SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० बर्ष ३५,कि.१ अनेकान्त पंडित और बुध शब्द से ऐसा अपने को व्यक्त किया है। किया है वह अशाधर के द्वारा अपने ग्रंथों की टीका वैदिक और श्वे. आम्नाय में आकाश-उर्ध्व दिशा प्रशस्ति में प्रयुक्त 'नन्द्यात्' या नन्दताच्चिर' का ही का दिग्पाल (देव) ब्रह्म माना गया है और ब्रह्म-सिद्ध अनुकरण है। पं० आशाधर नालछा (मध्य प्रदेश) के उध्र्व दिशा में ही होते हैं । अत: अभ्रदेव-आकाश के देव निवासी थे। उनके बंशज होने से पं० अभ्रदेव भी वहीं -ब्रह्म होने से श्रमण द्वादशी कथा और व्रतोदयोतन के निवासी होने चाहिए । इसी से कथा में उन्होने मध्यश्रावकाचार के मंगलाचरण में नाम के श्लेष रूप से ब्रह्म प्रदेश की राजधानी उज्जयिनी का उल्लेख किया है। नमस्कार किया गया है। और कथा में उज्जयनी के पं० अभ्रदेव ने श्रवण द्वादशी कथा के श्लोक नं. राजा का नाम भी नर ब्रह्म दिया है और अपनी पत्नी के ४७ में लिखा है। नाम पर रानी का नाम भी विजयबल्लभा दिया है। यह जल गन्धाक्षत पुष्पश्चरु दीपोर्ध्वगः फलैः । सब परस्पर एकरूपता को द्योतित करते हैं। मध्यान्हें चाष्टकं देयं सामायिकपुरस्सरम् ।। प्रशस्ति में पं० सोमदेव ने जिन स्वोपज्ञ टीकाकार अर्थात्-सामायिक करने के बाद मध्यान्ह में अष्टश्रुतमुनि का उल्लेख किया है। उनकी एक कृति परमागम द्रव्य पूजा करना चाहिए । इस कथन से अष्टद्रव्य पूजा सार शक संवत् १२६३ (वि. स. १३९८) में रचित है। तपः कल्याणक (आहारदान) की प्रतीक है इस नई बात इन्हीं श्रुत मुनि का प० अभ्रदेव ने श्रावकाचार मे उल्लेख का ज्ञान होता है । शास्त्रों में मुनिका आहार काल भी किया है। ऐसा प्रतीत होता है। मध्याह्न की सामायिक के बाद ही बताया है। पं०आशाधर इस सब से पं. अभ्रदेव का समय १५वी शनी ने भी अष्टद्रव्य पूजा इसी तरह मध्याह्न मे ही करना (विक्रम की) योतित होता है। बताया है, देखो-सागर धर्मामृत अध्याय ६ श्लोक पं० सोमदेव ने प्रशस्ति में 'शिवाशाधर का प्रयोग २१-२२ ।। किया है । सागार धर्मामत (श्रावक धर्म दीपक) के अन्त हमारी सारी जिन पूजा विधि पचकल्याणक का ही मे पं० आशाधर ने भी ऐसा ही शब्द प्रयोग किया है। प्रतिरूप है। इस विषय मे स्वतन्त्र रूप से अलग लेख पं० सोमदेव ने प्रशस्ति में 'चिरं नंन्द्यात्' शब्दों का प्रयोग द्वारा प्रकाश डालने का विचार है। (शेष पृ० ५ का शेषांश) मन वचकाय धरै दृढ चित, यह अपनो पद जानहु मित्त॥ दोहा-जुवा सैल सयोग तुल्ल, भए पुनि मानिर्ज। दोहा--दया ज्ञान सतोष अति, निर्वेद भाव निःसंग। जैनधर्म अति सार, सो अति दुर्लभ जानिज ।। निनिदान शुभ ध्यान अति, ए पुनि धर्म जु अंग ।। इति दुर्लभानुप्रेक्षा ॥१२॥ इति धर्मानुप्रेक्षा ॥११॥ चौपाई अथ दुर्लभानुप्रेक्षा/चौपाई एद्वादश अनुप्रेक्षा सुख देनी, स्वर्ग मोक्ष पद जानि न सैनी ।। जो मुनिराज चितवह हेत, धर्म शुक्ल साधे शुभ चेत ॥ अनंतकाल इक इन्द्रिय रहो, बस पद पाय जु दुर्लभ भयो। इति द्वादशानुप्रेक्षा समाप्ताः कष्ट-कष्ट करि नरतन पाय,कर प्रमाद विषपन मन लाय॥ उत्तम देव धर्म गुरु लीक, इन्द्रिय मन पुनि रह्यो न ठीक । यनस्तर तह दुर्लभ जोग, करण लन्धि दुर्लभ सयोग ।। ६८, कुन्ती मार्ग, विश्वास नगर शाहदरा, दिल्ली-११००३२ श्रुतकुटीर
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy