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प्राधुनिक युग में जैन-सिद्धान्तों का महत्त्व
डा० (कुमारी) सांवता जन,
बीसवीं शताब्दी मे भी जैन-धर्म के मूलभूत सिद्धान्त जिसमे सामान्यतः व्यक्ति अपरिचित होता है और वही उतने ही महत्वपूर्ण एवं सार्थक हैं जितने कि आदि तीर्थकर समस्त मानसिक विकारो के मूल मे किसी न किसी रूप श्री ऋषभदेव के समय मे थे, बल्कि आज के इस अति में निहित होता है । जैन-दर्शन में दृष्टि को अन्तर्मुखीकर, भौतिकवादी एव यान्त्रिक युग में जबकि आणविक विनाश भेद-विज्ञान द्वारा उसे 'पर' से विमुख कर 'स्व' को जानने के काले बादल हर क्षण हर व्यक्ति के सिर पर मंडराते और पहचानने पर विशेष बल दिया गया है । फायड, रहते हैं इनकी चहुंमुखी उपयोगिता इन्हें और भी अधिक एडलर और युंग जैसे मनोविज्ञान वेत्ताओ का मनःविश्लेअर्थवान एवं महत्वपूर्ण बना देती है।
षण (Psycho-analysis) इससे भिन्न नहीं हे अपितु 'स्व' जैन धर्म के मूलभूत सिद्धान्त न केवल व्यक्तिगत के इस विश्वेषण की पहली सीढ़ी मात्र है। अपितु राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी आधुनिक कार्ल मार्क्स ने जिस सम वितरण की चर्चा की है वह युग को समस्याओं को सुलझाने मे फ्रायड, मासं अथवा जैन-धर्म के मूलभूत सिद्धान्त अपरिग्रह का ही एक छोटालेनिन जैसे विचारकों के सिद्धांतों से कही अधिक उपयोगी सा अंश मात्र है। किसी भी भौतिक वस्तु का आवश्यकता सिद्ध हो सकते हैं क्योंकि इन अयवा इन जैसे अधि।शि से अधिक सचय न केवल व्यक्ति के नैतिक पतन के लिए विद्वानों की दृष्टि एकांगी थी जबकि जैन-दर्शन अपनी उत्तरदायी होता है अपितु समाज में वर्ग-भेद को भी जन्म अनेकान्तवादी दृष्टि के कारण किसी भी समस्या को हर देता है । ऐश्वर्य अथवा सत्ता की लालसा न केवल भाईसम्भव दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करता है। भाई के बीच दीवार खड़ी कर देती है अपितु दो राष्ट्रों
सर्वोदय को आज लोग गांधी जी की देन मानते है को भी युद्ध के भयानक कगार पर ला खड़ा करती हैं। लेकिन आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व जबकि समाज आइंस्टाइन के सापेक्षता के सिद्वान्त और अनेकान्तवाद में वर्णाश्रम व्यवस्था का बोलबाला था और शूद्रों को न मे भी मूलतः एक ही विषय को वैज्ञानिक तथा दार्शनिक केवल मानव के सामान्य अधिकारो से वंचित कर रखा दृष्टिकोणो के अन्तर से भिन्न शब्दावली मे, भिन्न रूपों था अपितु उन्हें पतित मानकर अन्याय, दमन और शोषण मे प्रस्तुत किया गया है। के कुच में पीसा जा रहा था, महावीर ने मानव-मात्र सह-अस्तित्व की भावना तथा अनेकता में एकता की की समानता का सन्देश देते हुए सबके उदय का जयघोष स्थापना आज राष्ट्रीय एकता की अखंडता के लिए अत्यकिया था।
धिक आवश्यक है। जैन धर्म का प्राण तत्व है अहिंसा जो इसी प्रकार यदि गहराई से जन-दर्शन एवं सिद्धान्तों न केवल व्यक्तिगत स्तर पर जीवन की विभिन्न समस्याओं का अध्ययन किया जाय तो फ्रायड का मनोविश्लेषण, को सुलझाकर मानव को एक उदात्त धरातल पर प्रतिष्ठित मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद, आइंस्टाइन का सापे- कर सकता है अपितु 'वसुधैव कुटुम्बकं' की भावना को क्षता का सिद्धान्त, जिन्हें हम आज के युग की महत्त्वपूर्ण जागृत कर विश्वशान्ति की सम्भावनाओं को साकार रूप देन मानते हैं, सभी वहाँ किसी-न-किसी रूप में उपस्थित देने में सहायक हो सकता है। यहाँ 'अहिंसा' शब्द का मात्र मिलेंगे । आधुनिक मनोविज्ञानवेत्ता फ्रायड के मतानुसार अभिधापरक अर्थ न लेकर उसे इतने अधिक विस्तृत रूप हमारे अन्तर्गत का ३/४ हिस्सा बचेतन में छिपा हुआ है, में ग्रहण किया गया है कि उसमें 'स्व' और 'पर' की सीमा