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२२, ०१ रेखा का लोप हो जाता है क्योंकि जब तक व्यक्ति सभी बालादित कर निर्भय बनाता है। प्राणियों को आत्मतुल्य नहीं समझेगा तब तक वह पूर्ण सह-अस्तित्व की भावना तथा अनेकता में एकता की अहिंसक नहीं हो सकता। जैसी भावना हम अपने प्रति स्थापना (अनेकान्तवाद) आज राष्ट्रीय एकता की अखंडता रखते हैं यदि वैसी ही दूसरों के प्रति भी रखें तो समाज के लिए अत्यधिक आवश्यक है। जैन धर्म के पंच महाव्रतों से शोषण एवं उत्पीडन स्वयमेव समाप्त हो जाएगा। द्वारा उन समस्त मानवीय वृत्तियों पर नियन्त्रण रखा जा सच्चा अहिंसक न केवल मानव-मात्र की समानता मे सकता है जो व्यष्टि एवं समष्टि सभी के लिए अहितकर हैं, विश्वास करता है अपितु संसार के लघुतम जीव के लिए जो व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य राग-द्वेष, हिंसा-षणा एवं ऊंचभी उसके 'उर से करुणा स्रोत' बहता है। ऐसे में जाति- नीच की दीवारें खड़ी कर देती हैं और सम्यक् दर्शन, ज्ञान भेद एवं वर्गभेद की दीवारों का खोखला होकर ढह जाना एवं चारित्र वे जगमगाते हुए अमूल्य रत्न हैं जिन्हें पाकर स्वाभाविक है।
और कुछ पाना शेष नही रह जाता, जो व्यक्ति की क्षुधा __ अहिंसा का अर्थ पलायन अथवा कायरता कदापि नहीं को सदा के लिए शान्त कर उसे अमरत्व की राह दिखाते है। अहिंसक तो निर्भय होकर जीवन-संग्राम से जूझता है । और सुख दुःख को समभाव से ग्रहण करता है, जिसके
आणविक युद्ध की विभीषिकाओं से आतंकित, अमानुलिए अपराजेय मनोबल, धैर्य और संयम की आवश्यकता षिक हत्याओं, चोरी-डकैती से संत्रस्त तथा दिनों-दिन है, जबकि इसके ठीक विपरीत कायर हिंसा को झेलने में।
बढ़ते भ्रष्टाचार के पाशविक पंजों में जकड़े, मुक्ति के लिए 'असमर्थ होकर प्रतिहिंसा से भर उठता है अथवा पलायन
छटपटाते आज के मानव के लिए जैन सिद्धान्त इसी प्रकार वादी बन जाता है। हिंसा का हिंसा द्वारा प्रतिकार उसकी
महत्वपूर्ण एवं शान्तिदायक सिद्ध हो सकते हैं जैसे रेत से सत्ता को स्वीकारना है जबकि अहिंसक के लिए उसका
तपती, जलती हुई मरुभूमि के मध्य निर्मल एवं शीतल जल अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। इसीलिए गांधी जी ने
का सुखद 'ओएसिस'। हिंसा की पूर्ण उपेक्षा ही उसका सही प्रतिकार माना था। अहिंसा और करुणा का मधुर संगीत प्राणिमात्र को
. ७/३५, दरियागंज नई दिल्ली
हा
(पृ. २०का शेषांष) १५. मत्तेभ कुम्भने भुवि सन्ति शूरा:
२२. दश लक्षण धर्म : शास्त्रि परिषद् प्रकाशन केचित्प्रचण्ड मृगराज वधेऽपि दक्षाः
२३. नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसा
नपुरे त्वभि जानामि नित्यं पादाभिनन्दनात् । कन्दर्प दर्प दलने विरला मनुष्याः ।
२४. नेणा सहुजि लन्भऊ भवपारउ, बभय विण तउजि • १६. ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि; दशलक्षण धर्म पूजा पृ०३१२ असारउ बंभन्वय विणु काकितोशो विहल लसय १७. शीलबाढ़ नीराखबह मभाव अन्तर लखो
श्रासियऊ विणेसो। एलाचार्य मुनि विद्यानन्द करि दोनों अभिलाख करह सफल नरभव सदा।
गुरुवाणी पृ०१६ वही :पृ. ३१२
२५. यत्संगाधारमेतच्चलति लषु च यत्तीषण दु:खौषधारम् १५. जीवलोकेऽवला नाम सर्वदोष महारवमिः
मृत्पिण्डीभूतभूतं कृतवहुविकृति प्रान्ति संसारछेकम् । कि नाम न कृते तस्याः क्रियते कर्म कुत्सितम् ।
ता नित्वं यन्मुमुनूर्यतिरमलकमतिः शान्तमोहः प्रपमयेपमपुराण : पर्व १०६ श्लोक २१७
ज्जामीः पुत्रीः सवित्रीरिव हरिणदशस्तत्परं ब्रहमचर्यम् १६. कानपीठ पूजाञ्जलि : दशलक्षण पूजा
पानन्दि पंचविशतिका : श्लोक १०४ २०.७० हरिलाल जैन, दश लक्षण धर्म हु० ७६
-जैनि विद्या २२. लेखक की गृहिणी सतक अप्रकाशित स्वना
श्री महावीर जी