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________________ २०, पर्व १८, कि०३ धार्मिक आस्था स्वत: एक दर्शन है, सम्यग्दर्शन, जो सारे उघर धर्म विज्ञान को अपना शत्रु नहीं मानता क्यों बौद्धिक दर्शनों का नियामक और दृष्टा होता है। कि धर्म शास्ता विज्ञान की प्रविधि को भी जानता है और उसके सापेक्ष महत्व को स्वीकारता है। वैज्ञानिक तर्क की सम्यग्दर्शन से ही फूटती है सम्यग्श्रद्धा, जो विराट पूर्वमान्यताएं, स्वयंसिद्धियां खुद तर्क की उपज नहीं है। सत्य के प्रति व्यक्ति को समर्पित करने की प्रेरणा करती उनका सत्यापन विज्ञान की परिधि से बाहर है । फिर भी. है। सम्यक्षता से ही व्यक्ति और व्यक्ति-समूह विराट वे स्थापित सत्य हैं । आखिर उन की स्थापना का सोत सत्य की सन्निधि के हेतु धार्मिक अनुष्ठानादि के लिए क्या है ! वह स्रोत निश्चित ही वैज्ञानिक तर्क से परे प्रेरित होता है । कहने का तात्पर्य यह, कि श्रद्धा आस्था इन्द्रियातीत अनुभूति-जगत में निवास करता है। जहां सेकी ललक है जो व्यक्ति के चारित्र को कारण देती है लेकर हम उन्हें इन्द्रिय-सत्यापन की चरखी पर चढ़ा कर और उस चारित्र को विराट सत्य के प्रतीक किसी भी बार बार परखते हैं। यह परोक्ष सत्यापन हम केवल अपने. इष्ट-विन्दु की ओर उन्मुख कर देती है। श्रद्धा के द्वारा चकित मन के संशय को मिटाने के लिए करते हैं। मन व्यक्ति की आस्था श्रद्धासद इष्ट से जुड़ जाती है और उस चकित इसलिए है, कि हमें विश्वास ही नहीं हो पाता कि में से परम भक्ति का दर्शन बोलने लगता है । भक्ति में ये स्थापित सत्य स्वतः स य कैसे हो गए और हम उन्हें आस्था और श्रद्धा का संगीत झकृत हो उठा है। आत्म परतः सत्य स्थापित करने में लगे रहते हैं । किन्तु धार्मिक श्रद्धास्पद इष्ट में भाव विभोर तन्मय हो कर नाचने लगता अनुभूतियुक्त मन इन स्वनः स्थापित सत्यों की पुनस्थापना है। वह मात्म-विस्मृति के द्वारा समाधि अवस्था की ओर को निरर्थक व्यायाम मानता है, क्योकि उन का सत्यापन अग्रसर हो जाता है, जो कि धर्म का चरम साध्य है। तो अंतःजान को प्रविधि से पहले ही, हो चुका था। मैं तो धर्म-दर्शन की प्रबिधि वैज्ञानिक प्रविधि से भिन्न है। कहंगा, कि जिन वैज्ञानिकों ने इन स्वसिद्धियों और धर्म का अनुभूति-जगत इन्द्रियो की सवेदना से पैदा नही पूर्वमान्यताओं को खोजा होगा वे उन क्षणों मे धर्म के शुद्ध होता । बल्कि उल्टी इन्द्रिय-सवेदना धामिक अनुभूतियो के धरातल पर उतर गए होगे और उन्होने उन्हें उसी घरामार्ग में बांधा है। उसे शून्य करने के बाद ही धर्म के क्षेत्र तल पर अंत ज्ञान की प्रविधि से सत्यापित भी कर लिया मे आगे बढ़ा जाता है। उस क्षेत्र की अनुभूतिया स्वतः होगा अतः ये स्वयंसिद्धियाँ और पूर्वमान्यताएं विज्ञान-जगत सत्यापित होती हैं। उस को प्रविधि अत: साक्षात्कार है को धर्म की ही देन कही जा सकती हैं। धर्म ने विज्ञान: जो इन्द्रिय साक्षाद से सर्वथा भिन्न है। वैज्ञानिक प्रविधि को स्वस्थ आधार प्रदान किया है। धार्मिक अनुभूति के विषय का सत्यापन नहीं कर सकती। अनुभूतियों का सिलसिला भीतर से बाहर की ओर धार्मिक अनुभूति-जगत मनोमय कोष से इतर विज्ञानमय चलता है, बाहर से भीतर की ओर नही। अंत:साक्षात्कार कोष, फिर उससे भी आगे आनन्दमय कोष मे स्थित है, हो उसकी प्रविधि है । जीने की जिजीविषा भीतर से ही जब कि विज्ञान की आगमन और निगमन प्रविधि मोमय उद्वेलित होती है जो इन्द्रियों की सतह पर आकर मात्र कोष से आगे यात्रा नहीं करती। वह मन की सतह पर भभूक पड़ती है। देखने को वात है, जब हम इन्द्रिय-मामा खड़े होकर ही गहन सागर की महराई का अंदाजा भर त्कार करते हैं, तो हम उसका मोत वाह्य को. मान नेते, लगाता है, जो अल्प,सत्य, अर्द सत्य या कभी कभी असत्य हैं। यदि उस समय हम इन्द्रियों के त्वक् मण्डल को, तक ठहरता है। इसलिए धर्म विज्ञान का विषय नही हो मस्तिष्कस्थित चेतना-केन्द्र से विदित कर दें, तो क्या.. सकता । विज्ञान की सतही दृष्टि में धर्म-चर्चा एक बड़ा वह साक्षादीकरण संवेदना से आगे चल माणा नहीं । धोखा है.फार है, क्योंकि वह विज्ञान की तर्कप्रणाली से फिर उस संवेदना. को यदि मस्तिष्कीय चेतना केन्द्र बकर संगत नहीं हो पाता । किन्तु विज्ञान का इस प्रकार का ले जाने दें, किन्तु अपनी ध्यान ख्यिा सेवनाको देना बारम प्रवंचना के अतिरिक्त और कुछ नही। वासोन्मुखी न बने हैं, उसे बतलीकर, डोक्यात
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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