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परासीपिए न रखता हुवा स्वछंदता से प्रवृत्ति करने वाला जो मनुष्य है एक-एक के छत्तीस-छत्तीस भेद संरंभ के भेद हए। इसी उसे प्रमत्त कहते हैं । अथवा जिसके मन में कषाय बढ़ गए प्रकार एक-एक के छत्तीस-छत्तीस भेद समारम्भ के हुए है, जो प्राणघात आदि के कारणों में तत्पर हुआ है, और एक-एक के ३६-३६ भेद आरम्भ के हुए। इस प्रकार परन्तु अहिंसा आदि में शठता प्रवृत्ति दिखाता है, कपट से सब मिलाकर १०८ भेद हिसा के, १०८ भेद झूठ के, अहिंसादि में यल करता है, परमार्थ रूप से अहिंसादि में १०८ भेद चोरी के, १०८ भेद कुशील के और १०८ भेद प्रयत्न जिसका नहीं है उसे प्रमत्त कहते हैं। अथवा चार परिग्रह के होते हैं।"-(उधृत) विकथा, चार क्रोधादि कषाय, पांच स्पर्शनादि इन्द्रिया -उका सभी भेद प्रमाद की मुख्यता में बनते हैं और निद्रा तथा स्नेह ये पन्द्रह प्रमाद हैं। इनसे जो युक्त और सभी पाप भी प्रमाद (परिग्रह) के अस्तित्व में ही है उसे प्रमत्त कहते हैं। ऐसे प्रमत्त पुरुष की जो मन, बनते हैं, यह वस्तुस्थिति है। आचार्य तो यहां तक कहते वचन और शरीर की प्रवृत्ति उसे प्रमत्तयोग कहते है। इस हैं किप्रकार के प्रमत्त योग से जो प्राणियों के इन्द्रियादि दश 'साधौ व्रतानि तिष्ठन्ति राग-देष विवर्जनात् ।'प्राणों का घात करना-वियोग करना उसे हिंसा कहते अब पाठक विचारें कि पापों के जनक राग-द्वेषादि भाव हैं। (इसी प्रकार असत्य आदि पापों में समझना चाहिए)।' परिग्रह में परिगणित हैं या अन्य किसी में ? जरा अंतरंग
चौदह परिग्रहों की गणना कीजिए और देखिए-तीन "(हिंसादि के एक सौ आठ, एक सौ आठ भेद)
वेद-स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुसक वेद, हास्य, रति संरंभ, समारंभ और आरम्भ इनसे मन, वचन, काय को।
(राग) अरति (द्वेष) शोक, भय और जुगुप्सा, क्रोध, मान, गुणा करने पर नौ भेद होते हैं। फिर इन नौ भेदो से
माया ओर लोभ ये चार कषाय तथा मिथ्यात्व। क्या कृत-कारित और अनुमदिन का गुणा करन स सत्ताइस उक्त परिग्रहों के बिना कोई पाप संभव है या सभी पापों भेद होते हैं। तथा इन सत्ताईस भेदों से चार कषायों को केमल में उक्त परिग्रहों में से किसी की कारणता विद्यगुणा करने से एक सौ आठ भेद (एक के) होते हैं।" मान है? जरा सोचिए । ___ "स्पष्टीकरण-प्रमादयुक्त पुरुष का प्राणि हिंसा आदि में जो प्रयत्न करना उसे संरंभ कहते हैं । हिंसादि के ३. श्रार एक यह भीसाधनों को प्राप्त करने को समारम्भ कहते हैं और हिंसादि चर्चा है श्रावकाचार वर्ष मनाने की । हम तो इसे कार्य करने में प्रवृत्त होने को आरम्भ कहते हैं। कृत- काल लब्धि ही कहेंगे कि जो पुण्य कार्य सर्वथा विस्मृत हो स्वयं हिंसादि करना, कारित-दूसरों से हिंसादि कराना, चुका था वह सहसा स्मृति में आया। इसके माध्यम से अनुमत-हिंसादि करने वालों को अनुमोदन देना। क्रोध, जैनत्व को बल मिलेगा और भव्य जीवों का कल्याण भी मान, माया, लोभों को कषाय कहते हैं। क्रोधकृतकाय- होगा । धन्य है उन विचारकों, संचालकों और प्रचारकों हिसादि--सरम, मानकृतकाहिंसादि सरभ, मायाकृतकाय- को जिन्होंने इस उपयोगी कार्य का बीड़ा उठाया । सफलता हिंसादि संरभ, लोभकृतकाहिंसादि सरभ । क्रोधकारित- मिले इसी में सबका गौरव है। हमारी प्रार्थना है कि सभी काहिंसादि समरम्भ, मानकारितकायहिंसादि संरभ, जन इस धर्म-यज्ञ मे प्राण-पण से लग जायें। हम से जो हो मायाकारितकाहिंसादि संरंभ, लोभकारितहिंसादि संरंभ। सकेगा, बिना शक्ति छुपाए भर सक करेंगे। क्रोधानुमोदितकाहिंसादि संरंभ, मानानुमोदितकाहिंसादि हमें यह सोच लेना चाहिए कि यह एक ऐसा कठिन संरंभ, मायानमोदितकाहिंसादि सरंभ, लोभानुमोदितकाय कार्य है जिसे पूरा करना लोहे के चने चबाने जैसा है। हिंसादि संरंभ। ऐसे काहिंसादि संरंभ के बारह-बारह आज जब प्राचार-विचार का सर्वथा ही लोप है, तब हमें भेद। ऐसे ही वचन द्वारा हिंसादिसंरंभ के बारह-बारह उसकी बुनियाद शुरू से ही रखनी होगी। और उसके भेद । तथा मनो हिंसादि संरभ के बारह-बारह मेद होने से लिए हमें आचारवान त्यागियों से मार्ग दर्शन लेना होगा