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. शिरोमविकास कृत धर्मसार सतसई
अजर अमर तुम दीन दयाल,
पुरुषोत्तम पावन जगपाल । तुम्हरो ध्यान धरै र कोइ,
त्यागि देह परमातम होइ ॥२७॥ अष्ट भेद विधि पूज कराय,
जात आवागमन नाय । तुम जिनेन्द्र त्रिभुवन आधार,
मुक्ति कामिनी तुम उर हार ॥२५॥ जो नर पूज तुम्हारी कर,
भव सागर मो लीज तर। जो जस करै तुहागे आय,
ताकी कीरति रही जग छाय ॥२८॥ जो नर शरण म्हारो लेट,
मो भव दुख जलाजलि देइ । जो तुम्हरो पनु राखे देव,
सुरपति आय कर तमु सेव ॥२६॥ गणधर देव जो मनि अति सार,
तबहु न तुम गुण पावहिं पार। हमसे नर जउ दोपनि बन,
तुम गुण जाइन हममों गर्न ॥३०॥ नमो नमो तुम दया निवास,
नमो अरहन्त नमो गुण वास । तुम्हरी सेवा यह फल पाऊ,
जातें भव सागर तरि जाऊं ॥३१॥ इह विधि राजा सुकृत कमाए,
क्षायक समकित फल तिन पाए । पुनि श्रेणिक तव गये तहा,
गौतम गणघर बैठे जहाँ ॥३२॥ दोऊ कर जोडि जु बन्दे पाय,
पुनिनर कोठा बैठ जाय । अशोक वृक्ष जब देखो भूप,
शोक रहित पेखो निज रुप ॥३३॥ पुण्य वृष्टि वरसें असरार,
महा सुगन्ध सकल हितकार। चौसठ चवर ढोर सुरराय,
चन्द्रकिरण दोस अधिकाय ॥३४॥
सिंहासनत्रिक तापरि दीस,
अन्तरीक्ष कमलासन ईस । तीन छत्र ऊपरि अति रहे,
तीन लोक की प्रभुता कहै ॥३॥ भामण्डल धुनि अधिक पकास,
कोटि सूर्य शशि छवितहि नास । दुदुभि देव बजावहिं तार,
___ साढ़े बारह कोटि अपार ॥३६॥ जिनवर वाणी जबहुं छल,
सकल जीव के संशय गल । द्वादश जग मुनि गणधर कहैं,
सकल जीव मुनिक मन धरं ॥३७॥ श्रेणिक पूछ मन बच काय,
धर्म भेद कहिए समुन्माय । म्वर्ग मोक्ष फल कैसे होय,
मो कृपा करि वरणे सोई॥३०॥ श्रावक जतिवर भेद है जैसे,
सो समुझावो मुनिवर तसे । कसे जीव चहुगति में पर,
कमे जीव भव सागर तिरं ॥४०॥ पगु अन्ध निर्धन धनवन्त,
नउ पण्डित पद पावहिं सन्त । पुत्र हीन बहु रोग अपार,
बहुत दुख भुगत ससार ॥४१॥ ए पुनि अवर कहै हित जानि,
तुम उपकार करो सुख खानि । ___ दया दान दोर्ज उपदेश,
जातें तिरं ससार अशेष ॥४२॥ द्वादश कोठा के सब प्राणी,
श्रेणिक प्रश्न यह मन मानी। धन्य धन्य श्रेणिक तुम उपकारी,
गणधर पूछ सब हितकारी ॥४॥
दोहा हस्त कमल दोऊ जोड़िकर श्रेणिक प्रश्न जु कीन । मनमें अतिढ़ता मई, सुभये धर्म पर लीन men