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________________ ओम् बहन AULI EE . . * परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण संवत् २५११, वि० सं० २०४२ वर्ष ३८ जनवरी-मार्च १९८५ प्रादिनाथ-जिन-स्तवन कायोत्सर्गायताङ्गो जयति जिनपति भिसुनुर्महात्मा मध्याह्न यस्य भास्वानुपरिपरिगतो राजतिस्मोग्रमूतिः। चक्र कर्मेन्धनानामतिबहु बहतादूग्मोदास्यवातस्फर्जल बचानय हरिव रुचिस्तर: प्रोद्गतो विस्फुलिङ्गः॥१॥ चल अंग मेरठाई रिषभरिपनन्धाचा, काउसग्ग मद्रा धरि बनमें ठाडे रिषभ रिडितजि बीनी। निहिचल अंग मेरु है मानो वोऊ भुजा छोर गिनि दोनी। फैमे अनन्त जन्तु जग-बहले दुखी देख करुणा चित्त लीनी। काढ़न काज तिन्हें सररथ प्रभु, किधों बांह ये वीरघ कोनो। -भूधरवास अर्थ-कायोत्सर्ग के निमित्त से जिनका शरीर लम्बायमान हो रहा है, ऐसे वे नाभिराय के पत्र महात्मा आदिनाथ जिनेन्द्र जयवन्त होवें, जिनके ऊपर प्राप्त हुआ मध्यान्ह (दोपहर)का तेजस्वी सूर्य ऐसा सुशोभित होता है मानो कर्मरूप ईन्धनों के समह को अतिशय जलाने वाली एवं उदासीनतारूप वायु के निमित्त से प्रगट हुई समीचीन ध्यान रूपी अग्नि की देदीप्यमान चिनगारी हो उन्नत हुई हो। विशेषार्थ-भगवान आदिनाथ जिनेन्द्र की ध्यानावस्था में उनके ऊपर जो मध्यान्ह काल का तेजस्वी सूर्य आता था उसके विषय में स्तुतिकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि वह सूर्य क्या था मानों समताभाव से आठ कर्मरूपी ईन्धन को जलाने के इच्छुक होकर भगवान आदिनाथ जिनेन्द्र द्वारा किये जाने वाले ध्यानरूपो अग्नि का विस्फुलिंग ही उत्पन्न हुआ है। og
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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