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________________ ३४ वर्ष १८०४ न च क्रीडा विभोस्तस्य वालिशेष्वेव वर्जनात् । सप्तश्च भवेत्तप्ति कीडया कर्तुमुद्यतः ॥ स्वैराचार स्वभावों पिनेश्वरस्यैश्थनितः । अप्यंस्मदादिभि द्वेष्य सर्वोत्कर्षत्रतः कुनः ॥ - वादीभसिंह सूरि क्षत्रचूडामणि- ७ / २३-२७१ कुछ लोगों का कथन है कि परमात्मा राग द्वेप इच्चा आदि से रहित होकर भी कोटा के रूप में सृष्टि का निर्माण करता है। पर यह बात सर्वधा अटपटी सी ही लगती है क्योंकि कोटा रूपी प्रवृत्ति तो वासकों और असंतुष्ट व्यक्तियों में ही देखी जाती है। वे संतोष के निमित्त क्रीडा का उपक्रम करते हैं। पूर्ण संतुष्ट और इच्छारहित परमात्मा सृष्टिकर्तव्य आदि कार्यं सम्भव नहीं । यदि कहा जाय कि परमात्मा बिना ही इच्छा के स्वछन्द प्रवृत्ति करता है तब उसकी प्रभुता की हानि होती है स्वेच्छाचारिता तो साधारण जनों में भी घृणास्पद समझी जाती है। वह सर्वोत्कृष्ट, शुद्ध, निर्विकार और निर्विकल्प परमात्मा मे कैसे सभत्र हो सकती है । इसलिये पर निर्माण आदि रूप स्वछन्द प्रवृत्ति करने वाले परमात्मा मे नही हो सकता । ऐसी जैन धर्म की मान्यता है। अनेकान्स प्रसिद्ध विद्वान श्री गंगा प्रसाद के शब्दों मे, "ईश्वर में इच्छा बताना ईश्वर से इंकार करना है । अत यह मिड है कि न तो ईश्वर के स्वभाव से सृष्टि उत्पन्न हो सकते है और न यह सृष्टि उसकी द ही परिणाम है और न उसकी क्रीडा मात्र ही है ।" उक्त मान्यता ही जैन आगम की है। दग सम्बन्ध मेकुठ प्रसिद्ध विद्वानों के निर्णय भी इसी प्रकार है। "जैनियो का निरीश्वरवाद इतना उदार और क है कि हमारे जैसे धनी तथा ईश्वरवादी के लिए यह ईश्वरवाद हो है । कई दृष्टियों से उनसे ऊपर उठ जाता है। वेद यदि एक बाद है तो जैन धर्मान्तवाद है। उसके अनुसार प्रत्येक जीव भिन्न भिन्न है । अनत जीव हैं और ईश्वर की जो व्याख्या हम सर्वगुणमल, मज्ञानी, परमानन्द के रूप में करते है, जैन म से ऐसे अनेको ईश्वर हैं। "यहां पर हम जन धर्म के नहीं करेंगे। हमने स्वाद्वाद या रानगंगीनय बहुत ही सक्षेप में उसके निरीश्वरवाद का वर्णन किया है। हमारे ऐसे ईश्वरवादी साथ ही अद्वैतवादी के लिये इसमें अनेक दोष दिख पड़े, और इस निरीश्वरवाद में सब कुछ इतना सुन्दर है कि एमको कुछ शिकायत नहीं होनी चाहिये जीव की ऐसी व्याख्या से हमारा परमात्मा राग-द्वेष भरी सृष्टि को बनाने की जिम्मेदारी से बच गया । निर्माण से "शून्य" का आभाव समाप्त हो गया और पश्चिमी नास्तिकों की तरह हम भौतिक सुख के बंधन में ही नहीं पड़े रहे। जैनी अनीश्वरवाद इतना तर्कपूर्ण है कि उसका सहसा खंडन करना कठिन है और ईश्वर भक्त के लिये जैनी " वीतराग" मूर्तिमान मिलते हैं ।"" "ईश्वर अशरीर है, इसीलिये वेदना, क्षुधा, तृष्णा, इच्छा आदि ईश्वर में नहीं है। ईश्वर शुद्ध ज्ञान स्वरूप है ज्ञान ही ईश्वर की क्रिया है।" "ईश्वर को सभी वस्तुओं का स्वाभाविक ज्ञान है। आत्म-मनन के अतिरिक्त ईश्वर का और कोई कार्य नहीं है । यदि कोई कार्य माना जायेगा तो ईश्वर से भिन्न उसका लक्ष्य या उद्देश्य भी माना जायेगा। इससे ईश्वर में परिमिता दोष आ जायेगा । इस अंश में अरस्तु को ईश्वर जैनो के श्वर से मिलता है। सारांश यह जैन धर्म दरही अनेकानेक अवाध्य हेतुओं से परमात्मा को सृष्टि-निर्माता या कर्मफल दाता नहीं मानता। यदि विचारपूर्ण और निष्पक्ष दृष्टि से देखा जाये तो इम धर्म में आत्माको परमात्मा जैसे परम पद को प्राप्त कराने का मार्ग प्रशस्त है। अनेकानेक आत्माएं परम पद को प्राप्त हैं तथा भविष्य में भी अनेकों को पर मात्मा होने का मार्ग प्रशस्त है। इस प्रकार यह धर्मं एक हो नहीं तु अनेक परमात्माओं को स्वीकार करता है, अत: इसे परमात्मावादी अथवा जन साधारण की प्रचलित भाषा में ईश्वर वादी नहीं, वरन् परम ईश्वरवादी ही समझना चाहिए । इस सम्बन्ध में श्री सुमेरुचन्द्र दिवाकर के विचार उल्लेखनीय है- "जैन दार्शनिकों ने परमात्मा पद प्रत्येक प्राणी के लिए आरनजागरण द्वारा सरलतापूर्वक प्रायव्य बतलाया है। यहां ईश्वर का पद एक व्यक्ति विशेष के लिए सर्वदा
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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