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पं.मदेव कृतभावण बावशीबवा
गई है । अन्तिम श्लोक से जाना जाता है कि- का रहा हैं। ये अतसागर ज्यादातर वर्णी रूप से ही चन्द्रभूषण के शिष्य पंडित अम्र देव ने यह कथा उल्लिखित रहे हैं मुनिरूप से नहीं, इसके सिवा श्रवणप्राकृत से संस्कृत में रची है। भादवा सुदी में ही द्वादशीकथा की एक प्रति का लिपिकाल ऊपर संवत् १५१९ सं० १५६३ मे ब्रह्म अमरु ने वसवा गटके में इसकी दिया है तब उसका रचना काल तो उससे कुछ पूर्व ही प्रति लिपि की है। अभ्रदेव के विषय में बृहज्जैन- होना चाहिए ऐसी हालत में ये श्रतसागर पं० अघ्रदेव शब्दार्णव भाग २ में ब. शीतल प्रसाद जी ने द्वारा सम्मत नही हो सकते । मेरे खयाल से इस विषय में लिखा है :-"ये एक गृहस्थ थे जिन्होने व्रतोद्यो- श्रत मुनिकृत त्रिभंगीसार की सोमदेव कृत सुबोधा टीका तन श्रावकाचार रचा है"। यह श्रावकाचार की प्रशस्ति से सारी समस्या हल हो सकती है। प्रशस्ति जीवराज प्रथमाला, शोलापुर से श्रावकाचार संग्रह में लिखा है :भाग ३ में छप चुका है। इसका मगलाचरण भी
यथामरेन्द्रस्यपूलोमजा प्रिया, नारायणस्याब्धिसुता बभूव । इस कथा के मगलाचरण की ही तरह है देखो
तथाभ्रदेवस्य विजेणीनाम्ना प्रिया सुधर्मासुगुणासुशीला ॥३॥ प्रणम्य परम ब्रह्मातीन्द्रिय ज्ञान गोचरम् । तयोः सुतः सद्गुणवान् सुवृत्तः सोमोऽमिधः कोमुद वृद्धि वक्ष्येऽह सर्व सामान्य ब्रतोद्योतनमुत्तमम् ।।
कारी। दोनों कृतियो की रचना शैली भी एक सी है। एक
व्याघ्ररवालांबु-निधेः सुरत्नं जीयाच्चिरं सर्वजनीनवृत्तः ॥४॥ उदाहरण लीजिए, सस्कार अर्थ में वासना शब्द का प्रयोग श्रीपदाधियुगे जिनस्य नितरांलीनः शिवाशाधरः । दोनों में एक सा पाया जाता है देखो-श्रावकाचार का सोमः सद्गुणभाजनः सविनयः सत्पात्रदानेरतः॥ श्लोक न. ४०८ तथा कथा का श्लोक न०७ और १८। सद्रलत्रययुक् सदा बुधमनोह्लादी चिर भूतले । इससे दोनो के कर्ता एक ही सिद्ध हैं।
नंदयादयेन विवेकिना विरचिता टीका सुबोधाभिधा ।। राजस्थान ग्रंथ सूची भाग २ पृष्ठ २४० तथा भाग
या पूर्व श्रुतमुनिना टीका कर्णाटभाषया विहिता । ३ पृष्ठ ३४ मैं पं0 अभ्रदेव को लब्धिविधान कथा और लाटीयभाषयासा विरच्यते सोमदेवेन ॥४॥ व्रतोद्योतन श्रावकाचार का कर्ता बताया है इस तरह
(इन्द्र की पुलोमजा और नारायण की लक्ष्मी की तरह इनकी तीन रचनाओ का पता लगता है।
आम (अघ्र) देव की विजणी (विजयिनी) प्रिया थी उनसे राजस्थान ग्रंथ सूची भाग ४ पृष्ठ २४५ में अभ्रदेव सोम देव पुत्र हुआ जो बघेरबाल वश का रत्न था उस कृत-"श्रवण द्वादशी कथा" की एक प्रति का लिपिकाल शिवाशाधर-मोक्ष की आशा के धारी-मुमुक्ष-और संवत् १५१६ लिखा है।
विवेकी सोम देव ने त्रिभंगीसार की विद्वज्जनमनरंजनी आमेर शास्त्र भण्डार अथ सूची पृष्ठ २०५ मे व्रतो- सुबोधा टीका रची वह चिरकाल तक संसार में नंदित योतन श्रावकाचार की एक प्रति का लिपिकाल सवत् (प्रकाशित) हो। यह टीका पहिले अतमुनिने कर्णाटक १५४१ लिखा है।
भाषा में रची थी उसी को सोमदेव ने लाटी भाषा में इस श्रावकाचार के अन्तिम श्लोक मे कवि ने मुनि रचा है।) प्रवरसेन की प्रेरणा से इस प्रथ के बनाने का उल्लेख इसमें पं० सोमदेव ने -- अपने को अभ्रदेव का पुत्र किया है :
बताया है दोनों नाम देवान्त हैं। अभ्र-अकाश में ही कारापित प्रवरसेन मुनीश्वरेण, ग्रंथचकार जिनभक्त । सोम-चन्द्र होता है, दि. आम्नाय में उर्ध्व दिशाबुधाघ्रदेवः ॥५४॥
आकाश का दिग्पाल सोम ही माना है इसलिए दोनों नाम इस ग्रंथ के श्लोक २९३ मे ऋद्धियों के विस्तृत कथन पिता पुत्र रूप से सार्थक हैं। दोनों व्यक्ति गृहस्थ पंडित के विषय में श्रुतसागर का समय १५०२ से १५५६ तक हैं प्रशस्ति में सोमदेव ने विवेकी शब्द से और अभ्रदेव ने