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पंरित शिरोमणिवासीकीसानुप्रेक्षा
समय अनंतानंत जु लए, अनंत काल तंह पूरण भए। दोहा-सच्छिद्र नाव जल में रहे, जल आवै चहुं ओर । समय एक कहु बचऊ न तीव, जामन मरण लही नही तैसें आश्रवद्वार तें, कर्म बंध को जोर ॥
जीव ।।
इति आश्रवानुप्रेक्षा ॥६॥ दोहा-जिन तें बहु सुख पाइए, ते भए दुख को रूप ।
अथ संवरानप्रेक्षा/चौपाई परावर्तन बहु पूरियो, यह संसार स्वरूप ।। जीव परिणाम वह शुभ चेत, भावाश्रव रोधन के हेत ।
इति संसारानुप्रेक्षा ॥३॥ यह जु भावसंवर है अभइ (य), द्रव्यसंवर पुनि सुनिजे अथ एकत्वानुप्रेक्षा/चौपाई
राय॥ एकाकी होइ चहुंगति फिर, काहु को कोऊ सग न घरै। पंच पंच व्रत समिति कहीज, गुनितीन दश धर्म नहीजी मरहि अकेलो ऊपज प्राणी, सुख दुख भुगतै एकहु जानी। बाईस परीषह कहिजै भारी, अनुप्रेशा द्वादश हितकारी। जो जैसी करनी उपजाव, पो तैसो फल एक पाये। दोहा-छिद्र नाव जज देखि के, डाढ़े रचे जो कोई। अपने अपने स्वारथ मिले, दूसरों साथ न कोऊ चले। तैसे आश्रय द्वार को, रोधे सवर सोई॥ सोरठा-एकाकी जीव जानि, दूजो कोऊ न जानि ।
इति संवरानुप्रेक्षा ॥८॥ धर्म दया मन आनि, मो अपनो करि भानि ।
अय जिरानुप्रक्षा/चौपाई इति एकत्वानुप्रेक्षा ॥४॥ सकल कर्म क्षय कारण हेत, भाव निर्जरा कही सुचेत । अथ अन्यत्वानुप्रेक्षा/चौपाई।
सकल कर्म भय कीन्हें, जवही, द्रव्य निर्जरा जानहु तबहीं। मातापिता पृथक् विधि लए,बाधव पुत्र अन्य हित किए।
कर्म उदय जब पूरण होय, सो सविपाक निर्जरा सोय । कुटुम्बस्वभाव अन्य हित होई, नारी अन्य मिली पुनि सोई॥
न उदय बिना जो कर्म नशाव, अविपाक निर्जरा सोई कहावै॥ चह गति आय इकट्ठे भए, अपनी अपनी गति पूनि गए। सविपाक मब जीवन होई, अविपाक मुनि साधे सोई। जैसे हाट लगै विधि जोग, स्वारथ भए रहै नही लोग ॥ सवर सहित जा निर्जरा कर, सो परमातम पद को धरै। दोहा-इन्द्रिय देह जु जीव इह, एक स्वभाव न जानि ॥ दोहा-संवर सहित जो निर्जरा, तप करि साधे संत। अवर कहों ते एकता, यह अन्यत्व बखानि । संवर विना जुत तप करै, सो अज्ञानी अत ॥ इति अन्यत्वानुप्रेक्षा ॥५॥
इति निर्जरानुप्रेक्षा ।।।
अथ लोकानुप्रेक्षा/चौपाई अथ अशुचि अनुप्रेक्षा/चौपाई
अनंतानंत जु लोकाकाश, तामे लोक अनंत है बास । शुक्र रुधिर तें उपज देह, मांस हाड़ मल मूत्र जु गेह।
अनादि निधन यह लोक बखानि, न कोऊ कर्ता हर्ता जानि ।। कृमि अनेक उपजै दुर्गधि, चर्म नसा दीसै पट बन्ध ॥
अधो लोक सरवा आकार, मध्य लोक सालरि सम कार । उपमा अनेक जे चिखई ठान, करि तह मोह महा सुख ठाने । जैसे विष बल्ली दुख देह, तैसे जानि शरीर सुख नेह। मृदंग समान जुऊरष लोक, अवतर अनेक भेद बह पोक। दोहा-चन्दन केशर अगर शुभ, पुप्प वस्त्र धनसार। दाहा-ततालीस अरु तीन सी, राजू गिरदा (चौकोर)
जानि। तन सगत के होत ही, छिन में होत असार ॥
चौदह राजु उचित्त (उतंग) है, इह विधि कहीं बखानि ।। इति अशुचि अनुप्रेक्षा ॥६॥
इति लोकानुप्रेक्षा ॥१०॥ अथ आश्रव अनुप्रेक्षा/चौपाई
अथ धर्मानुप्रेक्षा/चौपाई करनी जब शुभ अशुभ जु साधे, पुण्य पाप तब आश्रव बांध। दुगंतिते काढ़े धरि बाह (हाप) सो यह धर्म कल्पतरु छांह। जीव परिणाम कर्म संयोग, भावाश्रव यह जानह लोग ॥ मक्ति नगर को थाप राज. सो दश भेद कहे जिन राज।। मिथ्यात्व पच पन्द्रह प्रमाद, द्वादश अव्रत गणहु विषाद। समकित सहित करनी मन लावै, सोयह निर्मल धर्म कहा। कषाय पच्चीस मिले संयोग, यह द्रव्याश्रव जानहु लोग ॥
(क्षेव पृ० १०पर)