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जैन धर्म में ईश्वर की अवधारणा
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सुरक्षित नहीं रखा गया है। अनन्त आत्माओं ने पूर्णतया सिद्धान्तों से समानता रखता है। जैन धर्म ने विज्ञान के आत्मा को विकसित करके परमात्मपद को प्राप्त किया है उन सभी प्रमुख सिद्धान्तों का विस्तृत वर्णन किया है। तथा भविष्य में प्राप्त करती रहेगी। सच्ची साधनाओं जैसे कि पदार्थ विद्या, प्राणीशास्त्र, मनोविज्ञान और काल' वाली आत्माओं को कौन रोक सकता है? वास्तविक गति, स्थिति, आकाश एवं तत्वानुसंधान । श्री जगदीशप्रयत्लशुन्य, दुर्बल, अपवित्र आत्माओ को किसी विशिष्ट चन्द्र वसु ने वनस्पति में जीवन के अस्तित्व सिद्ध कर जैनशक्ति की कृपा द्वारा मुक्ति में प्रविष्ट नही करवाया जा धर्म के पवित्र धर्मशास्त्र भगवती-सूत्र के बनस्पति सकता । जैन दर्शन के ईश्वरवाद की महत्ता को हृदयंगम कायिक जीवों के चेतन तत्व को प्रमाणित किया है।" करते हुए एक उदारचेता विद्वान ने कहा था-"यदि एक क्या जैन धर्म किन्हीं देवताओं में विश्वास करता है? ईश्वर मानने के कारण किसी दर्शन को आस्तक संज्ञा दी जैन धर्म के अनुसार वैदिक धर्म के याज्ञिक कर्म-काण्ड जा सकती है, तो अनन्त आत्माओं के लिए मुक्ति का द्वार को व्यर्थ बत नाया गया है और देव-पूजा के लिए इसमें उन्मुक्त करने वाले जैन दर्शन मे अनन्त गुणित आस्तिकता कोई स्थान नहीं है। गृहस्थों के लिए यह विधान था कि स्वीकार करना न्याय प्राप्त होगा।"
वे पंच-परमेष्ठी की पूजा तथा उन्हें नमस्कार करें। अहता, जैन धर्म ने संसार को परीक्षा दृष्टि दी है और सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु पंच परमेष्ठी के अन्र्तगत प्रमाण-नय, स्याद्वाद प्रादि विभिन्न पहलुओं से वास्तविकता माने गये। अपने व्यक्तित्व का सर्वोच्च विकास करने वाले की परख के साधन उपलब्ध कराये हैं । इस धर्म में अध जीवन मुक्त महात्मा अहत कहलाते हैं । तीर्थकर इसी श्रद्धा को स्थान नहीं।
कोटि मे आते है । मुक्त पुरूष सिद्ध कहलाते हैं । यही पंच श्रद्धा चाहे लौकिक जन से सम्बन्धित हो अथवा परमेष्ठी जैन धर्म के देवता कहे जा सकते हैं। अलौकिक परमेश्वर से सम्बन्धित हो । दोनो के ही निर्णय जैन धर्म मे पच परमेष्ठी की पूजा का विधान है। में जैन धर्म के स्यावाद आदि मिद्धान्त "सर्वोच्च न्याया- अर्हताओ की मूर्तियां ध्यानस्य मुद्रा में पद्मासन या खड्गालय" जैसा निष्पक्ष न्याय देते हैं। प्रमाण और नय की सन लगाये हुए मिलनी है। इन मूर्तियों की प्रतिष्ठा मन्दिकसौटी पर खरा उतरने वाला गिद्धान्त ही खरा है। रों में की गई है । मन्दिरों को परमेष्ठियों के अमर व्यकि
जैन धर्म की इस प्रकार की पक्षपान रहित नीति को तत्व से प्रभावित मानकर तीर्थकरों की स्तुतियां की जाती यदि संक्षेप में कहा जाये तो यह कहा जा सकता है- हैं और नमार पूर्वक मूर्ति की प्रदक्षिणा की जाती है।
"न ह्याप्तवादा तभसो निपतन्ति महासराः। मूर्ति पूजा की प्रक्रिया का आरंभ अभिषेक से होता है। युक्ति मद वचनं ग्राह्य मयाऽन्यश्च भवद्विधः । पूजा का उद्देश्य शारीरिक एव मानसिक शुद्धि तथा मोक्ष
-विष्णु पुराग ३/१८/६० की प्राप्ति है। हे जान बन्धुओं। आप्तवचन आकाश से नही गिरा सारांश:-"इस प्रकार जैन दृष्टि से अर्हन्तपद और सकते । जो युक्तिपूर्ण वचन हो, उसे मुझे तथा माप सद्श सिद्धपद को प्राप्त हुए जीव ही ईश्वर कहे जाते हैं। प्रत्येक दूसरों को भी ग्रहण करना चाहिए।
जीव मे इन प्रकार के ईश्वर होने की शक्ति है। परन्तु भारत के तत्ववेत्ता और प्रसिद्ध दार्शनिक अनन्त अनादि काल से कर्म बन्धन के कारण वह शक्ति ढकी हुई शयनम आयंगर के शब्दों में-"जैन धर्म कोई पारस्परिक है। जो जीव इस कर्म-बन्धन को तोड़ डालता है उसमें ही विचारों, ऐहिक व पारलौकिक मान्यताओं पर अन्ध श्रद्धा ईश्वर होने की शक्तियां प्रकट हो जाती है और वह ईश्वर रखकर चलने वाला सम्प्रदाय नहीं है, वह मूलतः एक बन जाता है। इस तरह ईश्वर किसी एक पुरूष विशेष कि वैज्ञामिक धर्म है । उसका विकास एवं प्रसार वैज्ञा- का नाम नही है परन्तु अनादि काल से जो अनन्त जीव निक जंग से हुआ है, क्योंकि जैन धर्म का भौतिक विज्ञान अर्हन्त और सिद्धपद को प्राप्त हो गये हैं और आगे होंगे, बौह आत्मविमा का क्रमिक अन्वेषण माधुनिक विज्ञान के उन्हीं का नाम ईश्वर है।