृष्टि में इनमे चारो अनुयोग एक मच्चाई का गला घोट दिया जाय ! पाडा है कि माथ ही उपलब्ध हो रहे होते है अत: उन्हें ये सच्चो सचाई का गवाना पोटने पर उनका व्यापार पहो. जिनवाणी ही हैं।
जायगा ? जरा-सोचिए ! पर. इसे भलीमाति ममझ लिया राय कि जब
---सपादक (पृ० २४ का क्षेपाश) देवता का स्मरण कर लो उसके गले पर तलवार का कमा रनब वसुपाल को राम श्रीपाल को यौवराज्य प्रहार किया। परन्तु वह तलवार कुवरप्रिय के कण्ठ का पद और कुवेरप्रिय के पुत्र बुबंगकात को श्रेष्ठी पद देकर स्पर्श करते ही उसके कण्ठ में मुन्दर हार रूप में परिणत उन्होने अनेक जनों के माय जिनदीक्षा ग्रहण की । सत्यवती हो गई। नब चांडाल "जय जय" शब्द करता हुआ अदय आदिक अनेक रानियो में भी आयिका के न धारण जा खुढ़ा हमा। यह देख चपनगति को और भी ईर्षा हुई, किए। उम चांडाल ने प्रतिज्ञा की कि मैं भी पर्व के दिनों इसलिए उसने सेवको महित बोर भी अनेक शम्त्री का में अहिंसाबत और उपवास करूगा । यह वही चौहान है, वार किया । परन्तु वे समस्त शस्त्र कोई फन स्थप और जिसमे लाक्षागृह मे लाख के घर में) विद्योग के लिए कोई पुष्परूप हो गए । देवों ने पाश्चर्य किये । यह खबर धर्मोपदेश दिया था। कुवेरप्रिय और गुमपाल मुनि ने घोर राजाको भीडई। इसलिए उसने पाकर चपलतका तप करके कैमाश पर कबनशान प्राप्त किया और कुछ काना मुंह कर गधे पर चढ़ाकर देशा से निकलवा दिया काल टा. वही से मोक्ष को गए। इस तरह कुवेरप्रिय और कुतेरप्रिय से क्षमा मांगी।
बहत परिग्रही होने पर भी देवों के द्वारा पूजित हुआ। कप्रिय ने क्षमा करके कहा- मैं तो दिगम्बरीय झोल के प्रभाव से क्या मही हो सकता ? अर्थात सब कुछ दीक्षा धारण करना । राजा ने कहा-में भी धारण हो सकता है।
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बीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन अमीबोन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक मत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य पौर गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । ... ४-५. जैनाम्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण
सहित प्रपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं.परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्या
परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... जमग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशास्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह । पचपन
मन्थकारो के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं.पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १५... समाधितान और इष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, १० परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित पवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्ष: श्री राजकृष्ण जैन ... ग्याय-बीपिका : प्रा० अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो. डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स. अनु। १०.०० जैन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । सायपारसुस : मूल ग्रन्थ की रचना पाज से दो हजार वर्ष पूर्व धी गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
पतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालाल जी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
... ... २५.०० मैन निबन्ध-रत्नावली :श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ध्यानशतक (प्यानस्तव सहित):संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
१२-०. भावक धर्म संहिता : श्री बरयावसिंह सोषिपा बैन लक्षणावली (तीन भागों में):स.पं.बालबन्द सिद्धान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ४०.०० जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग: श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, बहुचित सात विषयों पर शास्त्रीय प्रमाणयुक्त तर्कपूर्ण विवेचन । प्राक्कथन : सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित
२-०० Jain Monoments: टी. एन. रामचन्द्रन Jaina Bibliography : Shri Chhotelul Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942)
___Per set 600-00
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विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल
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सम्पादक परामर्श मण्डल -डा. ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक-श्री पचन्द्र शास्त्री प्रकाशक -बाबूलाल जन वक्ता, वीर सेवा मन्दिर के लिए, गोता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५३
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पौर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक
अनेकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष ३८: कि०३४
जुलाई-दिसम्बर १९९५
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इस अंक में
विषम १. भव दुख बैगि हरो २. जाति और धर्म : डा. ज्योति प्रसाद जैन ३. एक दिन तुमसे मिलूंगी : हा० सविता जैन ४. १६३ बनाम १३६ : श्री बाबूलाल 'वक्ता' ५. अपघ्र श साहित्य की एक अप्रकाशित कृति :
पुण्यासय कहा-डा. राजाराम जैन आरा ६.धर्मसार सतसई : श्री बुन्दनलाल जैन ७. धर्म का मलाधार आस्था या अंधास्था :
-०प्रशुम्न कुमार जैन । ८.हिन्दी जैन काव्य के अजान कवि : डा. गंगाराम २३ ६. अनुकलता प्रतिकूलता : हरिकृष्णदास 'हरि' २५ १०. णायकुमार चरिउ की सूक्तियां : डा. कस्तूरबंद २६ ११. जैन दर्शन में ईश्वर की अवधारणा:
-कु० मीनाक्षी शर्मा १२. श्रमण सस्कृति : श्री सुरेन्द्र पाल सिंह १३. प्रमावती रानी की कथा १४. जैनत्व का मूल आधार : अपरिग्रह ।
-सम्पादक 'वीरवाणी' १५. विग्यश्री कन्या की कथा १५. जरा सोचिए-सम्पादकीय
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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और-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन समीचीन धर्मशास्त्र: स्वामी समन्तभद का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन प्रस्थ, मुख्तार बीजुगलकिशोर
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सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और प.परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य
परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, माम २ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह । पचपन
प्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं.पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १५... समाषितन्त्र और इष्टोपदेश : मध्यात्मकृति, प. परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित पवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जन तीर्य : श्री गजकृष्ण जैन ... प्याय-बीपिका : प्रा० अभिनव धर्मभूषण को कृति का प्रो. डा. दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स. अनु। १.... जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । कसायपाहुबसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणपराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी मिदान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पूष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२५-.. जैन निवन्ध-रस्तावली: श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ज्यानशतक (ध्यानस्तव सहित):संपादक पं.बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
१२-०. भावक धर्म संहिता : श्री दरयाबसिंह सोधिया बन लक्षणावली (तीन भागों में):म०५० बालबन्द सिद्धान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ४०... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पचन्द्र शास्त्री. बहुचवित सात विषयो पर शास्त्रीय प्रमाणयुक्त
तर्कपूर्ण विवेचन । प्राक्कथन : सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित Jain Monoments: टी० एन० रामचन्द्रन Jaina Bibliography : Shri Chhotela! Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942)
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२-००
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से मुक्ति ।
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पौर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक
अनेकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष ३६कि .३-४
(युग्मांक )
बुखाई-दिसम्बर १९८५
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इस अंक में
विषय १.भव दुःख वैगि हरो २. जाति और धर्म : डा. ज्योति प्रसाद जैन ३. एक दिन तुमसे मिलूंगी : डा० सविता जैन ४. १६३ बनाम १३६ : श्री बाबूलाल 'वक्ता' ५. अपनश साहित्य की एक अप्रकाशित कृति :
पुण्यासव कहा -डा. राजाराम जैन आरा ६. धर्मसार सतसई : श्री कुन्दनलाल जैन ७. धर्म का मलाधार आस्था या अंधास्था:
-डा. प्रद्युम्न कुमार जैन ५.हिन्दी जैन काव्य के अज्ञात कवि : डा. गंगाराम २३ ६. अनुकूलता प्रतिकूलता : हरिकृष्यादास 'हरि २५ १०. णायकुमार चरिस को सूक्ति : डा. कस्तूरचंद २६ ११. जैन दर्शन में ईश्वर की अवधारणा:
-कु० मीनाक्षी शर्मा १२. श्रमण संस्कृति : श्री सुरेन्द्रपाल सिंह १३. प्रमावती रानी को कथा १४. जनत्व का मूल आधार : अपरिग्रह :
-सम्पादक 'बीरवाणी' १५. विन्ध्यश्री कन्या की कथा १५. जरा सोचिए-सम्पादकीय
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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पूज्य प्राचार्य सूर्य सागर महाराज के उद्गार
[माघ शु० ११ वि० सं० २००७ ]
आज त्यागी छोटी-मोटी प्रतिज्ञा लेकर घर छोड़ देते हैं और अपने आपको एकदम पराश्रित कर देते हैं। इस क्रिया से त्यागियों की प्रतिष्ठा समाज में कम होती जा रही है। समन्तभद्र स्वामी ने परित्रहत्याग का जो कम रक्खा है उसी क्रम से यदि परिग्रह का त्याग हो तो त्यायो पुरुष को कभी व्यग्रता का अनुभव न करना पड़े। सातवी प्रतिमा सक न्याय पूर्ण व्यापार करने की आगम में छूट है फिर क्यों पहली दूसरी प्रतिमाधारी त्यागी व्यापारादि छोड़ भोजन अस्त्रादि के लिए परमुखापेक्षी बन जाते है। यद्यपि आशाधर जी ने गृहविरत श्रावक का भी वर्णन किया है पर वह अपने पास इतना परिग्रह रखता है जितने में उसका निर्वाह हो सकता है। यधार्थ में पर-गृह भोजन १०वी ग्यारहवी प्रतिमा से शुरू होता है। उसके पहले जो व्रती पर-गृह भोजन सापेक्ष होते हैं उन्हें संक्लेश का अनुभव करना पड़ता है। पास का पैसा छोड़ दिया और यातायात की इच्छा घटी नही ऐसी स्थिति में कितने ही त्यागी लोग तीर्थ यात्रादि के बहाने गृहस्थों से पैसे की याचना करते हैं। यह मार्ग अच्छा नही है । यदि याचना ही करनी थी तो त्याग का बाडम्बर ही क्यों किया ? रयाग का आडम्बर करने के बाद भी यदि अन्तःकरण में नही आया तो यह आत्मवञ्चना कहलायेगी।
त्यागी को किसी संस्थान-वाद में नहीं पढ़ना चाहिए । यह कार्य गृहस्थों का है । त्यागी को इस दल-दल से दूर रहना चाहिए। घर छोड़ा, व्यापार छोडा, बाल-बच्चे छोडे, इस भावना से कि हमारा कर्तृत्व का अहंभाव दूर हो और समता भाव से आत्मकल्याण करें, पर त्यागी होने पर भी वहब ना रहा तो क्या किया? इस संस्थावाद के दल. दल में फंसाने वाला तत्त्व लोकषणा की चाह है। जिसके हृदय में यह विद्यमान रहती है वह संस्थाओं के कार्य दिखा कर लोक में अपनी ख्याति बढ़ाना चाहता है पर इरा थोथी लोकपणा से क्या होने जाने वाला है? जब तक लोगो का स्वार्थ किसी से सिद्ध होता है तब तक वे उनके गीत गाते है और जब स्वार्थ मे कमी पड़ जाती है तो फिर टके को भी नहीं पूछते । इसलिए आत्मपरिणामो पर दृष्टि रखते हुए जितना उपदेश बन सके उतना त्यागी दे, अधिक को व्यग्रता न करे । त्यागी को ज्ञान का अभ्यास अच्छा करना चाहिए। आज कितने ही त्यागी ऐसे हैं जो सभ्यग्दर्शन का लक्षण नही जानते, आठ मूल गुणो के नाम नहीं गिना पाते। ऐसे त्यागी अपने जीवन का समय किस प्रकार यापन करते हैं वे जाने । मेरी तो प्रेरणा है कि त्यागी को क्रम पूर्वक अध्ययन करने का अभ्यास करना चाहिए । समाज मे त्यागियों की कमी नही परन्तु जिन्हें आगम का अम्बाम है ऐसे स्यामी कितने है ? आगमज्ञान के बिना लोक में प्रतिष्ठा नही और प्रतिष्ठा की चाह घटी नही इसलिए उट-पांग क्रियाएं बताकर भोली-भाली जनता में अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखना चाहते हैं पर इसे धर्म का रूप कैसे कहा जा सकता है ? ज्ञान का अभ्यास जिसे है वह सदा अपने परिणामों को तौल कर ही व्रत धारण करता है। परिणामों की गति को समझे बिना ज्ञानी मानव कभी प्रवृत्ति नहीं करता अतः मुनि हो चाहे श्रावक, सबको अभ्यास करना चाहिए । अभ्यास की दृष्टि से यदि दस बीस त्यागी एकत्र रह कर किसो विद्वान से अध्ययन करना चाहते है तो गृहस्थ लोग उसकी व्यवस्था कर दे सकते हैं।
आज का व्रती वर्ग चाहे मुनि हो, चाहे श्रावक, स्वच्छन्द होकर विचरना चाहता है यह उचित नहीं है। मुनियों में तो उस मुनि के लिए एकल विहारी होने की आशा है जो गुरु के सान्निध्य में रहकर अपने आचार-विचार में पूर्ण दक्ष हो तथा धर्म-प्रचार की भावना से गुरु जिसे एकाको विहार करने की आज्ञा दे दें। आज यह देखा जाता है कि जिस गुरु से दीक्षा लेते हैं उसी गुरु की आज्ञा पालन में अपने को असमर्थ देख नवदीक्षित मूनि स्वयं एकाकी बिहार करने लगते हैं। गुरु के साथ अथवा अन्य साथियो के साथ विहार करने में इस बात को बना या भय का अस्तित्व रहता था कि यदि हमारी प्रवृत्ति आगम के विरुद्ध होगी तो लोग हमें बुरा कहेंगे, गुरु प्रायश्चित्त देंगे। पर एकल बिहारी
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मोम् महम्
ITAMIR
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनविलसितानां विरोधमयनं नमाम्मनेकान्तम् ॥
वर्ष ३८
बीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण सवत् २५११, वि० स० २०४२
जुलाई-सितम्बर
१९८५
भव-दुख वेगि हरो प्रभु जी तुम प्रातम ध्येय करो॥ सब जग जाल तने विकलप तजि, निज सुख सहज वरो ॥ प्रभुनी... हम तुम एक द्रव्य दृष्टि से, पर यह भेद परो॥ भेद ज्ञान बल तुम निज साधो, हम विवेक विसरो॥ प्रभुजी... तुम निज राच लगे चेतन में, पर से नेह टरो। हम सम्बन्ध कियो तन धन से, भव वन विपति भरो ॥ प्रभुजी... तुम री प्रातम सिद्ध भई प्रभु, हम भव बन्ध धरो। या ते भई अधोगति हमरी, मव दुख अगनि जरो ॥ प्रभुजी... देखि तिहारी शांति छवि को, हम यह जान परो। हम हूं तुम सम होय सकत हैं, अब यह जान परो ॥ प्रभुजी... तुम निमित्त मम शक्ति प्रगट हो, निज अनुभवन सरो। मेरे तो बस देव तुम्ही हो, तुम सम और न कोई ॥ प्रभुजी... वर्शन मोह हरी हमरी मति, तुम लख सहज टरो। "चम्पा" शरण लई अब तुमरी, भव दुख वेगि हरो ॥ प्रभुजी...
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जाति और धर्म
D डा. ज्योति प्रसाद जैन
अखिल भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में जिनधर्म इस विषय में दिगम्बर-श्वेताम्बर समग्र जैन सस्कृति का अपनी उदाराशयता एवं बिना किसी भेदभाव के प्राणी- सुस्पष्ट उद्घोष रहा है किमात्र के हित-सुख की व्यापक दृष्टि के कारण महत्वपूर्ण कम्मणा होइ बम्हणा, खत्तियो हवइ कम्मणा। विलक्षण स्थान रखता आया है। 'धर्म' शब्द की एक कम्मणा होइ वैस्सो, सुद्दोवि हबइ कम्मणा ॥ व्याख्या के अनुसार वह ऐसा कर्तव्य है जो मनुष्यमात्र के वास्तव में, प्रचलित जातिप्रथा कभी और कैसी भी ही नहीं, प्राणीमात्र के ऐहिलोक तथा पारलौकिक, रही हो, तथा किन्हीं परिस्थितियों या परिवेश में उपादेय उभयजीवन को नियंत्रित एवं अनुशासित करके सबको अथवा शायद क्वचित बावश्यक भी रही हो, कित सुपथ पर ले चलने में सहायक होता है। और, जैनधर्म कालदोष एव निहित स्वार्थों के कारण उसमें जो कुशील या जिनधर्म तो वस्तुत: आत्मधर्म है, एक ऐसा व्यक्तिवादी या कुरीतियां, विकृतियां, विसंगतिया एवं अन्धविश्वास धर्म है जो बिना किसी भेदभाव के समस्त प्रागियों के घर कर गये है, और परिणाम स्वरूप देश मे, राष्ट्र मे, ऐहिक तथा पारलौकिक उन्नयन और सुग्य-मुविधा का समाज में एक ही धर्म सम्प्रदाय के अनुयायियो मे जो विचार करता हैं। इसके विपरीत, सामाजिक या लौकिक टुकड़े-टुकड़े हो गये हैं, पारस्परिक फूट, वैमनस्य एव भेदधर्म केवल मनुष्यों के ही इहलोकिक हितसाधन तक सीमित भाव खुलकर सामने आ रहे हैं, वे व्यक्ति या समूह, होता है, और बहुधा विविध अनगिनत अन्धविश्वासों तथा सम्प्रदाय या समाज, देश या राष्ट्र किसी के लिए भी रूढ़ियो पर अवलम्बित रहता है। आत्मधर्भ से भिन्न यह हितकर नही है, और प्रगति के सबसे बड़े अवरोधक है। लौकिक धर्म मूलतः प्रवृत्ति प्रधान ब्राह्म-वैदिक परम्परा धर्म की आड़ लेकर या कतिपय धर्मशास्त्रों, साधुसेवा, की देन है, जिसमें शनैः शनैः वर्णाश्रमधर्म का रूप ले पंडितों आदि की साक्षी देकर जो उक्त विघटनकारी लिया। उस परम्परा में भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैग्य शुद्र धारणाओं का पोषण किया जाता है, और उनके विरोध
आदि वर्णभेद मूलतः गुण कर्मानुसारी ही थे, किन्तु ममय मे आवाज उठाने वाले का मुह बन्द करने की चेष्टा की के साथ उनके जन्मत: होने की मान्यता रूड़ होती गई। जाती है. उससे यह आवश्यक हो जाता है कि धर्म के धर्म जैन गृहस्थो के सामाजिक या लौकिक धर्म पर कालान्तर को घमं की मलाम्नाय के शमाणिक मौलिक शास्त्रो से में उक्त ब्राह्मणीय वर्णव्यवस्था तथा उससे उद्भूत जानि- जाना और समझा जाय । व्यवस्था का प्रभाव पड़ा, और धीरे-धीरे उन्होने भी उसे
धर्म-तत्त्व मानव इतिहास की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अपना लिया। किन्तु मूल जिनधर्म की प्रकृति एव स्वरूप उपलब्धि रही है। समी देशों और कालो मे जन-जन के के माथ उसकी कोई सगति नही है। कुन्द कुन्द, गुणधर, मानस को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला यही धर्म-तत्व धगेन, मनबलि, बट्टकेरि, शिवार्य समन्तभद्र, पूज्यपाद, रहा है। साथ ही, प्राय: सभी धर्म-प्रवर्तको ने, उन्होने भी जटागिहनदि, रविषेण, हरिवंशकार जिनमेन, जकलक, जिन्होने मनप्येतर अन्य प्राणियो की उपेक्षा की, मनुष्यों गुणभद्र अमितगति, प्रभाचन्द, शुभचन्द्र, प्रभृति अनेक को ऊच-नीच आदि के पारस्परिक भेदभावों से ऊपर उठने प्राचीन प्रामाणिक आचार्यपुंगवों ने जन्मत: जातिप्रथा का का भी उपदेश दिया। यहूदी, ईसाई, मुसलमान यहां तक निषेध ही किया है और गुणपद की ही स्थापना की है। कि बौद्ध, कवीरपंथी, सिख आदि कई भारतीय धर्म भी,
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जाति और धर्म
मनुष्यमात्र की समानता का (इगेलिटेरियनिज्म ) दावा वर्तन, संशोधनादि करने में भी संकोच नहीं करना चाहिए। करते हैं । श्रमण परपरा के निर्ग्रन्थ तीर्थकरों द्वारा आच- मनुष्य सामाजिक प्राणी है। अतएव व्यावहारिक, सामारित एवं उपदेशित जिनधर्म का तो मूलाधार ही समत्व- जिक या लौकिक धर्म की व्यवस्थाएं, संस्थाएं और प्रयाएं भाव है। यदि कोई अपवाद है तो वह ब्राह्मण-वैदिक रहेंगी ही, उनका रहना अपेक्षित भी है, किन्तु वे ऐसी हों परम्परा से उद्भूत, वर्णाश्रम धर्म पर आधारित और जो सम्यक्त्व को दूपित करने वाली न हों, वरन् उसकी जन्मत: जातिवाद को स्वीकार करने वाला तथाकथित पोषक है-मोक्षमार्ग में साधक हों, बाधक न हों। हिन्दू धर्म है। यों तो, मूलतः समानतावादी एवं जातिवाद- १८५७ ई. के स्वातन्त्र्य-समर के उपरान्त जब इस विरोधी परम्पराओं मे भी ऊच-नीच का वर्गभेदपरक महादेश पर विदेशी अग्रेजी शासन सुव्यवस्थित हो जातिवाद किसी न किसी प्रकार या रूप में घर कर ही गया तो प्रायः सम्पूर्ण देश में नवजागृति एव अभ्युत्थान गया, किन्तु उनमें उसकी जकड़ और पकड़ इतनी सख्त की एक अभूतपूर्व लहर शनैः शनैः व्याप्त होने लगी, नहीं है जितनी कि हिन्दू धर्म में है । आज का प्रगतिशील जिससे जैन समाज भी अप्रभावित न रह सका । फल विश्वमानस ऐसे भेदभावों को मानव के कल्याण एवं स्वरूप लगभग १८७५ से १९२५ ई. के पचास वर्षों में उन्नयन में वाधक समझता है और उनका विरोध करता धर्मप्रचार एवं शिक्षाप्रचार के साथ-साथ समाजसुधार के
भी अनेक आन्दोलन और अभियान चले । धर्मशास्त्रों का जैन समाज में तद्विषयक भ्रान्ति के रूढ़ हो जाने में
मुद्रण-प्रकाशन, धार्मिक व लौकिक शिक्षालयों तथा परीक्षा कविप्रय ऐतिहासिक परिस्थितियों तथा विपरीत मान्यता बोडों की स्थापना, स्त्री जाति का उद्धार, कुरीतियों के वाले बहसख्यक समुदाय के निकट सम्पर्क के अतिरिक्त, निवारण का उद्घोष, कई अखिल भारतीय सुधारवादी दो कारण प्रमुख प्रतीत होते हैं-एक तो यह कि वर्ण- सगठनो का उदय, धार्मिक-सामाजिक, पत्र-पत्रिकाओं का जाति, कुल, गोत्र में से प्रत्येक शब्द के कई-कई अर्थ हैं। प्रकाशन आदि उन्हीं आन्दोलनों के परिणाम थे। जातिजिनागम में कर्म-सिद्धान्त के अनुसार उनमे से प्रत्येक का प्रथा की कुरीतियो एवं हानियों पर तथाकथित बाबू पार्टी जो अर्थ है, वह लोक व्यवहार में प्रचलित अर्थ से भिन्न अर्थात आधुनिक शिक्षा प्राप्त सुधारक वर्ग ने ही नही, और विलक्षण है। दोनो को अभिन्न मान लेने से भ्रान्त तथाकथित पडितदल के गुरू गोपालदास बरैया जैसे महाधारणाएं बन जाती हैं । दूसरे, जो लौकिक, सामाजिक या रथियों ने भी आवाज उठाई। बा. सूरजभान वकील, व्यवहार धर्म है, वह परिस्थितिजन्य हैं, और देशकाला- पं० नाथूराम प्रेमी, ब्र० शीतल प्रमाद, आचार्य जुगलनुसार परिवर्तनीय अथवा संशोधनीय है। इस स्थूल तथ्य किशोर मुख्तार प्रभृति अनेक शास्त्रज्ञ सुधारकों ने उस को भूलकर उसे जिनधर्म, आत्माधर्म, निश्चयधर्म या मोक्ष- अभियान में प्रभूत योग दिया। अनेक पुस्तके एव लेखादि मार्ग से, जो कि शास्वत एवं अपरिवर्तनीय है, अभिन्न लिखे गये। मुख्तार सा० की पुस्तकें जिनपूजाधिकारसमझ लिया जाता है। पक्षव्यामोह एवं कदाग्रह से मुक्त मीमांसा, शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण, जैनधर्म सर्वोदय होकर भ्रान्ति के जनक इन दोनों कारणों को जिनधर्म की तीर्थ हैं, ग्रन्थ-परीक्षाएं आदि, पं० दरबारी लाल सत्यभक्त प्रकृति, उसके सिद्धान्त, तत्वज्ञान एवं मौलिक परम्परा के की विजातीय विवाह-मीमांसा, बा. जयभगवान की वीरप्रतिपादक प्राचीन प्रामाणिक शास्त्रों के आलोक में भली. शासन की उदारता, पं० परमेष्ठीदास की जैनधर्म की भांति समझकर प्रकृत विषय के सम्बन्ध में निर्णय करने उदारता, प० फूलचन्द्र शास्त्री की जाति-वर्ण और धर्मचाहिए । इसका यह अर्थ नहीं है कि लौकिक, सामाजिक मीमांसा जैसी अनेक पुस्तकें तथा विभिन्न लेखकों के या व्यवहार धर्म को सर्वथा नकार दिया जाय । वैसा सैकड़ों लेख प्रकाशित हुए और सुधारवादी नेताओं के करना न सम्भव ही है और न हितकर ही। परन्तु उसमें जोशीले मंचीय भाषणों ने समाज को भरपूर मकझोरा। युगानुसारी तथा क्षेत्रानुसारी आवश्यक एवं समुचित परि- फलस्वरूप समाज में विचार परिवर्तन भी होने लगा।
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अनेकान्त
स्वतन्त्रता प्राप्ति (१९४७ ई.) के उपरान्त आधुनिक युग अर्थात् जाति नाम-कर्म के उदय से होने वाली मनुष्यकी नई परिस्थितियों मे उसमे और अधिक वेग आया। आति है। प्रचलित जाति-उपजातियां परिस्थितिजन्य है, प्रतिक्रियावादियों के भरपूर प्रयत्नों के बावजूद आज का मनुष्यकृत हैं; कृत्रिम और काल्पनिक है-वे प्राकृतिक या जनमानस सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक शिथिनाचार शाश्वत नही हैं। अनेक प्राचीन जातियां समय के गर्भ में के प्रति सजग हो गया है, और व्यवहार में जाति-पाति विलीन हो गयी या अन्य जातियों में अन्तर्युक्त हो गई, के पुराने बधन बहुन ढीले पड़ते जाते हैं। वस्तुत. आज तो और अनेक नवीन जातियां-उपजातियाँ उत्पन्न होती रही विश्वमानस अन्तर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, प्रादेशिक, सामाजिक, है। अतएव धार्मिक दृष्टि से, धार्मिक समाज के संगठन साम्प्रदायिक प्राय सभी स्तरों पर जातिवाद के भेदपरक की दृष्टि से, व्यक्ति और समष्टि के हित में, कम से कम एवं पृथकतावादी दूषगों का विरोधी हो उठा है। यह समस्त साधर्मी जन तो उक्त भेदभावों से ऊपर उठकर समय की मांग है।
अपने संगठन को अखण्ड एव सौहार्दपूर्ण बनाये रक्खें, यह
आवश्यक है। तीर्थकर नामा सर्वातिशय पुण्यप्रकृति के वस्तुतः, धर्म तो मनुष्यो के जोड़ने के लिए है, तोड़ने
आस्रव एव वन्ध को कारण सोलह-भावनाओं में परिगणित के लिए नही, जबकि प्रचलित जाति-उपजातिवाद एक ही
साधर्मी-वात्सल्य भावना का महत्त्व इसी दृष्टि से आंकना धर्म के अनुयायियों में और एक ही राष्ट्र के नागरिको मे
उचित होगा। परस्पर फूट डालकर विघटन का पोपण करता है। जैन सिद्धान्त के अनुसार तो सभी मनुष्यो की एक ही जाति
ज्योति निकुंज, चार बाग, लखनऊ
एक दिन तुमसे मिलगी
Oडा. सविता जैन
सम्यक्त्व की राहों पर चलकर,
रास्ता यद्यपि कठिन है, एक दिन तुमसे मिलंगी ॥
लोन को ऑधी प्रबल है। यद्यपि तुमको जानती हूं,
छा रहे घन मोह-तम के, पर नहीं पहचानती हूं।
क्रोध की बिजली चमकती। चोन्ह ही लगी तुम्हें मैं
मोह की गहरी है बलबल, वीतरागी लौ जला कर।
काम के निशिचर है प्रहरी। सम्यक्त्व की राहों पर चलकर,
निर्जग का पुल बना कर, एक दिन तुमसे मिलूंगी ॥
पार इन सब को करूंगी। सम्यक्त्व .. इन्द्रियां भटका रही हैं, अहं का मद पिला रही हैं। पर नहीं होने मैं बुंगो, इनका यह षड्यन्त्र हाबी। पंच मदों को जलाकर, भस्म मैं उनकी पीयूंगी ॥ सम्यक्त्व...
