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________________ अनेकान्त भीड के द्वारा दी गई उपाधियों के विषय में सभी एकमत २. प्रमाद : परिग्रह नहीं होते-कुछ न कुछ लोग उसे नकारने वाले अवश्य ही 'मूल जन-संस्कृति अपरिग्रह है और हिंसादि सभी पाप परिग्रह-फलित हैं' यह एक ऐसा तथ्य है जिसे किसी प्रमाण उक्त कथन से हमारा तात्पर्य ऐसा नहीं कि हम या तर्क से झुठलाया नहीं जा सकता। हमें आश्चर्य है कि अभिनन्दनों या उपाधियों का जनाजा निकाल रहे हो। जब जैनाचार्य पापों की जड़ में प्रमत्त भाव (परिग्रह) की अपितु ऐसा मानना चाहिए कि हम गुण-दोषों के आधार अनिवार्यता स्वीकार कर रहे हैं, तब कुछ लोग शास्त्र अनिवार्यता दी पर ही रूप में किसी सम्मान के पक्षपाती हैं-सम्मान सम्मत हमारी इस बात को आक्षेप को सज्ञा दे रहे है। होना ही चाहिए। पर, हम ऐसे सम्मान के पक्षपाता है ऐसे लोगों से हमारी प्रार्थना है कि वे जिनधर्म के तथ्य को किसी ऐसे अधिकृत, तद्गुणधारक, पारखी और आभ- हृदयंगम करें-जिनवाणी का आदर करें। हमे कोई नन्दित के द्वारा किया गया हो-जिनकी कोई अवहेलना विरोध नहीं, हम धर्म सम्बन्धी 'अहिंसा परमोधर्मः' जैसे न कर सके। उदाहरण के लिए जैसे मैं "द्यिावाचस्पात सभी नारों को सम्मान देते हैं। पर, हम देखते हैं कि इन नहीं-शास्त्रों में मूढ़ हूं और किसी को 'सकल शास्त्र नारों का वर्तमान में दुरुपयोग और दिखावा किया जाने पारंगत' जैसी उपाधि से विभूषित करने का दुःसाहस करू लगा है, तब क्यो न इन नारों के मूल को खोजा जाय? यपि ऐसा करूंगा नहीं) तो आप जैसे समझदार लोग जिससे दुरुपयोग की बढ़वारी रुके । हमारी समझ '. महामर्द' ही कहेंगे और उस उपाधि को से यदि हमने उक्त नारो के मूल 'अपरिग्रह परमोधर्मः' को - जाली. झठी और न जाने किन-किन सम्बो- लक्ष्य मे रखा होता तो छलावे का प्रसग उपस्थित न हआ धनों से सम्बोधित करेंगे? और यह सब इसलिए कि मैं होता होता । अस्तु : उस विषय मे अकिंचन हूं, मुझमें तदर्थ योग्यता, परख नही। वास्तव मे अपरिग्रह ही 'जिन' बनने का उपाय है है। फलतः और 'जिन' का धर्म भी अपरिग्रह है तथा अहिंसादि सभी मारी दृष्टि में वे ही उपाधियां और अभिनन्दन युक्ति- धमों के मूल में अपरिग्रह की ही प्रधानता है। जहां परि. यक्त और प्रामाणिक हैं जो तवगण धारक किसी अधि- ग्रह है वहाँ पाप है और पापो को छोड़ने के लिए परिग्रह नया समवाय की ओर का छोडना अनिवार्य है। फिर चाहे वह परिग्रह अतरंगसे दिए गए हों और जिनका दाता (व्यक्ति या समाज) परिग्रह हो या बहिरंग परिग्रह हो । किसी पूर्वाभिनन्दित व्यक्ति या समाज द्वारा कभी अभिनंदित हमें स्मरण रखना चाहिए कि आचार्यों ने पापों को हो चुका हो। उक्त परिप्रेक्ष्य में वर्तमान में बंटने वाली पाप तभी माना है जब उनमें : मत्त (परिग्रह) भाव हो। उपाधियो या अभिनन्दनों का स्थान या महत्त्व कब, कैसा जब वे कहते हैं-'प्रमत्तयोगात् प्राण व्यपरोपण हिंसा' तब और कितना है ? है भी या नहीं? जरा सोचिए ! कही वे 'असमिधानमन्त', 'अदत्तादानमस्तेय' आदि सभी वर्तमान के पदवी आदान-प्रदान जैसे कोई उपक्रम, गुट- पापों में भी 'प्रमत्तयोगात्' लगा लेने का आदेश देते हैं। बाजी, अहं-वासना या पैसे से प्रेरित तो नहीं है ? यदि हाँ, उनके मत में कोई भी प्रवृत्ति तब तक पाप नहीं है जब तो 'अहं' के पोषक ऐसे उपक्रमों पर ब्रेक लगाना चाहिए। तक उसमें प्रमत्त भाव न हो।-'मरदु व जियदु व जीवों फिर, आप जैसा सोचें सोचिए । हां, यह भी सोचिए कि आदि। यदि हम प्रमत्त की परिभाषा हृदयंगम करें तो पूर्वाचार्यों को उपाधियों और अभिनन्दनों की प्राप्ति में हमें स्पष्ट हो जायगा कि सभी पापो की जड़ में परिग्रह भी क्या हम चालू जैसी 'तुच्छ' परम्परा की कल्पना बैठा है । तथाहिकर उनके स्तर की अवहेलना के पाप का बोझ अपने "जो प्रमादयक्त है. कषायसयुक्त परिणाम वाला है सिर लें? उसे प्रमत्त कहते हैं। इन्द्रियों की क्रियाओं में सावधानता
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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