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"श्री महावीराय नमः" पं० शिरोमणिदास कृत धर्मसार सतराई
सम्पादक-कुन्दन लाल जैन प्रिंसिपल
चौपाई वीर जिनेश्वर पनहु देव,
इन्द्र नरेन्द्र करत सत सेव । अरु बन्दों हो गये जिनराय,
सुमिरत जिनके पाप नसाय ॥१॥
(पृ. २ का शेषाश) आशव मदिराक्षाणाम आशव विषमंजरी । आशाभूतानि दु.खानि प्रभवन्ती देहिनाम् ॥ येषामाशा कुतस्तेषा मन. शुद्धि शरीरिणाम् । अतोनैराश्यमवलम्ब्य शिवीभूता मनीषिणः ।। तस्य मत्य-श्रुत वृत्त-विवेकस्तत्त्वनिश्चयः । निर्ममत्त्वच यस्याशा पिशाची निर्धनगता ॥
बड़ी भयकर है यह धनलिप्सा ! यह तृष्णा ही समस्त दुखो की जड़ है । इस आशा पिशाचिनी के नष्ट होने पर ही सत्य, श्रुतज्ञान, चारित्र, विवेक, तत्वनिश्चय और निर्भमत्व या अपरिग्रह जैसे गुण आत्मा में प्रगट होते हैंउसके रहते वे व्यर्थ हैं।
अस्तु, परिग्रह में निरासक्त रहने का अभ्यास करने, उसका परिमाण करने का तथा उक्त परिमाण की सीमा को निरन्तर घटाते जाने का अभ्यास करने से ही व्यक्ति शनैः शनेः अपरिग्रही हो जाता है, और सच्चे सुख एवं शान्ति का उपभोग करता है।
इस सन्दर्भ मे ज्ञातव्य है कि कृपालु जातृपुत्र भगवान महावीर ने पदार्थों को परिग्रह नही कहा, वरन् उन पदार्थों में होने वाली मूछा या बासक्ति को परिग्रह कहा है
न सो परिग्रहो वृत्तो नाय पुतण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इह वृत्तं महेसिणा॥
वर्तमान जे जिनवर ईस,
कर जोरों निज नाऊं (नम) सीस। जे जिनेन्द्र भावी मुनि कहे,
पूजहूं ते मैं सुर मुनि महे ॥२॥ जिन वाणी पनहुँ (प्रणम्) धरि भाव,
भव जल राशि उतारन नाव । पुनि बन्दो गौतम गणराय,
धर्म भेद जिन दिये बताय ॥३॥ आचार्य कुन्द कुन्द मुनि भये,
सुमिरत जिनके सब दुख गये। अरु जे जिनवर भये अपार,
पनहु तिनहिं ते भव दघि तार ॥४॥ सेवू सकल कीति के पाय,
सकल पुगन कहे समुन्नाय । जिन सद् गुरु कहि मगल लहों,
धर्मसार शुभ ग्रन्थहि कहीं ॥१॥ जानवन्त जे मति अति जानि,
ते पुनि प्रन्थ न सकइ बबानि । मैं निल रज्ज मूरख अति सही,
कह न सकों जैसे गुरु कहि ॥६॥ अरु वा सुन जो बहुमद जन,
तो कह सूरज किरणें गर्न । जिनवर से ए मन बच काय,
धर्मसार के हो सुख दाय ॥७॥ भव्य जीव सुनि के मन धरै,
मूरख सुनि बहु निन्दा करें। सुगति कुगति को यह स्वभाय,
गहे जीव नहीं मैलो जाय ॥८॥