७/३५ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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१६३ बनाम १३६
ए लेखक-बाबूलाल जैन, कलकत्ता वाले
वस्तु तत्व को समझने मे वस्तु का सामान्य स्वरूप अपनापना मानकर सुखी दुखी हो रहा है, उसको स्वभाव समझना जरूरी है। वस्तु का विशेष स्वरूप सबके का ज्ञान कराना जरूरी है, इसके बिना उसका सुखी दुखी पकड़ में आ रहा है और अपने को उसी रूप समझ होना नही मिट सकता। इसने दुःखरूप पर्याय (स्वांग) को कर सामान्य स्वरूप के ज्ञान विना अज्ञानी हो रहे हैं। बदली करके सुखरूप पर्याय (स्वांग) को पाने की पर्यायमात्र रूप ही अपने को मान रहे है, द्रव्य चेष्टा तो करी परन्तु अपने को पहचानने की चेष्टा नहीं सामान्य का ज्ञान नही है। जो पर्याय में एकत्वपने को करी । अपने को पहचान लेता तो फिर कमी भी पर्याय प्राप्त है ऐसे लोगों को द्रव्य सामान्य का ज्ञान करने की मिले कोई दिक्कत नहीं रहती। अपने को पहचान लेना प्रेरणा की गई है, जिससे पर्याय को पर्याय तो माने परन्तु ही असली सही उपाय है। पर्याय में एकत्वपना मिट जावे । पर्याय मे एकत्वपना अब सवाल यह पैदा होता है कि अपने को कैसे मानकर अपने को मनुष्य, देव नारकी, तियंच, सुखी-दुखी, पहचाने । इस बारे में इस प्रकार विचार किया जा सकता रागी-द्वेषी, धनिक गरीब मानता है। अगर द्रव्य स्वभाव है कि हरेक वस्तु में दो धर्म है एक सामान्य रूप और का ज्ञान हो जाता है तो उसे पर्याय सम्बन्धि सुख दुःख नहीं एक विशेषरूप। दोनों एक साथ एक समय में हैं। हों। जैसे कोई आदमी नाटक में पार्ट (स्वांग) करता है हम विशेष को गौण करके सामान्य को भी देख सकते वह अपनी असलियत को भूल जाता है तो पार्ट (स्वांग) में हैं और सामान्य को गौण करके विशेष को भी देख सकते असलियत आ जाती है एवं स्वाग मे अपनापन आता है हैं परन्तु किसी एक का निषेध करने पर एकांत हो जाता जिससे स्वांग सम्बन्धि सुख दुख का भोक्ता हो जाता है। जैसे कोई लड़का लड़की का पार्ट कर रहा है। वह है। यही अवस्था यहां पर अज्ञानी की है वह अपने असली अपने को लड़की रूप भी देख सकता है और लड़के रूप स्वभाव को भूल कर स्वांग मे ही अपनापना, मस- में भी देख सकता है क्योकि वह दोनों पनो को जानता लियत मान रखा है ऐसे व्यक्ति को स्वभाव का ज्ञान कैसे है। वहां भी लडका रूप अनुभव करना आसान है, लड़की हो और स्वभाव का ज्ञान हुए बिना उस पर्याप (स्वांग) रूप अनुभव करना मुश्किल है। लड़की रूप तो अनुभव सम्बन्धि दुःख-सुख नही मिट सकता । एक स्वांग से तभी कर सकता है जब वह भूल जाता है कि मैं लड़का हूं। दूसरा स्वांग बदली तो हो जाता है परन्तु स्वांग मे अस- इसी प्रकार सोने का जेवर है उसको जेवर रूप भी देख लियत नहीं मिटती है और असलियत मिटे बिना उस सकते है और सोने रूप में भी देख सकते हैं। सोने रूप सम्बन्धी सुख-दुःख नहीं मिटता । विना स्वभाव का ज्ञान देखने में जेवरपना उसी में गभित हो जाता है । कपड़ा हए पर्याय में असलियत मिट नही सकती। यह तो युक्ति- खरीदने जाते हैं तब उसको पोत रूप भी देख सकते हैं। युक्त ही है कि अगर कोई व्यक्ति अपने को भूलकर स्वांग उसको धोती, ब्लाउज और डिजाइन रूप भी देख सकते को ही अपना होना मान लेता है तो वह स्वांग सम्बन्धि हैं। कई व्यक्ति बैठे है, उसमें कुछ स्त्रियां हैं, कुछ पुरुष सुखी दुखी हो जाता है। अगर फिर उसको अपने स्वभाव हैं, कुछ बच्चे हैं परन्तु एक दृष्टि डाले कि व्यक्ति कितने का ज्ञान हो जाता है तो स्वांग सम्बन्धित सुख दुख नही है वहां स्त्री, पुरुष, बच्चे के भेद मिट जाते हैं मात्र व्यक्ति रहता। यह हाल इस व्यक्ति का है। कर्म जनित स्वांग में कितने हैं उतने ही दिखाई देते हैं परन्तु जब भेद करे कि
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वर्ष ३८, दि०३
अनेकान्त
स्त्रियां कितनी है, पुरुष कितने हैं और बच्चे कितने हैं तो आचार्य कहते हैं एक बार तू अपने को चैतन्य रूप अनुभव सब अलग अलग दिखाई देते हैं । पहली सामान्य दृष्टि है कर ले, तू वैसा त्रिकाल है, अपने स्वभाव को कभी छोड़ा जिसमे सारे विशेष गभित हैं दूसरी विशेष दृष्टि है । इसी नहीं है । मात्र भीतर झांकने भर की देरी है, तू ज्ञान का प्रकार निगोद से लेकर सिद्ध पर्यन्त एक दृष्टि डाले तो अखण्ड पिण्ड आनन्द की गोदाम है। सभी चैतन्य दिखाई देते हैं वहाँ संसारी मुक्त का भी अंतर नही है । त्रस स्थावर का भी भेद नहीं है। मात्र सभी युक्ति कहती है कि जब यह अपने को शरीर रूप चैतन्यरूप दिखाई देते है यह सामान्य दष्टि है, इस दष्टि मे देख सकता है अनुभव कर सकता है तो अपने को चैतन्य सारे भेद गौण हो गए और दूसरी दृष्टि से देखे तो सब रूप, ज्ञान रूप क्यो नहीं देख सकता जैसा वह विकाल अलग-अलग है। सिद्ध और संसारी मे बडा अन्तर है स है। जव तक अपने को इस रूप में नहीं देखेगा इसका पर स्थावर मे बडा अन्तर है, मनुष्य पशू में बडा अन्तर है। में अपनापना मानना, शरीर के साथ एकत्वपना नहीं पहली दृष्टि मे सभी समान है वहा राग-द्वेष करने का मिट सकता तब तक इसके ससार मिटने का कोई उपाय कोई प्रयोजन ही नहीं है। कोई छोटा बड़ा नही, किसी नही है । की किसी के साथ कोई तुलना नहीं है । इसी प्रकार इस इसी बात को समझने के लिए इस प्रकार भी रखा ढग से सोचा जा सकता है कि जब यह मनुष्य, नारकी, जा सकता है । १६३ की संख्या लेते हैं १ का अंक आत्मा देव, तियंचपने को प्राप्त होता है वैमा शरीर मिलता है का चैतन्य स्वभाव है ज्ञान का अखण्ड पिण्ड है । ६ का तब यह चैत य है कि नही, जब पशु है तब भी चैतन्य हे अंक क्षयोपसम भाव है यानी ज्ञान की मति, भूत ज्ञानरूप जब गरीब है तब भी चैतन्य है, जब धनिक है तब भी पर्याय है अथवा हमारी जानने की वर्तमान शक्ति है चैतन्य है, जब निरोगी है तब भी चैनन्य है, जब रोगी है ३ की संख्या औदायिक भाव है जो कर्म के उदय से तब भी चैतन्य है और जब रागी है तब भी चैतन्य है, हो रहे हैं। इस प्रकार यह क्षयोपसमभाव रूप मैं अपने
और जब द्वेषी है तब भी चैतन्य है। कहना यह है कि चैतन्य स्वभाव रूप को भूलकर कर्म के उदय से होने अनेक अवस्थाओं को प्राप्त करते हुए भी यह चैतन्यपने वाले ३ सख्या के बाचक औसायिक भावों के सम्मुख हो को नहीं छोड़ रहा है। तब उन अवस्थारूप तो हम अपने रहा हूं। उन्हीं औदायिक भावों को ही अपना मान रहा को देख सकते है, देखते है परन्तु अपने को चैतन्य रूप ह उसी रूप में अपने को अनुभव कर रहा हूं उनके साथ क्यों नही देख सकते । जिस रूप में हम हर हालत में है. एक हो रहा हैं यही ससार अवस्था १६३ की संख्या से हर समय है, मरते हैं तब भी चैतन्य है जीते है तब भी बताई जा रही है कि १ की संख्या जो चैतन्य स्वभाव है चैतन्य है । अवस्था बदलती है, पर्याय बदलती है शरीर उसको पीठ देकर यह औदायिक भावों को अपने रूप देख बदलता है परन्तु चैतन्य हमेशा हमेशा वैसा ही है वह रहा है । शास्त्र का अध्ययन भी करता है पूजा-पाठ भी मन्य रूप नही हो सकता। अगर एक बार अपने को करता है, व्रतादि भी धारण करता है परन्तु ६ का अंक जैसा पर्याय मे अपने को अपने रूप देखता है वैसा ही पलट कर १ के सम्मुख नहीं होता । जब तक ६ का अंक अपने को चैतन्यरूप देख लेता तो पर्याय तो रहती, शरीर पलट कर १ के सम्मुख नही होगा ३ के अंक से पिट्ठ तो रहता परन्तु उसमें असलियत खत्म हो जाती और उस नही देता है तब तक सब कुछ करते हुए भी सम्यक दर्शन पर्याय सम्बन्धी दुःख सुख नही रहता । जैसे नाटक में नहीं होगा। द्रव्यलिंगी मुनि ने औदायिक भावों को तो पार्ट करने वाला अपने को भूलकर अपने को पार्ट रूप बदली किया परन्तु उसमे अपनापन नहीं छोड़ा और १ के मान लिया वह अगर अपने को जान ले तो पार्ट तो रहे अंक में अपनापना नहीं आया। इसी प्रकार ग्यारह बंग पर पार्ट में अपनापना न रहे और फिर उस पार्ट को करते पढ़ कर सब कुछ पढ़ लिया परन्तु ६ का अंक १के .हुए उस पार्ट से सम्बन्धित सुखदुःखम हो। इसलिए सम्मुख नही हआ इसलिए सम्यक दर्शन नहीं हुआ।बार
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अपभ्रश-साहित्य की एक अप्रकाशित कृति: पुण्णासवकहा
| D জান আল
अपभ्रंश-साहित्य का भाषा-शास्त्र एवं काव्यरूपों की है तो दूमरी ओर वणिक्पुत्रों अथवा सामान्य वर्ग के दृष्टि से जितना महत्व है उससे कही अधिक उमका सुखों-दु.खों अथवा रोमास पूर्ण कथाओं से परिव्याप्त हैं। महत्व आख्यात साहित्य की दृष्टि से है । अपभ्रंश के श्रद्धा समन्वित भावभीनी स्तुतियों, सरम एवं धार्मिक प्रायः समस्त कवि, आचार्य एवं दार्शनिक तथ्यो तथा सूक्तियों तथा ऐश्वर्य वैभव एव भोग-विलास जन्य वातालोक जीवन की अभिव्यञ्ना कथाओ के परिवेश द्वारा ही वरण, वन-विहार, सगीन-गोष्ठिया, जाखेट एवं जलकरते रहे है। इस प्रकार के आख्यानो के माध्यम से अप- कीडाएँ आदि सम्बन्धी विविध चित्र-विचित्र चित्रणों से भ्रंश-साहित्य में मानव-जीवन एव जगत् की विविध मूक अपभ्र श माहित्य की विशाल चित्रशाला अलंकृत है। भावनाएं एवं अनुभतिया मुखरित हुई है। इसमे यदि नारी-जीवन में क्रान्ति की सर्वप्रथम समर्थ चिनगारी एक ओर नैतिक एव धार्मिक आदर्शों की गंगा-जमुनी अपभ्रंग-साहित्य में दिखलाई पड़ती है। महासती सौता, प्रवाहित हुई है तो दूमरी ओर लोक-जीवन से प्रादुर्भन रानी रेवती, महासती असन्तमति, महारानी प्रभूति नारी ऐहिक रस के मदमाते रसासिक्त निर्भर भी फूट पड़े है। पात्रो ने इस दृष्टि से अपभ्रंश के आख्यान साहित्य में एक ओर वह पुराण-पुरुषो के महामहिम चरित्रों से समृद्ध एक नवीन जीवन ही प्राप्त किया है। महाकवि रइधू की
'पुण्णासव कहा' नामक रचना भी अपभ्रंश के आख्यान(पृ. ६ का शेषाश) बार समझाने पर अगर ६ का अक १ के सम्मुख हो जावे साहित्य की दृष्टि से उपादेय है। तो औदायिक भाव रूप ३ का अंक भी मुह फेर ले तब अपभ्रंश कथाओं का वर्गीकरण एवं उनमें १६३ से १३६ का अक हो जाता है यह सम्पक दृष्टि की 'पुण्णासव कहा' का स्थानदशा है । वह स्वभाव के सम्मुख और औदायिक भावो जैन वाङ्मय में प्रायः पाँच प्रकार की कथाएं निबद्ध की तरफ पीठ फरे हुए है। अब कभी औदायिक भावो है। प्रथम कथाओं का वह प्रकार है, जिनके नायक की तरफ जाना भी है तो उनको पर रूप ही देखता है त्रिषष्टि शलाका पुरुषों में से कोई एक पुण्यशलाका पुरुष उनमें अपनापना नही मानता । अब १३६ के अक में होता है । इस श्रेणी की कथाओ को पौराणिक कथाएं जितना जितना ३ का अक एक में ठहरता जाता है उतना कहा जाता है। इसका प्रधान लक्ष्य संसार के सुख-दुख, ही के अंक रूप औदायिक भाव मिटते जाते है जैसे पाप-पुण्य एवं जन्म-जन्मान्तर के फलो का निरूपण कर जैसे औदायिक भाव मिटते जाते है वैसे से श्रावक और नायक को मोक्ष की ओर ले जाता है। मुनि की अवस्था होती जाती है। इस प्रकार ६ का अंक द्वितीय-प्रकार की कथाए हैं, जिनमें नायक एक घट कर ५, ४, ३, २.१, ० होकर शून्य हो जाता है। नही, बल्कि अनेक रहते हैं। यद्यपि कथा एक नायक की ३ का अंक एक में लीन हो जाता है और मात्र एक का ओर ही गतिशीत होती है, पर फलोपलब्धि अनेक नायको अक याने एक अकेला चैतन्य रह जाता है । इस प्रकार को होती है। इस श्रेणी की कथाओं को भी पुराण या १६३ की संख्या ससार है और १३६ की संख्या में महापुराण की कोटि में स्थान दिया जा सकता है । अन्तर मोक्षमार्ग हैं जो एक का ज्ञान बिना नही होता। इतना ही है कि प्रथम प्रकार की कथाएं अधिक विस्तृत
00 नही होती और उनमें सरस एवं काव्यात्मक वर्णनों की
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प्रचुरता भी रहती है, जबकि उक्त द्वितीय श्रेणी की शब्दावलियों ने कथा-प्रवाह में कोई कमी या त्रुटि नहीं कथाओं में कथा का बाहुल्य रहने के कारण कथारस ही आने दी है। कवि ने अपने इस ग्रन्थ के सूजन में पूर्ववर्ती प्रधान होता है, काव्य चमत्कार नहीं।
प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश --तीनों भाषाओं के माख्यातृतीय-श्रेणी में वे लघु-कथाएं हैं, जो लोक-जीवन नात्मक साहित्य का अध्ययन कर तथ्यों को ग्रहण किया से ग्रहण की गई हैं तथा जिन्हें धार्मिक सांचे में ढालकर है। यही कारण है कि चाणक्य-चन्द्रगुप्त जैसे राजनैतिक धार्मिक कथा का रूप दे दिया गया है। इस श्रेणी की आख्यान भी इस ग्रय मे समाविष्ट हैं। कथाओं का पूर्वार्द लोक कथा के रूप में गठिन रहना है कि परिनय - तथा लोक कथा के समस्त तत्व भी साथ-साय वणित
उक्त पुण्णासन कहा' को एक ही प्रनि अभी तक ज्ञात होते जाते है।
एवं उपलब्ध हो सकी है। इसमें कुल मिलाकर ११२ पत्र चतुर्थ श्रेणी में वे आख्यान है, जिनमे ऐतिहासिक
हैं। प्रति पृष्ठ की लम्बाई-चौडाई १६"x१७" है । तथ्यों के साथ-साथ कुछ कल्पनाओ का समावेश हो जाता
प्रत्येक पृष्ट को पक्तियो की संख्या ११ से लेकर १२ है। ऐसे आख्यानो को अर्ध ऐतिहासिक क्षाख्यानों की तक हैं । मल-प्रकरणो में गहरी काली स्याही एवं 'धत्ता' कोटि में गिना जाता है।
शब्द तथा सध्यन्त सुचक-पुष्पिकाओं में लाल स्याही का पचम-कोटि को वे कयाएँ है, जिनका प्रमुख प्रयोग किया गया है। अगल-बगल में २"४२" एवं उद्देश्य पुण्य की उत्कृष्टता और पाप की निकृष्टता प्रति- ऊपर नीचे १"x१" के हाशिये छोड़े गए हैं । सभी पृष्ठों पादित करना है। इन कथाओं में पुण्य-पाप के फल के के बीचों-बीच छोटा-छोटा गोलाकार कुछ स्थान भी छूटा साथ-साथ पुण्य-पाप से भिन्न धर्म एवं आत्मानुभूति का हुआ है। प्रति का प्रारम्भ ॐ ॐ णमो श्री वीतरागाय निरूपण किया जाता है।
नमः १-पणविवि सिर वीरं गाणगहीर । भवजल णिहि प्रस्तुत 'पुण्णासव कहाँ' उक्त पञ्चम श्रेणी का कथा परतीरं पयं ॥ से होता है एवं अन्त निम्न पद्य से होता ग्रन्थ है । महाकवि रइधू ने उक्त पांचों प्रकार की कथाओं है:का सृजन अपने विपुल साहित्य में किया है। उसके प्रस्तुत पर्यालोच्य विभूति चंचल तडिद्दामिव दाने रुचि, 'पुण्णासव कहा' में न तो एक नायक है और न कथागत रर्चायां जगदीश्वरस्य विधिना येन कृताहन्निशां । एक प्रभाव ही। कवि ने सम्यक्त्व, पूजा, अर्चन, व्रतोर- सूत्रानुगतः प्रभाकर प्रभः सो नन्दतात्पावनः वास, पञ्च नवकार आराधन आदि पुण्यकार्यो के फलों श्री संघाधिप नेमिदास तनुजः पादार्घवर्णा...॥ को अभिव्यक्त करने के हेतु अनेक पात्रों का चयन किया उक्त प्रति मे प्रतिलिपि के लेखक का नाम, अन्यहै। प्रत्येक प्रमुख कथा अपने में स्वतन्त्र है। द्वितीय कथा लेखन के स्थान का नाम एवं प्रतिलिपि के लेखन के काल के साथ उसका कोई तादात्म्य या समवाय सम्बन्ध नहीं का उल्लेख नही है । अत: यह निश्चित नहीं कहा जा है। केवल संयोग सम्बन्ध है। इस ग्रन्थ में महाकवि सकता कि यह प्रति कितनी प्राचीन है, किन्तु इसकी रइधू की विशेषता यह है कि उसने ग्रंथ पुण्याश्रव कथा लिपि को देखने से यह अनुमान होता है कि वह लगभग कोष में जिन तथ्यों की व्यञ्जना ५०-६० कथाओं के ४०० वर्ष प्राचीन अवश्य रही है। यह प्रति जीर्ण-शीर्ण बीच की गई है, उनकी अपेक्षा रइधू ने उन समस्त तथ्यों हो रही है। क्रम सं.२,७०, ११० एवं १११वें पत्र का समावेश केवल २७ कथाओ में ही कर दिया है। फिर कुछ अधिक गले हुए है तथा उनमें कुछ शब्द टूट भी गए भी न तो उसके प्रवाह में कोई कमी आने पाई है और न हैं। ग्रन्थ के तीन पृष्ठ-६७, १०३ एव १०६ दो-दो आख्यान ही त्रुटित हैं । जिस कथा को कवि ने आरम्भ टकड़ो को जोड़कर बनाये गए हैं। उनके जोड़ स्पष्ट किया है उसका अन्त उद्देश्य के अनुसार पूर्ण फलोपलब्धि दिखाई पड़ते हैं । इस प्रति में मोटे एवं पतले दोनों ही के पश्चात् ही हुआ। धार्मिक तथ्यों और पारिभाषिक प्रकार के कागजों का उपयोग किया गया है। पतले
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अपभ्रंश-साहित्य की एक प्रकाशित कृति: पुण्णासवकहा
कागज वाले पृष्ठों की संख्या पांच है । इन पहले पृष्ठों के कुटंब वर्णन, करि पाछै नेमिदास संगही नै रवध सौं विनी रंग में भी कुछ अन्तर है। मोते कागज वाले पत्र कुछ भक्ति करि, कि मौकों धर्म, और न वितांतु विस्तार सौं कृष्णरुखी सफेद हैं और पतले वाले पत्र अल पीतवर्ण
सुनावी : तब रइधू नै यहु श्रावकचारु निर्मायो, धर्मपुन्य मिश्रित सफेद । किन्तु लि बावट सर्वत्र एक सवश है। के भेद सम्यक्त के भेद, यति थावक धर्म सवु : रइधु प्रपन पृष्ठ पर वर्णन विषय के बीचो बीच लाल
। कहत हैं नैमिदास संगही सुनत हैं, नैनिदास के नामकरि स्याही से चौकोर सजावट वाला एक चित्र है, जिसके
ग्रन्थु कीनी, पत्र तीनों माँ ऐ बातें, चौथे पत्र में श्रावकामध्य में लाल स्याही मे एक गोनाकार बिन्दु बरा है। चार चल्यो। श्रेनिक राजा ने प्रस्न करी: मनपर में और उसके चारों ओर खड़ी पडी पंक्तियां खीचकर उसे कह्यौ, पहल ही सम्यक्त ।" चौकोर खीची हुई सीमा रेखाओ से जोड़ दिया गया है। लिपिकार के उक्त लेखन से कई विशेषताएं दृष्टियह आकृति सूर्य एवं उसकी छिटकती हुई किरणो का
गोचर होती है। मर्वप्रयम यह कि आज से ४०. वर्ष
सही आभास प्रदान करती है । इम चतुष्कोण के बाहर भी
पूर्व के एक लिपिकार के मन में अपभ्रंश-भाषा के एक चारों ओर चार छोटे २ चतुष्कोण प्रमुख चतुष्कोण की गंथ की सव्यवस्थित ग्रंप-सूची एवं प्रथ-सक्षेप जन भाषा में सीमाओं से जुड़े हुए हैं। उन सभी के मध्य में एक दूसरों तैयार करने की भावना जागृत हुई थी। इस शैली की को केन्द्र में काटने वाली दो-दो रेखाएं भी जिची हैं।
विषय सूची एव अपभ्रंश ग्रंथ का पृष्ठानुगामी हिन्दी संक्षेप सन्धि, कडवक आदि मभी पर क्रम संख्या दी हुई
मेरी दृष्टि से अभी तक उपलब्ध समस्त अपभ्रंश ग्रंथों में है। हां, कडवकों के क्रम में कही २ गलत संख्याक्रम दिया
से कहीं उपलब्ध नहीं है। लिपिकार ने इस शैली को हुआ है, किन्तु सन्ध्यन्त उमका हिसाब सही है।
अपनाकर एक नवीन अद्भुत आदर्श उपस्थित किया है। लिपिक ने गभी पत्रों पर प्रारम्भ से अन्त तक लिखा है। कोई भी पत्र खाली नहीं है। पृष्ठों के बायीं एवं
दूसरी विशेषता यह है कि लिपिकार ने 'पुण्णासव दायीं ओर ग्रन्थ का नामोल्लेख नहीं है।
' कहा' को "श्रावकाचार" की संज्ञा दी है। यद्यपि "पुण्णा___ सौन्दर्य की दृष्टि से गलती से लिखे गये वर्गों को सब कहा" में स्त्रय ही उसका अपरनाम "बावकाचार" लिपिकार ने काटा नहीं है किन्तु उनको निरर्थकता को
कही भी उपलब्ध नहीं है किन्तु लिपिकार ने उक्त प्रथम सचिन क ने हेतु उसके ऊपर छोटी-छोटी दो रेखाएँ
पृष्ठ पर ही इस कृति को "पुण्णासब कहा" न कहकर
पृष्ठ पर हा कित कर दी हैं।
उसे "श्रावकाचार" कहा है । उसका एकमात्र कारण यही लिपिकार ने कही २ किमी पारिभाषिक जटिल शब्द
प्रतीत होता है कि "पुण्णामव कहा" में प्रायः श्रावकको भी कम सख्या देकर हाशिये में लिख दिया है। श्राविकाओं को ही चर्चा है तथा बारहवीं सन्धि मे श्रावप्रति को विशेषताएं
काचार का शुद्ध सैद्धान्तिक वर्णन है। इसी आधार पर प्रस्तुत कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके सम्भवत: उसने इमका अपरनाम श्रावकाचार" कहा है। मुख पृष्ठ पर लिपिकार ने सक्षिप्त प्रन्य-विषय सूची दे दी जैसा कि पूर्व में सोन दिया जा चुका है कि इस है और बताया है कि कौन सन्धि किस पृष्ठ पर समाप्त' प्रति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमे पत्र संख्या होगी। फिर ग्रन्थ की कुल पृष्ठ संख्या सूचित की। प्रथम १४ से ६७ तक छोडकर सर्वत्र मुल वर्ष-विषय का पृष्ठाचार पत्रों की विषय सामगी समकालीन हिन्दी में निम्न नुगामी हिन्दी सक्षेप सत्र शैली में पत्रों के चारों ओर प्रकार प्रस्तुत की है :
हाशियों में दिया हुआ है। इससे ग्रन्थ के अध्ययन में बड़ी "प्रथम ही पंच परमेष्टी स्तुति, पार्छ सरस्वती स्तुति, सहायता मिलती है । उदाहरणार्थ पत्र संख्या २३ (क एवं चन्दवारि पटनु, सिरिराम राजा की प्रभुता वंनी, देसनगर ख) पर अमूढ दृष्टि अंग की कथा के अन्तर्गत रेवती रानी महिमा वनीं । महाजन लोग सुषी, नैमिदास पुरवार वनंतु, का कथानक आया है। उसमें मेघकट के राजा चन्द्रप्रभ के
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१०, वर्ष ३८ कि.३
अनेकान्त
परिवार का वर्णन है। वह स्वयं दीक्षित होकर क्षुल्लक रोग ग्रसित होही रेवती रानी के द्वार आयो । रानी ने पद धारण करता है। संयोगवश वही क्षुल्लक मथुरा की परिगाहो (पृ. २५ क)। यात्रा की तैयारी करता है और अपने गुरु से मथुरा के ब्रह्मचारी ने अहारु ले करि नवनु करि, दुर्गन्धी उपलोगों को समाचार भेजने हेतु जब वह निवेदन करता है जाही, घर के सब भजि गऐ, रानी पछाताप कर जागी, तब गुरु ने वहां के मुनिराज सुव्रत को वन्दना-नमस्कार मैं कुभोजन दीनी, मुनि नैं दुष पायो। कहकर रानी रेवती से कुशल क्षेम पूछते हुए वापस रानी की परीक्षा लेकरि : ब्रह्मचारी में अपनी सम्पू सौटने को कहा किन्तु वहां के एक प्रमुख भट्टारक भव्यसेन कीनों गुरु की धर्म विधि कही : (पृ. २५) के विषय में गुरु ने कोई चर्चा तक न की जबकि वह रानी रेवनी कथा : इहां संपूरन भी, ब्रह्मचारी गुल्लक मुनि भव्य सेन को एक महान साधक मानता क्षुलक गुरु पास आयो : राजा नै रेवती रानी ने दिव्या रहा था। इसी प्रसंग को लिपिकार ने समकालीन हिन्दी लीनी, अस्त्री लिंगु छेदि देय भयो (पृ० २६ क)। में इस प्रकार अंकित किया है:
उक्त हिन्दी प्रकरण में लिपि एवं भाषा सम्बन्धी "अमूदत्त गुन कथा, मेघकूट नगु, ससिपहु, राजा, कुछ विशेषताएं इस प्रकार दृष्टिगोचर होती हैं :रानी सुमई, ससिसेहर बेटा को राजु दीनों, आपु ब्रह्म- १-प्रतिलिपि में प्रयुक्त हिन्दी-गद्य ब्रज भाषा का चारी भऐ।
पूर्वरूप है। कहीं-कही बुन्देली शब्दावली का भी प्रयोग धाविकाओं की ही चर्चा है तथा बारहवी सन्धि में श्रावक- मिलता है।
ब्रह्मचार सौ गुरु ने कही कि सुव्रत नाम मुनि सौं २-विषय प्रसंग की समाप्ति के समय पूर्ण विराम वन्दना भक्ति कहने : रेवती रानी सो समाचार पूछने के स्थान पर के आकार के एक विन्दु का प्रयोग किया अभव्यसेन मटारक कौं कछु कहो नाही॥"
गया है जो अग्रेजी फुल स्टाप के समान है। इसी प्रकार इसी प्रकार क्षुल्क जब मथुरा पहुचता है और वहां किसी एक प्रकरण की समाप्ति पर समाप्ति सूचक चिन्ह वह जो कुछ करता है उसे हिन्दी में इस प्रकार अङ्कित दो विन्दुओं का प्रयोग मिलता है जो अंग्रेजी के कोलन' किया गया है :
से मिलता-जुलता है । यद्यपि आम दोनों नियमों में कहीं"मत मनि सौ वन्दना कही। भव्यसैनि को मिल्यो, कहीं अपवाद भी मिलते हैं। कही कि तुम में पढ़ने आयो ही। मौको पड़ावो । वहि 3 और Lore नमिकों चले । हरी भूमि उपजाई, परिक्षा लेतु है : एक नुबता अथवा छोटा बिन्दु दिया हुआ है । यथा- कमंडल को पानी विद्या करि दूरि कीनौ : एक व (वन (वमन) रेवती (रेवती)। (१० २३ क) पोपरि उपाई । जीवशासि, तामै सौच ४ 'ख' के लिए सर्वत्र 'ष' का प्रयोग मिलता है। पवित्र भऐ, ब्राह्मन पुत्र नै प्रभव्यसेनि नामु धरी (पृ० जैसे दुषु (दुख) पोपरि (पोखरि)। २३ ख)।"
५-रकार पर ह्रस्व या दीर्घ उकार उसको पार्व पहल ब्रह्मरूपु कीनो : दूज नरराइन रूपु कीनो तीजे में न जोड़कर नीचे जोड़ा गया है। जैसे-रपु (रूपु सरप महादेव रूपु कीनों, चौथें तीर्थंकर सांमिग्री सहित (सरूपू)। कीनी (पृ. २४ क)
६-यकार सर्वत्र पकार जैसा है। ब्रह्मचारी नै चारि सरूप कीन, भव्यसेनि आदि सब
७-एकार के स्थान पर सर्वत्र ऐकार प्रयुक्त है। नग्र लोक देखन भाऐ, रेवती न आई (पृ. २४ ख)। यथा-भऐ, गए, हऐ।
ब्रह्मचारी आदिदेव हो गए। नौ नराइन . ग्यारह ५-दीर्घ ईकार के स्वतन्त्र प्रयोग पर उसकी रेफ रुद्र हो गए, तीर्थंकर चौबीस हो गए, अब कोई पाषडी को नीचे तक खींचा गया है । यथा-आही सुमड़ी। आयो है : रेवती रानो आही नाही। पाछै ब्रह्मचारी व
(क्रमश:)
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पताक से आगे : पं० शिरोमणिदास जैन कृत "धर्मसार सतसई"
- श्री कुन्दनलाल जैन प्रिन्सिपल मष तृतीय संधि प्रारंम्पते
ए पंचहु फल है दुखदाई, चौपाई-कर जोड़े नूप शीस नवाय,
___ इनमें जीवराशि अधिकाई ॥७॥ पुनि पूछ गणधर सों राय । उदम्बर के अतिचार-बेर, मकोरा, जाम, अचार, धर्म मूल सम्यक्त्व बतायो,
करौंदा बेल, अतूत, मुरार । शाखा कौन कहो मम भायो ॥१॥
