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जैन धर्म में विर की अवधारणा
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पास नहीं करता। जैन मतानुसार इस सष्टि का न तो कोई यथा-ईश्वरः पर्जन्यो वष्टोः (ऐत. १/१९)१ आदि है, न अंत है। प्रत्येक वस्तुका अनादि काल से अस्तित्व तस्येश्वरः पूजा पापीयसो भवितोः (शतपथ है । अतः उनकी उत्पत्ति को सिद्ध करने के लिए किसी
५/१/१/०) सृष्टिकर्ता की आवश्कता नही है । आचार्य जिनसेन पूछते
(अग्नि) स हैनमीश्वरः सपुत्र सपशुं प्रदग्धोः है। "यदि ईश्वर ने इस सृष्टि का निर्माण किया तो पहले
(शतपथ १२/५/१/१५) वह कहां था? यदि वह दिक् में नही था तो फिर उसने
अष्टाहायी और महाभाष्य में आये हुए ईश्वर शब्द सृष्टि का निर्माण कहां किया? एक निराकार निद्रव्य भी ऐसे ही लौकिक अर्यों के द्योतक हैं। ईश्वर द्रव्यमय विश्व का निर्माण कैसे कर सकता है? ईश्वर शब्द केवल स्वाभी, राजा या शासक के अर्थ यदि द्रव्य का पहले से अस्तित्व रहा है, तो फिर विश्व को में प्रयुक्त हुआ है और उसका परमेश्वर के अर्थ से कुछ अनादि मानने में क्या हर्ज है? यदि सृष्टि निर्माता का भी सम्बन्ध नहीं है। पाणिनीय सूत्रो में भी ईश्वर शब्द निर्माण किसी ने नहीं किया है, तो फिर विश्व का स्वतः का प्रयोग स्वामी के अर्थ में हुआ है। भाष्यकार पतंजलि अस्तित्व मानने में क्या हर्ज है ?" आगे वह कहते है : ने ईश्वर शब्द राजा के अर्थ में प्रयुक्त किया है। "क्या ईश्वर स्वतः पूर्ण है ? यदि है, तो उसे इस विश्व का श्री गोपाल शास्त्री दर्शन केसरी, काशी विद्यापीठ निर्माण करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। यदि नही का मत है कि ईश्वर शब्द का प्रयोग परमेश्वर के अर्थ में है, तो एक साधारण कुम्भकार की तरह वह इस कार्य के इधर आकर बहत अर्वाचीन समय से संस्कृत साहित्य में लिये अयोग्य होगा, क्योंकि स्वीकृत परिकल्पना के अनुसार प्रयुक्त पाया जाता है। एक परिपूर्ण सत्ता ही इस कार्य को कर सकती है।" उक्त वास्तविकता के अनुसार जैन धर्म को अनीश्वर___ "ऐश्वर्य" शब्द की रचना संस्कृत की मल धात बादी कहना सर्वथा अज्ञानता ही है, क्योंकि जैन धर्म में "ईश" (एश्वर्य) से हुई और इस शब्द का प्रयोग सदा इन सभी लौकिक शक्तियो की सत्ता (षड् द्रव्यो और सांसारिक वैभव-रूपया पैमा, मकान, जानवर, नौकर- उनकी विभाव परिणतियो के रूप में स्वीकार की गई है) चाकर आदि उपयोग की सामग्री या आधिपत्य के लिये जहां तक परमात्मा की सत्ता का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में ही होता है। अत: ईश्वर वही कहलाता है जो लौकिक भी जैन धर्म सबसे आगे है। जब अ य दार्शनिकों में कई ऐश्वर्य से मुक्त हो। कोष में भी जहां ईश्वर के नाम गिन- दार्शनिकों ने परमात्मा को मानने तक से इंकार कर दिया वाये हैं, ईश्वर शब्द से लौकिक ऐश्वर्य सम्पन्नता का ही है, जैन धर्म मूक नही, अनेकों अनत परमात्माओं को बोध होता है, परमेश्वर या परमात्मा का नही। स्वीकार करता है। यथा-राजाऽधिपः पतिः स्वामी नाथः परिवृढः प्रभुः । राग द्वेष आदिक अनेकों वैभाविक परिणतियों से
ईश्वरो विभुरीशानो भर्तेन्द्र इन ईशिता ॥ (धनजय) मलिन आत्मा जब अपने पुरूषार्थ द्वारा वैभाविक परिण
इसके अतिरिक्त मुख्य बात यह भी है कि जिस प्रकार तियों को अपने से पुरक कर देता है तब परम (उत्तमलोक में ईश्वर की व्याख्या का प्रचलन चल पड़ा है वैसी श्रेष्ठ) रूप में आ जाता है तब परमात्मा कहलाने लगता व्याख्या प्राचीनतम साहित्य वेदों तक मे भी कही उपलब्ध है। ऐसी अनत आलाएँ है, जिन्होने इस रूप को प्रात्त कर नही होती । और तो क्या कोई वेद ऐसा नही है जिसमे लिया है इस प्रकार इस धर्म मे अनेकानेक परमात्माओं की ईश्वर शब्द तक दृष्टिगोचर होता हो।
सत्ता सिद्ध है। हा, चूकि रचना करना, कर्मों का फल ___अन्य ग्रन्थों में जहां यदा कदा ईश या ईश्वर शब्द देना, रक्षा करना आदि कार्य शरीरधारी के धर्म है और का प्रयोग मिलता है वह भी भौतिक शक्तियो के अधि. राग द्वेष, इच्छा प्रयत्न दि के आधीन है । अत: जैन धर्म ष्ठाता रूपों का ही संकेत देता है, परमात्मा वाचक पद मे परमात्मा का इन सब कार्यों से दूर रखा गया है वस्तेत: का नही।
वह परमात्मा कैसा, जिसमे ये सब व्याधिया हो । अर्थात