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________________ धर्मका मुखाचार: मास्वाया अंधास्था सीमाएं कबूल करते हैं तथा उदारचित्त से उन निष्कर्षों विश्वास और मास्था के लिए। के विपरीत निष्कर्षों को भी आदर देकर प्रविधि की प्रत्येक प्रकार के ज्ञान के पीछे अनुभूति विश्वास कसौटी पर ले आते हैं। ऐसी अभिवृत्ति से ही हम विज्ञान जरूर होता है। वस्तुज्ञान की परिभाषा में भी कहा के क्षेत्र में अधविश्वाम के दृषण से बचते हैं और बच अधविश्वाम क दूषण से बचत है और बच जाता है कि हमारा वस्तुमान तभी वैध ज्ञान है जब वह सकते हैं। वस्तु के अनुरूप हो और जिस के अनुरूप होने का हमें अब हम आते हैं दर्शन के क्षेत्र में पाले गए विश्वास विश्वास भी हो। यदि अनुरूपता से सम्बंधित विश्वास के बारे में। दर्शन एक प्रकार से हमारे सम्पूर्ण चिंतन के हमारे मन में नहीं है तो वह ज्ञान नहीं होगा। सच पूछो, आधारों की जाच परख है, तौल खोज है। इस जाच तो वस्तु के अनुरूप हमारी चेतना की अनुमति स्वतः होती है, परख की भी एक प्रणाली है जो वैज्ञानिक तर्क प्रणाली से जिस अनुमति के होने के बारे में हमें किसी से पूंछना नहीं कुछ अधिक विकसित है। दर्शन को सर्क प्रणाली विज्ञान पड़ता, अपितु हम उसके होने के बारे में स्वतः आश्वस्त की तर्क प्रणाली की भी खोज खबर लेती है तथा उस की होते हैं। यह आश्वस्त होना ही हमारा विश्वास है । जब क्षमता, अक्षमता तथा सीमामों का निर्धारण करती है। हम इस विश्वास के बारे में अवगत हो जाते हैं तो वह दार्शनिक प्रणाली से ही तो प्रेरित होकर शुद्ध वैज्ञानिक विश्वास वस्तुज्ञान बन जाता है। इसलिए प्रत्येक वस्तु. यह कह पाता है कि उसके निष्कर्ष मात्र सम्भाव्य सत्य ज्ञान में पहले से ही तत्सम्बंधी विश्वास निहित होता है। का उद्घाटन करते हैं। पूर्ण सत्य ज्नकी पकड़ में नहीं चंकि यह अनुमति इन्द्रियों की सीमित क्षमता से उत्पन्न है । वह केवल आंशिक सत्य का ही उद्घाटक है। तो ता होती है, इसलिए इस ज्ञान का सत्य अंशव्यापी तथा ती क्या दार्शनिक तर्क प्रणाली पूर्ण सत्य को उद्घाटक है। अंशकालिक होता है । सत्य का इस प्रकार से बाकलन नही। सच पंछा जाए, तो दर्शन सत्य का उद्घाटक है ही करना ही दर्शन का कार्य है। नही । वह तो विभिन्न प्रणालियों द्वारा उद्घाटित सत्य या सत्यों का आकलन करता है तथा उस सत्य को व्यक्त ___ अब हम धर्म के क्षेत्र में घुसें । धर्म सत्य के भी सस्य करने वाली भाषा को स्पष्टता और अस्पष्टता का विश्ले- यानी परम सत्य का अन्वेषक एवं उतारक है। स्वाभाविक षण करता हुआ अधिक से अधिक भाषागत स्पष्टता पर है कि सत्यान्वेषण अनुभूति की अपेक्षा रखें। अनुभूति भी जोर देता है । सत्य की खोज करना दर्शन का काम नहीं किसकी ! अपने ही होने की, अपने अस्तित्व की। अपने है । सत्य की खोज या तो सामान्य प्रत्यक्ष (कामनसेंस) अस्तित्व की अनुभूति ही सच्ची आस्था है। इसलिए करता है या विशिष्ट प्रत्यक्ष (विज्ञान) या धर्म या आस्था ही धर्म का मेरुदण्ड है। बास्था होती है। यह न अध्यात्म । सामान्य तथा विशिष्ट प्रत्यक्ष गुणात्मक रूप से कोई देता है और न दे सकता है। हां, बाहरी कोई एक ही धरातल पर होते हैं । उन का आधार इन्द्रियजन्य उपस्थिति उसके लिए निमित्त हो समती है, किन्तु उपाशान है। उन से ऐंद्रिक सत्य ही मिलता है, जिसकी दान कारण स्वानुभूति ही होती है, जो कर्म-क्षय या अपनी सीमाएं हैं और जिस का उल्लेख ऊपर किया जा भगवत उपासनाका फल हो सकती है। इस बास्थामें इन्द्रियों चुका है। धार्मिक अनुभूतियों का कैनवास अपेक्षाकृत की भी अपेक्षा नहीं होती और न इंद्रियजन्य वर्कप्रणाली अधिक व्यापक है, जिस का उल्लेख आगे किया जाएगा। की। आस्था इन्द्रियातीत तथा तकातीत स्वानुभूति है। सम्प्रति इतना ही कहना है, कि विश्वास वही होता है यह इन्द्रियों की अपेक्षा अधिक व्यापक सत्य का जहाँ सत्य की अनुभूति का क्षेत्र है। अब यह दूसरी बात उद्घाटन करती है जिसका आकलन इन्द्रियजन्य तर्कहै कि अनुभूति उगे कैसे! स्वतः उगे, दूसरे के प्रभाव से प्रणाली का दर्शन भी नहीं कर पाता । वह भी उसे "नेतिउगे या मात्र सूचना से उगने का आभास हो। बहरहाल, नेति" ही कह देता है, और उसे अनिर्वचनीय व्याति की । किसी न किसी मात्रा में अनुभूति का होना जरूरी है कोटि में रखकर एक भोर हट जाता है। इस प्रकार
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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