कुम्हड़ा, गडेल, विवा, भटा, राजा सुनहु धर्म की शाखा,
कलीदे फतकुली, चर्चड़ा बड़ा ॥६॥ श्रावक यति ब्रत दोष हो भाखा।
सूरन, मुरा, आदी (अद्रक) गज्जरी,
महारुकद मूल जे हरी । दोय धर्म है जग में सार,
ए पुनि अवर कहे जिनराय, जातें भवधि पावहिं पार ॥२॥
इनमें जीव अनेक बसाय ॥ वेपन क्रिया धरै गुणधारी,
अथ तीन मकार मह (मधु) वर्णनसो श्रावक उत्तम सोचारी।
सकल निन्द्य रस माछी हरे, उत्तम श्रावक व्रत लव लावे,
___ करके वमन इकट्ठी धरै ॥ षोडस स्वर्ग इन्द्र पद पावै ॥३॥
अनेक अंडावर ऊपजै जहां, अथ वेपन क्रिया भेद-अष्ट मूल गुण व्रत सु बारह।
बहुत जीव रस बूढ वहां ॥१०॥ द्वादश तप सामायिक सारह ।
अनेक जीव मरिक मधु होय, एकादश प्रतिमा सुनि हेत,
जो किमि भक्षइ धर्महि गोम। चार दान में कही सुचेत ॥४॥
यज्ञ, पिण्ड ले मधु सो देइ, जल गालन इक अंथऊ (शाम भोजन) लीन,
मधु को भक्षि पाप सिर लेह ॥११॥ तीन रतन तहं कहे प्रवीन ।
मह (मधु) के अतिचार-नैन (मक्खन) काचो दूध पिय, ऐ ओपन क्रिया परमान,
सीऊरे जे कहे । वर्णन करूं सुनो दे कान ॥५॥
अप्रासुक जे नीर था, नैसवा ने जे लहे । १२॥ अथ अष्ट मूल गुण-पंच उदम्बर तीन मकार,
मद्य दूषन-स्वाद चलित जो वस्तु जु होइ, इनके तजे मूल गुण सार।
ता सौं मद्य कहे सब लोय । इनके दूषण जो नर तर्ज,
अनेक वस्तु ले सारै जहां, अष्ट मूल गुण सो नर भजे ॥६॥
___ अनेक जीव मरि उपज तहां ॥१३॥ अब पंच उदम्बर , पीपर, ऊमर तुम जानि,
जो यह मद्य पियेजऊ रुढ़, पिलुकरि पाकरि कहे बबानि ।
माता स्त्री नहीं जानै मूढ़।
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१२, वर्ष १८, कि २
अनेकान्त
(गंदा स्थान)-धूरे पर निलज्ज मुख वाय,
कूकर मृत तामें आय ॥१४॥ मद्य मूत्र नही जाने भेद,
बार बार मागे करि खेद । विक्ल देखि नर नारी हंस,
जनम यूकि के मुष में गौ ॥१५॥ याही जनम ऐनो फल लहै,
और जनम को कहि सके। मद्य के दूषण छाडहु वीरा,
___ अब मैं कहूं मुनो तुम धीरा ॥१६॥ मद्य अतिचार-देव धर्म गुरु अन्य जु होय,
अन्य जति तुम जानो लोय । अन्य जाति को भाजन (वर्तन) लेय,
अपनो भाजन ताको देय ॥१७॥ दिना दोय अधिकारी मठा,
दुदल वस्तु सो कीन्हो गठा। फूल साधि जो मुख में देइ,
अजान के हाथ को नीर जो लेई ॥१८॥ ए सब मद्य दोष दुख दाई,
अवर दोष को कहै बढ़ाई। इनमे जीवराशि बहु रहै,
इनके त्याग सर सुख लहै ॥१६॥ मांस दोष-जीव धान बिनु मास न होइ,
महा पाप यह जानो लोइ । जीव अनेक पुनि तामे पर,
निन्द्य अपावन दृष्टि न धरं ॥२०॥ जो लगि जीव देह में बस,
तो लगि देह यह निर्मल दिस । जीव गये देह मुर्दा होय,
नर नारी पुनि छि, न कोय ॥२१॥ धिक धिक मांस मास जो खाइ,
दुर्गति दु.ख मिलै तिहि बाइ। पर जीव मारि उदर मे भरे,
घोर नरक कं उनने पर ॥२२॥ मांस अतिचार-हीग मलिल घी तेल,
चर्म की सगति जे रहे।
उपजे जीव अनेक, मांस दूषण यह जिन कहै ॥२३ जाको नाम न जान्या जाय,
अब सद्यो फल कहो बताइ । हाट चून अनगाल्यौ नीर,
शाक पात फल हरित जु धीर ॥२४॥ जामे तार चल बहु भांति,
लग फफूडा छाडी जाति । कोमल फूल है पत्रज फूल,
त्वचा गवारि बहुवीजहु कूल ॥२५॥ ए सब दोष कहे तुम जानि,
अबर दोष को कहै बखानि । जो नर मास त्याग व्रत घरे,
सकल दोष निश्चय परि हरै ॥२६॥ इन आठों मे पाप अपार,
दोष सहित त्याग व्रत धार । जब त्याग तब श्रावक होय, ___ अष्ट मूल गुण पालहिं सोय ॥२७॥
॥ इति अष्ट मूलगुण ॥ अथ बारह व्रतदोहा -- पच अणुवन पालिए, तीन गुण प्रत जानि ।
चऊ शिक्षा व्रत जिन कहे, ए बारह व्रत जानि ॥२८ अथ पंचाणुव्रत-प्राणभूत जीव सत्त जु चारि,
की दया सकल हितकारि । जो जीवनि को रक्षा कर,
भव सागर सो लीज तरे ॥२६॥ दया धर्म कहिए संसार,
जातें तुरत उतरिए पार । दयाहीन जो नर तुम जानि,
सो पापी यह कही बखानि ॥३०॥ व्रत तप संयम दान दै कोइ,
दया बिना निष्फल हो सोइ । तीरथ यज्ञ बहु होम विधान,
____दया बिना कोई होय न काम ॥३१॥ अथ अमानक छंद -जो पंछी मरवेउ तिर पाखान जल ।
जो उलटै भुव लोक होइ सीतल अनिल । जो सुमेरु गमगं सिंध कहं लगे मल ।
मता
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पं० शिरोमणिवाल धर्मसार सतसई" कबहूं नहिं सीकर तन उपज्यं पुण्य फल ॥३२ दोहा-वसु राजा यह मूठ तें, गिरत न लागी वार । चौपाई-यात जानि दया हिय धर,
राय युधिष्ठिर सत्य तें, पहुंचे मोक्ष द्वार ॥४३॥ हिसां वणिज सदा परिहर । अथास्तेयानुव्रत-अधिक वस्तु जो पर की लेइ, हिंसा कर्म कर बहु पाप,
पर कों घाटि आपु जो देह। परभव जाय लहै संताप ॥३३॥
परी वस्तु के विसरी (भूली) होय, हिंसा कर्म
पाती अनधरी है सोइ ॥४॥ दोहा-लाख लीलि रंग आदि दै सनु सबनु मंह विद्य।
झूठी करी करै नर कोइ, सोरा (डा) सीसो लोह विष मनु वनिज ए निंद्य ॥३४
यह सब चोरी जानो लोइ । चांवल तिली जु संग्रहै, नाज लेव अधिकार ।
चोरी कर धर्म सब जाइ, गोधन बहुत जो राखिक, हिंसा बढ़े अपार ॥३५
दुर्गति दुख मिले तिहि आइ ॥४५॥ कंद जरै बहु खोदि के, करै तेल अरु क्वाथ ।
याही जन्म वध वन्धन लहै, धातु मारि गुटिका कर,(रचे) पाप लेह निज हाथ ॥३६
राजदण्ड पुनि निश्चय सहै। चौपाई-कुआं बावड़ी ताल बंधाई,
देह खंड अपकीरत जानि, खाई खोद अरु बाग लगाइ।
अवर दुख को कहै बखानि ॥४६॥ खेती करी अरु लाद बैल,
अथ मरहठा छंदए सब जानो दुर्गति गैल ॥३७॥ जो कीरति गोप, धर्म विलोप, कर महा अपराध । ए सब जीव दया के पोख,
जो शुम गति तोर दुर्गति लोर, जोर युद्ध उपाधि । तजि कुवंज (कुवणिज) मन धर संतोष । जो संकट आने दुर्गति ठान, वध वन्धन को गेह। जो भवि जीव दया मन राख,
सब ओगुण मंडित, गहै न पंडित, सो अल्ल (अलभ्य)प्रथम अणुव्रत यह जिन साख ॥१८॥
धन एह ॥४७॥ दोहा-अरविंद राय हिंसा करी, नरक सहे दुख जाइ। चौपाई-चोरी आनी वस्तु न लेई, मातग दया जो मन धरी, सुरपति बन्दो आय ||३९
चोरी को उपदेश न देई। अब सत्याणुव्रत-कठिन वचन पर निन्दा होइ,
इह विधि चोरी त्याग जवहिं, झूठी बात कही मति कोइ ॥४०॥
तृतीय अणुव्रत पावै तबहिं ॥४॥ हित मित सत्य रही प्रमाण,
दोहा-चोरी ते तापस गए वध बन्धन लही जु शोक । सुर नर माने जाते आन ।
अंजना चोर चोरी तजी, सुदेव भयो सुर लोक ॥ve जैसे भानु विराजे भोर,
अथ ब्रह्मचर्याणुव्रत-विषय सत्ताइस इन्द्रियनि केरे, सत्य सुजस प्रकट चहुं ओर ॥४१॥
अरु मन तें उपज बहुतेरे । अथ कवित्त पावक तं जल होय, वारिधि तें थल होय,
विकार अनेक तजै जब और, सस्त्र से कमल होय, ग्राम होय वन तें।
सो यह शील जगत सिरमौर ॥१०॥ कूप तें विवर होय, पर्वत तें घर होय ।
परदारा जब त्यागै ग्रही, वासव तें दान होय, हितु दुर्जन तें।
चौथो अणुव्रत पावै सही। सिंह तें कुरंग होय, व्याल श्याल अंग होय ।
मातु बहिन पुत्री सम चित्त, विष तें विदुष होय, माला अहि फन तें।
परदारा तुम जानहु मित्र ॥५॥ विषम तें सम होय, संकट न व्याप कोय ।
अथवा सापनि सी मनधरी, एते गुण होय सत्यवादी के दरस तें॥४२॥
दुख की बानि दूर परिहरी।
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पानी बिनु मोती है जैसो,
शीन बिमा नर लागै तेसो ॥५२॥ कवित्त-जो अपजस की डंक बजावत,
लावत कुल कलंक परधान । जो चरित्र को देत जलांजलि,
__ गुनवन को दावानल दान ।। सो शिव पंथ को वारि बनावत,
आवति विपति मिलन के थान । चिंता मणि समाज जग जो नर,
सील रतन निज करत मिलान ॥१३॥ चौपाई-ज्ञान ध्यान ब्रत संयम धरना,
यज्ञ विधान शुभ तीरथ करना। पूजा दान बहु कोटिक कर,
शील बिना नहिं फल को लहै ॥५४॥ दोहा-रावण आदि जु क्षय भए, पर नारि के काज ।
सेठ सुदर्शन शील ते, पायो शिवपुर राज ॥५॥ निज नारी पुनि छोड़ो जानि, आठ पांचं, चौदसि मान । दिवस पुनि छोई निज हेत, चौथो अणुव्रतधरहु सुचेत ॥५६ अथ परिग्रह प्रमाणुव्रतप्राणी तृष्णा लियो अति धनी, पूरी होय न क्योंकर तनी। तीन लोक की लक्ष्मी पावै, तीन तृष्णा पूरण पावै ॥५७ यही जान परिग्रह प्रमाण, अणुब्रत पचम कही सुजान । धरि संतोष तुष्णा वश कर, भवसागर सो लीजं तरै ।।५८ क्षेत्र गेह धन धान्य जु वीर, द्विपद, चतुष्पद, आसन वीर । भंडार सयन आभूषण पान, भोजन भोग करी प्रमाण ॥५ परिग्रह जानह दुख की खानि,
पाप मूल पुनि कही बखानि । व्यों ज्यों करहि जु प्राणा आशा
दुर्गति आवै त्यों त्यों पासा ॥६॥ मथ सवैया-कलह गयंद उपजायवे कों,
विन्ध्यागिरि क्रोध गीत के अघाइवे को सु मसान है। संकट भुजंग के निवास करिबे कों चील,
वैर भाव चोर को महा निशा समान है। कोमल सुगुन धन खंडिवै को महा पौन (पवन)
पुण्य वन दहिवे की दावानल दान है।
नीति नय नौरवकों नसाइवें को हिम राशि,
ऐसो परिग्रह राग द्वेष का निधान है ॥६॥ दोहा-सत्यघोष अति लोभते दु:ख सहे अधिकार ।
शालिभद्र संतोष ते, भए सिद्ध गुणधार ॥२॥ इति पंचाणुव्रत समाप्यते । अथ तीन गुण व्रत कथ्यते । दिशा अरु विदिशा जानहु वीर,
संख्या की धरि ब्रत धीर । प्रथम अणुव्रत एह सुजान,
पुनि तुम देस करहु प्रमाण ॥६॥ व्रत आचार की यात्रा छीन,
तहीं देश नही जाय प्रवीन । द्वितीय गुणवत जातें बढ़े,
धरि संतोष धर्म अति बढ़े ॥६॥ पृथ्वी खोद कर बहु पाप,
जल अति हारि कर संताप । वायु अग्नि प्रज्वाल घनी,
काटि वनस्पति हिंसा जनी ॥६५॥ मूठ वचन चोरी पर नारी,
बहु मारम्भ कर मन धारि। क्रोध लोभ माया मद जान,
विकथा विकगान विर्षे रति मानि ॥६६ ए सब अवर अनर्य जु दंड,
कहि गुरु पास लेइ तह दंड। तृतीय गुण व्रत यातें लहै,
अनर्थ दंड यह जिनवर कहै ॥६७॥ समता सब सों संयम भाव,
धर्म ध्यान इक चित में लाव । सहइ परीवह दृढ़ धरि चित्त,
जिन पद जपं कर सब नित्त ॥६॥ तीन काल सामायिक धरै,
दोय घड़ी करि पातक हरे। सामायिक भव्य जीव लो लावै,
मध्यम प्रैवेयक पद पावै ॥men भव्य जीव सामायिक साधि,
नियमा करि जिनवर बाराधि।
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पं० शिरोमनिवास "धर्मसार सतसई जो फल है अनंत सुख राशि,
दोहा-नियम सहित प्रोषध कर, हिंसा कम निवारि। मुक्ति वधू तहं होइ उदासी ॥७॥ देव लोक पद जो लहै, सकल दोष दुख जारि 10॥ एक माम जिन जीवन जप्यो,
अथ अतिथि संविभाग व्रतपाप राशि तिन छिण में खप्यो।
घड़ी छह दिनु चढ़इ जु जबही, स्वर्ग लोक लहै सुख की खानि,
द्वारा पोषण कर भव्य तबहीं। सामायिक फल को कहै बखानि ॥७१॥ मुनि को पाय देइ शुभ दान, दोहा-सामायिक इक चित्त दे, धरै भव्य निज हेत।
निर्मल भाव कर शुभ ध्यान ॥१॥ प्रथम शिक्षावत सो लहै, जिनवर कहै सुचेत ॥७२ पुनि पार्छ निज भोजन करे, चौपाई-सातें तेरस शुद्ध आहारी,
इह विधि नियमा व्रत को धरै। एका भक्ति कर साचारी।
जो मुनि दान बन नहीं जोग, पुनि प्रोपध थाय जिन पास,
ता दिन रस त्यागी सब भोग ॥२॥ ग्रह आरम्भ तजे सब आस ॥७३॥
दोहा-यह विधि दिन दिन व्रत कर, घर नियम दढ़ जानि । खाद्य स्वाध पिय लेप आहार,
तृतीय शिक्षा व्रत सो लहै जिनवर कही बखानि ॥५॥ चार प्रकार तर्ज व्रत धार ।
अब देशावकाशिक कथ्यतेकंद मूल फल फूल जे पान, इन्हें न लीज हाथ सुजान 10m
मोग उपभोग की संख्या लेइ, स्नान तिलक आभूषण वस्त्र,
दया दान सबही को देह। गमनागमन तर्ज सब अस्त्र ।
पुनि जिन मन्दिर र अनूप विकचा राग दोष परिहार;
तहाँ धर्म अति बढ़े स्वरूप ॥४॥ संयम भाव घरं तजि नारि ॥७॥ सोरठा-जाते धर्म जु होइ सो विधि कीज भाव सौं। बाठ चोदश प्रोषध कर,
देशावकासिक सोइ, सज्जन करह सयान सौं॥५॥ हिंसा कर्म सबै परिहरै। जय बारह तप:जिनकी भक्ति कर दृढ़ चित्ता
बारह तप सुन श्रेणिक धीर, धर्म ध्यान सों की मित्त ॥७६|
जात होइ कर्म ते कीर। रात दिवस निर्मल परिणाम,
तप तें जरै काम प्रचण्ड, इह विधि प्रोषध लेहु सुजान ।
इन्द्रियनि विष लगे तहं दण्ड ॥८६॥ पूनों अमावस नोमी होइ,
जैसे अग्नि में सोनो (म्वर्ण) शुद्ध, एका भुक्ति करी पुनि सोइ ॥७॥
त्यो तपते जीव होइ सुबुद्ध । सोलह पहर जु प्रोषध शुद्ध,
स्वर्म लोक होय तप तें नाथ, उत्तम प्रोषध कही सुबुद्ध ।
मोक्ष कामिनी इच्छा साथ ॥७॥ चौदह पहर प्रोषध तुम जानि,
सेवा देव कर कर जोडि, मध्यम प्रोषध कही बखानि ॥७॥
तपत विघ्न गलै बहु कोडि । द्वादश प्रहर जु प्रोषध लीन ।
केवल लब्धि मिले सुख आय, जघन्य जु प्रोषध कही प्रवीन ।
कौति रहे चहुं दिशि छाय ॥८॥ यथा शक्ति जो प्रोषध कर,
सो तप छह वाहिज (वाह) हितकारी, पाप पुज जो छिन में हरे ॥७९॥
अनशन प्रथम धरै साचारी।
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१६ बर्ष ३५कि०३
बनेकान्त
भोजन त्याग जो प्रोषध कर,
ताको पथ्य जु औषधि दान, सो तप अनशन जिनवर कहै ॥१६॥
सुश्रूषा करि राखो मान । अल्प अहार कर जु एक बार,
इह विधि बार बार दृढ़ चित्त, तप यह ऊनोदर (आमोदर्ज) सुसार ।
यह जानो तप वैयावृत्त ॥९॥ नियम सौं गिन वस्तु जुलेई,
जिनवर वाणी पढ़ सुसार, वस्तु सख्या ता सब सुख देई ॥१०॥
__ बार बार पूछो हितकार। नीरस भोजन लेइ विचारि,
अनुप्रेक्षा द्वादश जिन कही, रस त्यागं व्रत यह दुख जारि ।
__ ते जु विचारै दिन दिन सही ॥१८॥ आसन शयन जु न्यारे कर,
बागम विचारि कही सो लेइ, विविक्त शैयासन मन तप कौं धरै ॥१॥
धर्म उपदेश सदा हित देह। देह जान बहु दुख को गेह,
यह स्वाध्याय पंचविधि भेद, यही जानि पुनि तजो सनेह ।
स्वाध्याय तप भव दुख छेद ||६|| बहुत कष्ट करि देह जु क्षीण,
कायोत्सर्ग नियम मन लावै, कायक्लेश तप कहे प्रवीण ॥२॥
पद्मासन कर निज तनू पावै । छह तप सुनि अभ्यन्तर राय,
सहै क्लेश विकलता नाखि, बहुत भेद जिन कहै बताय।।
कायोत्सर्ग तप यह बिन साखि ॥१०॥ व्रत तप मन बच काय जु कियो,
ध्यान पदस्थ विंडस्थ वखानि, निज गुरु धर्म साक्षि (माखि) लियो ॥१३॥
अरु रूपस्थ कहो गुण वाणि । जो कबहु व्रत भगहि लहै,
रुपातीत ध्यान शुभ शुद्ध, पुनि गुरु पास आनि सो कहै ।
ध्यान महातप कही सुबुद्धि ॥१०॥ जे गुरु सीख देहिं हितकारी,
जो द्वादश तप मन दै कर, पूजा जाप उपास विचारि ||
भव सागर सो लीजै तरै । इन कर मल सोधे निज हेत,
स्वर्ग लोक पद लहै सुजान, प्रायश्चित्त तप कहऊ सुचेत ।
सो पुनि जीव लहै निर्वाण ॥१२॥ दर्शन ज्ञान चरित्र जु करै,
इति तप वर्णन । वीर्य सु तप करि पातक हर शा
अथ सामायिक क्रियाताको विनय कर मनु लाइ,
दोहा-सामायिक क्रिया कही, शिक्षाक्त मे जानि । यह तप विनय महा सुख दाइ।
फिर वर्णन नहीं कीजिए, यह जिन वचन प्रमाण ॥ जे मुनि व्याधि जरा के लीन,
(अपूर्ण)
१.३॥ तप करि देह भई तहं क्षीण ॥१६॥
-शाहदरा दिल्ली-३२
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धर्म का मूलाधार : प्रास्था या अंधास्था
धर्म का मूलाधार आस्था है । आस्था के ही लगभग पर्यावानी शब्द श्रद्धा और विश्वास भी है। इन शब्दों से मन की एक स्थिति विशेष का बोध होता है जो तर्क शब्द के अर्थबोध से भिन्न है । आस्था एक अनुभूति प्रधान मनः स्थिति है जिस से व्यक्ति का चारित्र एक निश्चित दिशा, आकार, प्रकार ग्रहण करता है । यह मन की व्यक्ति प्रधान दशा है, जिस में व्यक्ति के ज्ञान, भाव तथा चारित्र तीनों का समावेश है। ज्ञान रूप में आस्था
- बोध है ( इदमस्ति ), भाव रूप में आस्था अस्तित्व का अहसास है ( अहमस्मि ), तथा चारित्र रूप में आस्था अस्तित्व की कृतकार्यता है (अयंभूतः) । सम्पूर्ण रूप में आस्था 'मैं होता हुआ हूँ' का अहसास मात्र है। "मैं होता हुंद्रा हूँ" का विश्लेषण यूँ करें: ( मैं = व्यक्ति ) + (होता हुआ उत्पाद व्यय) + ( हूं = धीव्य) अहसास = आस्था | अर्थात् आस्था उत्पाद व्यय घ्रौव्य युक्तं सत् का अहसास है । यह व्यक्ति की धारणात्मक स्थिति है, अस्तित्व के आस्तिक्य-भाव का प्रतीक, जिसकी जड़ें और गहरे कालातीत समाधि शून्य द्रव्यत्व में फैनी होती हैं । यह आत्म-बोध की दिशा में उन्मुख मनः स्थिति है। यह एक प्रकार से अपने द्वारा अपनी ही पहचान की द्योतक स्थिति है । फिर जब यह स्थिति किसी इतर तत्व से जुड़ती है ती यह श्रद्धा हो जाती है। यानी यदि आस्था को स्वगत कहें, तो श्रद्धा को वस्तुगत मनः स्थिति कह सकते हैं। आस्था का साधन और साध्य दोनों ही स्व है, तो श्रद्धा का साध्य स्वेतर है । आस्था अपने में अपने लिए होती हैं, तो श्रद्धा अपने में दूसरे के लिए होती है। श्रद्धा के लिए किसी श्रद्धास्पद की जरूरत है । बास्था के लिए 'किसी आस्पद की आवश्यकता नहीं । श्रद्धा में हम कहते हैं, कि हमें राम, कृष्ण, बुद्ध, तीर्थंकर पर श्रद्धा है । मास्था में हम इतना ही कहते हैं कि हमें धर्म में आस्था
'४० प्रयुकुमार
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है, धर्म यानी स्वभाव में आस्था । अब दूसरा पर्यायवाची शब्द आया विश्वास । विश्वास शब्द का शब्दार्थ पिछले दोनों शब्दो के शब्दार्थ से कुछ अस्पष्ट है । मोटे रूप में विश्वास को आस्थाजन्य मनः स्थिति की वाह्ययोन्मुखं व्यवहार दशा कह सकते हैं। विश्वास में व्यक्ति की अपनी पहचान दूसरे की आँखों से होती है। व्यक्ति अपने को देश-काल-परिस्थिति में रख कर पहचाने, तब वह आत्म विश्वासी होता है। दूसरे शब्दों में आस्था की व्यावहारिक दृष्टि विश्वास है। विश्वास में व्यवहार स्तर पर, आस्था और श्रद्धा दोनों का ही अस्पष्ट घोलमेल है। हम चाहते हैं, कि हमें अपने में विश्वास है, साथ ही यह भी, कि हमें राम पर, कृष्ण पर, या अमुक पर विश्वास है ; ये तीनों पर्यायवाची शब्द धर्म-चर्चा में प्रयुक्त होते हैं, इस लिए इन के शब्दार्थ को समझना जरूरी था ।
अब, आइए, अपनी धर्मं- व्याख्या में भागे बढ़ने से पूर्व एक शब्द का अर्थ और स्पष्ट कर लें। वह है तर्क । तर्क मन के ज्ञान पद की विकल्पात्मक स्थिति है । किसी माने या पहचाने आधार से किसी इतर निव्र्ष पर पहुंचना तर्क है। दूसरे शब्दों में किसी मान्य आधार का रहस्योद्घाटन करना तर्क अथवा ऊहा होती है। इस में मन एक नियोजित प्रक्रिया अपनाता है जिस में स्व पर द्रव्यों को उनके अगों में तोड़ कर उन्हें समझा या पहचाना जाता है। तर्क का अविष्ठान बुद्धि है, जो मन का ही एक रूप है । बुद्धि पहले अस्ति को नास्ति करती है, तब अस्ति; और नास्ति को जोड़ कर वस्तुसत्य को समझती है । फिर वह अस्ति नास्ति की सीमा को परख कर उस के सीमातीत द्रव्य पर निगाह डालती है तो वह अवक्तव्यं के क्षेत्र में आ जाती है। एवं अस्ति+अवक्तव्यं नास्ति + अवक्तव्य अस्ति + नास्ति अवक्तव्य रूप के सभी-करणों की उत्कर्ष ना कर उस सत्य को पहचानने की कोशिस करती है जिसे
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आस्था ने सहज ही बात्म-दर्शन रूप भी लिया था। इस जगाया जाता है, मतः धर्म के क्षेत्र में अनुभूति शन्य बंध प्रकार आस्था आस्तिक्य है, तो बुद्धि नास्तिक्य । धर्म विश्वास अधिक खतरनाक बन जाता है। क्योंकि उस का मूलतः आस्तिक्य-भाव के वाहन पर चलता है, किन्तु प्रबुद्धी करण आसानी से नहीं हो पाता। बद्धि के नास्तिक्य मूल्यांकन से समंजन करता हुआ। जब हम किसी सूचना या बाहर से आए शान की
बास्था बोर तर्फ एक ही मन की दो भिन्न-भिन्न जांच कर लेते हैं और उसे तर्क की कसौटी पर कस लेते स्थितियां हैं। आस्था सत्स्व की पहचान है तो तर्क सत्- है और उसे ठीक पाकर या ठीक के समीप पा कर विश्वास इदम् का मूल्यांकन । दोनों का परस्पर सम्बंध और असम्बंध करते हैं तो वह विश्वास प्रबुद्ध हो जाता है। बागे चल है। जब आस्था का उदय तर्क के बिना ही होता है, तो कर जब उस प्रबुद्ध विश्वास मे हमारी अनुभूति का तत्व बह तकहीन बास्था है। जब वह तर्फसह हो तो वह प्रबुद्ध जुड़ जाए तो वह प्रबुद्ध आस्था की कोटि में आ जाता है। आस्था है। जब बास्था तर्क की सीमा लांधने के बाद प्रबुद्ध विश्वास विज्ञान और दर्शन के क्षेत्र में मिलता है। उदित हो, तो वह तर्कातीत अथवा अनिर्वचनीय आस्था विज्ञान में हम पहले किसी आभासिक सत्य की प्राक्कल्पना हुई। पहले क्रम में आस्था दूसरे से पाई सूचना से उत्पन्न कर तथ्य संकलन करते हैं । तथ्यो का विश्लेषण, संश्लेषण हो या खुद के वाह प्रत्यय से, जैसे किसी ने कहा, ईश्वर और सामान्यो करण की प्रक्रिया करते हुए हम अंतत: है और हम ने मान लिया, इंग्लैंड में टेम्स नदी है और उक्त प्राक्कल्पना की पुष्टि या निरस्तीकरण कर देते हैं। हम ने मान लिया । यह तर्कहीन आस्था वास्तव में आस्था यह होता है किसी इन्द्रियजन्य ज्ञान से उत्पन्न आभास या नहीं विश्वास है, जिस के उगने के न तो पहले तक हुआ न विश्वास का प्रबुद्धी करण । ऐसा प्रबुद्ध विश्वास अध बाद में । ऐसा विश्वास अंध विश्वास भी कहला सकता विश्वास से कम खतरनाक होता है। फिर भी खतरा इस है। अंध विश्वास को यदि आस्था कहें तो वह आस्थाभास में भी है । खतरा इस लिए, कि बैज्ञानिक तर्क-प्रक्रिया की है, सदास्था नही । अंध विश्वास में कोई अनुमति नहीं भी अपनी सीमाएं हैं । वे सीमाएं निगमन और आगमन होती । केवल वाह्य से सूचना मिलती है, जिसे हम बाहर दोनों तकों में निहित हैं । निगमन का सत्य माने हुए से आया ज्ञान कहें और उसे हम बिना ननु नुच के मान आश्रययवाक्य की सीमा है, नो आगमन मे इन्द्रिय-ज्ञान लें। ऐसे विश्वास में हम आस्था शब्द का प्रयोग प्रायः की सीमा । वे गलत हो सकते हैं, अधूरे सत्य भी हो सकते नहीं करते। यदि करें भी तो वह शब्दो का फेर है। है। किन्तु वैज्ञानिक प्रणाली से सत्यापित निष्कर्षों को सम्प्रदायों और अन्य सामाजिक संस्थाओं की भीड़ अंध- विज्ञान का विद्यार्थी सर्वाग सत्य समझ बैठता है और उसे विश्वास पर ही पलती है। सच पूंछो, तो अंधविश्वास सार्वभौमिक तथा कालिक सत्य के सिंहासन पर बिठाल भीड़ की ही धरोहर है। यही से शुरू होती है मदांधता, कर उसमें विश्वास स्थिर कर देता है। पहले जो विश्वास फैनेटिजिज्मः चाहे वह धर्म के किसी सिद्धान्त के नाम पर प्रबुद्ध था आगे चल कर यह अब विश्वास का रूप धारण हो. या किसी श्रद्धेय व्यक्ति के नाम पर, या किसी अन्य कर लेता है और उस में अंध विश्वास के सारे खतरे के नाम पर । मदांधता मदांधता ही है । वह धर्म-सम्प्रदाय, पैदा हो जाते हैं। वस्तुस्थिति यह है कि विज्ञान के राजनैतिक पार्टी, साहित्यिक संस्था, सामाजिक संघ, वैज्ञा- निष्कर्ष सदैव सम्भाव्य सत्य के ही द्योतक हैं, पूर्ण और निक मंच, कहीं पर भी किसी के नाम पर हो सकती है। कालिक सत्य के नही । इसी लिए तो विज्ञान की प्रयोगयह एक प्रकार का नशा है जो किसी व्यक्ति या सिद्धान्त शालाएं सदैव चालू रहती हैं और प्रत्येक स्थापित सत्य का से सम्मोहन द्वारा व्यक्ति या व्यक्तियों की भीड़ के गले बार-बार मूल्यांकन और सत्यापन होता रहता है। ऐसा उतारा जाता है। वह व्यक्ति या समूह सम्मोहित हो कर करने से ही वैज्ञानिक निष्कपो असत्य का विश्वास प्रबुद्ध कुछ भी करणीय अकरणीय करने को तैयार हो जाता है। कोटि में रह सकता है। प्रबुद्ध चेता वैज्ञानिक इम खतरे से धर्म में चूकि इन्द्रियातीत सत्ताओं के प्रति विश्वास अवगत हैं और वे बड़ी ईमानदारी से अपनी प्रविधि की
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धर्मका मुखाचार: मास्वाया अंधास्था
सीमाएं कबूल करते हैं तथा उदारचित्त से उन निष्कर्षों विश्वास और मास्था के लिए। के विपरीत निष्कर्षों को भी आदर देकर प्रविधि की प्रत्येक प्रकार के ज्ञान के पीछे अनुभूति विश्वास कसौटी पर ले आते हैं। ऐसी अभिवृत्ति से ही हम विज्ञान जरूर होता है। वस्तुज्ञान की परिभाषा में भी कहा के क्षेत्र में अधविश्वाम के दृषण से बचते हैं और बच
अधविश्वाम क दूषण से बचत है और बच जाता है कि हमारा वस्तुमान तभी वैध ज्ञान है जब वह सकते हैं।
वस्तु के अनुरूप हो और जिस के अनुरूप होने का हमें अब हम आते हैं दर्शन के क्षेत्र में पाले गए विश्वास विश्वास भी हो। यदि अनुरूपता से सम्बंधित विश्वास के बारे में। दर्शन एक प्रकार से हमारे सम्पूर्ण चिंतन के हमारे मन में नहीं है तो वह ज्ञान नहीं होगा। सच पूछो, आधारों की जाच परख है, तौल खोज है। इस जाच तो वस्तु के अनुरूप हमारी चेतना की अनुमति स्वतः होती है, परख की भी एक प्रणाली है जो वैज्ञानिक तर्क प्रणाली से जिस अनुमति के होने के बारे में हमें किसी से पूंछना नहीं कुछ अधिक विकसित है। दर्शन को सर्क प्रणाली विज्ञान पड़ता, अपितु हम उसके होने के बारे में स्वतः आश्वस्त की तर्क प्रणाली की भी खोज खबर लेती है तथा उस की होते हैं। यह आश्वस्त होना ही हमारा विश्वास है । जब क्षमता, अक्षमता तथा सीमामों का निर्धारण करती है। हम इस विश्वास के बारे में अवगत हो जाते हैं तो वह दार्शनिक प्रणाली से ही तो प्रेरित होकर शुद्ध वैज्ञानिक विश्वास वस्तुज्ञान बन जाता है। इसलिए प्रत्येक वस्तु. यह कह पाता है कि उसके निष्कर्ष मात्र सम्भाव्य सत्य ज्ञान में पहले से ही तत्सम्बंधी विश्वास निहित होता है। का उद्घाटन करते हैं। पूर्ण सत्य ज्नकी पकड़ में नहीं चंकि यह अनुमति इन्द्रियों की सीमित क्षमता से उत्पन्न है । वह केवल आंशिक सत्य का ही उद्घाटक है। तो
