________________
धर्म का मूलाधार : आत्ला या अंधास्था वह दिव-प्रत्यक्षीकरणं ज्ञान का रूप धारण कर सकेगा। अनेकांतिक है, क्योंकि वह दिक्काल की सीमा से परे अंत: नहीं। बार-यलि- हम किसी भौतिक तकनीक से ध्यान ज्ञान की व्यापक प्रविधि से प्राप्त है । उसकी दृष्टि निरपेक्ष क्रिया पर भी नियंत्रण सामने में सफल हो जाएं और है, दिक्काल की पहुच से दूर। इसलिए विज्ञान के ऐकारिमस्तिष्कीय तंतुओं के प्राण-प्रवाह को वाह्यान्मुखी बना तक सत्य की गरिमा इसी में सुरक्षित है कि वह धर्म के सके, लेकिन व्यक्ति इतना समर्थ है कि वह शरीर के अनेकान्तिक सत्य से महित रहे। एक और मनन्त विस्तार, आधार से सर्वथा मुक्त होकर समाधि की तुरीय अवस्था तो दूसरी और सान्त परिधि और उसका सीमित उपयोग। में दीक्षित हो जाए, तो क्या वह इन्द्रिय-स्रोत से आया जैसे विगंत में बहती हुई मुक्त बयार बायु- चक्की के पंख में हमा स्नायविक प्रवाह ज्ञान का रूप धारण कर सकेगा! फंस कर कुछ काल के लिए उपयोगी हो जाए और फिर इसका भी उत्तर नकार से ही होगा। तो इससे यह अनन्त आकाश मे मुक्त हो जाए। उसी प्रकार आस्था निष्कर्ष निकला कि समाधि-अवस्था का शुद्ध चैतन्य ही के मुक्त आकाश में चैतन्य की अनन्त आयामी ऊनी जब मास्तिष्क तंतुओं में संचरित होकर वाह्योन्मुख ध्यान राशि कुछ कान के लिए विज्ञान को किसी उपयोगी यंत्रसे इन्द्रियों के आखिरी विन्दु तक वद्युतिक चुंबकीय अत• विधि में फंस कर कुछ हो जाए या कर दे और फिर धारा के द्वारा प्रसरित हो जाता है, तभी और केवल तभी मुक्त हो कर स्वाधीन हो जाए । एवं विज्ञान धर्म का वाह्य उत्तेजन की संवेदना चल कर ज्ञान और धारणा के मुखापेक्षी है। धर्म के बिना वैनिक तकनीक सजनशील स्तर तक पहुंच पाती है। ज्ञान की भीतरी शर्त प्रमुख नहीं रह सकता। धर्म ही वैज्ञानिक मेधा को सृजनशीलता है। इस भीतरी शर्त पर वाह का कोई नियत्रण नहीं है, प्रदान करता है। दृष्टव्य है, यहां धर्म से मतलब सम्प्रदायबल्कि अंतरंग की ही वाह्य पर कृपा है कि वह स्वाधीन संगत क्रियाकाण्ड आडवर ही है। वह व्यक्ति भी धार्मिक चरित्र होते हुए भी अनादि से किसी अनजानी मजबूरी हो सकता है, और शायद वह अधिक होता भी है, जिस में फंसा हुआ शरीर रचना के जाल में बद्ध है। यही उस ने किमी मंदिर मस्जिद की शक्ल नही देखी है और जो का कर्म बंधन है। इस बंधन को आत्म काट फेंकना है सदैव पूर्ण निष्ठा से सत्य को समर्पित रहा है। धर्म का जब उसे भेद विज्ञान का सुअवसर प्राप्त हो जाता है और क्षेत्र सारी उपाधियों से मुक्त निरपेक्ष लोक है, जिस में वह आत्मचेतन हो कर वाह्य से निवृत्त हो अपने शुद्ध स्व. केवल विराट ईश्वर का शासन है। वह ही वहा है । उस रूप में दीक्षित हो जाता है । जब तक वह अबसर उदित के अतिरिक्त कुछ नही, परिपूर्ण अद्वैत सत् । नहीं होता, तब तक इन्द्रियो की प्रविधि जोते हुए उस पर सम्प्रदायो में, जैसा कि पहने कहा गया, अधविश्वास सवार रहती है और उसके द्वारा निकाले हुए निष्कर्षों को अधिक पलता है। धानिक प्रपो का नित्य पारायण, मात्र अपना कहती रहती है। बहरहाल, बस्तु स्थिति जो है सो सूचना है। शाब्दिक पूजा अर्चा क्रियाकाण्ड, कीर्तन सब है। धर्म-क्षेत्र की आस्था विज्ञान की अमूल्य धरोहर है वाह्य प्रेरित भावोद्वेग मात्र जगाना है और अपने को चाहे विज्ञान उस धरोहर के मूल्य को सराहे या न सराहे, धर्म से जोड़ने का बहाना भरना है। किन्तु यह सब क्योकि वह यूं ही सहजतः उपलब्ध हो गई है न! इसलिए वास्तविक धर्म-अनुभूति के बिना कोरा आडम्बर है और घर की मुर्गी बाल बराबर।
धर्म-विरूद भीड़वाद है। भीड़वाद धर्म का शत्रु होता है। विज्ञान का सत्य ऐकान्तिक सत्य है, क्योंकि वह वह धर्म नहीं, धर्माभास में पलता हुआ विश्वास जो दिक्काल-परिस्थिति के समीकरण पर आधारित है। उस संस्थागत धर्म-सम्प्रदाय के प्रतीकों, नारों गुरूओं, ग्रंथों की प्रविधि दिक्काल की अपेक्षा लेकर चलती है । इस आदि के प्रति श्रद्धा बन कर उमड़ पड़ता है वह केवल लिए उसका निष्कर्ष दिग काल के विशेष विन्दु की सीमा अंधविश्वास और अंधश्रद्धा होती है अंधविश्वास और से बंधा हुआ रहता है और उस का सत्यापन भी दिक्काल श्रद्धा दोनों धर्म और मानवता के लिए नुकसानदेह है। सापेक्ष स्थिति विशेष से ही होता है। धर्म का सत्य इसी अंधविश्वास पर यथाकषित धर्म-युद्ध, जिहाद मोड़