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पं० शिरोमनिवास "धर्मसार सतसई जो फल है अनंत सुख राशि,
दोहा-नियम सहित प्रोषध कर, हिंसा कम निवारि। मुक्ति वधू तहं होइ उदासी ॥७॥ देव लोक पद जो लहै, सकल दोष दुख जारि 10॥ एक माम जिन जीवन जप्यो,
अथ अतिथि संविभाग व्रतपाप राशि तिन छिण में खप्यो।
घड़ी छह दिनु चढ़इ जु जबही, स्वर्ग लोक लहै सुख की खानि,
द्वारा पोषण कर भव्य तबहीं। सामायिक फल को कहै बखानि ॥७१॥ मुनि को पाय देइ शुभ दान, दोहा-सामायिक इक चित्त दे, धरै भव्य निज हेत।
निर्मल भाव कर शुभ ध्यान ॥१॥ प्रथम शिक्षावत सो लहै, जिनवर कहै सुचेत ॥७२ पुनि पार्छ निज भोजन करे, चौपाई-सातें तेरस शुद्ध आहारी,
इह विधि नियमा व्रत को धरै। एका भक्ति कर साचारी।
जो मुनि दान बन नहीं जोग, पुनि प्रोपध थाय जिन पास,
ता दिन रस त्यागी सब भोग ॥२॥ ग्रह आरम्भ तजे सब आस ॥७३॥
दोहा-यह विधि दिन दिन व्रत कर, घर नियम दढ़ जानि । खाद्य स्वाध पिय लेप आहार,
तृतीय शिक्षा व्रत सो लहै जिनवर कही बखानि ॥५॥ चार प्रकार तर्ज व्रत धार ।
अब देशावकाशिक कथ्यतेकंद मूल फल फूल जे पान, इन्हें न लीज हाथ सुजान 10m
मोग उपभोग की संख्या लेइ, स्नान तिलक आभूषण वस्त्र,
दया दान सबही को देह। गमनागमन तर्ज सब अस्त्र ।
पुनि जिन मन्दिर र अनूप विकचा राग दोष परिहार;
तहाँ धर्म अति बढ़े स्वरूप ॥४॥ संयम भाव घरं तजि नारि ॥७॥ सोरठा-जाते धर्म जु होइ सो विधि कीज भाव सौं। बाठ चोदश प्रोषध कर,
देशावकासिक सोइ, सज्जन करह सयान सौं॥५॥ हिंसा कर्म सबै परिहरै। जय बारह तप:जिनकी भक्ति कर दृढ़ चित्ता
बारह तप सुन श्रेणिक धीर, धर्म ध्यान सों की मित्त ॥७६|
जात होइ कर्म ते कीर। रात दिवस निर्मल परिणाम,
तप तें जरै काम प्रचण्ड, इह विधि प्रोषध लेहु सुजान ।
इन्द्रियनि विष लगे तहं दण्ड ॥८६॥ पूनों अमावस नोमी होइ,
जैसे अग्नि में सोनो (म्वर्ण) शुद्ध, एका भुक्ति करी पुनि सोइ ॥७॥
त्यो तपते जीव होइ सुबुद्ध । सोलह पहर जु प्रोषध शुद्ध,
स्वर्म लोक होय तप तें नाथ, उत्तम प्रोषध कही सुबुद्ध ।
मोक्ष कामिनी इच्छा साथ ॥७॥ चौदह पहर प्रोषध तुम जानि,
सेवा देव कर कर जोडि, मध्यम प्रोषध कही बखानि ॥७॥
तपत विघ्न गलै बहु कोडि । द्वादश प्रहर जु प्रोषध लीन ।
केवल लब्धि मिले सुख आय, जघन्य जु प्रोषध कही प्रवीन ।
कौति रहे चहुं दिशि छाय ॥८॥ यथा शक्ति जो प्रोषध कर,
सो तप छह वाहिज (वाह) हितकारी, पाप पुज जो छिन में हरे ॥७९॥
अनशन प्रथम धरै साचारी।