ता होती है, इसलिए इस ज्ञान का सत्य अंशव्यापी तथा
ती क्या दार्शनिक तर्क प्रणाली पूर्ण सत्य को उद्घाटक है। अंशकालिक होता है । सत्य का इस प्रकार से बाकलन नही। सच पंछा जाए, तो दर्शन सत्य का उद्घाटक है ही करना ही दर्शन का कार्य है। नही । वह तो विभिन्न प्रणालियों द्वारा उद्घाटित सत्य या सत्यों का आकलन करता है तथा उस सत्य को व्यक्त
___ अब हम धर्म के क्षेत्र में घुसें । धर्म सत्य के भी सस्य करने वाली भाषा को स्पष्टता और अस्पष्टता का विश्ले- यानी परम सत्य का अन्वेषक एवं उतारक है। स्वाभाविक षण करता हुआ अधिक से अधिक भाषागत स्पष्टता पर है कि सत्यान्वेषण अनुभूति की अपेक्षा रखें। अनुभूति भी जोर देता है । सत्य की खोज करना दर्शन का काम नहीं किसकी ! अपने ही होने की, अपने अस्तित्व की। अपने है । सत्य की खोज या तो सामान्य प्रत्यक्ष (कामनसेंस) अस्तित्व की अनुभूति ही सच्ची आस्था है। इसलिए करता है या विशिष्ट प्रत्यक्ष (विज्ञान) या धर्म या आस्था ही धर्म का मेरुदण्ड है। बास्था होती है। यह न अध्यात्म । सामान्य तथा विशिष्ट प्रत्यक्ष गुणात्मक रूप से कोई देता है और न दे सकता है। हां, बाहरी कोई एक ही धरातल पर होते हैं । उन का आधार इन्द्रियजन्य उपस्थिति उसके लिए निमित्त हो समती है, किन्तु उपाशान है। उन से ऐंद्रिक सत्य ही मिलता है, जिसकी दान कारण स्वानुभूति ही होती है, जो कर्म-क्षय या अपनी सीमाएं हैं और जिस का उल्लेख ऊपर किया जा भगवत उपासनाका फल हो सकती है। इस बास्थामें इन्द्रियों चुका है। धार्मिक अनुभूतियों का कैनवास अपेक्षाकृत की भी अपेक्षा नहीं होती और न इंद्रियजन्य वर्कप्रणाली अधिक व्यापक है, जिस का उल्लेख आगे किया जाएगा। की। आस्था इन्द्रियातीत तथा तकातीत स्वानुभूति है। सम्प्रति इतना ही कहना है, कि विश्वास वही होता है यह इन्द्रियों की अपेक्षा अधिक व्यापक सत्य का जहाँ सत्य की अनुभूति का क्षेत्र है। अब यह दूसरी बात उद्घाटन करती है जिसका आकलन इन्द्रियजन्य तर्कहै कि अनुभूति उगे कैसे! स्वतः उगे, दूसरे के प्रभाव से प्रणाली का दर्शन भी नहीं कर पाता । वह भी उसे "नेतिउगे या मात्र सूचना से उगने का आभास हो। बहरहाल, नेति" ही कह देता है, और उसे अनिर्वचनीय व्याति की । किसी न किसी मात्रा में अनुभूति का होना जरूरी है कोटि में रखकर एक भोर हट जाता है। इस प्रकार
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२०, पर्व १८, कि०३
धार्मिक आस्था स्वत: एक दर्शन है, सम्यग्दर्शन, जो सारे उघर धर्म विज्ञान को अपना शत्रु नहीं मानता क्यों बौद्धिक दर्शनों का नियामक और दृष्टा होता है। कि धर्म शास्ता विज्ञान की प्रविधि को भी जानता है और
उसके सापेक्ष महत्व को स्वीकारता है। वैज्ञानिक तर्क की सम्यग्दर्शन से ही फूटती है सम्यग्श्रद्धा, जो विराट
पूर्वमान्यताएं, स्वयंसिद्धियां खुद तर्क की उपज नहीं है। सत्य के प्रति व्यक्ति को समर्पित करने की प्रेरणा करती
उनका सत्यापन विज्ञान की परिधि से बाहर है । फिर भी. है। सम्यक्षता से ही व्यक्ति और व्यक्ति-समूह विराट
वे स्थापित सत्य हैं । आखिर उन की स्थापना का सोत सत्य की सन्निधि के हेतु धार्मिक अनुष्ठानादि के लिए
क्या है ! वह स्रोत निश्चित ही वैज्ञानिक तर्क से परे प्रेरित होता है । कहने का तात्पर्य यह, कि श्रद्धा आस्था
इन्द्रियातीत अनुभूति-जगत में निवास करता है। जहां सेकी ललक है जो व्यक्ति के चारित्र को कारण देती है
लेकर हम उन्हें इन्द्रिय-सत्यापन की चरखी पर चढ़ा कर और उस चारित्र को विराट सत्य के प्रतीक किसी भी
बार बार परखते हैं। यह परोक्ष सत्यापन हम केवल अपने. इष्ट-विन्दु की ओर उन्मुख कर देती है। श्रद्धा के द्वारा
चकित मन के संशय को मिटाने के लिए करते हैं। मन व्यक्ति की आस्था श्रद्धासद इष्ट से जुड़ जाती है और उस
चकित इसलिए है, कि हमें विश्वास ही नहीं हो पाता कि में से परम भक्ति का दर्शन बोलने लगता है । भक्ति में
ये स्थापित सत्य स्वतः स य कैसे हो गए और हम उन्हें आस्था और श्रद्धा का संगीत झकृत हो उठा है। आत्म
परतः सत्य स्थापित करने में लगे रहते हैं । किन्तु धार्मिक श्रद्धास्पद इष्ट में भाव विभोर तन्मय हो कर नाचने लगता
अनुभूतियुक्त मन इन स्वनः स्थापित सत्यों की पुनस्थापना है। वह मात्म-विस्मृति के द्वारा समाधि अवस्था की ओर
को निरर्थक व्यायाम मानता है, क्योकि उन का सत्यापन अग्रसर हो जाता है, जो कि धर्म का चरम साध्य है।
तो अंतःजान को प्रविधि से पहले ही, हो चुका था। मैं तो धर्म-दर्शन की प्रबिधि वैज्ञानिक प्रविधि से भिन्न है। कहंगा, कि जिन वैज्ञानिकों ने इन स्वसिद्धियों और धर्म का अनुभूति-जगत इन्द्रियो की सवेदना से पैदा नही पूर्वमान्यताओं को खोजा होगा वे उन क्षणों मे धर्म के शुद्ध होता । बल्कि उल्टी इन्द्रिय-सवेदना धामिक अनुभूतियो के धरातल पर उतर गए होगे और उन्होने उन्हें उसी घरामार्ग में बांधा है। उसे शून्य करने के बाद ही धर्म के क्षेत्र तल पर अंत ज्ञान की प्रविधि से सत्यापित भी कर लिया मे आगे बढ़ा जाता है। उस क्षेत्र की अनुभूतिया स्वतः होगा अतः ये स्वयंसिद्धियाँ और पूर्वमान्यताएं विज्ञान-जगत सत्यापित होती हैं। उस को प्रविधि अत: साक्षात्कार है को धर्म की ही देन कही जा सकती हैं। धर्म ने विज्ञान: जो इन्द्रिय साक्षाद से सर्वथा भिन्न है। वैज्ञानिक प्रविधि को स्वस्थ आधार प्रदान किया है। धार्मिक अनुभूति के विषय का सत्यापन नहीं कर सकती। अनुभूतियों का सिलसिला भीतर से बाहर की ओर धार्मिक अनुभूति-जगत मनोमय कोष से इतर विज्ञानमय चलता है, बाहर से भीतर की ओर नही। अंत:साक्षात्कार कोष, फिर उससे भी आगे आनन्दमय कोष मे स्थित है, हो उसकी प्रविधि है । जीने की जिजीविषा भीतर से ही जब कि विज्ञान की आगमन और निगमन प्रविधि मोमय उद्वेलित होती है जो इन्द्रियों की सतह पर आकर मात्र कोष से आगे यात्रा नहीं करती। वह मन की सतह पर भभूक पड़ती है। देखने को वात है, जब हम इन्द्रिय-मामा खड़े होकर ही गहन सागर की महराई का अंदाजा भर त्कार करते हैं, तो हम उसका मोत वाह्य को. मान नेते, लगाता है, जो अल्प,सत्य, अर्द सत्य या कभी कभी असत्य हैं। यदि उस समय हम इन्द्रियों के त्वक् मण्डल को, तक ठहरता है। इसलिए धर्म विज्ञान का विषय नही हो मस्तिष्कस्थित चेतना-केन्द्र से विदित कर दें, तो क्या.. सकता । विज्ञान की सतही दृष्टि में धर्म-चर्चा एक बड़ा वह साक्षादीकरण संवेदना से आगे चल माणा नहीं । धोखा है.फार है, क्योंकि वह विज्ञान की तर्कप्रणाली से फिर उस संवेदना. को यदि मस्तिष्कीय चेतना केन्द्र बकर संगत नहीं हो पाता । किन्तु विज्ञान का इस प्रकार का ले जाने दें, किन्तु अपनी ध्यान ख्यिा सेवनाको
देना बारम प्रवंचना के अतिरिक्त और कुछ नही। वासोन्मुखी न बने हैं, उसे बतलीकर, डोक्यात
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धर्म का मूलाधार : आत्ला या अंधास्था वह दिव-प्रत्यक्षीकरणं ज्ञान का रूप धारण कर सकेगा। अनेकांतिक है, क्योंकि वह दिक्काल की सीमा से परे अंत: नहीं। बार-यलि- हम किसी भौतिक तकनीक से ध्यान ज्ञान की व्यापक प्रविधि से प्राप्त है । उसकी दृष्टि निरपेक्ष क्रिया पर भी नियंत्रण सामने में सफल हो जाएं और है, दिक्काल की पहुच से दूर। इसलिए विज्ञान के ऐकारिमस्तिष्कीय तंतुओं के प्राण-प्रवाह को वाह्यान्मुखी बना तक सत्य की गरिमा इसी में सुरक्षित है कि वह धर्म के सके, लेकिन व्यक्ति इतना समर्थ है कि वह शरीर के अनेकान्तिक सत्य से महित रहे। एक और मनन्त विस्तार, आधार से सर्वथा मुक्त होकर समाधि की तुरीय अवस्था तो दूसरी और सान्त परिधि और उसका सीमित उपयोग। में दीक्षित हो जाए, तो क्या वह इन्द्रिय-स्रोत से आया जैसे विगंत में बहती हुई मुक्त बयार बायु- चक्की के पंख में हमा स्नायविक प्रवाह ज्ञान का रूप धारण कर सकेगा! फंस कर कुछ काल के लिए उपयोगी हो जाए और फिर इसका भी उत्तर नकार से ही होगा। तो इससे यह अनन्त आकाश मे मुक्त हो जाए। उसी प्रकार आस्था निष्कर्ष निकला कि समाधि-अवस्था का शुद्ध चैतन्य ही के मुक्त आकाश में चैतन्य की अनन्त आयामी ऊनी जब मास्तिष्क तंतुओं में संचरित होकर वाह्योन्मुख ध्यान राशि कुछ कान के लिए विज्ञान को किसी उपयोगी यंत्रसे इन्द्रियों के आखिरी विन्दु तक वद्युतिक चुंबकीय अत• विधि में फंस कर कुछ हो जाए या कर दे और फिर धारा के द्वारा प्रसरित हो जाता है, तभी और केवल तभी मुक्त हो कर स्वाधीन हो जाए । एवं विज्ञान धर्म का वाह्य उत्तेजन की संवेदना चल कर ज्ञान और धारणा के मुखापेक्षी है। धर्म के बिना वैनिक तकनीक सजनशील स्तर तक पहुंच पाती है। ज्ञान की भीतरी शर्त प्रमुख नहीं रह सकता। धर्म ही वैज्ञानिक मेधा को सृजनशीलता है। इस भीतरी शर्त पर वाह का कोई नियत्रण नहीं है, प्रदान करता है। दृष्टव्य है, यहां धर्म से मतलब सम्प्रदायबल्कि अंतरंग की ही वाह्य पर कृपा है कि वह स्वाधीन संगत क्रियाकाण्ड आडवर ही है। वह व्यक्ति भी धार्मिक चरित्र होते हुए भी अनादि से किसी अनजानी मजबूरी हो सकता है, और शायद वह अधिक होता भी है, जिस में फंसा हुआ शरीर रचना के जाल में बद्ध है। यही उस ने किमी मंदिर मस्जिद की शक्ल नही देखी है और जो का कर्म बंधन है। इस बंधन को आत्म काट फेंकना है सदैव पूर्ण निष्ठा से सत्य को समर्पित रहा है। धर्म का जब उसे भेद विज्ञान का सुअवसर प्राप्त हो जाता है और क्षेत्र सारी उपाधियों से मुक्त निरपेक्ष लोक है, जिस में वह आत्मचेतन हो कर वाह्य से निवृत्त हो अपने शुद्ध स्व. केवल विराट ईश्वर का शासन है। वह ही वहा है । उस रूप में दीक्षित हो जाता है । जब तक वह अबसर उदित के अतिरिक्त कुछ नही, परिपूर्ण अद्वैत सत् । नहीं होता, तब तक इन्द्रियो की प्रविधि जोते हुए उस पर सम्प्रदायो में, जैसा कि पहने कहा गया, अधविश्वास सवार रहती है और उसके द्वारा निकाले हुए निष्कर्षों को अधिक पलता है। धानिक प्रपो का नित्य पारायण, मात्र अपना कहती रहती है। बहरहाल, बस्तु स्थिति जो है सो सूचना है। शाब्दिक पूजा अर्चा क्रियाकाण्ड, कीर्तन सब है। धर्म-क्षेत्र की आस्था विज्ञान की अमूल्य धरोहर है वाह्य प्रेरित भावोद्वेग मात्र जगाना है और अपने को चाहे विज्ञान उस धरोहर के मूल्य को सराहे या न सराहे, धर्म से जोड़ने का बहाना भरना है। किन्तु यह सब क्योकि वह यूं ही सहजतः उपलब्ध हो गई है न! इसलिए वास्तविक धर्म-अनुभूति के बिना कोरा आडम्बर है और घर की मुर्गी बाल बराबर।
धर्म-विरूद भीड़वाद है। भीड़वाद धर्म का शत्रु होता है। विज्ञान का सत्य ऐकान्तिक सत्य है, क्योंकि वह वह धर्म नहीं, धर्माभास में पलता हुआ विश्वास जो दिक्काल-परिस्थिति के समीकरण पर आधारित है। उस संस्थागत धर्म-सम्प्रदाय के प्रतीकों, नारों गुरूओं, ग्रंथों की प्रविधि दिक्काल की अपेक्षा लेकर चलती है । इस आदि के प्रति श्रद्धा बन कर उमड़ पड़ता है वह केवल लिए उसका निष्कर्ष दिग काल के विशेष विन्दु की सीमा अंधविश्वास और अंधश्रद्धा होती है अंधविश्वास और से बंधा हुआ रहता है और उस का सत्यापन भी दिक्काल श्रद्धा दोनों धर्म और मानवता के लिए नुकसानदेह है। सापेक्ष स्थिति विशेष से ही होता है। धर्म का सत्य इसी अंधविश्वास पर यथाकषित धर्म-युद्ध, जिहाद मोड़
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२२ वर्ष
अनेकान्त
क्रुसेड छड़े जाते है और गहित नरसंहार होते रहे है । यह उस का दुरूपयोग जरूर करती है। इतिहास में ऐसा होता सब धर्म-भावना के ही विरूद्ध है और उसी धर्म की जड़ भी रहा है। भीड़वादी उन्माद में पड़ कर कोई धर्म परम खोदते हैं जिसकी ये जय बोलते हैं। मैं यह नहीं कहता मागल्य का वाहन नहीं करता। भीड़ सदैव ही अध कि पूजा, पर्चा, नमाज, रोजे, अथपारायण, र्कीतन आदि विश्वासों की वाहिका होती है। बुरी बातें हैं, किन्तु ये अच्छी और उपादेय तभी हैं जब
यह नही, कि अंधविश्वास और मदांधता केवल धर्म इन के पीछे वास्तविक धर्म-अनुभूति छिपी हो, सही रूप
के ही क्षेत्र में होती हो, वह धर्म के अतिरिक्त क्षेत्रों मे में ईश्वर या अल्लाह से जुड़ी आस्था बैठी हो और उसी
भी समान रूप से दग्गोचर होती है । मदांधता अपने लिए से सहजत. फटी हो । बिना आस्था और अनूभूति के ये
अच्छे अच्छे नारों का बहाना बढती रही है, जब जो मिल सब बुरी तो नहीं, लेकिन निरर्थक जरूर है । आस्था अधी
जाए । गजनी के महमुद को अपनी मदाधताजन्य लूटमार नहीं होती। उस मे ईश्वरीय प्रकाश उद्दीप्त होता है।
और हिंसा के लिए इस्लाम का बहाना मिल गया, किन्तु इसलिए आस्थाजनित पूजा अर्चा अधी नही होती और वह
उस के पूर्व हूणों शकों को ऐसा कोई धार्मिक बहाना नहीं व्यक्ति और समूह के लिए हितकर होती है। किन्तु विशेष
मिला तो भी वे वैसे ही क्रूर रहे। ईरान के अयातुल्लाह बात यह है कि आस्था व्यक्तिगत स्तर पर ही हुआ करती
खोमैनी को अपनी क्रूरता और हिंसा के लिए इस्लाम ने है, सम हस्तर पर नहीं । समूह मे आस्थाभास होता है।
मुखोटा दिया तो उसी देश के शाह को आधुनिक पूजीवाद इसलिए समूह के कधों पर चलने वाला धर्म अधा ही होता
से वैसी ही प्रेरणा मिली। यहाँ तक कि बौद्ध धर्म का है। सच्चा धर्म व्यक्ति ही पालता है, वह भी समूह या
अनुयायी चगेज खां और हलाक अहिंसा धर्म की जय भीड़-भावना से अलग हो कर । हाँ, अधिक से अधिक यह
बोलता हुआ इतिहास के क्रुरतम विजेताओ में गिना गया। हो सकता है कि समूह स्तर पर पाली गई धार्मिक क्रिया
ईसा प्रेम और करूणा की मूर्ति हुए, किन्तु उनके अनुयाकाण्ड का आधार अधविश्वास न हो, प्रबुद्ध विश्वास हो,
इयों को और कोई नही, उन्ही के उपदेशो मे न जाने लेकिन यह भी तभी हो पाता है जब धर्म का आस्था
कहां से और कैसे हिंसक क्रुसेड करने की प्रेरणा मिल सस्थागत धर्म के नियमो को सावधानी पूर्वक लागू करवाए
गई, तो सच पूंछो ।, मदांधता का कोई धर्म और ईमान और दीक्षित व्यक्तियों की सही ढग से परख हो। जिहाद
नहीं होता। बह तो मनुष्य की लिप्साओ और क्रूर हताऔर धर्म-युद्ध तो प्रायः उन्माद ही पैदा करते रहे हैं।
शानो की अभिव्यक्ति होती है । धर्म का इस से कोई पैगम्बर मुहम्मद के बाद जितनी जिहादे हुई वे सब की
लेना देना नही । मदांधता ने सस्थागत धर्म अथवा सम्प्रसब शुद्ध-रूपेण युद्धोन्माद थे। सिक्ख गुरू गोविंद सिंह के
दायो कों, सम्प्रदायों ने वास्तिविक धर्म को बदनाम किया बाद कोई भी धर्म-युद्ध युद्धोन्माद के अलावा और कुछ
है और शैतान ने ईश्वर का 'नाम ने ले कर अपना काम नहीं रहा । इसलिए धर्म-शास्ताओं को भी धर्म के नाम
बनाया है। यही आज तक का इतिहास बोलता है। पर युद्ध छेड़ना वाजिब नहीं है । और यदि वें देश-काल
वास्तविक धर्म की उपयोगिता अपनी जगह है । वह रही की मजबूरी के कारण कभी सशस्त्र युद्ध छेड़ते भी हैं तो वह उन्हीं तक सीमित रहना चाहिए, उसे परम्परा में
है और वह रहेगी। नहीं डालना चाहिए। वरना उनके अनुयाइयों की भीड़ राजकीय इण्टर कालेज राम नगर (नैनीताल)
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हिन्दी जैन-काव्य के अज्ञात कवि
डा. गंगाराम गग
हिन्दी का मध्यकालीन जैन-काव्य अपनी 'रीति'- महात्म्य की ढाल । त्रिलोक पूजा की प्रशस्ति के अनुसार विरोधात्मक प्रकृति तथा समृद्धि दोनों ही कारणों से वडा रामकृष्ण जयपुर निवासी दीपचन्द के पुत्र थे। ये उम्मेद महत्वपूर्ण है। किसी लोभ-लालच अथवा दबाव के कारण सिंह के शासनकाल मे शाहपुर गए। वहां से रामकृष्ण न लिखे जाने के कारण उसमे सहजता भी है। शोध- मालव देश के भडलापुर नगर मे गए । भड़लापुर नगर में विद्वानो द्वारा अनेक काव्य-कृतियां प्रकाश मे ला देने के उन्होने उस समय जिन पूजा और उत्सवों को बहुतायत पश्चात् भो ऐसे कवि कम नही होगे जिनकी काव्य-कृतियां बतलाई है। ब्रह्मचारी होने के कारण ये इतना घूमे आज भी प्रकाश नहीं देख पाई है। राजस्थान के प्राचीन नौकार माहात्म्य की 'ढाल' मे लेखक ने ऋषभदेव के जन-स्थल कामां और दीवान जी मन्दिर भरतपुर में प्राप्त वेराग्य को कथा एवं उनके पूर्वमवों का वृत्तान्त कहा है। पूर्णतः अज्ञात कवियो एव रचनाओं का परिचय इस परमार्थ जखड़ी में जन्म-जन्मांतरो के कष्टों से दु.खी कवि प्रकार है
मोक्ष का अभिलाषी है(१) वर्धमान-वर्द्धमान कृत 'बाहुबलि 'गस' एक या विधि इन माही जानें, परिवर्तन पूरे कीने । सुन्दर खण्ड काव्य है। प्रथ का प्रारम्भ सरस्वती और तिनकी बहु कष्ट कहानी, सो जानें केवल शानी। गणधर की वन्दना से हुआ है। आदिनाथ के दोनों पुत्रों ज्ञानी बिन दुष कोन जाने जगत बन में जो लह्यो। भरत और बाहुबलि का जन्म, दिग्विजय के प्रसंग में भरत जर मरन जम्मन रूप तीखन, त्रिविध दावानल दह्यो । का चक नगर में प्रविष्ट न हो पाना अपयश और कुल
जिन मत सरोवर पालकी, बैठि ताप बुझायहो। मर्यादा को ध्यान में रखते हुए बाहालि द्वारा भरत की। जिय मोस पुर की बाट बूझो, अब न बार लगाय हो। आधीनता स्वीकार न करना आदि सभी प्रसग मनोरम राम-दर्णन के बीसियों दोहे जैन मन्दिर बयाना हैं । बाहुबलि के मुष्टि-प्रहार में उनकी अद्भुत वीरता के (भरतपुर) के गुटके मे सगृहीत हैं। दर्शन होते हैं
(३) सूरति-जैन कवि 'सूरति' रीतिकालीन कवि निहर्च जाणो काल भरत जब आगे आये। सरति मिश्र से भिन्न हैं । सूरति की बारह खड़ी प्रसिद्ध मुष्टिकाल ही उठाय, बहोत मन में दु:ख पायो। हैं । जो विभिन्न मन्दिरो के गुटकों में देखने को मिलती इन्द्र सुदामा आय कै; पकरी भूदज आय । है। बारह खड़ी के ४० दोहों और ३६ छन्दों में सप्त जीवदान बकसो बाहुवलि, देओ भरत को काय । व्यसन, गुरु महिमा तथा सदाचार की चर्चा है। काव्य में
सुणों अति भाव सौ. २०॥ उद्बोधन के तीव्र स्वर हैं:पारस्परिक युद्ध से विरक्त भरत और बाहुबलि दोनों नाना नाता जगत में अब स्वारथ सब कोय । भाई तथा ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों बहिनें आदिनाथ के सम
आनि गाढ़ जा दिन पर, कोइ न संगाती होय । वशरण में पहुंचते हैं। समवशरण की रचना देखकर दोनों कोइ न सघाती होइन साथी, जिस दिन काल सतावै। भाई आदिनाथ के चरण-कमलों का ध्यान धरते हैं। सब परिवार आपने सुष को, तेरे काम न आवै।
२) राम कृष्ण 'विरक्त --इनकी तीन रचनाएं अब तू समझि समझि इस विरियां फिरि पाछे पछितावै । मिलती हैं। परमार्थ जखड़ी, त्रिलोक पूजा एवं नौकार सूरति समझि होय मत बौरा, फिरि यह दाव न पावै।
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(४) केशव पाण्डे – केसव पाण्डे की अद्यावधि प्राप्त रचना 'कलिजुग कथा' है। यह रचरा काष्ठा संघ के मुनि ज्ञानभूषण के उपदेश से लिखी गई है। रचना में ४४ छन्द हैं। कलिजुग में चरित्र पतन की स्थिति के बारे में कवि का कहना है
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कलि मैं लरि बुड़न है नारी, कलि मैं पूत लरै महतारी । कलि में सो हर बात है खूंटी, कलि में जिया पुरुष तं रूठी, कल मैं भांग तामाखू आई, कलि मैं गऊ कृपण दिषाइ । कलि मैं वृत्त विधान सब पोपे, क मैं पिता पुत्रकू रोये (2) बरदा पक्षी कवि सुन्दरदास से भिन्न जेव कवि 'सुन्दर' का 'दया रासो' एक छोटी रचना होते हुए भी इसलिए महत्वपूर्ण कि उसमे बाह्याचार की निंदा की गई है
चल में करि असनान, मसलि तन मैल उतारे । छापे तिलक बनाय, और गल माला धारं । तीरथ बढ़ती फिरं, गिर्न न रेन सवार । करन सूं परयौ नहि क्यों पाये भव पार |३|| कहा घरै सिर जटा, कहा नित कहा घर वह मौन, कहा निन पंच अगिन सार्धं कहा, घूम रहित कृपा हेत जाने न क्यों, शिव लहै
मूंड मुंडावे । भस्म लावे |
मनेकान्त
मब चार । गवार |४||
(६) मनोहर - पण्डित मनोहर के सर्वये तेरह पंथी मन्दिर पुरानी टोक के १०२ गुटके में प्राप्त हुए हैं । विभिन्न सर्वयों में जैनाचार की शिक्षा के अतिरिक्त कवि ने लोक व्यवहार के चित्र भी प्रस्तुत किए हैं।
भूष बूरी संसार भूष सब ही गुन पो भूष बुरी संसार, भूष सबको मुष जोवं । भूष बुरी संसार भूप आदर नहि पावै । भूष बुरी संमार, भूष कुल मान घटावं ।
ष गवोवै लाज पति, भूष न रा कार मैं। भन रहति 'मनोहर' इम कहै भूष बुरी संसार मैं।
मेक 'मनोहर' के नाम से ११ छद की 'सीष सुगुरु की' एवं १५ छंद की 'ग्मान पच्चीसी' दीवान जी मन्दिर, भरतपुर में उपलब्ध है। 'ज्ञान पच्चीसी' दीवान जी मन्दिर भरतपुर में उपलब्ध है। 'ज्ञान पच्चीसी' मे कवि ने सांसारिक कष्टों की जानकारी देते हुए ज्ञानोन्मुख होने
की प्रेरणा दी है
संकट बहु उदर मैं रे औंधे मुष लटकाय । नरक बस से दुध सहै रे, तब प्राणी पिछताय पिछताय प्राणी बीनने, औतार ह्यो जगदीश जी । संसार सूं कारण नहीं तुम तभी सेव करोस जी। जगदीस जी तब सार कीनी पामियों औतार रे । संसार मांही भमर मूल्यों, भाड़िया व्योपार रे । व्यापार करि जाग्यो नहि ये कारण प्राणी दुध सहै ।
कहै 'मनोहर' उदर मैं औंधे मुष लटक्यो रहे । ब्रह्म वे गोदास - दिगम्बर गच्छपति जसकीति के शिष्य ब्रहाचारी 'बेषु' बाकनीवाल गोत्रिय खंडेलवाल जैन थे। इन्होने 'आनन्दपुर' में पांच परवी की कथा' लिखी जिसमें पांच पर्व व्रत का माहात्म्य, तथा विधि-विधान बतलाया गया है। इसमें ८६ छंद है । कवि की दूसरी रचना 'पोपाबाई की कथा है जो संवत् १७७८ में लिखी गई। इसमें ५२ छदों में किसी राजा द्वारा न्याय अन्याय की स्थिति पर सम्यक विचार न किए जाने पर व्यंग्य किया गया है । भाषा का नमूना इस प्रकार है
सोभ बधी सब सहर की, सुष हुवे सब लोग । दांन मान महमा बंधी, हवो धर्म को जोग ॥४७॥ परजा सुख पायो धणू-बडयो धर्म हितकार दान पुन्य कीजे भला-जन्म सफल सुषकार ||४|| जिन दाम :- गोधा गोत्रीय वनबास जैन विनदास की रचना 'सुगुरु शतक' की प्रशस्ति के अनुसार कवि जयपुर के रहने वाले थे। अपने पिता और पितामह से धार्मिक मतभेद होने के कारण जयपुर से मत्स्य में आए। जिनदास के नाम से एक ५१० छद का बडा ग्रंथ 'जम्बू स्वामीराम' कामों के जैन मन्दिर में उपलब्ध है। परमेष्ठी द शारदा को प्रणाम करते हुए यह रचना दोहा चौपाई छन्दों में सरल भाषा में लिखी गई है । कवि के दोनों ग्रन्थों की भाषा परिनिषित ब्रजभाषा होने के कारण यह कवि 'ब्रह्म निदास' से मेल नहीं जाते -- मात तात सुत भ्रात को न तो जगत की राह । धर्म न तो एह सिव हैं, जित भावे तित जाव । जाते मन वच काय ते नमाने लोक धर्म न ताके जनन कु, कबहूं न दीर्ज ढोक (शेष पृ० ३१ पर)
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अनेकान्त
वर्ष । किरणYJ
वी. नि० सं० २५१२ वि० सं० २०४२
तू०-दिसम्बर १९८५
अनुकूलता-प्रतिकूलता
हरिकृष्ण दास 'हरि' जीवन में कुछ अनुकूल होता है, कुछ प्रतिकूल । मन चाहता है-सब अनुकूल ही अनुकूल हो। क्या यह संभव है ? क्यों नहीं? तनिक गहरे जाइये। सब में सब है । प्रत्येक अनुकूल भी है, प्रतिकूल भी। अनुकूलता के पीछे से प्रतिकूलता झांक रही होती है और प्रतिकूलता के पीछे से अनुकूलता। सोलहों आने अनुकूलता है न प्रतिकूलता। मन की दृष्टि दोषपूर्ण है। इसलिए मनचाहा नहीं होता। शुद्ध दृष्टि सब देख सकती है और सब नहीं भी देख सकती है। जब जो जितना चाहिए, वह देखती है और जब जो जितना नहीं चाहिए, नहीं देखती है। मन की दृष्टि शुद्ध होते ही मनचाहा हुआ धरा है। प्रतिकूलता में अनुकूलता है ही। तब सहज उसके दर्शन कर सकेंगे और फलतः कूलना छूट जायेगा। जरा और समझदारी से काम लेने पर अनुकलता में प्रतिकूलता के भी दर्शन कर सकेंगे; फलस्वरूप फूलने से बचे रहेंगे। स्मरण रहे-कूलना कमजोरी लाता है और फूलने से गुब्बारे की तरह फट कर रह जाना पड़ता है। इतना करने पर एक और बात भी होगी। तब आपको सहज समता सून्दरी के दर्शन होंगे और जो आपमें उसे प्रेम के दर्शन हए, तो वह आपको वर भी लेगी। फिर तो सहज नित्य-निरन्तर पौबारह ही रहेंगे। क्यों, क्या नहीं ? और चाहिए भी क्या?
