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प्रचुरता भी रहती है, जबकि उक्त द्वितीय श्रेणी की शब्दावलियों ने कथा-प्रवाह में कोई कमी या त्रुटि नहीं कथाओं में कथा का बाहुल्य रहने के कारण कथारस ही आने दी है। कवि ने अपने इस ग्रन्थ के सूजन में पूर्ववर्ती प्रधान होता है, काव्य चमत्कार नहीं।
प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश --तीनों भाषाओं के माख्यातृतीय-श्रेणी में वे लघु-कथाएं हैं, जो लोक-जीवन नात्मक साहित्य का अध्ययन कर तथ्यों को ग्रहण किया से ग्रहण की गई हैं तथा जिन्हें धार्मिक सांचे में ढालकर है। यही कारण है कि चाणक्य-चन्द्रगुप्त जैसे राजनैतिक धार्मिक कथा का रूप दे दिया गया है। इस श्रेणी की आख्यान भी इस ग्रय मे समाविष्ट हैं। कथाओं का पूर्वार्द लोक कथा के रूप में गठिन रहना है कि परिनय - तथा लोक कथा के समस्त तत्व भी साथ-साय वणित
उक्त पुण्णासन कहा' को एक ही प्रनि अभी तक ज्ञात होते जाते है।
एवं उपलब्ध हो सकी है। इसमें कुल मिलाकर ११२ पत्र चतुर्थ श्रेणी में वे आख्यान है, जिनमे ऐतिहासिक
हैं। प्रति पृष्ठ की लम्बाई-चौडाई १६"x१७" है । तथ्यों के साथ-साथ कुछ कल्पनाओ का समावेश हो जाता
प्रत्येक पृष्ट को पक्तियो की संख्या ११ से लेकर १२ है। ऐसे आख्यानो को अर्ध ऐतिहासिक क्षाख्यानों की तक हैं । मल-प्रकरणो में गहरी काली स्याही एवं 'धत्ता' कोटि में गिना जाता है।
शब्द तथा सध्यन्त सुचक-पुष्पिकाओं में लाल स्याही का पचम-कोटि को वे कयाएँ है, जिनका प्रमुख प्रयोग किया गया है। अगल-बगल में २"४२" एवं उद्देश्य पुण्य की उत्कृष्टता और पाप की निकृष्टता प्रति- ऊपर नीचे १"x१" के हाशिये छोड़े गए हैं । सभी पृष्ठों पादित करना है। इन कथाओं में पुण्य-पाप के फल के के बीचों-बीच छोटा-छोटा गोलाकार कुछ स्थान भी छूटा साथ-साथ पुण्य-पाप से भिन्न धर्म एवं आत्मानुभूति का हुआ है। प्रति का प्रारम्भ ॐ ॐ णमो श्री वीतरागाय निरूपण किया जाता है।
नमः १-पणविवि सिर वीरं गाणगहीर । भवजल णिहि प्रस्तुत 'पुण्णासव कहाँ' उक्त पञ्चम श्रेणी का कथा परतीरं पयं ॥ से होता है एवं अन्त निम्न पद्य से होता ग्रन्थ है । महाकवि रइधू ने उक्त पांचों प्रकार की कथाओं है:का सृजन अपने विपुल साहित्य में किया है। उसके प्रस्तुत पर्यालोच्य विभूति चंचल तडिद्दामिव दाने रुचि, 'पुण्णासव कहा' में न तो एक नायक है और न कथागत रर्चायां जगदीश्वरस्य विधिना येन कृताहन्निशां । एक प्रभाव ही। कवि ने सम्यक्त्व, पूजा, अर्चन, व्रतोर- सूत्रानुगतः प्रभाकर प्रभः सो नन्दतात्पावनः वास, पञ्च नवकार आराधन आदि पुण्यकार्यो के फलों श्री संघाधिप नेमिदास तनुजः पादार्घवर्णा...॥ को अभिव्यक्त करने के हेतु अनेक पात्रों का चयन किया उक्त प्रति मे प्रतिलिपि के लेखक का नाम, अन्यहै। प्रत्येक प्रमुख कथा अपने में स्वतन्त्र है। द्वितीय कथा लेखन के स्थान का नाम एवं प्रतिलिपि के लेखन के काल के साथ उसका कोई तादात्म्य या समवाय सम्बन्ध नहीं का उल्लेख नही है । अत: यह निश्चित नहीं कहा जा है। केवल संयोग सम्बन्ध है। इस ग्रन्थ में महाकवि सकता कि यह प्रति कितनी प्राचीन है, किन्तु इसकी रइधू की विशेषता यह है कि उसने ग्रंथ पुण्याश्रव कथा लिपि को देखने से यह अनुमान होता है कि वह लगभग कोष में जिन तथ्यों की व्यञ्जना ५०-६० कथाओं के ४०० वर्ष प्राचीन अवश्य रही है। यह प्रति जीर्ण-शीर्ण बीच की गई है, उनकी अपेक्षा रइधू ने उन समस्त तथ्यों हो रही है। क्रम सं.२,७०, ११० एवं १११वें पत्र का समावेश केवल २७ कथाओ में ही कर दिया है। फिर कुछ अधिक गले हुए है तथा उनमें कुछ शब्द टूट भी गए भी न तो उसके प्रवाह में कोई कमी आने पाई है और न हैं। ग्रन्थ के तीन पृष्ठ-६७, १०३ एव १०६ दो-दो आख्यान ही त्रुटित हैं । जिस कथा को कवि ने आरम्भ टकड़ो को जोड़कर बनाये गए हैं। उनके जोड़ स्पष्ट किया है उसका अन्त उद्देश्य के अनुसार पूर्ण फलोपलब्धि दिखाई पड़ते हैं । इस प्रति में मोटे एवं पतले दोनों ही के पश्चात् ही हुआ। धार्मिक तथ्यों और पारिभाषिक प्रकार के कागजों का उपयोग किया गया है। पतले