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जैन धर्म में ईश्वर की अवधारणा
कु० मीनाक्षी शर्मा
वर्शन क्या है-याकरणके अनुमार दर्शन शब्द "दृश" में विश्वास रखता है । जहाँ तक दूसरे अर्थ का प्रश्न है इस घात से बना है जिसका अर्थ है देखना । वास्तव में दर्शन मत के विषय में कोई दो विचार नहीं हैं कि जैन धर्म वेदों शब्द का अर्थ है रहस्य का उद्घाटन अथवा प्रत्यक्षीकरण। की प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करता। इसका कारण दर्शन का सम्बन्ध जीवन तथा अनुभव दोनों के साथ है। यह है कि जैनो के अपने आचार्य मुनि और धार्मिक ग्रन्थ जीवन का रहस्य आचार शास्त्र के अन्तर्गत है और अनु- है जिनमें अकाट्य दार्शनिक सिद्धान्त विद्यमान हैं। जैनों की भव का रहस्य तत्वज्ञान के अन्तर्गत । दर्शन मर्त तथा यह धारणा है कि उनके धर्म ग्रन्थों में वास्तविक ज्ञान निहित अमर्त दोनों ही प्रकार के पदार्थो का होता है। उपनिषदों है। अतः वे वेदों को प्रमाण न मानकर अपने धर्म ग्रन्थों में आत्मा को भी दर्शन का विषय बतलाया गया है । दर्शन की प्रामाणिकता को मानते हैं, जो युक्तिसंगत ही है। द्वारा परम ब्रह्म का साक्षात्कार किया जाता है। दर्शन के नास्तिक शब्द का तृतीय अर्थ ईश्वर को न मानना द्वारा आत्मा तथा ब्रह्म के रहस्य का उद्घाटन किया जाता बतलाया गया है क्योंकि नास्तिक शब्द का प्रचलित अर्थ है। भारत मे धर्म और दर्शन दोनो का एक ही उद्देश्य अनीश्वरवादी ही है। जैन धर्म को अनीश्वरवादी रहा है और वह है सांसारिक अभ्युदय और मोध की मानना अप्रामाणिक तथा अदार्शनिक बात होगी, क्योंकि प्राप्ति।
जैनधर्म में केवल व्यक्ति ईश्वर को अस्वीकार किया गया है, बनभेव-दर्शन को दो भागोमे विभक्त किया गया ईश्वरत्व को नही यहां अनंतो सिद्धात्माएं ईश्वररूप में है-१. आस्तिक दर्शन तथा २. नास्तिक दर्शन । जो दर्शन स्वीकृत है। वेदों में विश्वास रखते है तथा ईश्वर की सत्ता को मानते सही दृष्टि से देखा जाये तो जैन अनीश्वरवाद वास्तव है वे आस्तिक दर्शन कहलाते है और जो वेदों की प्रामा- में दार्शनिक अनीश्वरवाद है, क्योंकि उसमें सृष्टिकर्ता णिकता में विश्वास रखते हैं तथा ईश्वर की सत्ता को ईश्वर की सत्ता का गहन विश्लेषण किया गया है और स्वीकार नहीं करते वे नास्तिक दर्शन कहलाते है। आस्तिक उन दार्शनिकों के तर्कों का व्यवस्थित रूप से खण्डन किया दर्शन के अन्तर्गत षड्दर्शन-वैशेषिक दर्शन, न्याय दर्शन, गया है, जिन्होने ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के सांख्य दर्शन, योग दर्शन, पूर्व मीमासा दर्शन तया उत्तर प्रयत्न किये हैं। जैन धर्म में ईश्वर शब्द का प्रयोग जीव मीमासा दर्शन- की गणना की जाती है और नास्तिक के उच्चस्तरीय अस्तित्व के अर्थ में किया गया है। जनदर्शन के अन्तर्गत चार्वाक दर्शन, जैन दर्शन एव बौद्ध दर्शन दर्शन के अनुसार मुक्त आत्माये विश्व के सर्वोच्च स्थान की गणणा की जाती है।
पर पहुंच जाती हैं। ये परिपूर्ण आत्माये होती हैं, इसलिए यद्यपि जैन दर्शन को नास्तिक दर्शनो के अन्तर्गत रखा इनका पतन नही होता इसी कारण तीर्थकर का स्थान जाता है किन्तु यह बात सत्य नही है। भारतीय ईश्वर से ऊंचा माना गया है। तीर्थकर का स्थान प्राप्त परम्परा में नास्तिक शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में हमा करना ही जीवन का परम लक्ष्य है मौक तीर्थकर मानवता है-पुनजन्म मे अविश्वास, वेद प्रामाण्य से अविश्वास तथा का सर्वोत्कृष्ट माधार है। ईश्वर में अविश्वास । इनमे से प्रथम अर्थ में जैन धर्म जैन दर्शन आस्तिक दर्शनों की भांति सृष्टि के नास्तिक नही क्योंकि यह धर्म पुनर्जन्म तथा कर्म के सिद्धान्त निर्माता एवं नियता किसी सर्व शक्तिमान ईश्वर में विश्