-कूचा पातीराम, दिल्ली-६
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णायकुमारचरिउ की सूक्तियाँ और उनका अध्ययन
D. कस्तूरचना 'सुमन'
हिन्दी साहित्य में "बिहारी सतसई के सम्बन्ध में कर्णप्रिय हो । संक्षिप्त होना भी आवश्यक है। सूक्तियों में विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि सक्सई के दोहे देखने में संक्षिप्तीकरण तो होता ही है। इसके अतिरिक्त वे हितैषी, तो डोटेलते हैं किन्तु माविकके तीर के समान वे गंभीर मनोहारी और कर्णप्रिय भी होती हैं। अतः इस व्याख्या के सार करते है। प्रस्तुत सूक्तिरी सतसई के दोहों को बालोक में कहा जा सकता है कि वे "यथा नाम तथा 'बोना कहीं अधिक छोटी और अधिक अर्ष-गाम्भीर्य लिए गुण" कहावत को चरितार्थ करती हैं। हवे हैं। यदि हम यह कहें कि उनमें अर्थ-गाम्भीर्य बसा ही पुराणों में सूक्तियों को सुभाषित कहा गया है तथा दिखाई देता है, जैसा कि तत्वार्थ सूत्र के सूत्रों में तो कोई रन भी। सुभाषित शब्द की शाब्दिक व्युत्पत्ति की जाये - अतिशयोक्ति न होगी।
तो सुभाषित और सूक्ति दोनों के अर्थ ससान ही ज्ञात होते सूक्तियों में लोक हितैषी भावनाएं दिखाई देती हैं। है। बतः सुभाषित और सूक्ति दोनों अर्थ साम्य होने से विशिष्ट अनुभव, चिन्तन और मनन के उपरान्त ही ये सुभाषित-सूक्ति का पर्यायवाची कहा जा सकता है। 'रत्न' किसी पटना विशेष या कपन के निष्कर्ष रूप में कही गयी कहा जाना बहुमूल्यत्व का प्रतीक है। सूक्तियाँ है भी रत्न प्रतीत होती है। सममें शाश्वत् सत्य उद्घाटित किए गये के समान बहुमूल्य, क्योंकि वे अनुभव के बाद कही जाती हैं। संक्षेप में होगा उबका विशिष्ट गुण है। सूक्तियों से है, जो अनुभव बहुसमय एवं कष्ट साध्य होता है। पुराणों नवचेतना जागृत होती है, अस्थिरता स्थिरता में परिणत और चरित काव्यों में ऐसे रल भरे पड़े है किन्तु प्राप्त हो जाती है।
उन्हें ही होते हैं जो ऐसे काव्य-सागर में गोता लगाने में सूक्ति शब्द की शाब्दिक व्युत्पत्ति से भी यही अर्ष सिद्धहस्त हैं। प्रतिफलित होता है। सूक्ति-सु+उक्ति से निर्मित है। सुभाषितों को मन्त्र ही नहीं महामन्त्र भी कहा गया सुका बर्ष है सुष्ट बच्छा और उक्ति का अर्थ है कथन । है। परन्तु वे ऐसे मन्त्र हैं जिनका प्रयोग कवि ही कर इस प्रकार इस व्युत्पत्ति के अनुसार सूक्ति का अर्थ है सकता है। ऐसे मन्त्रों से दुर्जन पुरुष भूतादि ग्रहों के अच्छा कपन, और अच्छा कथन वही कहा जा सकता है समान प्रकोप को प्राप्त होते हैं। मत्रों और सुभाषितों के जिसका बोता पर प्रभाव पड़े निा नही रहे । श्रोता उसी प्रयोगकर्ता यद्यपि भिन्न-भिन्न हैं परन्तु अन्य तथ्यों में (जैसे कवन से प्रभावित होता है जो हितकारी, मनोहारी और मनोहारिता, कर्णप्रियता, हितैषीपना और सक्षिप्तीकरण)
१. सतसइया के दोहरे ज्यों माविक के नीर । : देखत में छोटे-लगें घाव करें गम्भीर ।। २. यथा महाध्य रत्नानां प्रसूतिमंकराकरात् ।
तथैव सूक्तरलानां प्रभवोऽस्मात्पुराणतः॥ 'सुर्दुलं यवन्यत्र चिरादपि सुभाषितम् । 'सुलभ स्वरसंग्राह्य तदिहास्ति पदे-पदे ॥
-प्राचार्य जिनसेन, महापुराण : २, ११६ और १२२
३. महापुराण पपपुराण और वीवर्धमानचरित में क्रमश:
७६२, १००० और १११ सूक्तिरन अब तक प्राप्त
हो चुके हैं। ४. सुभाषितमहामन्त्रान् प्रयुक्तान्कविमन्त्रिभिः । श्रुत्वा प्रकोपमायान्ति दुर्घहा इव दुर्जनाः ॥
-महापुराण : वही; १,८८ ५. जुआ खेलना मांस मद वेश्या व्यसन शिकार। .
चोरी पररमणी-रमन सातों व्यसन निवार ॥
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गायकुमारचरित की मुक्तियों और उनका अध्ययन
समानता होने से सुभाषित मन्त्र है या मंत्र के समान है। पुण्य और पाप का माहात्म्य (२, ६, १८), भाग्य की मन्त्र कहे जाने से यह अर्थ भी ध्वनित होता है कि सुभाषित प्रबलता (४, ५३), जैन धर्म की महत्ता (१), कर्मानुसार भी मन्त्रों के स न कष्टहारी है। इनके प्रयोग से अर्थात् सुख-दुख (१३), काम की वैचित्र्यता (२८), निर्मल चिन्तन-मनन से कष्ट वैसे ही दूर हो जाते हैं जैसे मंत्रों से स्वभाव.की महत्ता (७२) गुरु-शिष्य के बादर्श सम्बन्ध सर्पदंशादि पनित कष्ट ।
(२६), संसार की निस्सारता (४३), देह और स्नेह की .. संस्कृत साहित्य जैसे सूक्तियों का वृहद् भण्डार है, सार्थकता (४५, ४५) गुणी के प्रति सद्भाव (३२) विनय पैसे ही अपनश साहित्य भी सूक्तियों का खजाना है। की महत्ता (१६) और गुणग्रहण (६०) जैसे विषय के कवि पुष्पदन्त अपभ्रंश भाषा साहित्य के कवियों में श्रेष्ठ सम्बन्ध में कवि के व्यक्त विचार ष्टव्य है। ' कवि स्वयम्भू के उत्तरवर्ती कवियों में श्रेष्ठ कवि है। चित्त शद्धि को कवि ने प्रधानता दी है। वैपित से आपकी चार रचनाएं उपलब्ध ई-महापुराण, जसहर- शुद्ध वेश्या को भी कुलपुत्री कहते है (२५) िनारि स्वभाव परिउ, गायकुमारचरिउ, और वीरवर्द्धमान चरित। के तो वे पारखी रहे ज्ञात होते हैं। उन्होंने एक बोर वही इनमें 'णायकुमारचरित' की सूक्तियों से ही यह सहज ही उन्हें रत्न कहा है, दूसरी ओर यह भी कहा है कि मारियां अनुमान लगाया जा सकता है कि सूक्ति साहित्य में अपना हित नहीं जानतीं, प्रिय के दोषों को भी गुण मानेती उनका कितना योगदान रहा है।
है, स्वभाव से वे वक होती है (२४, २५, ५५)। __णायकुमारचरित की सूक्तियां न केवल कर्णप्रिय है जीव हितैषी भावनाओं को भी सूक्तियों में प्रस्तावित मपितु उनमे वैसा ही अर्थ गाम्भीर्य भरा है जैसा कि पुष्पित होने दिया है। सुख-दुख के कारणभूत संसार से संस्कृत भाषा के कवि भारवि की रचनाओं मे अर्थ-गौरव। छटने हेतु क्षणभंगुरता और नश्वरता का भी भली-बाति के शाश्वत् सत्य प्रकट करती हैं। उनमें ऐसे तथ्यों का बोध कराया गया है। यौवन नाशवान् है, मरण-सुचित समावेश है जो इहलौकिक और पारलौकिक सुखों की ओर है, अच्छी वस्तुमों का योग वियोममयी है (८,१२,१, जीवों को प्रेरित करते हैं। सूक्तियों के अन्तर में कवि का ४६,५१) और मरण काल में कोई शरण नहीं है (४., गहन अध्ययन और चिन्तन है। किंकर्तव्य विमूढावस्था में ४७, ४८) आदि विषयों का निरूपण कर स्वहित करते अन्धे की लाठी है।
के लिए सूक्तियों के माध्यम से कवि ने प्रेरणा प्रदान की कवि ने वृद्ध उसे नहीं माना जो जरा से जर्जरित, या है। जैनदर्शन में जैसे सप्त व्यसन मसेन्य बताये गये है। दन्तविहीन हैं अथवा जिनके केश श्वेत हो गये हैं। उनकी किञ्चित परिवर्तन के साथ सूक्तियों में भी सप्त संख्यक दृष्टि में तो वृद्ध वे हैं जो सज्जन और सुलक्षण होते हुये असेव्य कार्यों को त्याज्य बताकर उनके सेवन के फल को पास्त्र और कर्म संबंधी विषयों में प्रवीण है। इसी प्रकार भी दर्शाया है (२३, ३५) जिससे कि भयभीत होकर उन्होंने अधर्म और तीर्थ के स्वरूप के सम्बन्ध में. गहस्थ मनुष्य उनका सेवन न करे। उनके परिणाम आज भी बुरे धर्म कैसे धारण हो? क्षुद्र कौन ? आदि विषयों के समा. ही देखे जाते हैं। .. धानों में भी नवीन दृष्टि से चिन्तन किया है। संबंधित चन विकारोत्पादक है, धन हो तो निर्धनों का द्रो सूक्तियाँ क्रमशः १५, १७, ७५,३४, ५४ उनके मनन और पालन-पोषण करे किन्तु पापियों का नहीं.1 पापियों को चिन्तन की परिचायक हैं।
धन देना कोशं को सुखामा है।चन सम्बन्ध में कपिके अपने अनुभवों को भी कवि ने सक्तियों में उडेल विचारों में नवीनता है। पार्वती को प्रकट करने में दिया है। दूरदर्शिता है । संकेत है विसंगतियों से बचने का सफल हैं। दान संबंध में ये कपन बल्लेखनीय है (३०,११, एवं उनसे जूझने का पराजय प्राप्त होने पर धैर्य धारण ३८, ५६).. करने का। इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य हैं सूक्तियां क्रमशः संगति उन्नति के लिए आवश्यक है, कुसंगति नहीं "३,१०, ११, १२,४१ और ५७ ।
(१४, २२), शोभा किसकी किससे? विषयों की पोषक
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२८, बर्ष ३८, कि०४
अनेकान्त सूक्तियां भी इस चरित में उपलब्ध हैं (६१-६६)। इनमें -: रणायकुमारचरि उसे संकलित सूक्तियाँ :जीवन सुधार सम्बन्धी सकेतो का समावेश है।
१.सिद्धि उपहउ सीयलु होइ मेहु मनुष्य की, धन-पिपासा कैसे शान्त हो? इस हेतु सक्तियों में कहा गया है कि अर्थसिद्धि का कारण धर्म है।
२. भणु कि ण पुण्यवतहो कियउ
२, १४,६ धर्म से ही पापो का क्षय तथा नाना प्रकार की संपत्तियां
कहो ! पुण्यदान के लिए क्या नहीं किया जाता? होती है (१६, ५२, ५३)। वह धर्म कौन सा है ! ३.णिद्दइवहो सुहि वकइ वयणु २, १४, १० जिससे ऐमा होता है, इस प्रश के समाधान हेतु नीतियों
निर्दयी मनुष्य से मित्र भी मुंह फेर लेता है। मे अहिंसामयी धर्म को प्रधानता दी गयी है (४७)। इस
४. दइवेण कालसप्पु वि सयणु २, १४,१. प्रकार जीवन मे धर्म के महत्व का प्रतिपादन कर कवि ने
भाग्यवश काला नाग भी स्वजन बन जाता है। नीतियो की उपादेयता सिद्ध की है।
५. जसु जिणधम्मु मणे तहो, धर्म के सबंध में यह भी कटु सत्य है कि जाने बिना
दिणिजि विणेसुर वि णमंति णिरुत्तर २, पत्ता १३ वास्तविक रूप से धारण नहीं किया जा सकता है । जानना
जिसके मन मे जैनधर्म है उसे नित्य निश्चय से देव तभी संभव है जबकि जानने की शक्ति मोहावत न हो,
भी नमते हैं। क्योकि मोह ही वह है जो ज्ञानियों के ज्ञान को ढक देता
६. जह पावपसत्तहो सुहसहण, है, और मिथ्यादर्शन की ओर ले जाता है (७०-७१)।
दालिछिएण पावइ रयण
२,६,१७ अत: लगता है ऐसी सूक्तियों मे कवि की यही भावना
पापसक्त को दारिद्रय के कारण सुखदायी रत्न प्राप्त अन्तनिहित रही है कि लोग मोह से बचे।
नहीं होते। नीतिपूर्ण सूक्तियों में ऐसे तथ्यों को भी उद्घाटित
___७. जेण ण तव चरणू किउ दुहहरण, किया गया है जिनसे कि लोग सामान्य व्यवहार का
विसए ण मणु आउचिउ। कुशलता पूर्वक निर्वाह कर सकते है और परस्पर में प्रेम
अरुहि ण पुज्जियऊ, मलवज्जियउ, भाव बनाये रख सकते है। मनुष्यो के क्या कर्तव्य है ?
ते अप्पाणउ वंचिउ ।। २, पत्ता ६ (७), परिजनों को कैसे संतुष्ट किया जावे (२१), विघ्न के
जिसने दुखहारी तपश्चरण नहीं किया, विषयों से मन सम्बन्ध में योग्य परामर्श (२०) कुमत्री से क्यों बचें?
को नही खीचा एव दोष रहित अर्हन्त को नहीं पूजा (२७), लक्ष्मी लम्पटी और खल कैसे होते है ? (३३, ३६),
उसने अपने को ही ठगा है। क्षत्र का स्वभाव (३७), आदि ऐसे विषय हैं जिनसे जीबन
८.णव जोव्वणु ण सइ एइ जरा
२,४,५ सुखपूर्वक जीने के लिए निर्देश प्राप्त होता है। ऐसा भी
नव यौवन का नाश होता है और बुढ़ापा पाता है। कथन प्राप्त होता है कि तप यद्यपि कष्टमाध्य है परन्तु है
६. उप्पण्णहो दीसइ पुणु सरण
२, ४, ६, वह उपादेय ही हेय नही (५८)।
जो उत्पन्न हुआ है उमका पुनः मरण देखा जाता है। ___ अत: णयकुमारचरिउ की सूक्तियों के साक्ष्य में कहा कहा १०. अइसुंदररूवें रूउतहसइ
२,४ जा सकता है कि सूक्तियो के रूप मे जीवनोपयोग, कल्याण- एक सुन्दर रूप के आगे फीका पड़ जाता है। कारी दिशाबोधक बहुमूल्य सामग्री देकर कवि ने न केवल ११. वीरु वि संगामरंगि तसइ सूक्तिसाहित्य को समृद्ध किया है अपितु भारतीय बाङ्मय वीर पुरुष भी संग्राम में नास पाता है। की समृद्धि में भी चारचांद लगाये है।
१२. णियम णुसु अण्ण जि लोउ जिह । ऊपर कोष्ठको में दर्शायी गयी सूक्ति संख्याओ से णिणेहें दीसह पुणु वि तिह ॥ २,४,१ सम्बन्धित सूक्तियां मागे क्रमशः दी जा रही हैं। आशा है अपना प्रिय मनुष्य भी स्नेह के फीके पड़ने पर अन्य पाठकमाभान्वित होगे।
लोगों के समान साधारण दिखाई देने लगता है।
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जायकुमारचरित की सूक्तियों और उनका अध्ययन
१३. इह को सुस्थिउ को दुत्थियउ ।
अन्याय मे अर्जन, कठोर वचन, तथा दण्ड की कठोसयलुवि कम्मेण गलात्थिउ ॥
रता का त्याग करना चाहिए । इस संसार में कौन सुखी और कौन दुखी है ? सभा २४ अकुलीणु वि थीरयणु ल इज्जइ। कर्मों की विडम्बना में पड़े हैं।
अकुलीन को भी स्त्रीरल ले लेने में कोई दोष नहीं है। १४. छोइ समुज्जवेण सुसहाएं परिसिय छत्तहयगया। २५ सुद्धचित वेस वि कुल उत्ती। ३,७,१.. अलसंतेग पिसुण जण संगे णासइ राय सपया। शुद्धचित्त वेश्या भी कुलपुत्री है।
३, २, दुवई २६ जुत्ताजुत्तउ गुरुयणु जाणई। भली भांति उद्यम करने से एवं सन्मित्र के सहयोग से सिसु दिग्गउ पेसगु संमाणइ ।। ही छत्र, अश्व और हाथियो से सहित राज-सम्पत्ति योग्य अयोग्य गुरुजन जानते हैं, शिशु तो उनकी आज्ञा . उत्पन्न होती है तथा आलस्य करने और नीच पुरुषों का सम्मान ही करते हैं। की संगति से वह नष्ट हो जाती है।
२७ अबरु कुमतिमत हय सोतहो । १५ ते वुरढा जे सुवण सुलक्खरण सत्यकम्म विषएसु मइ विवरीय होइ सायत्तहो । वियक्खण ।
कुमत्री के मत्र से जिसके कान भर जाते हैं उस वृद्ध वे ही हैं जो सज्जन और सुलक्षण होते हुए स्वच्छन्द व्यक्ति की मति विपरीन हो जाती है। शास्त्र और कर्म सम्बन्धी विषयो में प्रवीण हो। २८ कामाउरहिं कि ण किर दिज्जइ।
किर दिज्ज। ३,१०,६ १६ विणए इदियजउ संपज्जइ।
कामातुर मनुष्य क्या नहीं दे सकते। विनय से इन्द्रियो पर विजय प्राप्त होती हैं। २६ महिलउ उ मुणति सहियत्तण, १७ दुट्ठदो परिपालणु जहिं किज्जइ
महिलई गुण सहाउ वकतणु ॥ ३, ११, ३ सो अहम्मु जहिं साहु वहिज्जइ ॥३२, १६ महिलाएं स्वयं अपने हित को नही जानती, टेढ़ापन अधर्म वह है जहां दुष्ट का परिपालन और साधु का महिलाओ का स्वाभाविक गुण है। वध किया जावे।
३. जासु अत्थु सो जाइ बियारहि। ३,११,१ १८ ण मिलइ रायलच्छि अहगारछो। ३, २, ११ जिसके धन है वही विवार को प्राप्त होता है। पापी को राजलक्ष्मी नहीं मिलती।
३. महिलई जडवण हैं धणुहीणह दीइ दुल्लहु ।३,१३ पत्ता १९ घरमें विणु ण अत्थु साहिज्जइ। १,२, १३ महिलाओ जड पुरुषो एवं हीन तथा दीन जनों को धर्म के बिना अर्थसिद्धि नहीं होती।
धन दुर्लभ है। २० उवसग्गु वि हवंतु णासिज्जइ। ३, ३, १० ३२ गुणवतउ माणुसु भल्ला ।
३,१३ पत्ता विघ्न उत्पन्न होते ही उसका विनाश करना उचित है। गुणवान् मनुष्य ही भला होता है। २१ परियणु दाणे संतोसिज्जइ।
३, ३,१० ३३ सिरि लंहडह णत्यि कारुण्णउ । ३, १५, ३ परिजनों को दान से संतुष्ट करे ।
लक्की लम्पटो के करुण नहीं होती। २२ मुयसु णिसीह कुपरिसह संगमु
३४ घरधम्मु धरिज्जउ जिग्गहेण । होइ तेण भीषण वसणागमु ॥३, ३, १३ लोहस्य पमाण परिग्गहेण ॥ कुपुरुषों की संगति छोड़ो, उससे भयंकर व्यसनों का लोभ-निग्रह और परिग्रहप्रमाण द्वारा ही गृहधर्म आगमन होता है।
धारण किया जाता है। २३ मज्जु विलासिरिणउ मिगमारण जूया रत्तणु । ३५ जो मइरा चक्सह आमिसु भक्खइ, गुरु कुदेवह लग्गह।
पणदूसणु मुयहि णिट्ठर वयणु दंड फरसत्तणु ॥३,३ पत्ता सोमाणउ गट्टउ, पह पन्भट्टउ, पाव भीस५ दुम्गह। मय, विलासिनी स्त्रिया, आखेट, यूतानुराग, धन का
४.२पत्ता
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३० वर्ष ३८, कि०४
अनेकान्त
जो मदिरा चखता है, मांस खाता है, कुगुरु-कुदेव मनुष्य राजमुकुट बांधकर सुख से वास करता है तो पूजता है वह मनुष्य नष्ट और पथभ्रष्ठ है, वह भीषण क्या उसका आयुबन्ध क्षीण नहीं होता। दुर्गति को प्राप्त होता है।
४६ रायत्तणु संझारउ जिह । १६ खलु णायण्णइ पिय जपियाई। ४,८,३ राज्यत्व संध्माराग के समान है। बल पुरुष प्रिय वाणी नहीं सुनता ।
५० णउ एंतु मिच्चु दुन्गे खलिउ । १७ बहें सहूं कि पिय जंपिएण,
आती हुयी मृत्यु को कोई दुर्ग नहीं रोक सकता। , सत्तचिहें कि पित्ते पिएण ॥ ४, ९, १० ५१ चिधैं खचिंधु ण ढंकियउ। ६,४,१.
मृद्ध मनुष्य के साथ प्रिय वचन बोलना उसी प्रकार ध्वजा-पताका से विनाश-चिह्न ढका नहीं जा सकता। भ्यर्थ है जैसे अग्नि में घृत डालना।
५२ भणु कि ण पाउ धम्में खविउ । ३८ कुत्थिय पर पोसणु कोससोसु,
कहो ! धर्म से किस पाप का क्षय नहीं होता? इहभवि परभवि तं करइ दोसु । ४,४,४ ५३ वर भवण जाण वाहण सयणासण णाण भोवणाणं च । पापियों का पोषण करना अपने धनकोश को सुखाना . वर जुबइ वत्थभूसण संपत्ति होइ धम्नेण ॥६,१०,१.२ है, वह इस भव में तथा परभव में दोष उत्पन्न उत्तम भवन, यान, वाहन, शयनासन, पान, भोजन, करता है।
सुन्दर युवती, तथा वस्त्र भूषणादि सम्पत्ति धर्म से ३६ को तं तरह अल हि बलु दुत्तरु। ५, ३, ३ होती है।
दुस्तर समुद्र के जल को कौन पार कर सकता है। ५४ अम्हारिस जे मणुय वराया। ४.को रक्खा बलवंतई सरणई।
५,३,४ किमि से जणणी सोणियय जाया ॥ ७,१५,१ बनवान के चंगुल में फंसे व्यक्ति की कौन रक्षा कर जो क्षुद्र हैं वे माता के रक्त से उत्पन्न कृमि मात्र हैं। सकता है।
५५ महिलउ पियदोसु वि गुण मुणति। ८, १, ११
५,६,७ महिलाएं अपने प्रिय के दोषों को भी गुण मानती हैं। जानकारी के अनुसार ही अनुष्ठान किया जाता है। ५६ विण सोहगों कि करइ वण्णु। ८, १, १२ ४२ हो कि सग्गे खव संसग्गें ।
५, ११,१ बिना सौभाग्य के वर्ण क्या कर सकता है। हाय ! उस स्वर्ग से क्या जिसका संसर्ग अयशाली है। ५७ गयणइं लग्गति ण विप्पिएण । ११ कि सोहगें पुणरवि भरें। ५, ११,६ अप्रिय से नेत्र नहीं मिलते ।
उस सौभाग्य से क्या जा फिर भग्न हो जाता है। ५८ दुक्खु वि चंगउ सुत कएण। ८, १३, ७ ४ किणेहें वढिय सिविणेहें। ५, ११, १० सुतप करने से दुख भी हो तो भी भला है। उस स्नेह से क्या जो स्वप्नेच्छाओं का बर्सक है।
५६ धणु खीणु वि विलिय पोसणेण, ४५ कि देहें जीविय संदेहें।
५, ११, १०
मरण वि चंगउ सण्यासणेण ॥ ८, १३, ८ उस देह से क्या जिसमें सदैव जीवन का सन्देह बना
निर्धनों के पालन-पोषण में धन-व्यय तथा सन्यासरहता है।
पूर्वक मरण होना अच्छा है। ४६ उन्माउं चत्तसारु संसार
५, ११, ११ ६ सयणत्तणू सज्जणगुणगहेण । - संसार सारहीन और तुच्छ है।
पोरिसु सरणाइय रक्खणेण ॥ ४७ कहिमि मरण दिण उम्वरह। ६,४,३
सज्जनों के गुणग्रहण से स्वजनत्व तथा शरणामतों मरण के दिन कहीं भी रक्षा नहीं हो सकती।
रक्षण से पौरुष सार्थक होता है। ४० सुह रायपट्टबंधे वसइ कि बाउणि बंधणु णउतछसइ। ६१ सोहइ गरवर सच्चए वायए ।
१४ मनुष्य सत्यवाणी से शोभता है।
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गायकुमारचरित की सूक्तियां और उनका अध्ययन
५
१२ सोहह कइयण कहए सुबदए । ८३,२ ७. मोहें गाणु हंतु किम्जह । कवि जन सुविरचित कथा से शोभते हैं।
होते हुए भी शान मोह से ढक जाता है। ६. सोहह मुणिवरिदु मण सुद्धिए । ६, ३, ३ ७१ मोहें पसरइ मिच्छादसणु । मुनिवर मन की शुद्धि से शोभते हैं।
मोह से मिथ्यादर्शन का प्रसार होता है। . ६४ सोहह विढउ सपरियण रिदिए।
७२ जिम्मलु कि परवहरे डिय। ..५ वैभव परिजनों की ऋद्धि से शोभता है।
जो निर्मल स्वभावी है वे दूसरों के प्रति बैरभाव के ६५ सोहइ माणुसु गुण संपत्तिए ।
वशीभूत कैसे हो सकते हैं ? मनुष्य गुण रूपी संपत्ति से शोभता है। ६६ सोहा कज्जारंभ समत्तिए।
६,३,६ ७२ मयण अणाइ अणंतु अमाणु वि। १,११, कार्यारम्भ कार्य की समाप्ति से शोभता है।
आकाश अनादि अनन्त और असीम है ? ६७ सोहह सहदु सुपोरिस राहए । ६,३,७ ७४ धम्मु अहिमा परम जए।
६,१३ पत्ता सुभट पौरुष के तेज से शोभता है।
अहिंसा धर्म ही श्रेष्ठ है। 1. सोहा वह बहुयए धवलच्छिए।
६.८ ७५ तित्थई रिसि ठाणाई हवित्तह। , १३ पत्ता पर की शोभा उसकी धवलाक्षी वधू से है।
तीर्थ वे हैं जहाँ मुनीन्द्र का वास रहा है। . १. लोहा महिरुह कुसुमिय साहए। ६.३,७ वृक्ष फूली हुई शाखाओं से शोमता है।
-जनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी (राज.)
। हा
(पृ. २४ का शेषांश) तिलक आदि लगाय के, बहत परिगह भेद ! सम्मेद शिखर महात्म्य लिखा। सम्मेद शिखर के विभिन्न सो कबहूं राखे नहीं, तीन काल निखेद ! कुटों-अविचल, प्रभास, निर्जरा आदि का वर्णन २१ सौ अब इस दूखम काल में, सां गुरु दीसे नाहिं ! में है। इसकी भाषा साधारण बज हैतिन बिन और गुरु नहीं, नमैं सु सम्यक्नाह !
