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३६, वर्ष ३८, कि०४
अनेकान्त
जैन धर्म के ये ईश्वर से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, न अपने-अपने कर्मों के अनुसार स्वयं ही सुखदुख पाते हैं। सुष्टिसंचालन मे इनका हाथ है तथा न ही किसी का वे ऐसी अवस्था मुक्तात्माओं और अर्हन्तों को इन सब संझटों भला-बुरा करते हैं । न वे किसी के स्तुति वाद से ऐसी में पड़ने की आवश्यकता ही नही है, क्योंकि वे कुत्कृत्य हो सांसारिक वस्तु है, जिसे हम ऐश्वर्य या वैभव के नाम से चुके हैं, उन्हें अब कुछ करना बाकी नहीं रहा ।। पुकार सकें, न वे किसी को उसके अपराधों का दण्ड देते हैं। जैन सिद्धान्त के अनुसार सृष्टि स्वयसिद्ध है । जीव
मेरठ विश्व विद्यालय, मेरठ
सन्दर्भ-सूची १. आदि पुराण,प्रकरण तीन (सी०जे० शाह द्वारा उद्धत, ६. श्री परिपूर्णानन्द वर्मा "चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ" पूर्वो पृ०३५
पृष्ठ ३२८ २. डा. मगलदेव शास्त्री, (ईश्वर शब्द का महत्वपूर्ण
का मा ७. श्री परिपूर्णानन्द वर्मा, "चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्य" इतिहास"
पृष्ठ ३ २६. ३. डा० मंगलदेव शास्त्री, ईश्वर शब्द का महत्वपूर्ण ८. क्षुत्पिपासाजरातंकजन्मान्तकभयस्मयाः। न रागद्वेषइतिहास ।
मोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्यते ॥ ६ ॥ ४. अधिरीश्वरे १/४/६/७ स्वामीश्वराधिपतिः २/३/३६
- समन्तभद्र, रत्नरण्ड श्रावकाचार"
९. श्री गुलाबराय, "पाश्चात्य दर्शन का इतिहास', यस्मादधिकं यस्यचेश्वर वचनं तत्र सप्तमी २/६/९,
पृष्ठ ५३. ईश्वररेतो सुनकसुनौ ३/४/२३, तस्येश्वरः ६/१/४२,
यश्चत १/, १०. सुमेरचन्द्र दिवाकर, "जैन शासन का धर्म", पृष्ठ
१ उक्त सूत्रों के उदाहरण।
१९-२०. ५. तचया लोक ईश्वर आज्ञापयति ग्रामादस्मान्मन प्या ११. श्री पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैनधर्म, पृष्ठ
अनीयन्तामिति ।
(आवरण पृ० २ का शेषांश) होने पर किसका भय रहा ? जनता भोली है इसलिये कुछ कहती नहीं, यदि कहती है तो उसे धर्मनिन्दक आदि कहकर चुन कर दिया जाता है। इस तरह धीरे-धीरे शिथिलाचार फैलता जा रहा है । किसी मुनि को दक्षिण और उत्तर का विकल्प सता रहा है तो किसी को वीसपथ और तेरहपंथ का। किसी को दस्सा बहिष्कार की धुन है तो कोई शूद्र जल त्याग के पीछे पड़ा है। कोई स्त्री प्रक्षाल के पक्ष में मस्त है तो कोई जनेऊ पहिराने और कटि में धागा बधवाने में व्यग्र है। कोई ग्रंयमालाओं के सचालक बने हुए हैं तो कोई ग्रंय छपवाने की चिन्ता में गृहस्थों के घर-घर से चन्दा मांगते फिरते हैं। किन्ही के साथ मोटरें चरती हैं तो किन्ही के साय गृहस्य जन दुर्लभ कीमती चटाइयां और आसन के पाटे तथा छोलदारियां चलती हैं । त्यागी ब्रह्मचारी लोग अपने लिये आश्रय या उनकी सेवा में लीन रहते हैं । 'बहती गंगा में हाथ धोने से क्यों चूके' इस भावना से कितने ही विद्वान उनके अनुयायी बनकर आंख मीच चुप बैठ जाते हैं या हां में हां मिला गुरुमक्ति का प्रमाणपत्र प्राप्त करने में सलग्न रहते हैं। ये अपने परिणामों की गति को देखते नहीं हैं । चारित्र और कषाय का सम्बन्ध प्रकाश और अन्धकार के समान है। जहां प्रकाश है वहां अन्धकार नहीं और जहां अन्धकार है वहाँ प्रकाश नहीं । इसी प्रकार जहां चरित्र है वहां कषाय नहीं और जहां कषाय है वहां चारित्र नहीं। पर तुलना करने पर बाजे बाजे व्रतियो की कषाय तो गृहस्थो से अधिक निकलती है । व्रती के लिए शास्त्र में निःशल्य बताया है । शल्यों में एक माया भी शल्य होती है। उसका तात्पर्य यही है कि भीतर कुछ रूप रखना और बाहर कुछ रूप दिखाना । व्रती में ऐसी बात नहीं होना चाहिए । वह तो भीतर बाहर मनसा-वाचा-कर्मणा एक हो । कहने का तात्पर्य यह है कि जिस उद्देश्य से चारित्र ग्रहण किया है उस ओर दृष्टिपात करो अपनी प्रवृत्ति को निर्मल बनाओ। उत्सूत्र प्रवृत्ति से व्रत की शोभा नहीं।
(मेरी बीवन माया)