________________
यह कैसा अपरिग्रहवाद है ?
डा. ज्योतिप्रसाद जैन नोट: डा. सा. इतिहास के ख्याति प्राप्त प्रकाण्ड मनीषी हैं । अनेकांत के हर अलू को उनका आशीर्वाद लेख के रूप
में प्राप्त होता है । गत अङ्क में 'पट्ट महादेवी सान्तला' कृति पर आपका समीक्षात्मक लेख प्रकाशित हुआ था। समीक्षा इतनी प्रभावक रही कि कृतिकार श्री सी. के. नागराजन् बैगलोर से जब लखनऊ डा. साहब के घर उन्हें बधाई देने पहुंचे। उन्होंने डा. साहब का आभार निम्न शब्दो मे प्रकट किया। 'उत्तर भारत मे कर्नाटक के इतिहास एवं सस्कृति साहित्य आदि के विषय मे कोई इतना जानता होगा इसका मुझे अनुमान नही था, आदि ।'
-सम्पादक सहयोगी बन्धु श्री पद्मचन्द्र शास्त्री अनेकान्त के विगत उपाय उपरोक्त पाप प्रवृत्तियो का सम्यक् निरोध है। कई अको (३७/१ पृष्ठ-३१-३२, ३७/३ पृष्ठ-२३-२४, ये सभी कुप्रवृत्तियां एक दूसरी की पूरक एव पोषक पृष्ठ-२६-२८) मे अपरिग्रहवाद पर विशेष बल देते आए हैं । व्यक्ति-व्यक्ति के भेद से किसी मे किसी एक का, किसी हैं। उनकी धारणा है कि जैन परम्परा मे अहिंसा पर में किसी दूसरी का प्राबल्य या आधिक्य दृष्टिगोचर होता आवश्यकता से अधिक बल दिया गया है और उसके पीछे, है, किन्तु अल्पाधिक रूप में प्राय: सभी परस्पर सहयोउमसे भी अधिक महत्वपूर्ण अपरिग्रह को, जो मूल जैन गिनी हैं और साथ-साथ ही रहती हैं। इसी प्रकार यदि सस्कृति का प्रतीक है, प्रायः भुला दिया गया है । कम से किसी व्यक्ति में सच्चे अर्थों मे धर्माभिरुचि जागृत हो कम अधुना जैन धर्मावलम्बियो के आचार-विचार एव जाती है, तो वह इन पाप प्रवृत्तियों को हेय एव त्याज्य व्य म्हार मे ऐसा ही चरितार्थ हो रहा है । पण्डित जी का समझने लगता है, और परिणामस्वरूप उनके निरोध या यह चार यदि पूर्णतया नहीं तो, अनेक अशों मे सत्य उच्छेद के लिए प्रयत्नशील भी हो जाता है। यदि वह इन प्रतीत होता है।
पांचों में से किसी एक से भी मनसा-वाचा-कर्मणा निवृत्त आत्मा की विभाव परिणति स्थल रूप से हिसा-झुठ- होने का प्रयास करने लगता है तो शनैः शनैः शेष चारों चोरी-कुशील-परिग्रह रूपी पांच पाप प्रवृत्तियो के रूप मे से भी निवृत्त होने लगता है। पूर्णतया अहिंसक आत्मा में मुखरित होती है । सप्त-व्यसनादि का सेवन, नानाविध सत्य, अस्तेय, शील या ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की प्रतिष्ठा चनाचार, दुराचार, व्यभिचार, शोषण, ईर्ष्या, द्वेष, असूया, स्वत हो जाएगी। इमी प्रकार पूर्णतया अपरिग्रही आत्मा घणा, मात्सर्य, बैर, विरोध, उच्छलता आदि उसी के में भी शेष चारो गुण स्वतः प्रकट हो जाएंगे। प्रतिपल हैं । इन समस्त कुप्रवृत्तियों के मूल में प्राणी को परन्तु आज तथाकथित जैनों में, चाहे वे दिगम्बर यह पर्याय-सम्बन्धी दैहिक एवं भौतिक आसक्ति है जो तेरहपंथी, बीसपथी, तारणपंथी, कान्हजीपंथी, या उसे आत्मस्वरूप या आत्मधर्म मे विमुख करके बहिर्मुखी, श्वेताम्बर मन्दिरमार्गी, स्थानकवासी, तेरापथी अथवा बहिरातम, परावलम्बी एवं पराधीन बना देती है। इसके कोई अन्य भी हों प्रायः सभी मे दिनोदिन वृद्धिंगत ऐहिक विपरीत, निर्ग्रन्थ श्रमण या जिन धर्ममाधना का प्रधान आभक्तियों का मोह-मायाजाल चतुर्दिक दृष्टिगोचर है। एवं परम लक्ष्य वीतरागता, समत्व तथा शुद्धात्मोपलब्धि कितना ही अध्यात्मवाद झोंकें, कितना ही तत्वज्ञान बघारें, है, जो सच्चे, स्वाधीन, शाश्वत, निराकुल सुख, ब्रह्मानन्द कितने ही शास्त्रज्ञ, क्रियाकांडी या भक्त बनें, आबालवृद्ध भा परमात्मानन्द का प्रतीक है। और इसका अनिवार्य गृहस्थ स्त्री-पुरुष हों, अथवा साधु-साध्वी आदि किसी भी