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१६३ बनाम १३६
ए लेखक-बाबूलाल जैन, कलकत्ता वाले
वस्तु तत्व को समझने मे वस्तु का सामान्य स्वरूप अपनापना मानकर सुखी दुखी हो रहा है, उसको स्वभाव समझना जरूरी है। वस्तु का विशेष स्वरूप सबके का ज्ञान कराना जरूरी है, इसके बिना उसका सुखी दुखी पकड़ में आ रहा है और अपने को उसी रूप समझ होना नही मिट सकता। इसने दुःखरूप पर्याय (स्वांग) को कर सामान्य स्वरूप के ज्ञान विना अज्ञानी हो रहे हैं। बदली करके सुखरूप पर्याय (स्वांग) को पाने की पर्यायमात्र रूप ही अपने को मान रहे है, द्रव्य चेष्टा तो करी परन्तु अपने को पहचानने की चेष्टा नहीं सामान्य का ज्ञान नही है। जो पर्याय में एकत्वपने को करी । अपने को पहचान लेता तो फिर कमी भी पर्याय प्राप्त है ऐसे लोगों को द्रव्य सामान्य का ज्ञान करने की मिले कोई दिक्कत नहीं रहती। अपने को पहचान लेना प्रेरणा की गई है, जिससे पर्याय को पर्याय तो माने परन्तु ही असली सही उपाय है। पर्याय में एकत्वपना मिट जावे । पर्याय मे एकत्वपना अब सवाल यह पैदा होता है कि अपने को कैसे मानकर अपने को मनुष्य, देव नारकी, तियंच, सुखी-दुखी, पहचाने । इस बारे में इस प्रकार विचार किया जा सकता रागी-द्वेषी, धनिक गरीब मानता है। अगर द्रव्य स्वभाव है कि हरेक वस्तु में दो धर्म है एक सामान्य रूप और का ज्ञान हो जाता है तो उसे पर्याय सम्बन्धि सुख दुःख नहीं एक विशेषरूप। दोनों एक साथ एक समय में हैं। हों। जैसे कोई आदमी नाटक में पार्ट (स्वांग) करता है हम विशेष को गौण करके सामान्य को भी देख सकते वह अपनी असलियत को भूल जाता है तो पार्ट (स्वांग) में हैं और सामान्य को गौण करके विशेष को भी देख सकते असलियत आ जाती है एवं स्वाग मे अपनापन आता है हैं परन्तु किसी एक का निषेध करने पर एकांत हो जाता जिससे स्वांग सम्बन्धि सुख दुख का भोक्ता हो जाता है। जैसे कोई लड़का लड़की का पार्ट कर रहा है। वह है। यही अवस्था यहां पर अज्ञानी की है वह अपने असली अपने को लड़की रूप भी देख सकता है और लड़के रूप स्वभाव को भूल कर स्वांग मे ही अपनापना, मस- में भी देख सकता है क्योकि वह दोनों पनो को जानता लियत मान रखा है ऐसे व्यक्ति को स्वभाव का ज्ञान कैसे है। वहां भी लडका रूप अनुभव करना आसान है, लड़की हो और स्वभाव का ज्ञान हुए बिना उस पर्याप (स्वांग) रूप अनुभव करना मुश्किल है। लड़की रूप तो अनुभव सम्बन्धि दुःख-सुख नही मिट सकता । एक स्वांग से तभी कर सकता है जब वह भूल जाता है कि मैं लड़का हूं। दूसरा स्वांग बदली तो हो जाता है परन्तु स्वांग मे अस- इसी प्रकार सोने का जेवर है उसको जेवर रूप भी देख लियत नहीं मिटती है और असलियत मिटे बिना उस सकते है और सोने रूप में भी देख सकते हैं। सोने रूप सम्बन्धी सुख-दुःख नहीं मिटता । विना स्वभाव का ज्ञान देखने में जेवरपना उसी में गभित हो जाता है । कपड़ा हए पर्याय में असलियत मिट नही सकती। यह तो युक्ति- खरीदने जाते हैं तब उसको पोत रूप भी देख सकते हैं। युक्त ही है कि अगर कोई व्यक्ति अपने को भूलकर स्वांग उसको धोती, ब्लाउज और डिजाइन रूप भी देख सकते को ही अपना होना मान लेता है तो वह स्वांग सम्बन्धि हैं। कई व्यक्ति बैठे है, उसमें कुछ स्त्रियां हैं, कुछ पुरुष सुखी दुखी हो जाता है। अगर फिर उसको अपने स्वभाव हैं, कुछ बच्चे हैं परन्तु एक दृष्टि डाले कि व्यक्ति कितने का ज्ञान हो जाता है तो स्वांग सम्बन्धित सुख दुख नही है वहां स्त्री, पुरुष, बच्चे के भेद मिट जाते हैं मात्र व्यक्ति रहता। यह हाल इस व्यक्ति का है। कर्म जनित स्वांग में कितने हैं उतने ही दिखाई देते हैं परन्तु जब भेद करे कि