SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुच्छा परिग्गहो वुत्तो D डा. ज्योति प्रसाद जैन अपरिग्रह का अर्थ है परिग्रह का अभाव और 'परिग्रह वैभव से नहीं मापा जा सकता। उसे कहते हैं जो आत्मा को सर्व ओर से घेरे व बांधे पुरातन जैनाचार्य कह गए हैं कि जो निर्ग्रन्थ होता रखता है-"परितो गृह णाति आत्मानमिति -परिग्रहः" । है, भीतर-बाहर दोनों से सर्वथा निष्परिग्रह होता है, वही घेतन-अचेतन, घर-जायदाद, धन-दौलत आदि अनगिनत सच्चा चक्रवर्ती होता है-लौकिक चक्रवर्ती सम्राट का बाह्य भौतिक पदार्थ मनुष्य को बांधे रखते हैं । वह अह- अपार वैभव भी उस महात्मा की दिव्य विभूति के समक्ष निश उनके अर्जन, संग्रह, सुरक्षा की चिन्ता में तथा उनके सर्वथा नगण्य है, हेय है। प्रसिद्ध दार्शनिक हेनरो डेविड नष्ट हो जाने या छिन जाने के भय से व्याकुल रहता है। थोरो की उक्ति है कि "सबसे बडा अमीर वह है जिसके वह उन्हें ही अपना जीवन-प्राण समझता है। अतएव वे सुख सबसे सस्ते हैं-आत्मा की आवश्यकताएं जुटाने के सब पदार्थ सामान्यतया परिग्रह कहलाते हैं । किन्तु, लिए पैसों की आवश्यकता नही होती ।" गोल्ड स्मित्र वास्तव में स्वयं वे पदार्थ परिग्रह नहीं है, वरन् उनमें जो कहता है कि "हमारी प्रमुख सुविधाएं व बारामतलबियां व्यक्ति की मूछा है, ममत्वभाव है, आसक्ति है, वही ही बहुधा हमारी सर्वाधिक चिन्ना का कारण होती हैं परिग्रह है, और इस परिग्रह का मूल कारण उसकी और जैसे-जैसे हमारे परिग्रह मे-हमारी धन-सम्पत्ति मे कामनाएं, इच्छाएं, आकांक्षाए, लोम, तृष्णा या आशा बढोत्तरी होती जाती है। हमारी चिन्ताएं भी बढ़ती हैं । जिसका चित्त इन आशा-तृष्णादि विकारों से ग्रस्त जाती हैं, नित्य नवीन चिन्ताएं उत्पन्न होती जाती हैं, हो रहता है, उसके पास अटूट धन वैभव हो तो भी उसे शायद इसीलिए किसी ने कहा कि जिसने धन की सर्वसुख व शान्ति प्राप्त नहीं होती। इसीलिए एक शायर ने प्रथम खोज की, उसी ने मनुष्य के सारे दुःख भी साथ कहा है कि ही साथ खोज लिए।" जमीयते दिल कहां हरीपो को नसीव । __अपने धर्म की, स्वरूप को, आत्मा और चित्त की निन्नानवे ही रहे कभी सो न हुए। शान्ति को प्राप्त करने का आधार धन-सम्पत्ति या परितृष्णा प्रस्त जीवों को कभी भी चित्त की शान्ति ग्रह नही है, वरन् उसके त्याग मे, उसकी आशा व तृष्णा प्राप्त नही होती । वे सदा निन्यानवे के चक्कर में पड़े के घटाने में ही निहित है। रहते हैं, क्योकि पुरानी इच्छाओं की पूर्ति के साथ ही अहमक पूछता हैं वहां जाने की राह क्या है ? साथ तृष्णा की सीमा आगे-आगे बढ़ती जाती है। अतः जेब गर हल्की करे हर जानिब से रास्ता है। बह धनी होते हुए भी निर्धन हैं, वैभव सम्पन्न होते हुए भी जिन महानुभावों ने 'परिग्रह पोट उतारकर लीनो चारित रक हैं-'स हि दरिद्री यस्य तृष्णा विशाला'। वह यह पंथ' उन्ही ने आत्मधर्म प्राप्त किया है। जरा यह सोचना भूल जाता है कि तो शुरू कीजिए कि धनवान होने की वह कौन सी सीमा दिल की तस्की भी है जिन्दगी की खुशी की दलील। है कि जिस पर पहुंचकर आपके और अधिक धनवान जिन्दगी सिर्फ जरोसीम का पैमाना नहीं बनने की इच्छा समाप्त हो जाय ? स्वय समझ में बा जीवन के सुख का प्रयास चित्त का सन्तोष व शांति जाएगा कि इस मगतृष्णा से पार नही पाया जा सकता। है, मात्र धन-दौलत उसका माप-दण नही है-वह वाह्य - (शेष पृष्ठ ३ पर)
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy