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________________ धर्म का मूलाधार : प्रास्था या अंधास्था धर्म का मूलाधार आस्था है । आस्था के ही लगभग पर्यावानी शब्द श्रद्धा और विश्वास भी है। इन शब्दों से मन की एक स्थिति विशेष का बोध होता है जो तर्क शब्द के अर्थबोध से भिन्न है । आस्था एक अनुभूति प्रधान मनः स्थिति है जिस से व्यक्ति का चारित्र एक निश्चित दिशा, आकार, प्रकार ग्रहण करता है । यह मन की व्यक्ति प्रधान दशा है, जिस में व्यक्ति के ज्ञान, भाव तथा चारित्र तीनों का समावेश है। ज्ञान रूप में आस्था - बोध है ( इदमस्ति ), भाव रूप में आस्था अस्तित्व का अहसास है ( अहमस्मि ), तथा चारित्र रूप में आस्था अस्तित्व की कृतकार्यता है (अयंभूतः) । सम्पूर्ण रूप में आस्था 'मैं होता हुआ हूँ' का अहसास मात्र है। "मैं होता हुंद्रा हूँ" का विश्लेषण यूँ करें: ( मैं = व्यक्ति ) + (होता हुआ उत्पाद व्यय) + ( हूं = धीव्य) अहसास = आस्था | अर्थात् आस्था उत्पाद व्यय घ्रौव्य युक्तं सत् का अहसास है । यह व्यक्ति की धारणात्मक स्थिति है, अस्तित्व के आस्तिक्य-भाव का प्रतीक, जिसकी जड़ें और गहरे कालातीत समाधि शून्य द्रव्यत्व में फैनी होती हैं । यह आत्म-बोध की दिशा में उन्मुख मनः स्थिति है। यह एक प्रकार से अपने द्वारा अपनी ही पहचान की द्योतक स्थिति है । फिर जब यह स्थिति किसी इतर तत्व से जुड़ती है ती यह श्रद्धा हो जाती है। यानी यदि आस्था को स्वगत कहें, तो श्रद्धा को वस्तुगत मनः स्थिति कह सकते हैं। आस्था का साधन और साध्य दोनों ही स्व है, तो श्रद्धा का साध्य स्वेतर है । आस्था अपने में अपने लिए होती हैं, तो श्रद्धा अपने में दूसरे के लिए होती है। श्रद्धा के लिए किसी श्रद्धास्पद की जरूरत है । बास्था के लिए 'किसी आस्पद की आवश्यकता नहीं । श्रद्धा में हम कहते हैं, कि हमें राम, कृष्ण, बुद्ध, तीर्थंकर पर श्रद्धा है । मास्था में हम इतना ही कहते हैं कि हमें धर्म में आस्था '४० प्रयुकुमार 1 है, धर्म यानी स्वभाव में आस्था । अब दूसरा पर्यायवाची शब्द आया विश्वास । विश्वास शब्द का शब्दार्थ पिछले दोनों शब्दो के शब्दार्थ से कुछ अस्पष्ट है । मोटे रूप में विश्वास को आस्थाजन्य मनः स्थिति की वाह्ययोन्मुखं व्यवहार दशा कह सकते हैं। विश्वास में व्यक्ति की अपनी पहचान दूसरे की आँखों से होती है। व्यक्ति अपने को देश-काल-परिस्थिति में रख कर पहचाने, तब वह आत्म विश्वासी होता है। दूसरे शब्दों में आस्था की व्यावहारिक दृष्टि विश्वास है। विश्वास में व्यवहार स्तर पर, आस्था और श्रद्धा दोनों का ही अस्पष्ट घोलमेल है। हम चाहते हैं, कि हमें अपने में विश्वास है, साथ ही यह भी, कि हमें राम पर, कृष्ण पर, या अमुक पर विश्वास है ; ये तीनों पर्यायवाची शब्द धर्म-चर्चा में प्रयुक्त होते हैं, इस लिए इन के शब्दार्थ को समझना जरूरी था । अब, आइए, अपनी धर्मं- व्याख्या में भागे बढ़ने से पूर्व एक शब्द का अर्थ और स्पष्ट कर लें। वह है तर्क । तर्क मन के ज्ञान पद की विकल्पात्मक स्थिति है । किसी माने या पहचाने आधार से किसी इतर निव्र्ष पर पहुंचना तर्क है। दूसरे शब्दों में किसी मान्य आधार का रहस्योद्घाटन करना तर्क अथवा ऊहा होती है। इस में मन एक नियोजित प्रक्रिया अपनाता है जिस में स्व पर द्रव्यों को उनके अगों में तोड़ कर उन्हें समझा या पहचाना जाता है। तर्क का अविष्ठान बुद्धि है, जो मन का ही एक रूप है । बुद्धि पहले अस्ति को नास्ति करती है, तब अस्ति; और नास्ति को जोड़ कर वस्तुसत्य को समझती है । फिर वह अस्ति नास्ति की सीमा को परख कर उस के सीमातीत द्रव्य पर निगाह डालती है तो वह अवक्तव्यं के क्षेत्र में आ जाती है। एवं अस्ति+अवक्तव्यं नास्ति + अवक्तव्य अस्ति + नास्ति अवक्तव्य रूप के सभी-करणों की उत्कर्ष ना कर उस सत्य को पहचानने की कोशिस करती है जिसे
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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