सज ऐरावत इन्द्र बाइयो
ले सुमेर प्रमुक पापियो सर्व सुखराय:-बनारसी दास के पुत्र सर्व सुख
एक हजार वसुकलस इलाय राय जहानाबाद से शकूराबाद में आ बसे थे! यहा इन्होने
जिनवर को अभिषेक कराये ॥६॥ पदमावती पुरवाल गोत्रीय जैन 'लाल जी' के निवेदन पर
शान्तिनाथ अभिधान कराय समवसरण पूजा की रचना की! ग्रन्थ रचना काल माघ
मात पिताकु सोप्यो बाय । ८ संवत १८३४ है। भासा सरल व बोधगम्य है।
ताडव करि स्वर्ग कुगये जय पन्ध कुटी सोमै सुतीन जय वापर कमल रची
इन्द्रादिक मन हर्षित भये ॥१०॥ नवीन जय तापर प्रतिमा एक जानि, श्री सिद्ध रुपतनी
उक्त कवियो की विविध रचनाए मध्यकालीन हिन्दी बखानि जय तीने छ। सोम महान जय चमर मिले आनन्द
कान्य की नई दिशा का स्पष्ट संकेत है जिसको महत्व खान: ४८
मिलना मब अनिवार्य हो रहा है। १. लाल बन्द :-यह लोहाचार्य मट्टरक जगत्कीति केबिष्य थे। इन्होने बार्या चौपाई दोहा आदि छंदों में
११० ए, रन्जीत नगर भरतपुर ३२१००२
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जैन धर्म में ईश्वर की अवधारणा
कु० मीनाक्षी शर्मा
वर्शन क्या है-याकरणके अनुमार दर्शन शब्द "दृश" में विश्वास रखता है । जहाँ तक दूसरे अर्थ का प्रश्न है इस घात से बना है जिसका अर्थ है देखना । वास्तव में दर्शन मत के विषय में कोई दो विचार नहीं हैं कि जैन धर्म वेदों शब्द का अर्थ है रहस्य का उद्घाटन अथवा प्रत्यक्षीकरण। की प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करता। इसका कारण दर्शन का सम्बन्ध जीवन तथा अनुभव दोनों के साथ है। यह है कि जैनो के अपने आचार्य मुनि और धार्मिक ग्रन्थ जीवन का रहस्य आचार शास्त्र के अन्तर्गत है और अनु- है जिनमें अकाट्य दार्शनिक सिद्धान्त विद्यमान हैं। जैनों की भव का रहस्य तत्वज्ञान के अन्तर्गत । दर्शन मर्त तथा यह धारणा है कि उनके धर्म ग्रन्थों में वास्तविक ज्ञान निहित अमर्त दोनों ही प्रकार के पदार्थो का होता है। उपनिषदों है। अतः वे वेदों को प्रमाण न मानकर अपने धर्म ग्रन्थों में आत्मा को भी दर्शन का विषय बतलाया गया है । दर्शन की प्रामाणिकता को मानते हैं, जो युक्तिसंगत ही है। द्वारा परम ब्रह्म का साक्षात्कार किया जाता है। दर्शन के नास्तिक शब्द का तृतीय अर्थ ईश्वर को न मानना द्वारा आत्मा तथा ब्रह्म के रहस्य का उद्घाटन किया जाता बतलाया गया है क्योंकि नास्तिक शब्द का प्रचलित अर्थ है। भारत मे धर्म और दर्शन दोनो का एक ही उद्देश्य अनीश्वरवादी ही है। जैन धर्म को अनीश्वरवादी रहा है और वह है सांसारिक अभ्युदय और मोध की मानना अप्रामाणिक तथा अदार्शनिक बात होगी, क्योंकि प्राप्ति।
जैनधर्म में केवल व्यक्ति ईश्वर को अस्वीकार किया गया है, बनभेव-दर्शन को दो भागोमे विभक्त किया गया ईश्वरत्व को नही यहां अनंतो सिद्धात्माएं ईश्वररूप में है-१. आस्तिक दर्शन तथा २. नास्तिक दर्शन । जो दर्शन स्वीकृत है। वेदों में विश्वास रखते है तथा ईश्वर की सत्ता को मानते सही दृष्टि से देखा जाये तो जैन अनीश्वरवाद वास्तव है वे आस्तिक दर्शन कहलाते है और जो वेदों की प्रामा- में दार्शनिक अनीश्वरवाद है, क्योंकि उसमें सृष्टिकर्ता णिकता में विश्वास रखते हैं तथा ईश्वर की सत्ता को ईश्वर की सत्ता का गहन विश्लेषण किया गया है और स्वीकार नहीं करते वे नास्तिक दर्शन कहलाते है। आस्तिक उन दार्शनिकों के तर्कों का व्यवस्थित रूप से खण्डन किया दर्शन के अन्तर्गत षड्दर्शन-वैशेषिक दर्शन, न्याय दर्शन, गया है, जिन्होने ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के सांख्य दर्शन, योग दर्शन, पूर्व मीमासा दर्शन तया उत्तर प्रयत्न किये हैं। जैन धर्म में ईश्वर शब्द का प्रयोग जीव मीमासा दर्शन- की गणना की जाती है और नास्तिक के उच्चस्तरीय अस्तित्व के अर्थ में किया गया है। जनदर्शन के अन्तर्गत चार्वाक दर्शन, जैन दर्शन एव बौद्ध दर्शन दर्शन के अनुसार मुक्त आत्माये विश्व के सर्वोच्च स्थान की गणणा की जाती है।
पर पहुंच जाती हैं। ये परिपूर्ण आत्माये होती हैं, इसलिए यद्यपि जैन दर्शन को नास्तिक दर्शनो के अन्तर्गत रखा इनका पतन नही होता इसी कारण तीर्थकर का स्थान जाता है किन्तु यह बात सत्य नही है। भारतीय ईश्वर से ऊंचा माना गया है। तीर्थकर का स्थान प्राप्त परम्परा में नास्तिक शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में हमा करना ही जीवन का परम लक्ष्य है मौक तीर्थकर मानवता है-पुनजन्म मे अविश्वास, वेद प्रामाण्य से अविश्वास तथा का सर्वोत्कृष्ट माधार है। ईश्वर में अविश्वास । इनमे से प्रथम अर्थ में जैन धर्म जैन दर्शन आस्तिक दर्शनों की भांति सृष्टि के नास्तिक नही क्योंकि यह धर्म पुनर्जन्म तथा कर्म के सिद्धान्त निर्माता एवं नियता किसी सर्व शक्तिमान ईश्वर में विश्
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जैन धर्म में विर की अवधारणा
३३
पास नहीं करता। जैन मतानुसार इस सष्टि का न तो कोई यथा-ईश्वरः पर्जन्यो वष्टोः (ऐत. १/१९)१ आदि है, न अंत है। प्रत्येक वस्तुका अनादि काल से अस्तित्व तस्येश्वरः पूजा पापीयसो भवितोः (शतपथ है । अतः उनकी उत्पत्ति को सिद्ध करने के लिए किसी
५/१/१/०) सृष्टिकर्ता की आवश्कता नही है । आचार्य जिनसेन पूछते
(अग्नि) स हैनमीश्वरः सपुत्र सपशुं प्रदग्धोः है। "यदि ईश्वर ने इस सृष्टि का निर्माण किया तो पहले
(शतपथ १२/५/१/१५) वह कहां था? यदि वह दिक् में नही था तो फिर उसने
अष्टाहायी और महाभाष्य में आये हुए ईश्वर शब्द सृष्टि का निर्माण कहां किया? एक निराकार निद्रव्य भी ऐसे ही लौकिक अर्यों के द्योतक हैं। ईश्वर द्रव्यमय विश्व का निर्माण कैसे कर सकता है? ईश्वर शब्द केवल स्वाभी, राजा या शासक के अर्थ यदि द्रव्य का पहले से अस्तित्व रहा है, तो फिर विश्व को में प्रयुक्त हुआ है और उसका परमेश्वर के अर्थ से कुछ अनादि मानने में क्या हर्ज है? यदि सृष्टि निर्माता का भी सम्बन्ध नहीं है। पाणिनीय सूत्रो में भी ईश्वर शब्द निर्माण किसी ने नहीं किया है, तो फिर विश्व का स्वतः का प्रयोग स्वामी के अर्थ में हुआ है। भाष्यकार पतंजलि अस्तित्व मानने में क्या हर्ज है ?" आगे वह कहते है : ने ईश्वर शब्द राजा के अर्थ में प्रयुक्त किया है। "क्या ईश्वर स्वतः पूर्ण है ? यदि है, तो उसे इस विश्व का श्री गोपाल शास्त्री दर्शन केसरी, काशी विद्यापीठ निर्माण करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। यदि नही का मत है कि ईश्वर शब्द का प्रयोग परमेश्वर के अर्थ में है, तो एक साधारण कुम्भकार की तरह वह इस कार्य के इधर आकर बहत अर्वाचीन समय से संस्कृत साहित्य में लिये अयोग्य होगा, क्योंकि स्वीकृत परिकल्पना के अनुसार प्रयुक्त पाया जाता है। एक परिपूर्ण सत्ता ही इस कार्य को कर सकती है।" उक्त वास्तविकता के अनुसार जैन धर्म को अनीश्वर___ "ऐश्वर्य" शब्द की रचना संस्कृत की मल धात बादी कहना सर्वथा अज्ञानता ही है, क्योंकि जैन धर्म में "ईश" (एश्वर्य) से हुई और इस शब्द का प्रयोग सदा इन सभी लौकिक शक्तियो की सत्ता (षड् द्रव्यो और सांसारिक वैभव-रूपया पैमा, मकान, जानवर, नौकर- उनकी विभाव परिणतियो के रूप में स्वीकार की गई है) चाकर आदि उपयोग की सामग्री या आधिपत्य के लिये जहां तक परमात्मा की सत्ता का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में ही होता है। अत: ईश्वर वही कहलाता है जो लौकिक भी जैन धर्म सबसे आगे है। जब अ य दार्शनिकों में कई ऐश्वर्य से मुक्त हो। कोष में भी जहां ईश्वर के नाम गिन- दार्शनिकों ने परमात्मा को मानने तक से इंकार कर दिया वाये हैं, ईश्वर शब्द से लौकिक ऐश्वर्य सम्पन्नता का ही है, जैन धर्म मूक नही, अनेकों अनत परमात्माओं को बोध होता है, परमेश्वर या परमात्मा का नही। स्वीकार करता है। यथा-राजाऽधिपः पतिः स्वामी नाथः परिवृढः प्रभुः । राग द्वेष आदिक अनेकों वैभाविक परिणतियों से
ईश्वरो विभुरीशानो भर्तेन्द्र इन ईशिता ॥ (धनजय) मलिन आत्मा जब अपने पुरूषार्थ द्वारा वैभाविक परिण
इसके अतिरिक्त मुख्य बात यह भी है कि जिस प्रकार तियों को अपने से पुरक कर देता है तब परम (उत्तमलोक में ईश्वर की व्याख्या का प्रचलन चल पड़ा है वैसी श्रेष्ठ) रूप में आ जाता है तब परमात्मा कहलाने लगता व्याख्या प्राचीनतम साहित्य वेदों तक मे भी कही उपलब्ध है। ऐसी अनत आलाएँ है, जिन्होने इस रूप को प्रात्त कर नही होती । और तो क्या कोई वेद ऐसा नही है जिसमे लिया है इस प्रकार इस धर्म मे अनेकानेक परमात्माओं की ईश्वर शब्द तक दृष्टिगोचर होता हो।
सत्ता सिद्ध है। हा, चूकि रचना करना, कर्मों का फल ___अन्य ग्रन्थों में जहां यदा कदा ईश या ईश्वर शब्द देना, रक्षा करना आदि कार्य शरीरधारी के धर्म है और का प्रयोग मिलता है वह भी भौतिक शक्तियो के अधि. राग द्वेष, इच्छा प्रयत्न दि के आधीन है । अत: जैन धर्म ष्ठाता रूपों का ही संकेत देता है, परमात्मा वाचक पद मे परमात्मा का इन सब कार्यों से दूर रखा गया है वस्तेत: का नही।
वह परमात्मा कैसा, जिसमे ये सब व्याधिया हो । अर्थात
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३४ वर्ष १८०४
न च क्रीडा विभोस्तस्य वालिशेष्वेव वर्जनात् । सप्तश्च भवेत्तप्ति कीडया कर्तुमुद्यतः ॥ स्वैराचार स्वभावों पिनेश्वरस्यैश्थनितः । अप्यंस्मदादिभि द्वेष्य सर्वोत्कर्षत्रतः कुनः ॥ - वादीभसिंह सूरि क्षत्रचूडामणि- ७ / २३-२७१ कुछ लोगों का कथन है कि परमात्मा राग द्वेप इच्चा आदि से रहित होकर भी कोटा के रूप में सृष्टि का निर्माण करता है। पर यह बात सर्वधा अटपटी सी ही लगती है क्योंकि कोटा रूपी प्रवृत्ति तो वासकों और असंतुष्ट व्यक्तियों में ही देखी जाती है। वे संतोष के निमित्त क्रीडा का उपक्रम करते हैं। पूर्ण संतुष्ट और इच्छारहित परमात्मा
सृष्टिकर्तव्य आदि कार्यं सम्भव नहीं । यदि कहा जाय कि परमात्मा बिना ही इच्छा के स्वछन्द प्रवृत्ति करता है तब उसकी प्रभुता की हानि होती है स्वेच्छाचारिता तो साधारण जनों में भी घृणास्पद समझी जाती है। वह सर्वोत्कृष्ट, शुद्ध, निर्विकार और निर्विकल्प परमात्मा मे कैसे सभत्र हो सकती है । इसलिये पर निर्माण आदि रूप स्वछन्द प्रवृत्ति करने वाले परमात्मा मे नही हो सकता । ऐसी जैन धर्म की मान्यता है।
अनेकान्स
प्रसिद्ध विद्वान श्री गंगा प्रसाद के शब्दों मे, "ईश्वर में इच्छा बताना ईश्वर से इंकार करना है । अत यह मिड है कि न तो ईश्वर के स्वभाव से सृष्टि उत्पन्न हो सकते है और न यह सृष्टि उसकी द ही परिणाम है और न उसकी क्रीडा मात्र ही है ।"
उक्त मान्यता ही जैन आगम की है। दग सम्बन्ध मेकुठ प्रसिद्ध विद्वानों के निर्णय भी इसी प्रकार है। "जैनियो का निरीश्वरवाद इतना उदार और क है कि हमारे जैसे धनी तथा ईश्वरवादी के लिए यह ईश्वरवाद हो है । कई दृष्टियों से उनसे ऊपर उठ जाता है। वेद यदि एक बाद है तो जैन धर्मान्तवाद है। उसके अनुसार प्रत्येक जीव भिन्न भिन्न है । अनत जीव हैं और ईश्वर की जो व्याख्या हम सर्वगुणमल, मज्ञानी, परमानन्द के रूप में करते है, जैन म से ऐसे अनेको ईश्वर हैं।
"यहां पर हम जन धर्म के नहीं करेंगे। हमने
स्वाद्वाद या रानगंगीनय बहुत ही सक्षेप में उसके
निरीश्वरवाद का वर्णन किया है। हमारे ऐसे ईश्वरवादी साथ ही अद्वैतवादी के लिये इसमें अनेक दोष दिख पड़े, और इस निरीश्वरवाद में सब कुछ इतना सुन्दर है कि एमको कुछ शिकायत नहीं होनी चाहिये जीव की ऐसी व्याख्या से हमारा परमात्मा राग-द्वेष भरी सृष्टि को बनाने की जिम्मेदारी से बच गया । निर्माण से "शून्य" का आभाव समाप्त हो गया और पश्चिमी नास्तिकों की तरह हम भौतिक सुख के बंधन में ही नहीं पड़े रहे। जैनी अनीश्वरवाद इतना तर्कपूर्ण है कि उसका सहसा खंडन करना कठिन है और ईश्वर भक्त के लिये जैनी " वीतराग" मूर्तिमान मिलते हैं ।""
"ईश्वर अशरीर है, इसीलिये वेदना, क्षुधा, तृष्णा, इच्छा आदि ईश्वर में नहीं है। ईश्वर शुद्ध ज्ञान स्वरूप है ज्ञान ही ईश्वर की क्रिया है।"
"ईश्वर को सभी वस्तुओं का स्वाभाविक ज्ञान है। आत्म-मनन के अतिरिक्त ईश्वर का और कोई कार्य नहीं है । यदि कोई कार्य माना जायेगा तो ईश्वर से भिन्न उसका लक्ष्य या उद्देश्य भी माना जायेगा। इससे ईश्वर में परिमिता दोष आ जायेगा । इस अंश में अरस्तु को ईश्वर जैनो के श्वर से मिलता है।
सारांश यह
जैन धर्म दरही अनेकानेक अवाध्य हेतुओं से परमात्मा को सृष्टि-निर्माता या कर्मफल दाता नहीं मानता। यदि विचारपूर्ण और निष्पक्ष दृष्टि से देखा जाये तो इम धर्म में आत्माको परमात्मा जैसे परम पद को प्राप्त कराने का मार्ग प्रशस्त है। अनेकानेक आत्माएं परम पद को प्राप्त हैं तथा भविष्य में भी अनेकों को पर मात्मा होने का मार्ग प्रशस्त है। इस प्रकार यह धर्मं एक हो नहीं तु अनेक परमात्माओं को स्वीकार करता है, अत: इसे परमात्मावादी अथवा जन साधारण की प्रचलित भाषा में ईश्वर वादी नहीं, वरन् परम ईश्वरवादी ही समझना चाहिए ।
इस सम्बन्ध में श्री सुमेरुचन्द्र दिवाकर के विचार उल्लेखनीय है-
"जैन दार्शनिकों ने परमात्मा पद प्रत्येक प्राणी के लिए आरनजागरण द्वारा सरलतापूर्वक प्रायव्य बतलाया है। यहां ईश्वर का पद एक व्यक्ति विशेष के लिए सर्वदा
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जैन धर्म में ईश्वर की अवधारणा
३५
सुरक्षित नहीं रखा गया है। अनन्त आत्माओं ने पूर्णतया सिद्धान्तों से समानता रखता है। जैन धर्म ने विज्ञान के आत्मा को विकसित करके परमात्मपद को प्राप्त किया है उन सभी प्रमुख सिद्धान्तों का विस्तृत वर्णन किया है। तथा भविष्य में प्राप्त करती रहेगी। सच्ची साधनाओं जैसे कि पदार्थ विद्या, प्राणीशास्त्र, मनोविज्ञान और काल' वाली आत्माओं को कौन रोक सकता है? वास्तविक गति, स्थिति, आकाश एवं तत्वानुसंधान । श्री जगदीशप्रयत्लशुन्य, दुर्बल, अपवित्र आत्माओ को किसी विशिष्ट चन्द्र वसु ने वनस्पति में जीवन के अस्तित्व सिद्ध कर जैनशक्ति की कृपा द्वारा मुक्ति में प्रविष्ट नही करवाया जा धर्म के पवित्र धर्मशास्त्र भगवती-सूत्र के बनस्पति सकता । जैन दर्शन के ईश्वरवाद की महत्ता को हृदयंगम कायिक जीवों के चेतन तत्व को प्रमाणित किया है।" करते हुए एक उदारचेता विद्वान ने कहा था-"यदि एक क्या जैन धर्म किन्हीं देवताओं में विश्वास करता है? ईश्वर मानने के कारण किसी दर्शन को आस्तक संज्ञा दी जैन धर्म के अनुसार वैदिक धर्म के याज्ञिक कर्म-काण्ड जा सकती है, तो अनन्त आत्माओं के लिए मुक्ति का द्वार को व्यर्थ बत नाया गया है और देव-पूजा के लिए इसमें उन्मुक्त करने वाले जैन दर्शन मे अनन्त गुणित आस्तिकता कोई स्थान नहीं है। गृहस्थों के लिए यह विधान था कि स्वीकार करना न्याय प्राप्त होगा।"
वे पंच-परमेष्ठी की पूजा तथा उन्हें नमस्कार करें। अहता, जैन धर्म ने संसार को परीक्षा दृष्टि दी है और सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु पंच परमेष्ठी के अन्र्तगत प्रमाण-नय, स्याद्वाद प्रादि विभिन्न पहलुओं से वास्तविकता माने गये। अपने व्यक्तित्व का सर्वोच्च विकास करने वाले की परख के साधन उपलब्ध कराये हैं । इस धर्म में अध जीवन मुक्त महात्मा अहत कहलाते हैं । तीर्थकर इसी श्रद्धा को स्थान नहीं।
कोटि मे आते है । मुक्त पुरूष सिद्ध कहलाते हैं । यही पंच श्रद्धा चाहे लौकिक जन से सम्बन्धित हो अथवा परमेष्ठी जैन धर्म के देवता कहे जा सकते हैं। अलौकिक परमेश्वर से सम्बन्धित हो । दोनो के ही निर्णय जैन धर्म मे पच परमेष्ठी की पूजा का विधान है। में जैन धर्म के स्यावाद आदि मिद्धान्त "सर्वोच्च न्याया- अर्हताओ की मूर्तियां ध्यानस्य मुद्रा में पद्मासन या खड्गालय" जैसा निष्पक्ष न्याय देते हैं। प्रमाण और नय की सन लगाये हुए मिलनी है। इन मूर्तियों की प्रतिष्ठा मन्दिकसौटी पर खरा उतरने वाला गिद्धान्त ही खरा है। रों में की गई है । मन्दिरों को परमेष्ठियों के अमर व्यकि
जैन धर्म की इस प्रकार की पक्षपान रहित नीति को तत्व से प्रभावित मानकर तीर्थकरों की स्तुतियां की जाती यदि संक्षेप में कहा जाये तो यह कहा जा सकता है- हैं और नमार पूर्वक मूर्ति की प्रदक्षिणा की जाती है।
"न ह्याप्तवादा तभसो निपतन्ति महासराः। मूर्ति पूजा की प्रक्रिया का आरंभ अभिषेक से होता है। युक्ति मद वचनं ग्राह्य मयाऽन्यश्च भवद्विधः । पूजा का उद्देश्य शारीरिक एव मानसिक शुद्धि तथा मोक्ष
-विष्णु पुराग ३/१८/६० की प्राप्ति है। हे जान बन्धुओं। आप्तवचन आकाश से नही गिरा सारांश:-"इस प्रकार जैन दृष्टि से अर्हन्तपद और सकते । जो युक्तिपूर्ण वचन हो, उसे मुझे तथा माप सद्श सिद्धपद को प्राप्त हुए जीव ही ईश्वर कहे जाते हैं। प्रत्येक दूसरों को भी ग्रहण करना चाहिए।
जीव मे इन प्रकार के ईश्वर होने की शक्ति है। परन्तु भारत के तत्ववेत्ता और प्रसिद्ध दार्शनिक अनन्त अनादि काल से कर्म बन्धन के कारण वह शक्ति ढकी हुई शयनम आयंगर के शब्दों में-"जैन धर्म कोई पारस्परिक है। जो जीव इस कर्म-बन्धन को तोड़ डालता है उसमें ही विचारों, ऐहिक व पारलौकिक मान्यताओं पर अन्ध श्रद्धा ईश्वर होने की शक्तियां प्रकट हो जाती है और वह ईश्वर रखकर चलने वाला सम्प्रदाय नहीं है, वह मूलतः एक बन जाता है। इस तरह ईश्वर किसी एक पुरूष विशेष कि वैज्ञामिक धर्म है । उसका विकास एवं प्रसार वैज्ञा- का नाम नही है परन्तु अनादि काल से जो अनन्त जीव निक जंग से हुआ है, क्योंकि जैन धर्म का भौतिक विज्ञान अर्हन्त और सिद्धपद को प्राप्त हो गये हैं और आगे होंगे, बौह आत्मविमा का क्रमिक अन्वेषण माधुनिक विज्ञान के उन्हीं का नाम ईश्वर है।
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३६, वर्ष ३८, कि०४
अनेकान्त
जैन धर्म के ये ईश्वर से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, न अपने-अपने कर्मों के अनुसार स्वयं ही सुखदुख पाते हैं। सुष्टिसंचालन मे इनका हाथ है तथा न ही किसी का वे ऐसी अवस्था मुक्तात्माओं और अर्हन्तों को इन सब संझटों भला-बुरा करते हैं । न वे किसी के स्तुति वाद से ऐसी में पड़ने की आवश्यकता ही नही है, क्योंकि वे कुत्कृत्य हो सांसारिक वस्तु है, जिसे हम ऐश्वर्य या वैभव के नाम से चुके हैं, उन्हें अब कुछ करना बाकी नहीं रहा ।। पुकार सकें, न वे किसी को उसके अपराधों का दण्ड देते हैं। जैन सिद्धान्त के अनुसार सृष्टि स्वयसिद्ध है । जीव
मेरठ विश्व विद्यालय, मेरठ
सन्दर्भ-सूची १. आदि पुराण,प्रकरण तीन (सी०जे० शाह द्वारा उद्धत, ६. श्री परिपूर्णानन्द वर्मा "चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ" पूर्वो पृ०३५
पृष्ठ ३२८ २. डा. मगलदेव शास्त्री, (ईश्वर शब्द का महत्वपूर्ण
का मा ७. श्री परिपूर्णानन्द वर्मा, "चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्य" इतिहास"
पृष्ठ ३ २६. ३. डा० मंगलदेव शास्त्री, ईश्वर शब्द का महत्वपूर्ण ८. क्षुत्पिपासाजरातंकजन्मान्तकभयस्मयाः। न रागद्वेषइतिहास ।
मोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्यते ॥ ६ ॥ ४. अधिरीश्वरे १/४/६/७ स्वामीश्वराधिपतिः २/३/३६
- समन्तभद्र, रत्नरण्ड श्रावकाचार"
९. श्री गुलाबराय, "पाश्चात्य दर्शन का इतिहास', यस्मादधिकं यस्यचेश्वर वचनं तत्र सप्तमी २/६/९,
पृष्ठ ५३. ईश्वररेतो सुनकसुनौ ३/४/२३, तस्येश्वरः ६/१/४२,
यश्चत १/, १०. सुमेरचन्द्र दिवाकर, "जैन शासन का धर्म", पृष्ठ
१ उक्त सूत्रों के उदाहरण।
१९-२०. ५. तचया लोक ईश्वर आज्ञापयति ग्रामादस्मान्मन प्या ११. श्री पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैनधर्म, पृष्ठ
अनीयन्तामिति ।
(आवरण पृ० २ का शेषांश) होने पर किसका भय रहा ? जनता भोली है इसलिये कुछ कहती नहीं, यदि कहती है तो उसे धर्मनिन्दक आदि कहकर चुन कर दिया जाता है। इस तरह धीरे-धीरे शिथिलाचार फैलता जा रहा है । किसी मुनि को दक्षिण और उत्तर का विकल्प सता रहा है तो किसी को वीसपथ और तेरहपंथ का। किसी को दस्सा बहिष्कार की धुन है तो कोई शूद्र जल त्याग के पीछे पड़ा है। कोई स्त्री प्रक्षाल के पक्ष में मस्त है तो कोई जनेऊ पहिराने और कटि में धागा बधवाने में व्यग्र है। कोई ग्रंयमालाओं के सचालक बने हुए हैं तो कोई ग्रंय छपवाने की चिन्ता में गृहस्थों के घर-घर से चन्दा मांगते फिरते हैं। किन्ही के साथ मोटरें चरती हैं तो किन्ही के साय गृहस्य जन दुर्लभ कीमती चटाइयां और आसन के पाटे तथा छोलदारियां चलती हैं । त्यागी ब्रह्मचारी लोग अपने लिये आश्रय या उनकी सेवा में लीन रहते हैं । 'बहती गंगा में हाथ धोने से क्यों चूके' इस भावना से कितने ही विद्वान उनके अनुयायी बनकर आंख मीच चुप बैठ जाते हैं या हां में हां मिला गुरुमक्ति का प्रमाणपत्र प्राप्त करने में सलग्न रहते हैं। ये अपने परिणामों की गति को देखते नहीं हैं । चारित्र और कषाय का सम्बन्ध प्रकाश और अन्धकार के समान है। जहां प्रकाश है वहां अन्धकार नहीं और जहां अन्धकार है वहाँ प्रकाश नहीं । इसी प्रकार जहां चरित्र है वहां कषाय नहीं और जहां कषाय है वहां चारित्र नहीं। पर तुलना करने पर बाजे बाजे व्रतियो की कषाय तो गृहस्थो से अधिक निकलती है । व्रती के लिए शास्त्र में निःशल्य बताया है । शल्यों में एक माया भी शल्य होती है। उसका तात्पर्य यही है कि भीतर कुछ रूप रखना और बाहर कुछ रूप दिखाना । व्रती में ऐसी बात नहीं होना चाहिए । वह तो भीतर बाहर मनसा-वाचा-कर्मणा एक हो । कहने का तात्पर्य यह है कि जिस उद्देश्य से चारित्र ग्रहण किया है उस ओर दृष्टिपात करो अपनी प्रवृत्ति को निर्मल बनाओ। उत्सूत्र प्रवृत्ति से व्रत की शोभा नहीं।
(मेरी बीवन माया)
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श्रमण संस्कृति एवं उसकी प्रमुख विशेषताएं
0 सुरेन्द्रपाल सिंह, प्रवक्ता इतिहास विभाग
श्रमण संस्कृति के विषय में कुछ लिखने से पूर्व यह हो सकता। वह ध्र वतारे की तरह सदैव चमकता रहेगा। जानना आवश्यक हो जाता है कि संस्कृति किसे कहते हैं। श्रमण संस्कृति :किसी समाज की रचना उसके आन्तरिक आचार संगठन भारत वर्ष मे दो संस्कृतियों की प्रधानता रही है। पर निर्भर करती है। संस्कृति को उस समाज की आचार जिनके सयुक्त रूप को भारतीय संस्कृति कह सकते हैं। संहिता कह सकते हैं, क्योकि संस्कृति के बिना समाज- इन संस्कृतियों के नाम हैं-२. श्रमण संस्कृति तथा २. रचना की कल्पना नहीं की जा सकती । संस्कृति समाज वैदिक संस्कृति । वैदिक संस्कृति और श्रमण संस्कृति की पथ-प्रदर्शिका होती है । संस्कृति समाज तथा व्यक्ति समानान्तर रूप से प्रवाहित होती रही है और इनको एक को समुन्नत बनाती है और उसको दोष मुक्त करती है। दूसरे की पूरक कहा जा सकता है। श्रमण संस्कृति के तपप्राकृतिक विधान के अनुरूप संस्कार की हुई पद्धति ही स्वियो को श्रमण मुनि तथा वैदिक संस्कृति के तपस्वियों संस्कृति है । किसी भी देश की संस्कृति जस देश के धर्म, को संन्यासी, ऋषि आदि नामों से सम्बोधित किया जाता दर्शन, विचार, संगीत कला आदि पर आधारित होती है। रहा है। इन्ही विविध रूपों द्वारा संस्कृति अपने को अभिव्यक्त श्रमरण शब्द का अर्थ :-श्रमण शब्द का प्रयोग करने में समर्थ होती है। भारत की प्राचीन संस्कृति इस जैन मुनियों एवं बौद्ध भिक्षुओं दोनों के लिए ही किया देश के निवासियों की कृति में निहित है । भारतीय मनी- जाता रहा है । जो श्रन करता है, कष्ट सहता है अर्थात् षियों की अविरल साधना का प्रतिफल ही भारतीय तप करता है वह तपस्वी श्रमण है । जिसके मन में संस्कृति है। दर्शन, काव्य, कला, भाषा, शिक्षा और शिल्प समता की सुरसरिता प्रवाहित होती है, वह न किसी से आदि संस्कृति के अंग हैं।
द्वेष करता है न किसी से राग करता है, अपितु अपनी संस्कृति का अर्थ संस्कार सम्पन्न जीवन है। वह मनः स्थिति को सम रखता है वह श्रमण कहलाता है।' जीवन जीने की कला है, पद्धति है। वह आकाश में नहीं, श्रमण वह है जो पुरस्कार के पुष्पों को पाकर प्रसन्न नहीं धरती पर रहती है, वह कल्पना में नही जीवन का ठोस होता और अपमान के हलाहल को देखकर खिन्न नहीं सत्य है । बुद्धि का कुतुहल नहीं किंतु एक आदर्श है। होता, अपितु सदैव मान और अपमान में सम रहता है। संस्कृति एक ऐसा विराट् तत्त्व है, जिसमे सभी कुछ उतराध्ययन में कहा है "सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण समाविष्ट हो जाता है। मानव जीवन के ज्ञान, भाव और नही होता किंतु समता का आचरण करने से ही कार्य यह तीन पक्ष हैं जिसे दूसरे शब्दों में बुद्धि, हृदय और श्रमण है।' व्यवहार कहा जा सकता है । इन तीनों तथ्यों का जब इस प्रकार जैन संस्कृति की साधना समता की पूर्ण समन्वय होता है तब संस्कृति का जन्म होता है। साधना है । समता समभाव, समदृष्टि एवं साम्य भाव ये संस्कृति मानव-जीवन का सौन्दर्य है, सौरभ है, संस्कृति सभी जैन संस्कृति के मूल तत्व हैं । निघण्टु में श्रमणका बीवन का मिठास है, गरिमा है। जितनी संस्कृति अपनाई अर्थ नग्न दिगम्बर ही किया गया है। यथाजायेगी उतना ही जीवन महान बनेगा । जिस समाज और "श्रमणा दिगम्बराः श्रमणा वातरशना (वसना)" राष्ट्र की संस्कृति प्राणवन्त है, उसका कभी विनाश नहीं
-भूषण टीकायाम इति निषष्ट ।
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३८ बर्ष ३८, कि०४
अनेकान्त
इन श्रमणों का इस देश में रहने का कारण यही करते हैं, ऋषि और मुनि शब्द का प्रयोग बहुत कुछ था कि दिगम्बर वेश भारतीय संस्कृति में सर्वश्रेष्ठ एवं मिले-जुले अर्थ में होने लगा था। दोनों संस्कृतियों में परम वन्दनीय अवस्था मानी गई है। आचार्य सोमदेव ऐतिहासिक विकासक्रम की दृष्टि से भिन्नता है। ऋषि सूरि लिखते हैं कि "लोक मे नग्नत्व सहज है, स्वाभाविक या वैदिक संस्कृति में कर्मकाण्ड की प्रधानता और अस. है । वस्त्रों से शरीर का आच्छादन विकार है।' हिष्णुता की प्रवृत्ति बढ़ी, तो श्रमण संस्कृति अथवा मुनि
वैराग्यशतक में भी इस प्रकार की प्रार्थना की गई है संस्कृति में अहिंमा, निरामिषता तथा विचार सहिष्णुता कि "हे शम्भो ! वह समय कब आयेगा जब मैं एकाकी, की प्रवृत्ति दिखलाई दी।" इच्छा रहित, शान्त, करपात्रधारी, दिगम्बर, होकर कर्म- इस प्रकार श्रमण संस्कृति में सहिष्णुता, अहिंसा, निर्मूलन (निर्जरा) करने में समर्थ होऊंगा ।' तैत्तिरीय निरामिषता की प्रमुखता थी, जबकि वैदिक संस्कृति में आरण्यक मे भगवान ऋशभदेव के शिष्यों को वातरशन असहिष्णुता, कर्मकाण्ड की प्रधानता तथा वैदिक हिंसा ऋषि और ऊर्ध्वमथी कहा गया है। श्रीमद्भागवत पुराण हिसा न भवति' थी। अतः दोनों संस्कृतियो में पर्याप्त अंतर में लिखा है, 'स्वयं भगवान विष्णु महाराज नामि का दृष्टिगोचर होता है। डा. गुलाबराय ने श्रमण एवं प्रिय करने के लिए उनके रनिवाम मे महारानी महदेवी वैदिक संस्कृतियों के आदान-प्रदान का वर्णन करते हुए के गर्भ में आए। उन्होंने वातरशना श्रमण ऋषियो के इस प्रकार लिखा है, "वैदिक और श्रमण संरकृति में धर्म को प्रकट करने की इच्छा से यह अवतार ग्रहण सामजस्य का भावना क आधार पर आदान-प्रदान किया ।
