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अपभ्रंश-साहित्य की एक प्रकाशित कृति: पुण्णासवकहा
कागज वाले पृष्ठों की संख्या पांच है । इन पहले पृष्ठों के कुटंब वर्णन, करि पाछै नेमिदास संगही नै रवध सौं विनी रंग में भी कुछ अन्तर है। मोते कागज वाले पत्र कुछ भक्ति करि, कि मौकों धर्म, और न वितांतु विस्तार सौं कृष्णरुखी सफेद हैं और पतले वाले पत्र अल पीतवर्ण
सुनावी : तब रइधू नै यहु श्रावकचारु निर्मायो, धर्मपुन्य मिश्रित सफेद । किन्तु लि बावट सर्वत्र एक सवश है। के भेद सम्यक्त के भेद, यति थावक धर्म सवु : रइधु प्रपन पृष्ठ पर वर्णन विषय के बीचो बीच लाल
। कहत हैं नैमिदास संगही सुनत हैं, नैनिदास के नामकरि स्याही से चौकोर सजावट वाला एक चित्र है, जिसके
ग्रन्थु कीनी, पत्र तीनों माँ ऐ बातें, चौथे पत्र में श्रावकामध्य में लाल स्याही मे एक गोनाकार बिन्दु बरा है। चार चल्यो। श्रेनिक राजा ने प्रस्न करी: मनपर में और उसके चारों ओर खड़ी पडी पंक्तियां खीचकर उसे कह्यौ, पहल ही सम्यक्त ।" चौकोर खीची हुई सीमा रेखाओ से जोड़ दिया गया है। लिपिकार के उक्त लेखन से कई विशेषताएं दृष्टियह आकृति सूर्य एवं उसकी छिटकती हुई किरणो का
गोचर होती है। मर्वप्रयम यह कि आज से ४०. वर्ष
सही आभास प्रदान करती है । इम चतुष्कोण के बाहर भी
पूर्व के एक लिपिकार के मन में अपभ्रंश-भाषा के एक चारों ओर चार छोटे २ चतुष्कोण प्रमुख चतुष्कोण की गंथ की सव्यवस्थित ग्रंप-सूची एवं प्रथ-सक्षेप जन भाषा में सीमाओं से जुड़े हुए हैं। उन सभी के मध्य में एक दूसरों तैयार करने की भावना जागृत हुई थी। इस शैली की को केन्द्र में काटने वाली दो-दो रेखाएं भी जिची हैं।
विषय सूची एव अपभ्रंश ग्रंथ का पृष्ठानुगामी हिन्दी संक्षेप सन्धि, कडवक आदि मभी पर क्रम संख्या दी हुई
मेरी दृष्टि से अभी तक उपलब्ध समस्त अपभ्रंश ग्रंथों में है। हां, कडवकों के क्रम में कही २ गलत संख्याक्रम दिया
से कहीं उपलब्ध नहीं है। लिपिकार ने इस शैली को हुआ है, किन्तु सन्ध्यन्त उमका हिसाब सही है।
अपनाकर एक नवीन अद्भुत आदर्श उपस्थित किया है। लिपिक ने गभी पत्रों पर प्रारम्भ से अन्त तक लिखा है। कोई भी पत्र खाली नहीं है। पृष्ठों के बायीं एवं
दूसरी विशेषता यह है कि लिपिकार ने 'पुण्णासव दायीं ओर ग्रन्थ का नामोल्लेख नहीं है।
' कहा' को "श्रावकाचार" की संज्ञा दी है। यद्यपि "पुण्णा___ सौन्दर्य की दृष्टि से गलती से लिखे गये वर्गों को सब कहा" में स्त्रय ही उसका अपरनाम "बावकाचार" लिपिकार ने काटा नहीं है किन्तु उनको निरर्थकता को
कही भी उपलब्ध नहीं है किन्तु लिपिकार ने उक्त प्रथम सचिन क ने हेतु उसके ऊपर छोटी-छोटी दो रेखाएँ
पृष्ठ पर ही इस कृति को "पुण्णासब कहा" न कहकर
पृष्ठ पर हा कित कर दी हैं।
उसे "श्रावकाचार" कहा है । उसका एकमात्र कारण यही लिपिकार ने कही २ किमी पारिभाषिक जटिल शब्द
प्रतीत होता है कि "पुण्णामव कहा" में प्रायः श्रावकको भी कम सख्या देकर हाशिये में लिख दिया है। श्राविकाओं को ही चर्चा है तथा बारहवीं सन्धि मे श्रावप्रति को विशेषताएं
काचार का शुद्ध सैद्धान्तिक वर्णन है। इसी आधार पर प्रस्तुत कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके सम्भवत: उसने इमका अपरनाम श्रावकाचार" कहा है। मुख पृष्ठ पर लिपिकार ने सक्षिप्त प्रन्य-विषय सूची दे दी जैसा कि पूर्व में सोन दिया जा चुका है कि इस है और बताया है कि कौन सन्धि किस पृष्ठ पर समाप्त' प्रति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमे पत्र संख्या होगी। फिर ग्रन्थ की कुल पृष्ठ संख्या सूचित की। प्रथम १४ से ६७ तक छोडकर सर्वत्र मुल वर्ष-विषय का पृष्ठाचार पत्रों की विषय सामगी समकालीन हिन्दी में निम्न नुगामी हिन्दी सक्षेप सत्र शैली में पत्रों के चारों ओर प्रकार प्रस्तुत की है :
हाशियों में दिया हुआ है। इससे ग्रन्थ के अध्ययन में बड़ी "प्रथम ही पंच परमेष्टी स्तुति, पार्छ सरस्वती स्तुति, सहायता मिलती है । उदाहरणार्थ पत्र संख्या २३ (क एवं चन्दवारि पटनु, सिरिराम राजा की प्रभुता वंनी, देसनगर ख) पर अमूढ दृष्टि अंग की कथा के अन्तर्गत रेवती रानी महिमा वनीं । महाजन लोग सुषी, नैमिदास पुरवार वनंतु, का कथानक आया है। उसमें मेघकट के राजा चन्द्रप्रभ के