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४, वर्ष ३८ कि.२
अनेकान्त
सुनह भव्य तुम थिरु चितु लाय,
मुकति पन्थ मारग यह आय । श्रावक जतिवर भेद आचार,
वर्णन कर सकल हितकार || दीप असंख्य कहे जिन राय,
जम्बू द्वीप तामे सुखदाय । मेरु सुदर्शन तामे कहै,
दक्षिण दिशा भरत वर्णनये ॥१०॥ आर्य खण्ड पुनि सोहै जहा,
मुनिवर विहरै आरज तहा। तामैं मगध देश सुख खानि,
स्वर्ग खण्ड मनु उतर्यो आनि ॥११॥ राजगृह तहां नगर वसाइ,
भोग भूमि मनु सोहै आइ । दीस जिनवर भुवन प्रकासु,
सुर नर बन्दन आ'त तासु ॥१२॥ पूजा जाय बहु सरजन कर,
मिथ्या दोष पाप परि हरे। नर नारी मनु देवी देव,
छांडि कुधर्म करें जिन सेव ॥१३॥ राज कर तहं श्रेणिक भूप,
कामदेव जीतो निज रूप । दाता शीलवन्त परवीन,
तजि कुधर्म जिन धर्महिं लीन ॥१४॥ सती शीलवन्त रम्भा समवाम,
तिन्हकें रानी चेलना नाम । राजा रानी सहित विराज,
कामदेव मानो सति छाजे ॥१५॥ वारिषेण सुत अभय कुमार,
इन्द्र उपेन्द्र सोहै दोइ सार । अवर अनेक सोहै शुभ राज,
मन बाछित सब पूरै काज ॥१६॥ बैठि सिंहासन श्रेणिक भूप,
मनी इन्द्र धरि प्रायो रूप । सभा सहित देखें नर ईस,
वनपा (मा) ली निज नायौ सीस ॥१७॥
षट्ऋतु फूल फल आगे धरै,
देखत दृष्टि सबके मन हरै। गजा देखत हर्षितगात,
वन माली बोले शुभ बात ॥१८॥ महाराज राजनि के राज,
पुण्य तुम्हारे सब सरै काज । समोशरण विपुलाचल रची,
रल पदारथ मोतिन खचौ ॥१६॥ प्रभु श्री पौर जिनेश्वर देव,
आये, इन्द्र करत सब सेव । सुनिकर राजा हपित भयो,
सान पंडि चलि बन्दन गयो ॥२०॥ दिशा देख तिन सीस न वाइ,
पुनि सिंहासन पर बैठे जाइ । मन बांच्छित बन पालहि दियो,
आनन्द भेरी नगर मे कियो ॥२१॥ गोठि सहित चालेऊ नरेन्द्र,
अन- मर्याद भयऊ आनन्द । मान स्तम्भ जब देखे राय,
गलित मान सब ही को जाय ॥२२॥ रथ ते उतरि पायदे भये,
जय जय करत सभामे गये। श्री जिनेन्द्र जब बन्दे जाय,
जनम जनम के पाप नसाय ॥२३॥ दोऊ कर जोड़ि प्रदक्षिणा दई,
निर्मल मति राजा की भई । सीस नवाइ जिनेन्द्रहिं पेखियो,
जनम सफल गजा देखियो ॥२४॥ अष्ट भेद विधि पूज कराय,
जाते आवा गमन नसाय । तुम जिनेन्द्र त्रिभुवन आधार,
मुक्ति कामिनी तुम उर हार ॥२५॥ निष्कलंक परमातमा ईस,
वीतराग पावन जगदीश । ज्योति रूप निरजन शुद्ध,
चिदानन्द भगवान सुबुद्ध ॥२६॥