और इन्होने भारतवर्ष की वैदिक एकता बनाये रखने का इस प्रकार श्रमण सस्कृति के प्रणेता प्राकृतिक (नग्न) महत्वपूर्ण कार्य किया। प्रात्यों और श्रमण ज्ञानियों की वेष मे विचरण करते थे और हर प्रकार के व्यसन से परम्परा का प्रतिनिधित्व भी जैन में किया।" मुक्त थे। उनको किसी भी पदार्थ की इच्छा नहीं थी श्रमण संस्कृति तथा वैदिक सस्कृति दोनो ने भारतीय तथा वे समत्व भाव को प्राप्त कर चुके थे। इन्ही उच्च संस्कृति के क्षेत्र में अपना अपना योगदान दिया और बादशों एव उज्ज्वल चरित्र के कारण जन साधारण तथा उसको सम्पन्न बनाया। इनमें भी श्रमण संस्कृति ने राजा महाराजाओं मे वे पूजनीय समझे जाते थे। राजा
भारतीय संस्कृति को अमरत्व प्रदान किया। इसने सहिजनक उन्हें बड़े सम्मान के साथ आहार कराते थे।
पुणुता, अहिंसा, त्याग, उदारता, सत्य, अपरिग्रह, विश्वमात्म विद्या विशारद भी यही श्रमण थे।"
बन्धुत्व एवं सम्यक् दृष्टि, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् श्रमण संस्कृति एवं वैदिक संस्कृति :-श्रमण चारित्र आदि अमूल्य रत्नों से विभूषित किया। इस विषय संस्कृति का वैदिक संस्कृति पर बहुत प्रभाव पड़ा। स. में श्री वाचस्पति गैरोला का कथन बहुत ही उपयुक्त हैवासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है, 'श्रमण परम्परा के "भारतीय विचारधारा हमें आदिकाल से ही दो रूपों में कारण ब्राह्मण धर्म में वानप्रस्थ और सन्यास को प्रश्रय विभक्त हुई मिलती है।" पहली विचारधारा परम्परा मिला।" श्रमण मुनि तथा वैदिक संस्कृति के प्रतीक ऋषि मूलक ब्राह्मणवादी रही है, जिसका विकास वैदिक साहित्य शब्द की विशेषता तथा दोनों संस्कृतियों के मध्य अन्तर के वृहत् रूप में प्रकट हुआ। दूसरी विचारधारा पुरुषार्ड का उल्लेख करते हुए डा. गुलाबराय ने लिखा है कि मूलक, प्रगतिशील, धामण्य या श्रमण प्रधान रही है, "इस प्रकार मुनि शब्द के साथ शान, तप और वैराग्य जिसमें आचरण को प्रमुखता दी गई। ये दोनों विचारजैसी घटनामों का महरा सम्बन्ध है।" मुनि शब्द का धाराएं एक दूसरे की प्रपूरक भी रही और विरोधी भी। प्रयोग वैदिक संहिताओं में बहुत ही कम हुआ है। श्रमण इस राष्ट्र की बौद्धिक एकता को बनाए रखने में इन दोनों संस्कृति में ही यह सम अधिकांशतः प्रयुक्त हुआ है। का समान एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। पहली ब्रह्मवादी पुराणों में जो वैदिकता को बाराकों का समन्वय प्रस्तुत विचारधारा का जन्म पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश
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श्रमण संस्कृति एवं उसकी
विशेषताएं
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में हुबा और दूसरी बमण प्रधान विचारधारा का उद्भव श्रम संस्कृति की आधार भूत असि-मसि-कृषि-वाणिज्य आसाम, बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा पूर्वी विद्या और शिल्प का उपदेश देकर मानव को 'जल में उत्तर प्रदेश के व्यापक अञ्चल में हुआ। श्रमण प्रधान भिन्न कमसवत रहने की चिना दी और मोम का द्वार विचारधारा के जनक थे जैन ।
खोला । उन्होंने बतलाया कि हे प्राणी तू संसार में जब श्रमेणसंस्कृति की विशेषतायें:
तक रहे, आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भी आवश्कता श्रमण संस्कृति विश्व की सस्कृतियों में अपना अपूर्व, पूर्ति के साधनों से ममत्व मत कर, उन साधनों का अधिक. प्राचीन और महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस संस्कृति में संचय मत कर । तू विषय वासनाओं को नश्वर समा। अपनी निज की अनेक विशेषतायें हैं, जिनके कारण इसने इसी मान्यता का प्रभाव संतोष और सुख की झलक के विश्व के सामने महान आदर्श प्रस्तुत किया है। इस रूप में मिल रहा है। संस्कृति की प्रमुख विशेषतायें निम्न हैं ।
जीमो और जीने दो:-इस सिद्धान्त का स्रोत २.श्रम औरत:--श्रम और तप श्रमण संस्कृति श्रमण संस्कृति अथवा जैन परम्परा ही है। इस आत्म-सतोष की प्रमुख विशेषतायें हैं। जो श्रम करता है, संयमित के साथ पराये अधिकारों का परहित सरक्षण भी है। जीवन बिताता है वह श्रमण है । श्रमण मुनियों का जीवन यदि मनुष्य चाहता है कि उसे कोई नष्ट न दे, उसके आदर्श एवं त्यागपूर्ण होता है। उनका प्रत्येक क्षण तप- अधिकारों से वंचित न करे तो उसका मुख्य कर्तव्य है कि श्चर्या-आत्म साधना में व्यतीत होता है। दिगम्बर मुनि वह स्वयं जीये और दूसरों को भी जीने दे। इस भावना (श्रमण) चर्या सुगम नहीं यह महाव्रती का जीवन है। से चोरी जैसे पर दुखदायी और आत्म-पतन जैसे निन्द्य अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह उनके कर्म का त्याग भी होता है। परिग्रह के परिमाण और महाबत हैं।
त्याग की भावना में उक्त सिद्धान्त अमोघ अस्त्र है। चारित्र की महत्ता:-श्रमण संस्कृति में चारित्र सुख का मूल मन्त्र आत्मोपलब्धि:-सांसारिक निर्माण पर पूर्ण बल दिया गया है । चारित्र आत्म विकास नश्वर विषय वासनाओ से विरक्त हो अविनाशी परमपद का स्रोत है । चारित्र के स्वरूप का अवलोकन करने और मोक्ष प्राप्त करना जैन सस्कृति के श्रमणों का मूल उद्देश्य उसके सौरभ का पान करने के लिये चक्रवर्ती सम्राट् और रहा है इसी का प्रतिफल है कि श्रमणों ने तार का भी स्वर्ग के देव-इन्द्र भी तरसते हैं। एक मात्र मनुष्य जन्म परित्याग कर दिया है। जैन श्रावक (गृहस्थ) के आचार ही ऐसा श्रेष्ट है, जिसमे चारित्र को धारण कर रत्नत्रय में इस आत्मोपलब्धि द्वार की झलक उसके अणवत, के आधार से मोक्ष तक प्राप्त किया जा सकता है । ससार गुणवत और शिक्षा व्रतो मे मिलती है । आत्मोपलब्धि श्रमण की समस्त परम्परायें रहे या जायें, कुछ बनता बिगड़ता परम्परा में अनवरत रूप से पाई जाती है। नाही, परन्तु यदि चारित्र रत्न चला गया तो आत्मविकास विगम्बरस्व:-पदार्थों के शुद्ध स्वरूप की दृष्टि से चला गया। ऐसा समझना चाहिये । चारित्र ही धर्म है। सतार का प्रत्येक पदार्थ दिगम्बर रूप है। जब तक इस कहा भी है कि चारित्र के समान अन्य कोई परम तप रूप की प्राप्ति नही होती पदार्थ के स्वरूप का दर्शन नहीं नहीं है। यह चरित्र दो प्रकार का है -१“सकल चारित्र हो सकता। उदाहरणार्थ जव तक अग्नि राख से ढकी (श्रम सम्बन्धी चारित्र) २" विकल चारित्र (प्रहस्थ सम्ब- रहती है, उसका सेज अप्रकट ही रहता है । वस्त्र आदि न्धी चारित्र)
व्याधि हैं, यहां तक कि यह शरीर जो अपने साथ दृष्टिविषय पराङ्मुखता:-भोग भूमि काल में जब गोचर हो रहा है आत्मा का मावरण है। जब तक ऐसे मनुष्य संस्कृति विहीन अवस्था में था तब वह विषयों की सांसारिक पर पदार्थों से मोह नहीं छोड़ा जायेगा, इनका और दौड़ने मे सुख मानता था। उसे आत्म-परमात्म का परित्याग नहीं किया जायेगा तब तक आत्मोपलब्धि नहीं दोष न था। कर्म भूमि के आदि में तीर्थंकर ऋषभदेव ने हो सकेगी।
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४०, वकि . ४
सुख-दुख में समता भाव:-मनुष्य के मन है। है। यह देन उन विश्ववन्य वीतराग तीर्थकरों की है, जब तक मन की क्रिया होती रहती है उसमें अच्छे बुरे जिन्होंने मनुष्य मात्र के कल्याण का मार्ग दर्शन किया। सभी प्रकार के विकल्प उठते रहते हैं। इन्ही विकल्पों का जो क्षेत्रीय प्रान्तीय एवं राष्ट्रीय रागों से ऊपर उठकर नाम सुख-दुख है। ज्ञानी पुरूष इनमें राग-द्वेष नही करते। मनुष्य मात्र के कल्याण का चिंतन करते थे। जिनकी उनकी भावनाओं में सुख में मग्न न फूलें दुख में कभी न चरण-छाया में बैठने वाले आचायों ने 'क्षेमं सर्व प्रजानाम् घबराये की ध्वनि ही गूंजती है। जैसे दिन के पश्चान लिखा, न कि किसी एक जाति विशेष को लक्ष्य करके रात्रि और रात्रि के पश्चात दिन होता है वैसे ही सुख के हितोपदेश दिया। बाद दुख और दुख के बाद सुख का उदय होता है । ये श्रमरण सस्कृति की प्राचीनता:-श्रमण संस्कृति बस्त के अपने रूप नही, मानव की कल्पनाओ के रूप हैं विश्व की सबसे प्राचीन संस्कृति है। यह संस्कृति सिन्ध, और क्षणिक है । अतः श्रमण संस्कृति में क्षणिकत्व जैसे मिस्र, यूनान, बेबीलोने तथा रोम की संस्कृतियों से कहीं इन नश्वर विकल्पों पर हर्ष-विषाद के लिये कोई स्थान अधिक पुरातन है। भागवत का आद्यमनु स्वायम्भुव के नही। जैन श्रमण मुनि और श्रावक दोनों ही सुख-दुख में प्रपौत्र नाभि के पुत्र ऋषभ देव को दिगम्बर श्रमण और समत्व भाव रखने के आदि बने । इमलिये पदार्थों के सत्य ऊर्ध्वगामीमुनियों के धर्म का आदि प्रतिष्ठाता माना है। स्वरूप और अनित्य आवरण आदि भावनाओ का विषद उन्होंने ही श्रमण धर्म को जन्म दिया था। उनके सौ पुत्रों और निदोष विवेचन श्रमण संस्कृति मे किया गया है। मे से ६ पुत्र श्रमण बने ।" ऋषभदेव के सौ पुत्रो मे से १
नारी की प्रतिष्ठा :--नर और नारी ये दोनों रूप पुत्र बड़े भाग्यशाली थे। आत्मज्ञान में निपुण थे और परप्राकृतिक और अनादि नियम हैं। दोनों का अपना स्वतंत्र मार्थ के अभिलाषी थे। वे श्रमण दिगम्बर मुनि बन गये । अस्तित्व है। अतः श्रमण संस्कृति में नारी की पूर्ण प्रतिष्ठा वे अनशन आदिक तप करते थे। जो स्वयं तपश्चरण रही है । युग के अनादि तीर्थकर ऋषभदेव की दो पुत्रियों करते है वे श्रमण हैं। ब्राह्मी और सुन्दरी तथा कालान्तर में समय-समय पर होने ऋषभदेव के उपरान्त अनेक दिगम्बर जैन मुनियों ने इस वाली अनेकों नारियों ने सामाजिक और धार्मिक दोनों ही श्रमण संस्कृति की धारा को प्रवाहित किया । सभी तीर्थक्षेत्रों में आदर्श उपस्थित कर यश अर्जन किया है। वे योग्य कर श्रमण थे और उन्होंने श्रमण धर्म का उपदेश दिया से योग्य माता, आदर्श नारी और सौभ्यता की मूर्ति श्रम तथा इस संस्कृति में महान योगदान दिया। ऋषभदेव से णी-साध्वी तक हुई है । अतीत से वर्तमान तक की धारा लेकर महाश्रमण बर्द्धमान महावीर तीर्थकर तक श्रमण में होने वाली आदर्श नारियों में धर्मपरायण, पति परायण, संस्कति की धारा निरन्तर प्रवाहित होती रही। श्रमण आत्म परायणा सभी वर्ग की नारियाँ सम्मिलित हैं। धर्म ही आगे चलकर जैन धर्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
माता मरूदेवी, महारानी त्रिशला, रानी चेलना, श्रमण संस्कति अथवा जैन धर्म की प्राचीनता सिन्धु घाटी महारानी सीता, द्रोपदी, चन्दनबाला, मैना सुन्दरी आदि में उत्खनन में प्राप्त ऋषभदेव की मूर्ति से स्पष्ट हो जाती सहस्रों सती नारिया ऐसी हुई है, जिन्हें पूर्ण सम्मान मिला है। सिन्ध सभ्यता के लोग ऋषभदेव की भी पूजा करते और जिनकी यशोगाथा आज भी आदर्श रूप है। थे तभी तो वहां से उनकी मूर्ति प्राप्त हुई है।
संक्षेप में यही श्रमण संस्कृति की प्रमुख विशेषतायें डा० विशुद्धानन्द पाठक तथा डा. जयशंकर मिश्र का हैं । अपनी उपर्युक्त विशेषताओं के कारण ही श्रमण विचार है कि "विद्वानों का अभिमत है कि जैन धर्म प्रागैसंस्कृति का यशोगान विश्व में होता रहा है। भारतीय तिहासिक और प्राग्वैदिक है । सिन्धु घाटी की सभ्यता से अमण संस्कृति के उदात्त तत्वों के प्रति आस्था ही वर्तमान मिली योगमूर्ति तथा ऋषभदेव के कतिपय मंत्रो में ऋषभ विश्व को संकट से परित्राण दिला सकती है । मानव जगत तथा अरिष्टने मी जैसे तीर्थकरों के नाम इस विचार के में मात्स्य न्याय की प्रवृति का निवारण इसी से हो सकता मुख्य आधार है। भागवत और विष्णु पुराग में मिलने
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घमण संस्कृति एवं उसकी प्रमुख विशेषताएं
४१ वाली जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की कथा जैन धर्म की की पूजा करते थे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वर्षमान प्राचीनता को व्यक्त करती है।" पद्मभूषण स्वर्गीय राम- अथवा पाश्र्वनाथ तथा अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थंकरों का धारी सिंह दिनकर ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'संस्कृति के चार उल्लेख पाया जाता है। भागवत पुराण से ऋषभदेव जैनअध्याय' में इस प्रकार लिखा है "बौद्ध धर्म की अपेक्षा धर्म के संस्थापक थे, इस विचार का समर्थन होता है।" जैन धर्म अधिक बहुत प्राचीन है, बल्कि वह उतना ही श्रमण संस्कृति की प्राचीनता इस बात से भी सिद्ध प्राचीन है जितना वैदिक धर्म। जैन अनुश्रुति के अनुसार होती है कि यजुर्वेदू", अथर्ववेद", गोपथ ब्राह्मण" तथा मन चौदह हुए हैं। अन्तिम मनु नाभिराय थे। उन्हीं के भागवत", आदि वैदिक साहित्यिक ग्रन्थों में भी श्रमण पुत्र ऋषभदेव हुए जिन्होंने अहिंसा और अनेकान्तवाद सस्कृति के आदि प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव का उल्लेख आदि का प्रवर्तन किया । जैन पंडितों का विश्वास है कि मिलता है। इन सब कारणों से यह बात पूर्ण रूप से स्पष्ट ऋषभदेव ने ही लिपि का आविष्कार किया तथा क्षत्रिय, हो जाती है कि श्रमण संस्कृति विश्व की समस्त संस्कृतियों वैश्य और शूद्र इन तीन जातियों को रचना की भरत से प्राचीन है और यह प्रागैतिहासिक कही जा सकती है। ऋषभदेव के पुत्र थे, जिनके नाम पर हमारे देश का नाम इस प्रकार श्रमण सस्कृति ने भारत की सांस्कृतिक भारत पड़ा।"
एकता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया और विश्वविख्यात दार्शनिक एव महानतम् विद्वान् डॉ. इस देश के निवासियो को उच्च आदर्शों का पाठ पढ़ाया। सर्वपल्ली राधाकृष्णन् भी जैन धर्म की प्राचीनता को स्वी- इस संस्कृति ने विश्व को सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य कार करते हैं । वे लिखते है कि "जैन परम्परा ऋषभदेव तथा अपरिग्रह के महाव्रतों को शिक्षा दी और विश्व शान्ति को जैन धर्म का संस्थापक बताती है जो अनेकों सदी पूर्व की स्थापना में अनुपम योग दिया। इसी कारण विश्व की हो चुके हैं। इस विषय के प्रमाण विद्यमान हैं कि ईसवी प्राचीनतम सस्कृतियों में घमण संस्कृति का महत्वपूर्ण स्थान सन् से एक शताब्दी पूर्व व्यक्ति प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव माना जाता है। -के.डी. कालेज, मवाना (मेरठ)
सन्दर्भ-सूची १. श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्त इत्यर्थः ।
११. श्री वाचस्पति गैरोला-भारतीय दर्शन, पृष्ठ ८६ -हरिभद्र सूरि, दशवकालिक सूत्र, १७३ १२. डा. वासुदेव शरण अग्रवाल-प्राक्कथन जैन २. नात्थि य सि कोइ वेसो पिओ व सव्वेमु चेव जीवेसु ।
साहित्य का इतिहास पृष्ठ १३ एएण होइ समणो ऐसो अन्नो वि पज्जाओ॥
१३. डा० गुनाबराय-'भारतीय संस्कृति', पृष्ठ ७५ -दशवैकालिक नियुक्ति गा., १५५
१४. वही, पृष्ठ ७६ ३. वही, १५६
१५. नवाभवन् महाभागां मुनयो हय्यशसिना । ४. उत्तराध्ययन, २५/२६-३०
श्रमणवातरशना आत्मविना विशारदाः ॥ ५. नग्नत्व सहजे लोके विकारो वस्त्र वेष्टनम् ।
-भागवत ११/२/२० -यशस्तिलक चम्पू, पृष्ठ ५
१६. डा. विशुद्धानन्द पाठक एवं डा० जयशंकर मिश्र६ एकाकी निस्पृह शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः।
पु. भारतीय इतिहास और संस्कृति, पृष्ठ १९६.२०० कदा शम्भो भविष्याणि कर्म निर्मलन क्षमः ।। -वैराग्य शतक, भर्तृहरि, ८६
१७. पदमभूषण श्री रामधारी सिंह दिनकर-'संस्कृति के
चार अध्याय', पृष्ठ, १२६. . ७. तैत्तिरीय आरण्यक, २७१, पृष्ठ १३६
१८. डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन्-इंडियन फिलोसोफी ८. भागवत पुराण, २०२०
वोल्यूम ॥ पृष्ठ,२८७. १. तापसा मुंजते चा पि धमणारचंव मुंजते ।
११. ऋग्वेद-१०.१६/2 "-बाल्मीकी रामायण १४,१-३ २०. अथर्ववेद-११/५/२४.२क १०. श्रमणावातरशना यात्म विद्या विशारदाः । २१. गोपथब्राह्मण, पूर्ण-२/८
-श्रीमद्भागवत, ११-२ २२. भागवत-५/२८
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प्रभावती रानी की कथा
वत्सदेश में एक रीरकपुर नगर है । वहां एक उद्दायन नाम का राजा राज्य करता था। उसके शुद्ध जैनमत को धारण करने वाली एक प्रभावती नाग की रानी थी। एक समय राजा किसी शत्रु के ऊपर चढ़ाई करने को गये, तब रानी प्रभावती की धाय मंदोदरी सन्यास धारण कर वहां से चली गई। परन्तु थोडे ही दिनों में वह अन्य बहुत-सी सन्यासिनियों के साथ आई और नगर के बाहर ठहरी तथा प्रभावती के निकट किमी स्त्री के द्वारा नापने आने के समाचार कहला भेजे। उस स्त्री ने जाकर कहा--मन्दोदरी आपको देखने के लिए माई : और नगर के बाहर ठहरी है। इसके उत्तर में रानी ने कहला भेना-वह मेरे ही यहां आवे मैं नही आ ती । यह गुनार मन्दोदरी क्रोधित हो स्वयं उसके घर गई। परन्तु प्रभावती ने इादो न प्रणाम किया, न प्रामा से उठी : आसन पर बैठे ही बैठे उसके लिए आसन डलवा दिया। तब मन्दोदरी ने कहा-पुत्री, प्रथम तो मैं तेरी माना, दूसरे गिर तपस्निी हो गई, फिर भी तू ने मुझे नमस्कार क्यों नही किया? प्रभावती ने कहा--- मैं सन्मार्ग (जैन गार्ग) को धारण करने वाली हूं और तू मिथ्यामार्ग को धारण करने वाली है, इसलिए मैंने प्रणाम नहीं दिया । मामिने कला-शिवप्रणीत (शैवमत) धर्म सन्मार्ग क्यों नहीं हो सकता? रानी ने कहा-नही । इस तरह दोनो का बला शास्त्रार्थ हुआ। और अन्त में रानी ने मन्दोदरी को निरुत्तर कर दिया । तब यह कोधित हो वहा से चली गई और सनी या एक मोहर चित्र खीच कर उसने उज्जयिनी के राजा चन्द्रप्रद्योत को जा दिवाया । चन्द्र प्रद्योत देखते ही आता हो गया। किसी तरह यह भी सुन लिया कि राजा उद्दायन किसी राजा पर चढ़ाई करने गया है। वहीं नहीं है । तब वह अपनी समस्त सेना ले रोरकपुर जा पहुंचा । नगर के बाहर अपनी सेना का पड़ाव डाल दिया और एक अति चनुर मनुष्य प्रभावती देवी के (रानी के) पास भेजा । उसने उसके आगे अपने स्व.मी के रूप सौंदर्य के साप गाध अनेक गुणो की खूब प्रशंसा की। रानी यह जवाब देकर कि भाई, उसके गुणों मे मुझे क्या ? मेरे तो उद्दापन दो छोट, और सब पुरुष पिता, पुत्र भाई के समान हैं, उस दूत को निकलवा दिया और उस राजा के मेवकों का आओ यहा आना सर्वमा बन्द कर दिया । बची हुई सेना नगर के दरवाजे बन्द कर, नगर की रक्षा करने के लिए किले पर जा बैठी। चद्रप्रयोत ने नगर लेने का विचार कर, युद्ध प्रारम्भ किया। यह खबर मुन प्रमावती असर्ग मिटने तक का जनशन कर अपने इष्टदेव के मन्दिर में जा बैठी। इसी समय कोई देर आफशले जाता था, उगने रानी का अधि: द्वारा कष्ट जान चण्डप्रद्योत की सारी सेना अपने माया बल से उज्जयनी रहवा दी और आप उसका रूप धारण कर गली के शीन की परीक्षा के लिए उद्यत हुआ । उसने अपनी विक्रिया ऋद्धि से सेना बना ली पौर माया स गर की रक्षा करने वाली किले की सेना का नाश कर नगर में प्रवेश किया। फिर नगर के मध्य भाग में उस जिन नदिर में गया जहा कि प्रतिज्ञा करके प्रभावती ध्यानस्थ बैठी थी। मन्दिर में जाकर प्रभावती के सन्मुख अनेक पुरुषविकार ध्र विगदिक किए, परन्तु उसका चित्त चलायमान न हुआ। तब देने जानी माया रानेट प्रभावती की पूजा को और सनार मे घोषणापूर्वक प्रकट करके कि यह महाशीलवती है, अपने स्थान को गया।
राजा उद्दायन ने लौटकर ये सब समाचार सुने। उसे बड़ा हर्ष हुमा । कुछ काल राज्य कर सुकोति नाम के अपने पुत्र को राज्य दे वर्द्धमान स्वामी के समवसरण मे अनेक राजाओ के साथ दीक्षित हो गया। प्रमावती आयिका हो गई। राजा उद्दायन तो घोर तप करके अष्ट कर्मों का नाश कर मोक्ष को गया और प्रमावती पाव ब्रह्मस्वर्ग में देव हुई । इस तरह प्रभावती स्त्री होकर भी शोल के प्रभाव मे दोनों लोकों में देवा से पूजित हुई, तो और भी भक्तन जो इसको धारण करें, क्यों पूजित न होंगे ? अवश्य होंगे।
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जैनरव का मूल प्राधार - अपरिग्रह
भंवरलाल न्यायतीर्थ, संपादक : 'वीरवाणी' "हम इकट्ठा करने में रहे और सब कुछ खो दिया। वहां परिग्रह से बेतहाशा लिपटते जा रहे हैं तो कब तक -यह एक ऐसा सत्य है जिसे लाखो-लाख प्रयत्नों के बाद टिक सकेगा-यह धर्म केवल बातों में । अपरिग्रह के गीत भी झुठलाया नहीं जा सकता । हम जैसे-जैसे जितना परि- गावें और आचरण उसके विपरीत, यह क्यों ? ग्रह बढ़ाते रहे वैसे-वैसे उतना 'जन' हमसे खिसकना गया लेखक ने अनेक शास्त्रों के उद्धरण देते प्रकृत विषय
और आज स्थिति यह है कि हम जैन होने के साधन-भूत की पुष्टि की है और स्पष्ट किया है कि जैन संस्कृति का श्रावकोचित आचार-विचार में भी शून्य जैसे हो गए। मूल-अपरिग्रह है। लोगों ने जड़ो की खोज की, उन्होंने सारा ध्यान उन
हिंसा, झंठ, चोरी और कुशील इन चारों पापों की पर शोध-प्रबन्धों के लिखने में केन्द्रित किया, उन्हें प्रका
जड़ परिग्रह है । "क्रोधादिकषायाणामातं-रोद्रयोहिंसादिशित कराया और उन पर वे विविध लौकिक पारितोषिक
पंचपापानां भयस्य च जन्मभूमिः परिग्रहः"-आचार्यों का पाते रहे । आत्मा की कथा करने वाले बड़े-बड़े वाचक यह वाक्य स्पष्ट है । परिग्रह का परिवार इतना बड़ा है भी परिग्रह-सत्रयन में लगे रहे और वे भी अहिंसा, दान कि उसमें सारी बुराइयां | सारे पाप गभित हो जाते हैं। आदि के विविध आयामों से विविध रूपों में परिग्रह- सब अनर्थों का मूल परिग्रह है। संचयन और मान-पोषण आदि मे लीन रहे जिससे वीत
आश्चर्य इस बात का है कि हम हिंसा करने वाले को रागता का प्रतीक 'अपरिग्रहत्व-जनत्व' लप्त होता रहा।
अपराधी मानते हैं-शासन भी उसे दण्डित करता है। हमारी दृष्टि में 'अपरिग्रहवाद' को अनाने के सिवाय
इसी तरह झूठ, चोरी भी पाप है-उनको करने वाला 'जैन धर्म के संरक्षण का अन्य कोई उपाय नहीं।"
अच्छी निगाह से नही देखा जाता और दण्ड भी उसे ये उद्गार है पं० पद्मनन्द जी शास्त्री दिल्ली के
स्त्रा दिल्ला क मिलता है। व्यभिचारी को समाज में कोई आदर नहीं जिन्होने हाल ही में अपनी नवीनतम कृति "मूल जैन ने
"मूल जन देता-वह बदनाम होता है, भले लोग उसकी सोहबत में संस्कृति-अपरिग्रह" नामक पुस्तक में प्रकट किये हैं। नहीं बैठते । इसी तरह पांचवां पाप परिग्रह है उसके बारे उन्होने आज के जैन जीवन का चित्रण एक सही तथ्य के
में लोग कुछ नही कहते । जो ज्यादा परिग्रही है, राजसी रूप में प्रस्तुत किया है । जो धर्म निवृति प्रधान था
ठाट से रहता है, उसका समाज में आदर होता है-बह आज वह प्रवृत्ति प्रधान हो गया है। निवृत्ति की बातें
अगली पक्ति मे बिठाया जाता है चाहे उसकी सम्पत्ति केवल शास्त्रों में रह गई हैं। अधिकाधिक संग्रह की ओर
किसी भी मार्ग से आई हो। कैसी विषमता? हम बह रहे हैं। जहां त्याग की महत्ता थी-वहाँ ग्रहणसंग्रह बढ़ता जा रहा है। अन्तर और बाह्य में, भावों में साधु संस्था में भी इस परिग्रह ने अपना काफी और क्रिया में, यश ख्याति लाभ अर्जन में और भौतिक स्थान बना रखा है-कूलर, हीटर का उपयोग, मन्दिर, साधन जुटाने में हमारी शक्ति लग रही है। जरूरत और मूर्ति, संघ संचालन आदि के लिए अर्थव्यवस्था, संघ को बेजरूरत का संग्रह बढ़ता जा रहा है। क्या यह अपरिग्रह बढ़ाने का आचार्य बनने का मोह-जयन्तियां मनाने का का मखौल नहीं? जो धर्म अपरिग्रह प्रधान था जिसका लोभ, ख्याति लाभ, यश की भावना आदि परिग्रह ही तो सारा ढांचा अपरिग्रह की नींव पर खड़ा हुआ था, आज- हैं। यह बात नहीं है कि सभी ऐसे है-इन बातों से दूर
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वर्ष १८, शि०४
अनेकान्त
भी अनेक साधु हैं-पर आचार में शिथिलता परिग्रह के स्टैण्डर्ड नहीं रहा । साधारण सात्विक भोजन करना, कारण ही पाई है।
यानी मोटा खाना, मोटा पहनना यह स्टैण्डर्ड नहीं। स्टैंडर्ड आज के परिप्रेक्ष्य में हम सोचें तो स्पष्ट प्रतिभासित मेनटेन करने हेतु सब कुछ करना पड़ता है और उसमें होता है कि सब अनयों की जड परिग्रह है।
मुख्य परिग्रह में बढ़ोतरी ही है । और उसी के लिए सारे
धंध फंद करने पड़ते हैं । आतताई क्यों गुण्डागिरी करता है-कि उसे पैसा चाहिए, आतंकवादी क्यों प्राण लेता है कि उसे अभीष्ट
यह स्पष्ट है कि यदि परिग्रह नहीं रहे तो कोई पाप सिधि हेतु दूसरों को डराना है। अर्थ के प्रति मोह यानी नहीं रहता । अन्तरंग और बाह्य परिग्रह छुट जाय तो वह अर्थ मंग्रह हेतु ही भ्रष्टाचार रिश्वतखोरी, गबन, बेईमानी, शुद्ध दशा प्राप्त हो जाती है । लेखक ने बताया है कि मिलानट, आहरण, धोखाधड़ी आदि बुराइयां फैल रही
हिंसादि करते हुए भी हम व्रती कहलाते हैं किन्तु परिग्रह हैं। दहेज प्रथा भी तो इसीलिए बढ़ रही है।
के लिए परिग्रह परिमाण ही कहा जायगा, उनके साथ व्रत
शब्द नही जोड़ा जाता। गर्ज यह है कि सब अनर्थों का मूल परिग्रह है। आज हमारी जरूरतें इतनी बढ़ा ली गई है कि उनकी पूर्ति हेतु जैन सिद्धांत में कर्म फिलासफी को प्रमुख स्थान हैसाधन जुटाने में ही हमारी शक्ति लगती है औ• वह बिना पर कर्म शुभ या अशुभ दोनों ही संसारवर्द्धक है । लेखक पैसे के सम्भव नहीं। फिर वह पैसा कहीं से भी आवे- ने इन्हें भी परिग्रह ही बताया है। सचमुच हैं भी ये परिसीधे रास्ते से आवे मा टेढ़े से, सही या गलत कोई भी ग्रह ही। अत: आवश्यकता है परिग्रह त्यागने की छोड़ने मार्ग हो मनुष्य उसे अपनाता है । यह युग अर्थ प्रधान बन की-जितना हम छोडते जायेंगे-उतनी ही बुराइयां गया है। स्टैण्डर्ड शब्द ऐसा चन गया है कि हर आदमी मिटती जायेंगी। लेखक ने इस छोटी-सी पुस्तक में इस अपना स्टेण्डर्ड कायम रखने की फिराक में है और उसके तथ्य को खब खोला है। इस पुस्तक का अधिकाधिक लिए परिग्रह संजोता है । सादगी सादा जीवन आज का प्रचार प्रसार आवश्यक है।
विध्यश्री कन्या की कथा
वाराणसी के राजा अकम्पन और रानी सुप्रभा की पुत्री सुलोचना जैनधर्म की परमभक्त और सम्पूर्ण कलाओं में कुशल थी। वह विद्याओं का अभ्यास करती हुई सुख से रहती थी कि इतने में अकम्पन के मित्र विध्यपुर के राजा विध्यकीति, रानी पियगुश्री की पुत्री विध्यश्री उसके पिता ने सुलोचना को लाके सौंपी और कहा कि इसको पढ़ा लिखा कर सकल कलाओं मे प्रवीण करो। पश्चात् विध्यश्री पुत्री सुलोचना के पास सुख से रहने लगी।
एक दिन सुलोचना ने उसे महल के उद्यान मे फल चुनने के लिए भेजा कि वहां एक काले सांप ने निकल कर उसे डस लिया । सो सुलोचना के दिये हुए पंचनमस्कार मन्त्र के प्रभाव से मंगाकुट निवासिनी गंगादेवी हुई। सो बपनी उपकार करने वाली का स्मरण करके उसने सुलोचना के पास जाकर उसकी पूजा की, बऔर फिर अपने स्थान में पाकर सुख से काल बिताने लगी।
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जरा सोधिए !
