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________________ पंडित शिरोमणि दास जी की द्वादशानुप्रेक्षा 1) कुन्दनलाल जैन प्रिन्सिपल अनेकान्त के गांक अक्तूबर-दिसम्बर ८४, वर्ष ३७ आशा है सुधी पाठक गण इनका रमाम्वादन कर किरण ४ मे पं०शिरोमणि दास और उनकी धर्मसार सतसई अध्यात्म मार्ग पर पग धरने का सतत् प्रयाम करेंगे, इसी पर मेरा निबन्ध प्रकाशित हुआ था जिसमे मैंने अथकार में अपने श्रम को सार्थक समझूगा । और प्रथ के विषय में संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया था। दोहा-तहां ध्यान मुनि दृढ धरै, कर्म क्षय निज हेत । उसी प्रथ में कवि ने बारह भावनाओ का सुन्दर वर्णन द्वादश अनुप्रेक्षा चितव, सुवर्णन करौं सुचेत । किया है जिन्हें अविरल प्रस्तुत कर रहा हूं। अथ अध्र वा नुप्रेक्षा/चौपाई यद्यपि बारह भावनाओ का जैन शासन मे बड़ा धन यौवन नारी सुख नेह, पुत्र कलत्र मित्र तनु एह । महत्वपूर्ण स्थान है इसी लिए आचार्य कुन्द कुन्द ने प्राकृत रथ गज घोड़े देश भण्डार, इन्हें जात नही लागत वार ॥ मे, आचार्य शुभ चन्द्र ने संस्कृत मे, वीर कवि ने अपभ्रंश जैसे मेघ पटल क्षण क्षीण, तसे जानो कुटुम्ब सगुदीन । में तथा हिन्दी में तो अनेको कवियों ने बारह भावनाओ जल सयोग आम (कच्चा) घट जैसो, सकल भोग विधि की रचना की है। प्रस्तुत बारह भावनाएं सर्वथा अप्रकाशित और अनुप. जानहु तैसो॥ दोहा-जो उपज सो विनसई, यह देखो जगरीति । लब्ध हैं। इनमे बुन्देलीभाषा का प्रभाव होने से इनकी अध्र व सकल विचारिक, करह धर्म सौं प्रीति ॥ मधुरता और अधिक बढ़ गई है तथा हिन्दी की बारह भावनाओ मे एक कड़ी और जुड़ गई है जो तत्वज्ञान से इति अध्र वानुप्रेक्षा ॥१॥ भरपूर है। अथ अशरणानुप्रेक्षा/चौपाई (पृ. ३ का शेषांष) जैसे हिरण सिंह वश पर्यो, तैसे जीवन काल ने धर्यो। अछूती-भक्ति के लिए ही भक्ति बन पाती है। तब कति- कोऊ समर्थ नही ताहि बचाव, कोटि यत्न करि जो पय तीर्थ क्षेत्रों पर मनौतियों द्वारा सच्चे-देव का अवर्ण दिखरावै॥ बाद करने वाले मूठे भक्तों, कुदेव-कुदेवियो की पूजा-उपा- मन्त्र तन्त्र जे औषधादि घनी, बल विद्या ज्योतिष अति सना करने वाले बन्ध-श्रद्धालुओं और गण्डे-तावीज, मन्त्र गुनी। यन्त्र के लालच मे तथाकथित चमत्कारी महाराजों और ए सब निष्फल होहि विशाला, जव जीव आनि पर वश माताओं की भाव-विभोर भक्ति प्रदर्शित करने वाले काल ॥ अन्ध-विश्वासी स्वार्थियों की भीड़ भी नहीं जुटती। दोहा-इन्द्र चक्री हरि हर सबै, विद्याधर बलवन्त । खेद है कि इस तथ्य में किसी की आस्था है, ऐसा काल पाश तें ऊपरो सुको किह रक्षहि अन्त ॥ लगता नहीं । यह घोर परिग्रहवाद का ही परिणाम है। इति अशरणानुप्रेक्षा ॥२॥ कहने में हम अपरिग्रह के उपासक और साधक हैं, किन्तु अथ संसारानुप्रेक्षा/चौपाई अपनी मनोवृत्ति तथा जीवन व्यवहार में परिग्रहवाद से द्रव्य क्षेत्र पुनि काल जु आनि भव अरु भाव जुतही ओत-प्रोत हैं । तो मूल जैन संस्कृति से तो हमने स्वयं को बखानि । बहिकत ही किया हुआ है। यह संसार पंच विधि कहीज, जीवन मरण जीव दुख -चारबाग, लखनऊ लीजै॥
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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