SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विद्वानों के बाशिष श्री पं० बालचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री: अनेकान्त' अच्छा निकल रहा है । सामग्री भी उसमें यमेष्ट रहती है। इसी प्रकार से जितने भी शोष-खोज पूर्ण लेख उसमें समाविष्ट हो सकें अच्छा है। मैं 'अनेकान्त' के उत्कर्ष को चाहताई। डा.कस्तरचन्द्र जैन काशलीवाल : अनेकान्त' को नियमित एवं शोधपूर्ण सामग्रीयुक्त देखकर बड़ी प्रसन्नता होती है। उसकी सामग्री, सम्पादन, प्रिंटिंग सभी में निखार आया है और अब उसे किसी भी विद्वान् के हाथों में दिया जा सकता है । जैनसाहित्य, संस्कृति एवं कला पर शोध कार्य करने वाले विद्यार्थियों के लिए 'बनेकान्त' महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अगते अंक से मैं भी अपना निबन्ध भेजना चाहूंगा । भविष्य में 'अनेकान्त' पत्र देश-विदेश में और भी लोकप्रिय बने ऐसी मेरी हार्दिक कामना है। मा. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर: 'अनेकान्त' दिगम्बर जैन समाज में अपने प्रकार का विशिष्ट पत्र है। इसके 'जरा सोचिए' "विचारणीय प्रसंग' आदि स्तम्भ मन की गहराई को छु लेते हैं । अनेकान्त के निरन्तर उन्नयन हेतु मेरी शुभ कामनाएँ प्रेषित हैं। स.सि. श्री धन्यकुमार जैन, कटनो? अनेकान' मिला। निर्भीकता, स्पष्टवादिता एवं स्वच्छ आगम-सम्मत रीति-नीति के लिए विशेष धन्यवाद स्वीकार करें। प्रिसिपल श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली : 'आगम विपरीत प्रवृत्तियां' पढ़ा, मंगलकलश, धर्मचक्र प्रवर्तन, ज्ञान-ज्योति, सेमीनारों, कान्फ्रेंसों, अभिनन्दनों आदि को अच्छा खींचा है सो खुशी हुई। पर, समाज के कानों पर ज रेंगती है क्या? वही 'ढाक के तीन पात' वाली बात है ! समाज जड़ और मदान्ध हो रहा है। डा. दरबारीलाल कोठिया,न्यायाचार्य : 'आप निर्भय होकर लिखिए, अच्छा और स्पष्ट लिखते हैं । यह अवश्य है कि जिन विद्वानों की गली से गलत परम्पराएं या प्रवृत्तियां चल पड़ती हैं और जिन्हें हम जानते हैं, उनके नाम लिखने में भय खा जाते हैं । आज उन्ही के कारण (सूर्यकीति-मूर्ति स्थापन जैसी) यह दुःखद स्थिति बनी। श्री लक्ष्मीचन्द जैन एम० ए०, दिल्ली : आपने 'मूल-संस्कृति अपरिग्रह पर अपने विचार बहुत ही स्पष्टता से प्रगट किये है जो मन पर प्रभाव छोरते है । प्रतिक्रमण, प्रत्याखान और सामायिक पर प्रसंगतः स्पष्ट ढंग से प्रकाश डाला है । आगम-विपरीत प्रवृत्तियां ऐसा विषय है जिस पर अनेकान्त में आपके विचार आने ही चाहिए थे। जो व्यक्ति इस प्रकार की मूर्ति के निर्माग की बात करते हैं उनकी दृष्टि घोर मिथ्यात्व की है ही. प्रवृत्ति भी गहित है। आपने शोध-खोज शीर्षक आध्यात्मिक आयाम दिया यह भी विचारने की बात है। सूचना :- वीर पेवा मन्दिर, मोसायटी की साधारण सदस्यता का पिछला व आगामी वर्ष का सदस्यता-शुल्क जिन सदस्यों ने नही भेजा है उनसे आग्रह है कि वे सदस्यता-शुल्क- अविलम्ब भेज दें। संस्था का आधिक वर्ष जून में समाप्त होता है। सुभाष जैन : महासचिव वीर सेवा मन्दिर सोसायटी, २१, दरियागंज, नई दिल्ली
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy