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________________ अपभ्रश-साहित्य की एक अप्रकाशित कृति: पुण्णासवकहा | D জান আল अपभ्रंश-साहित्य का भाषा-शास्त्र एवं काव्यरूपों की है तो दूमरी ओर वणिक्पुत्रों अथवा सामान्य वर्ग के दृष्टि से जितना महत्व है उससे कही अधिक उमका सुखों-दु.खों अथवा रोमास पूर्ण कथाओं से परिव्याप्त हैं। महत्व आख्यात साहित्य की दृष्टि से है । अपभ्रंश के श्रद्धा समन्वित भावभीनी स्तुतियों, सरम एवं धार्मिक प्रायः समस्त कवि, आचार्य एवं दार्शनिक तथ्यो तथा सूक्तियों तथा ऐश्वर्य वैभव एव भोग-विलास जन्य वातालोक जीवन की अभिव्यञ्ना कथाओ के परिवेश द्वारा ही वरण, वन-विहार, सगीन-गोष्ठिया, जाखेट एवं जलकरते रहे है। इस प्रकार के आख्यानो के माध्यम से अप- कीडाएँ आदि सम्बन्धी विविध चित्र-विचित्र चित्रणों से भ्रंश-साहित्य में मानव-जीवन एव जगत् की विविध मूक अपभ्र श माहित्य की विशाल चित्रशाला अलंकृत है। भावनाएं एवं अनुभतिया मुखरित हुई है। इसमे यदि नारी-जीवन में क्रान्ति की सर्वप्रथम समर्थ चिनगारी एक ओर नैतिक एव धार्मिक आदर्शों की गंगा-जमुनी अपभ्रंग-साहित्य में दिखलाई पड़ती है। महासती सौता, प्रवाहित हुई है तो दूमरी ओर लोक-जीवन से प्रादुर्भन रानी रेवती, महासती असन्तमति, महारानी प्रभूति नारी ऐहिक रस के मदमाते रसासिक्त निर्भर भी फूट पड़े है। पात्रो ने इस दृष्टि से अपभ्रंश के आख्यान साहित्य में एक ओर वह पुराण-पुरुषो के महामहिम चरित्रों से समृद्ध एक नवीन जीवन ही प्राप्त किया है। महाकवि रइधू की 'पुण्णासव कहा' नामक रचना भी अपभ्रंश के आख्यान(पृ. ६ का शेषाश) बार समझाने पर अगर ६ का अक १ के सम्मुख हो जावे साहित्य की दृष्टि से उपादेय है। तो औदायिक भाव रूप ३ का अंक भी मुह फेर ले तब अपभ्रंश कथाओं का वर्गीकरण एवं उनमें १६३ से १३६ का अक हो जाता है यह सम्पक दृष्टि की 'पुण्णासव कहा' का स्थानदशा है । वह स्वभाव के सम्मुख और औदायिक भावो जैन वाङ्मय में प्रायः पाँच प्रकार की कथाएं निबद्ध की तरफ पीठ फरे हुए है। अब कभी औदायिक भावो है। प्रथम कथाओं का वह प्रकार है, जिनके नायक की तरफ जाना भी है तो उनको पर रूप ही देखता है त्रिषष्टि शलाका पुरुषों में से कोई एक पुण्यशलाका पुरुष उनमें अपनापना नही मानता । अब १३६ के अक में होता है । इस श्रेणी की कथाओ को पौराणिक कथाएं जितना जितना ३ का अक एक में ठहरता जाता है उतना कहा जाता है। इसका प्रधान लक्ष्य संसार के सुख-दुख, ही के अंक रूप औदायिक भाव मिटते जाते है जैसे पाप-पुण्य एवं जन्म-जन्मान्तर के फलो का निरूपण कर जैसे औदायिक भाव मिटते जाते है वैसे से श्रावक और नायक को मोक्ष की ओर ले जाता है। मुनि की अवस्था होती जाती है। इस प्रकार ६ का अंक द्वितीय-प्रकार की कथाए हैं, जिनमें नायक एक घट कर ५, ४, ३, २.१, ० होकर शून्य हो जाता है। नही, बल्कि अनेक रहते हैं। यद्यपि कथा एक नायक की ३ का अंक एक में लीन हो जाता है और मात्र एक का ओर ही गतिशीत होती है, पर फलोपलब्धि अनेक नायको अक याने एक अकेला चैतन्य रह जाता है । इस प्रकार को होती है। इस श्रेणी की कथाओं को भी पुराण या १६३ की संख्या ससार है और १३६ की संख्या में महापुराण की कोटि में स्थान दिया जा सकता है । अन्तर मोक्षमार्ग हैं जो एक का ज्ञान बिना नही होता। इतना ही है कि प्रथम प्रकार की कथाएं अधिक विस्तृत 00 नही होती और उनमें सरस एवं काव्यात्मक वर्णनों की
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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