________________
आस्था ने सहज ही बात्म-दर्शन रूप भी लिया था। इस जगाया जाता है, मतः धर्म के क्षेत्र में अनुभूति शन्य बंध प्रकार आस्था आस्तिक्य है, तो बुद्धि नास्तिक्य । धर्म विश्वास अधिक खतरनाक बन जाता है। क्योंकि उस का मूलतः आस्तिक्य-भाव के वाहन पर चलता है, किन्तु प्रबुद्धी करण आसानी से नहीं हो पाता। बद्धि के नास्तिक्य मूल्यांकन से समंजन करता हुआ। जब हम किसी सूचना या बाहर से आए शान की
बास्था बोर तर्फ एक ही मन की दो भिन्न-भिन्न जांच कर लेते हैं और उसे तर्क की कसौटी पर कस लेते स्थितियां हैं। आस्था सत्स्व की पहचान है तो तर्क सत्- है और उसे ठीक पाकर या ठीक के समीप पा कर विश्वास इदम् का मूल्यांकन । दोनों का परस्पर सम्बंध और असम्बंध करते हैं तो वह विश्वास प्रबुद्ध हो जाता है। बागे चल है। जब आस्था का उदय तर्क के बिना ही होता है, तो कर जब उस प्रबुद्ध विश्वास मे हमारी अनुभूति का तत्व बह तकहीन बास्था है। जब वह तर्फसह हो तो वह प्रबुद्ध जुड़ जाए तो वह प्रबुद्ध आस्था की कोटि में आ जाता है। आस्था है। जब बास्था तर्क की सीमा लांधने के बाद प्रबुद्ध विश्वास विज्ञान और दर्शन के क्षेत्र में मिलता है। उदित हो, तो वह तर्कातीत अथवा अनिर्वचनीय आस्था विज्ञान में हम पहले किसी आभासिक सत्य की प्राक्कल्पना हुई। पहले क्रम में आस्था दूसरे से पाई सूचना से उत्पन्न कर तथ्य संकलन करते हैं । तथ्यो का विश्लेषण, संश्लेषण हो या खुद के वाह प्रत्यय से, जैसे किसी ने कहा, ईश्वर और सामान्यो करण की प्रक्रिया करते हुए हम अंतत: है और हम ने मान लिया, इंग्लैंड में टेम्स नदी है और उक्त प्राक्कल्पना की पुष्टि या निरस्तीकरण कर देते हैं। हम ने मान लिया । यह तर्कहीन आस्था वास्तव में आस्था यह होता है किसी इन्द्रियजन्य ज्ञान से उत्पन्न आभास या नहीं विश्वास है, जिस के उगने के न तो पहले तक हुआ न विश्वास का प्रबुद्धी करण । ऐसा प्रबुद्ध विश्वास अध बाद में । ऐसा विश्वास अंध विश्वास भी कहला सकता विश्वास से कम खतरनाक होता है। फिर भी खतरा इस है। अंध विश्वास को यदि आस्था कहें तो वह आस्थाभास में भी है । खतरा इस लिए, कि बैज्ञानिक तर्क-प्रक्रिया की है, सदास्था नही । अंध विश्वास में कोई अनुमति नहीं भी अपनी सीमाएं हैं । वे सीमाएं निगमन और आगमन होती । केवल वाह्य से सूचना मिलती है, जिसे हम बाहर दोनों तकों में निहित हैं । निगमन का सत्य माने हुए से आया ज्ञान कहें और उसे हम बिना ननु नुच के मान आश्रययवाक्य की सीमा है, नो आगमन मे इन्द्रिय-ज्ञान लें। ऐसे विश्वास में हम आस्था शब्द का प्रयोग प्रायः की सीमा । वे गलत हो सकते हैं, अधूरे सत्य भी हो सकते नहीं करते। यदि करें भी तो वह शब्दो का फेर है। है। किन्तु वैज्ञानिक प्रणाली से सत्यापित निष्कर्षों को सम्प्रदायों और अन्य सामाजिक संस्थाओं की भीड़ अंध- विज्ञान का विद्यार्थी सर्वाग सत्य समझ बैठता है और उसे विश्वास पर ही पलती है। सच पूंछो, तो अंधविश्वास सार्वभौमिक तथा कालिक सत्य के सिंहासन पर बिठाल भीड़ की ही धरोहर है। यही से शुरू होती है मदांधता, कर उसमें विश्वास स्थिर कर देता है। पहले जो विश्वास फैनेटिजिज्मः चाहे वह धर्म के किसी सिद्धान्त के नाम पर प्रबुद्ध था आगे चल कर यह अब विश्वास का रूप धारण हो. या किसी श्रद्धेय व्यक्ति के नाम पर, या किसी अन्य कर लेता है और उस में अंध विश्वास के सारे खतरे के नाम पर । मदांधता मदांधता ही है । वह धर्म-सम्प्रदाय, पैदा हो जाते हैं। वस्तुस्थिति यह है कि विज्ञान के राजनैतिक पार्टी, साहित्यिक संस्था, सामाजिक संघ, वैज्ञा- निष्कर्ष सदैव सम्भाव्य सत्य के ही द्योतक हैं, पूर्ण और निक मंच, कहीं पर भी किसी के नाम पर हो सकती है। कालिक सत्य के नही । इसी लिए तो विज्ञान की प्रयोगयह एक प्रकार का नशा है जो किसी व्यक्ति या सिद्धान्त शालाएं सदैव चालू रहती हैं और प्रत्येक स्थापित सत्य का से सम्मोहन द्वारा व्यक्ति या व्यक्तियों की भीड़ के गले बार-बार मूल्यांकन और सत्यापन होता रहता है। ऐसा उतारा जाता है। वह व्यक्ति या समूह सम्मोहित हो कर करने से ही वैज्ञानिक निष्कपो असत्य का विश्वास प्रबुद्ध कुछ भी करणीय अकरणीय करने को तैयार हो जाता है। कोटि में रह सकता है। प्रबुद्ध चेता वैज्ञानिक इम खतरे से धर्म में चूकि इन्द्रियातीत सत्ताओं के प्रति विश्वास अवगत हैं और वे बड़ी ईमानदारी से अपनी प्रविधि की