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________________ वर्ष ३८, दि०३ अनेकान्त स्त्रियां कितनी है, पुरुष कितने हैं और बच्चे कितने हैं तो आचार्य कहते हैं एक बार तू अपने को चैतन्य रूप अनुभव सब अलग अलग दिखाई देते हैं । पहली सामान्य दृष्टि है कर ले, तू वैसा त्रिकाल है, अपने स्वभाव को कभी छोड़ा जिसमे सारे विशेष गभित हैं दूसरी विशेष दृष्टि है । इसी नहीं है । मात्र भीतर झांकने भर की देरी है, तू ज्ञान का प्रकार निगोद से लेकर सिद्ध पर्यन्त एक दृष्टि डाले तो अखण्ड पिण्ड आनन्द की गोदाम है। सभी चैतन्य दिखाई देते हैं वहाँ संसारी मुक्त का भी अंतर नही है । त्रस स्थावर का भी भेद नहीं है। मात्र सभी युक्ति कहती है कि जब यह अपने को शरीर रूप चैतन्यरूप दिखाई देते है यह सामान्य दष्टि है, इस दष्टि मे देख सकता है अनुभव कर सकता है तो अपने को चैतन्य सारे भेद गौण हो गए और दूसरी दृष्टि से देखे तो सब रूप, ज्ञान रूप क्यो नहीं देख सकता जैसा वह विकाल अलग-अलग है। सिद्ध और संसारी मे बडा अन्तर है स है। जव तक अपने को इस रूप में नहीं देखेगा इसका पर स्थावर मे बडा अन्तर है, मनुष्य पशू में बडा अन्तर है। में अपनापना मानना, शरीर के साथ एकत्वपना नहीं पहली दृष्टि मे सभी समान है वहा राग-द्वेष करने का मिट सकता तब तक इसके ससार मिटने का कोई उपाय कोई प्रयोजन ही नहीं है। कोई छोटा बड़ा नही, किसी नही है । की किसी के साथ कोई तुलना नहीं है । इसी प्रकार इस इसी बात को समझने के लिए इस प्रकार भी रखा ढग से सोचा जा सकता है कि जब यह मनुष्य, नारकी, जा सकता है । १६३ की संख्या लेते हैं १ का अंक आत्मा देव, तियंचपने को प्राप्त होता है वैमा शरीर मिलता है का चैतन्य स्वभाव है ज्ञान का अखण्ड पिण्ड है । ६ का तब यह चैत य है कि नही, जब पशु है तब भी चैतन्य हे अंक क्षयोपसम भाव है यानी ज्ञान की मति, भूत ज्ञानरूप जब गरीब है तब भी चैतन्य है, जब धनिक है तब भी पर्याय है अथवा हमारी जानने की वर्तमान शक्ति है चैतन्य है, जब निरोगी है तब भी चैनन्य है, जब रोगी है ३ की संख्या औदायिक भाव है जो कर्म के उदय से तब भी चैतन्य है और जब रागी है तब भी चैतन्य है, हो रहे हैं। इस प्रकार यह क्षयोपसमभाव रूप मैं अपने और जब द्वेषी है तब भी चैतन्य है। कहना यह है कि चैतन्य स्वभाव रूप को भूलकर कर्म के उदय से होने अनेक अवस्थाओं को प्राप्त करते हुए भी यह चैतन्यपने वाले ३ सख्या के बाचक औसायिक भावों के सम्मुख हो को नहीं छोड़ रहा है। तब उन अवस्थारूप तो हम अपने रहा हूं। उन्हीं औदायिक भावों को ही अपना मान रहा को देख सकते है, देखते है परन्तु अपने को चैतन्य रूप ह उसी रूप में अपने को अनुभव कर रहा हूं उनके साथ क्यों नही देख सकते । जिस रूप में हम हर हालत में है. एक हो रहा हैं यही ससार अवस्था १६३ की संख्या से हर समय है, मरते हैं तब भी चैतन्य है जीते है तब भी बताई जा रही है कि १ की संख्या जो चैतन्य स्वभाव है चैतन्य है । अवस्था बदलती है, पर्याय बदलती है शरीर उसको पीठ देकर यह औदायिक भावों को अपने रूप देख बदलता है परन्तु चैतन्य हमेशा हमेशा वैसा ही है वह रहा है । शास्त्र का अध्ययन भी करता है पूजा-पाठ भी मन्य रूप नही हो सकता। अगर एक बार अपने को करता है, व्रतादि भी धारण करता है परन्तु ६ का अंक जैसा पर्याय मे अपने को अपने रूप देखता है वैसा ही पलट कर १ के सम्मुख नहीं होता । जब तक ६ का अंक अपने को चैतन्यरूप देख लेता तो पर्याय तो रहती, शरीर पलट कर १ के सम्मुख नही होगा ३ के अंक से पिट्ठ तो रहता परन्तु उसमें असलियत खत्म हो जाती और उस नही देता है तब तक सब कुछ करते हुए भी सम्यक दर्शन पर्याय सम्बन्धी दुःख सुख नही रहता । जैसे नाटक में नहीं होगा। द्रव्यलिंगी मुनि ने औदायिक भावों को तो पार्ट करने वाला अपने को भूलकर अपने को पार्ट रूप बदली किया परन्तु उसमे अपनापन नहीं छोड़ा और १ के मान लिया वह अगर अपने को जान ले तो पार्ट तो रहे अंक में अपनापना नहीं आया। इसी प्रकार ग्यारह बंग पर पार्ट में अपनापना न रहे और फिर उस पार्ट को करते पढ़ कर सब कुछ पढ़ लिया परन्तु ६ का अंक १के .हुए उस पार्ट से सम्बन्धित सुखदुःखम हो। इसलिए सम्मुख नही हआ इसलिए सम्यक दर्शन नहीं हुआ।बार
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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