१. "जैन" का प्रयोग कहां ?
कविवर वृन्दावनकृत छन्दोबद्ध प्रवचनसार भाषा में ___बाज कई लोग "श्रावक" और "जैन" दोनों दो लिखा है : में बभेद कर रहे हैं, जबकि दोनों दर्जे पृथक पृथक हैं।
"पर दवमाहि मोहममतादि भावनि को, "जैन धर्म" जिन भगवान के स्व-धर्म से संबधित है। पूर्ण
जहां न आरभ कहूं निरारंभ तेसो है। जय को प्राप्त कर लेने से 'बरहंत' --सिद्ध' 'जिन' हैं व
शुद्ध उपयोगवन्द चेतनासुभावजुत, जय के लिए मूर्तरूप में प्रयत्नशील अपरिग्रही आचार्य, उपा
तीनों जोग तैसो तहाँ चाहियत जैसो है। ध्याय और साधु "देश-जिन" हैं। कहा भी है-"जिणा
परदर्व के अधीन बर्तत कदापि नाहिं दुबिहा सयल देसजिरणभेएण । खवियघाइकम्मा सयल
आत्मीक ज्ञान को विधानवान वैसो है। जिणा । के ते? अहंत-सिद्धा। अवरे आइरिय उवज्झाय
मोक्ष सुखकारन भवोदधि उधारन को साहू देसजिणा तिब्ब कसायेंदिय-मोह विजयादो?"
अंतरंग भावरूप अनलिंग ऐसो है।" -धबला ९/४/१/१/१०
र अर्थात् निम्र-थ, अपरिग्रही, लोच करने वाले, शुद्ध, "जिन" दो प्रकार के हैं-"सकलजिन" और "देश- हिंसादि से रहित, सज्जा आदि क्रियाओं से रहित, जिन" घाति कोका क्षय करने वाले अरहंतों और सर्वकर्म- मुनीश्वर का लिंग वेश जैन की पहिचान का वाह्य रहित सिद्धों को "सकलजिन" कहा जाता है तथा कषाय चिह्न है और ममत्वभाव व बारंभ रहित, ज्ञानादि मोह और इन्द्रियों की तीव्रता पर विजय पाने वाले माचार्य, उपयोगो में शुद्धता, उपयोग वशीकरणता, पर से निरपेक्षता उपाध्याय और साधु को "देशजिन" कहा जाता है। और मोक्ष का कारण भूतपना रूप "जैन" का आभ्यंतर
उक्त दोनों प्रकार के जिनों का धर्म "जैन" उन्हीं में चिह्न है । "जिन" से संबधिन-जिन-प्ररूपित सिद्धान्त है। यतः धर्मी से धर्म अलग नहीं होता और ना ही धर्म, भी "जैन" है। "सकलजिन" अर्थात तीर्थंकरों के पादधर्मी को छोड़ता है। इस प्रकार "जिन" ही "जैन" पद्मों में रहने वाले गणधर आदि "जैन" है। ठहरते हैं। उक्त परिप्रेक्ष्य में जो संसारी, परिग्रही अपने "जेणाणं" पुणवयणं "यह पद गोम्मटसार कर्मकाण्ड को "जैन" घोषित कर रहे हैं, वे शोचनीय है "जैन" की गाथा ८६५ में आया है। वहाँ "जैनों के वचन" जैसे व्याख्या में कहा गया है -
कथन से अरहंत व निग्रंन्य मुनियों के "जैन" होने "जधजाद रूवजादं उप्पाडित केसमंसुगं सुद्ध की पुष्टि होती है, क्योंकि धर्म का विवेचन उन्हीं के रहिवं हिंसादीदो अप्पटिकम्म हवदि लिंग द्वारा हुआ है। इसी प्रकार जैन-गय, बैन-वर्शन, अंग-पत्र मुच्छारंभविमुक्कं जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहिं सभी में "जैन" शब्द अपरिग्रही पंचपरमेष्ठियों को लिंग ण परावेक्खं अपुणम्भव कारणं हं।"
इंगित करता है, किन्हीं परिग्रहियों को नहीं । तथाहि-प्रवचनसार ३/५-६ "भेवं भूरि विकल्पजालकलितं नान्नयात् नैगमात् ।" . जेण्ड-"जिनस्यसंबंधीदं जिनेन प्रोक्तं वा जैनम् ।"
-आचारसार १०/२ -वही, तात्पर्य वृ. "दर्शनमेकमेवशरणं" जम्माटवी संकटे।" "सकलजिनस्य भगवतस्तीर्थाधिनाथस्य पादपद्मोपजीविनो
याचारसारक बना-गणवरदेवावयः इत्यर्थः ।
"दूरासन्यसम विस्म सवः पातु वः।" -नियमसार ता.व. ना.१३९
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४६, वर्ष ३८ कि०४
अनेकान्त
श्री समयसार कलश २६३ में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने तब इधर लोगों ने अन्य मतों की देखा-देखी उपासकों के जैन-शासन को अलंध्य कहा है। वहां भी जैन के शासन लिए "जैन" का प्रयोग चालू कर दिया, फिर चाहे वे से जिनदेव के शासन का बोध होता है
उपासक भ्रष्ट ही क्यों न हों- सभी समुदाय रूप में "जैन" "एवं तत्वावस्थित्या स्व व्यवस्थापयन् स्वय। कहलाए जाने लगे। अलंध्य शासनं जैन मनेकान्तो व्यवस्थितः ॥"
स्मरण रहे कि मत-मतान्तरों में व्यक्ति की उपासना इन्हीं अमृतचन्द्राचार्य ने पुरुषार्थ सिद्धयुपायके २२५वें को प्रधानता है, शिव व्यक्ति को देवता मानने वाले श्लोक में "जनीनीति" शब्द दिया है, उससे भी स्पष्ट होता को शव, विष्णु व्यक्ति को देवता मानने वाले को वैष्णव, है कि "जैन को सभी जगह अरहतो, परमेष्ठियों के लिए बुद्ध व्यक्ति को देवता मानने वाले को बौद्ध कहा जाता प्रयुक्त किया गया है, किन्ही परिग्रहियों के लिए नहीं, है-ऐसा प्रचलन है।' उसी प्रकार इधर भी "जिन" जैसा कि आज चल रहा है। यहां भी "जैनीनीति' से के उपासकों को "जैन" नाम दे दिया गया। पर, जिनेन्द्र की नीति का ही भाव है।
विचार की दृष्टि से यह ठीक नहीं हुआ। जैसे शिव, "एकनाकर्षन्ती इलथयन्ती वस्तुतत्व मितरेण । विष्णु, बुद्ध आदि देवताओ के नाम " नाम निक्षेप"पर अन्तेन जयति जैनी-नीति मन्थाननेत्रमिव गोपी।" आधारित है-उनमे गुण, कार्य की विवक्षा नहीं
उक्त परिपेक्ष्य में प्रश्न यह उठता है कि यदि धवला क्योंकि-"अतद्गुणिनि वस्तुनि संज्ञा करणं नाम" इस में निर्दिष्ट और अन्य प्रमाणों के आधार पर परमेष्ठियों नाम निक्षेप मे तो गक्ति नाम से विपरीत गुणों वाला तक ही "जैन" शब्द सीमित है तो "जिन" को देवता मानने भी हो सकता है। लक्ष्मीनारायण नाम वाले को कभी वाले हम क्या कहे जाएंगे और सागार-धर्मामृत की स्वोपश सड़क पर भीख मांगते हुए भी देखा जा सकता है। फलतः टीका आदि के वाक्य "जिनो देवता येषां ते जनाः" का वहां किसी व्यक्ति का उपासक कोई व्यक्ति, नाम-निक्षेप क्या होगा?
से, शेव, वैष्णव, बौद्ध हो सकता है, इसमें कोई अड़चन उपर्युक्त प्रश्न के निराकरण में हमे प्राचीन परम्परा नहीं । पर, यह सब होकर भी उनका उपासक लाख-प्रयत्न पर दृष्टिपात करना होगा और यह भी देखना होगा कि के बावजूद भी स्वय शिव, विष्णु, बौद्ध नही बन सकताअपरिग्रही जय-शील "जिन" के प्रति प्रयुक्त होने वाला तप गुणों को प्राप्त नहीं कर सकता। लेकिन जैन-दर्शन "जैन" शब्द संसारासक्त परिग्रहियों के लिए कैसे प्रयुक्त मे ऐसा नही है। यहां गुणों को मुख्यता होने से सच्चा होने लगा।"
उपासक "जिन" नाम और "जिन" जैसे गुण-धर्म जहा तक प्राचीन परम्परा का प्रश्न है, सो पहिले दोनों प्राप्त कर सकता है। यतः "जिन" नाप तो गुणों जिन भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म की परम्परा में उसके पर आधारित है। जय करने से "जिन" होते हैं - उपासकों के लिए समण, सावग, अणगार, आगार शब्द इस नाम में गुणों की मुख्यता है और यहां गुणों की प्रचलित थे । सावग के लिए समणोपासग शब्द भी उपासना का विधान है। फलतः-"जिन" के उपासक प्रचलित था। पर, धीरे-धीरे ये शब्द बिगड़ते गए और जय-गुण की ओर अग्रसर होने पर ही "जिन" और तद्गुण सावग (बावक) का स्थान सरावग, सरावगी जैसे शब्दों ने धारी "जैन" हो सकते हैं । इन्हीं गुणों के कारण ले लिया-"सराक" शब्द भी बिगड़े शब्द का रूप है। आचार्य, उपाध्याय, साधु को "देश-जिन" कहा गया बाद में उक्त शब्दों का व्यवहार भी लुप्त हो गया और है-पूर्ण जिन और "जैन" तो अरहत, सिब ही है। उक्त शब्द शास्त्रों की परिधि में ही सीमित रह गए । यही कारण था कि यहां साधारण उपासकों को "जिन''
१. "शिवो देवता येषां से शैवाः विष्णु देवता येषां ते वैष्णवः बुद्धो देवता येषां ते बौदाः।" २. जिनो देवता येषां ते जनाः।"
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बरा सोधिए
"न" नाम न देकर समण, सावग (श्रावक) संशाएं पृषक में क्या कह ? बेला बोला-उस्ताद, ये सब तो आंख, से निर्धारित की गई।
वाले ही देख सकते हैं, इनके तो आँखें ही नहीं है, चलो. दुर्भाग्य कहिए या मत-मतान्तरों वत् कल्पित “जिनो और कहीं आंखों वालों में दिखाएंगे। वे दोनों चले गए देवताः येषां ते जैनाः" इस परिभाषा के कारण समझिए, और भीडभी छंट गई। जो आज सर्व साधारण जयनशील क्रिया-गुण के बिना तो यह तो एक दृष्टांत है। जैसे अरूपी आकाश (अन्यों की भांति नाम निक्षेप में) अपने को "जैन" कहने दिखाई नहीं देता, पकड़ में नहीं आता और नट उसमें लगे हैं। उनमें जो कुछ उपासक हैं उनमें भी अधिकांश बांस गाइने, रस्सी बांधने और जमड़े को चढ़ाने-उतारने "जिन" को व्यक्ति मान पूज रहे हैं-उनसे सांसारिक जैसे मिथ्या करतब दिखाने के मिथ्या-स्वांग भरता है मनौतियां मांग कर भी जैन बने हुए हैं उन्हें गुणों से वैसे ही कुछ लोग वर्षों से और आज भी जनता को कोई भी सरोकार नहीं। प्रकारान्तर से वे "जिन" को
अरूपी आत्मा को देखने-दिखाने की मिथ्या बातों में आज भी कर्ता माने हुए हैं । जरा सोचिए, ऐसा क्यों?
भरमा रहे हैं। वे पूर्वाचार्यों की दुहाई देकर जोर-जोर
से कहते हैं कि-ए भाई, तू आत्मा को देख, समझ आदि। २. एक व्यापार : प्रात्मा को देखना दिखाना जबकि आचार्य इससे सहमत नहीं। वे तो स्पष्ट कह
एक नट अपने चेले को साथ लेकर किसी मैंदान में रहे हैं कि आत्मा वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श से रहित है, पहुंचा और ढोल बजाकर भीड़ इकटठी कर ली। भीड़ अरूपी पकड़ मे नही आता-वण्ण रस पंच गंधा दो फासा के बीच खड़े होकर उसने चेले को संबोधन दिया-जमूड़े, अटुणिच्चया जीवेणो संति अमुत्ति तदा। 'आत्मा तो" देख, में जमीन में लम्बा बांस गाड़ता हूं, तुझे उस पर स्वानुभूत्या चकासते - अपनी अनुभूति से स्वयं ही स्वयं चढ़ना है। बोल तू चढ़ेगा? चेला बोला-हा उस्ताद, मैं में प्रकाशित है और होता रहा है। हां, जब तक परतैयार हैं। नट खाली हाथों खड़ा हो गया। वह बिना में लीनता है तब तक स्वानुभूति नहीं होनी । भला, हो बाँस के ही जमीन में झूठ-मूठ का बांस गाड़ने का भी कैसे सकती है ? जब तक संसारी जीव पर-परिग्रह ऐक्शन करने लगा। थोड़ी देर बाद उसने चेले से कहा-- रूपी विकारी भावों में है तब तक आत्मोपलब्धि कैसे? घेले, तू देख रहा है ये बास गड़ गया, अब तू इस पर फिर पात्नोपलब्धि सुलभ भी तो नही है। अनादि संसारी चढ़ जा। चेला बोला-उस्ताद, यह बांस तो बहुत ऊंचा जीव ने तो चिरकाल से काम, बन्ध, भोग की कथा की है, बिना रस्सी बांधे मैं कैसे चढ़ सकूँगा ? नट ने कहा है और मलिन भावों में सुखाभास को सुख रूप अनुअच्छा, रस्सी भी लटकाए देता हूं। नट ने जैसे खाली भव किया हैहाथों बांस गाड़ने का एक्शन किया वैसे ही रस्सी बांधने "चिर परिचिदानुभूदा सम्वस्स वि काम-बंध-भोग कहा । का एक्शन कर दिया ओर चेले से रस्सी पकड़ कर चढ़ने एयत्तस्सुबलंभो णवरि ण सुलहो बिहत्तस्स ॥" को कहा । देखते-देखते चेला भी एक्शन मात्र करके बांस सो यह जीव बारम्बार उन्हीं की ओर जाता है और के ऊपर पहुंच लेने की बात करने लगा हालांकि वह असुलभ, एकत्व-विभक्त आत्मा में इसकी गति नहीं होती अब भी नट के पास जमीन पर ही खड़ा था वह नट से तथा संसार में उलझे हए वह हो भी नहीं सकती। बोला-उस्ताद, मैं बहुत ऊंचे आ गया, उतारो, मुझे डर फिर भी, कुछ लोग नट की भांति लोगों को मिथ्यालग रहा है । उस्ताद ने उसे एक्शन में जमीन पर उतार प्रान्तियों में खींचने में लगे हैं और स्वयं भी नाटक कर लिया । लोगों ने यह सब मिथ्या स्वांग देखा ओर बोले रहे हैं। यदि लोग, चाहते हैं कि उन्हें आत्मानुभूति हो यहां न बांस है, न रस्सी है और न चेला ही चढा तो पहिले उन्हें उन वाद्यपदार्थों की असलियत को उतरा, तू लोगों को धोखा दे रहा है। नट बोला-यहां पहिवानना होगा जो उन्होंने अनादि से देखे, जाने और सब छ है और सब कुछ हो गया, तुम्हें नहीं दिखा तो अनुभव किए है, पर गमत रूप में। उनके गुण-स्वभाव
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बनेकात
को सम्यक दिशा में जानना होगी। जब वाय-पदार्षी यदि श्रोताओं के हाथ से बक्ता और वक्ता के हापों से की असारता, अशुचिता आदि का मही बोध होगा तब श्रोता खिसक गए तो उन का अपना दिखावा-रूप व्यापार आत्मानुभूति स्वयं हो जायगी-इसे अपरिचित, अरूपी, ही खत्म हो जायगा। यात्मा को देखने-दिखाने की कोशिश न करनी पड़ेगी यद्यपि यह बात वक्ता और श्रोता दोनों ही जानते
और पर पद से विरत हुए बिना इसे कुछ नहीं मिलेगा है कि लाख कोशिश करने पर भी अरूपी आत्मा उन्हें हमारे आचार्यो, तीर्थंकरों, महापुरुषा ने "स्व" का मार दिख न सकेगी, परिग्रह से विरत हुए बिना आत्मानुभूति दौड़ नहीं लगाई, पहिले वे पर से परिचित हुए, उन्होंने
न हो सकेगी। पर, फिर भी वे ससारा पक्ति लिए, बारह भावनाओं का चितवन कर "पर" की असारता
मात्मा को देखने-दिखाने के प्रचार जैसे व्य.पारों में लगे को जानकर उन्हें छोड़ा, तब आत्मानुभूति में अग्रसर
हैं और अधिक-परिग्रही अधिक रूप मे लगे हैं। ऐसा हए। वे जानते थे कि देखना, दिखाना, पकड़ना, पकड़ाना
क्यों? क्या यह सच नही कि वे इस बहाने अपनी यशजैसे व्यापार सदा दूसरों से संबंध के लिए होते हैं।
हात ह। प्रतिष्ठा के व्यापार को चमकाने और जो कुछ आवश्यकता स्वयं को देखा और पकड़ा नहीं जाता, उसमें आया जाता
से अधिक उन पर संचित है या होता है, उसे न छोड़ने के है। यह "स्व" में आना तब होता है जब पर से
लिए कटिवद्ध हैं? पर ये सब विसंगतियां है, इनसे विरत हो।
विराम लेना चाहिए। जब हम चिर-परिचित परिग्रह की असलियत जानने यदि किसी को वास्तव में कल्याण करना है तो पहिले और उसके छोड़ने की बात कहते है तो लोग मुंह-भी उसे "जैन" बनने का प्रयत्न करना होगा और जैन बनने सिकोड़ते हैं। वे अहिंसा आदि जैसी बौकिक प्रवृत्तियों से पहिले श्रावक बनना होगा, याचार का पालन करना की ओर दौड़ते हैं। वे जानते हैं कि जिस दुनियां में वे होगा, संसार-शरीर-भोगों की असारता को पहिचान कर
वह परिग्रह-मयी और स्वयं परिग्रह है। उससे दूर उससे विरत होना होगा। ऐसा कदापि नही है कि संपदा होकर वे कहां जाएंगे? इस दुनिया में कोई उनकी बात बढ़ाता रहे, भोगों में डूबा रहे और आत्मा को देखने-दिखाने भो न पूछेगा। उन्हें चिर-परिचित सांसारिक भोग भी के गीत गाता रहे या "भरत जी घर ही में विरागी कहां मिलेंगे, वे खाली खाली जैसे हो जाएंगे, उनकी "जैसे स्वप्न देखता रहे-जैसा कि लोग आज कर रहे है। मौकिक और झूठी प्रतिष्ठा भी मिट्टी में मिल जायगी। जरा सोचिए !
(आवरण पृ०३ का शेषांश) ने अपनी इस पुस्तक में इन दोनों संस्कृतियों के उद्भव तर चलती रही है। इस अन्तनिहित तथ्य को प्रथम तथा विकास को वैदिक मत्रों द्वारा सुचारू रूप से पुष्टि बार सविस्तार उद्घाटित कर प्राच्यविद्या मनीषी डा. करके प्रोलिक उद्भावना प्रस्तुत की है जिससे भारतीय दीक्षित ने सर्वत्र ठोस प्रमाण एवं उद्धरण देकर सिद संस्कृति के अनुसंधान के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ किया है। ब्राह्मण संस्कृति और जैन संस्कृति की वेद प्रतिगया है। वेदों में व्यापक रूप से सर्वत्र एक ही मंत्र में जहां पादित ऐमी मौलिक व्याख्या पहली बार प्रस्तुत हुई है। इन्द्र तथा वरुण के गुणों एवं शौर्यपूर्ण कार्यों का विवरण यह ग्रंथ शोधाथियों एवं अनुसंघित्सुओं के लिए अत्यन्त मिलता है, वहां वे स्पष्टतया दो परस्पर समन्वयोन्मुख उपयोगी एवं सर्वथा उपादेय है। इस विषय के गंभीर किन्तु सर्वथा भिन्न संस्कृतियों (अर्थात् ब्राह्मण एवं श्रमण अध्येताओं के लिए यह सन्दर्भ ग्रंथ के रूप में भी पठनीय, संस्कृतियों) के उत्तम, अमर उद्गाता एवं संपोषक प्रतीत मननीय एवं अनिवार्य है। होते हैं । वह परम्परा ऋग्वेद काल से लेकर सभी वेदों,
गोकुल प्रसाद जैन, उपाध्यक्ष, उपनिषदों, ब्राह्मण ग्रंथों बादि में सहखों क्यों तक निर
वीर सेवा मन्दिर,
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ग्रन्थ-समीक्षा
१. महोत्सव-दर्शन :
वाला (वाराणसी) एवं डा. देवेन्द्र कुमार जैन (नीमच); लेखन :धी नीरज जैन, सतना।
पृ० ३८०, मूल्य एक मौ रूपए प्रकाशक-सिद्धान्ताचार्य । प्रकाशक : श्रवण बेलगोल दि० जैन मुजरई इन्स्टीट्यूशंस पं० फून चन्द्र शास्त्री अभिनन्दन अन्य प्रकाशन समिति, मैनेजिंग कमेटी।
वाराणसी (उतर प्रदेश) साइ २०४२६४८ पृष्ठ : ४२१ मूल्य : १५० हाये। सिद्धान्ताचार्य १० फल चन्द्र जी भारतीय मनीषियों
वन में प्रकाशन-व्यवमाय ने बड़ी तरक्की की है: में बहुश्रुत विद्वान् है । आT सरलता की प्रतिमूर्ति है । गत माज-मज्। ननोहारिता आकर्षक हो और छपाई बाइंडिंग
अर्धशती से सतत साहित्य साधना में निरत रहे हैं। आप बढ़िया हो, आदि; जैसे सभी आयामों में उक्त प्रकाशन
बहुमुखी प्रतिभा के धनी, जैन कम सिद्धात के प्रकाण्ड भी उत्तम बन पडा है । मिद्ध-हम्न और मनीषा-पटु लेखक
व्याख्याता, अध्यात्मविद्या के प्रमुख वैना, आगम साहित्य के की कलम ने तो इसे चार चाद ही लगा दिए हैं। पाठक
निष्काम सेवक एवं विचक्षण और अगाध प्रतिभा सम्पन्न हैं। जब जब इसे पढ़ेगा तब तब भ० बाहुबली सम्बन्धी आद्यंत
आपके समुचित सत्कारार्थ प्रणीत प्रस्तुन अभिनन्दन सभी झाकियां उमको भाव-विभोर किये बिना न रहेंगी- ग्रन्थ में पडित जी के अभिवादन और सस्मरणों के 3 वह झूम उठेगा और जितनी बार पढेगा उतनी बार ही
रिक्त उनका जीवन परिचय, ब्यक्तित्व और कृतित्व एवं उसे महा मस्तकाभिषेक जैसे अनेक पुण्य-प्रसगों को प्रत्यक्ष
उनको साहित्य सर्जना का सविस्तार उल्लेख है। ५५ देखने जैमा अनुभव होगा। ग्रंथ मे २७+२६१ मनोहारी
मौलिक एवं सुसम्पादित प्रमो के अतिरिक्त आपके धर्म चित्र है। चित्रो को देखकर हमारी ममी में श्रद्धा
और दर्शन, इतिहास और पुरातत्व, अनुसंधान और शोध, जागी कि वे पुष्पात्मा और क्षेत्र-भूमिया आदि धन्य है।
समाज और संस्कृति तथा पत्रकारिता और अन्य विविध
विषयो पर लेख आपके साक्षात कीति स्तम्भ है । और आप जिन्हें भ० बाहुबली-कथा प्रमग से ग्रंय में सजने का सौभाग्य मिला । दो चित्रों को हमने बड़े गौर से देखा
की जीवन कापी-साहित्यसाधना को आलोकित करते हैं।
यह ग्रन्थ सभी प्रबुद्ध पाठकों एवं अध्येताओं के लिए (१) इन्द्र सभा की एक छवि (चित्र ५७) और (२)
सर्वथा उपयोगी, मननीय एवं उपादेय है। विरागी नेमिनाथ को प्राहार कराते हुए आचार्य विमलसागर जी और मुनि श्री आर्य नन्दी जी (चित्र ६३) दोनों
३. ब्राह्मण तथा श्रमण संस्कृति का दार्शनिक
विवेचन-डा. जगदीश दत्त दीक्षित, अध्यक्ष, सस्कृत ही प्रसगो ने हमें विचार के लिए प्रेरित किया है
विभाग, मोतीलाल नेहरू कालेज, नई दिल्ली; पृष्ठ २२३; विचार कर फिर कभी लिखेंगे । कुल मिलाकर प्रकाशन
मूल्य ६० रुपए; प्रकाशक-भारतीय विद्या प्रकाशन, १ यू. बड़ा उपयोगी और सग्रहणीय है । लेखन और प्रकाशन में
बी० जवाहरनगर, बंग्लो रोड, दिल्ली-७. योग देने वाले सभी महानुभाव धन्यवादाह हैं।
-सम्पादक
भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानो ने वैदिक वाङ्मय
में व्याप्त दो प्रमुख धाराओं और संस्कृतियों (ब्रालण २. सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचंद्र शास्त्री अभिनन्दन संस्कृति और श्रमण संस्कृति का संकेत तो किया है किन्तु ग्रन्थ : सम्पादक मन्डल-डा० ज्योतिप्रसाद जैन (लखनऊ), इन दोनों धाराओ के उद्गम और विकास के विषय मे किसी पं०कैलाश चन्द्र शास्त्री (वाराणसी), पं० जगन्मोहन भी विद्वान ने विस्तार से लिखने का प्रयास नहीं किया। लाल शास्त्री (कटनी), पं० नाथूलाल शास्त्री (इन्दौर), वैदिक साहित्य के उद्भट विद्वान् डा. जगदीश दत्त दीक्षित पं० माणिकच-द्र चवरे (कारंजा); प्रो० खुशालचन्द्र गोरा
(शेष पृ० ४८ पर)
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________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10391/61 न वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द / रमन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग 1: संस्कृत और प्राकृत के 171 अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी 11 परिशिष्टों पोर पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द / ... बैनन्ध-प्रशस्ति संग्रह, भाग 2 : अपभ्रंश के 122 अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह। पचपन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित / स.पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। 1 समाभितन्त्र और इष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित प्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ग्याय-दीपिका : मा० अभिनन पर्मभूषण की कृति का प्रो० डा. दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। 1 जैन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या 74, सजिल्द / कसायपाहडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर थी यतिवषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे / सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों पर हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के 1000 से भी अधिक पृष्ठों में। पृष्ट कागज गौर कपडे की पक्की जिल्द / चन निबन्ध-रत्नावनी : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ज्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : मंपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री भावक धर्म संहिता : श्री दरयावसिंह सोषिया न लाणावली (तीन भागों में) : मं.पं.बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री प्रत्येक भाग . जिन शासन के कुछ विचारगीय प्रसंग : श्री पचन्द्र शास्सी, बहुचर्चित सात विषयों पर शास्त्रीय प्रमाणयुक्त तर्कपूर्ण विवेचन / प्राक्कथन : सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित / मूल जैन संस्कृति अपरिग्रह : श्री पद्म वन्द्र शास्त्री Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942) Per set 600 r आजीवन सदस्यता शुल्क : 101.0010 वार्षिक मूल्य: ६)ब०, इस अंक का मूल्य 1 रुपया 50 पैसे - - - - विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्यादक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते। - - - - सम्पादक परामर्श मण्डल ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पावक श्री पाच्य शास प्रमाणक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीर सेवा मन्दिर के लिए, गीता प्रिंटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर इल्ली के मुदित /
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