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"केन्द्रीय संग्रहालय गूजरी महल ग्वालियर में संरक्षित" तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं
0 नरेश कुमार पाठक भगवान पार्श्वनाथ इस अवसपिणी के तेईसवें जिन वैताल आदि के स्वरूप धारण कर पार्व को अनेक प्रकार हैं। पार्श्वनाथ को जैन धर्म का सर्वज्ञ तीर्थकर माना की यातनाएं दीं। उपसगों के बाद भी पार्श्व विचलित गया है । वाराणसी के महाराज अश्वसेन उसके पिता और नही हुए तो मेघमाली ने माया से भयंकर वृष्टि प्रारम्भ बामा या (बर्मिला) उनकी माता थीं।' जन्म के समय की जिससे सारा वन प्रदेश जलमग्न हो गया । पाव के बालक सर्प के चिन्ह से चिन्हित था । आवश्यक चूणि एवं चारों ओर वर्षा का जल बढ़ने लगा जो धीरे-धीरे उनके त्रिषाष्टिका पुरुष चरित्र में उल्लेख है, कि माता ने गर्भकाल घुटनों, कमर, गर्दन और नासाग्र तक पहुंच गया। पर में एक रात अपने पाश्व में से को देखा था; इसी कारण पार्श्वनाथ का ध्यान भंग नही हुआ। उसी समय पार्श्व बालक का नाम पार्श्वनाथ रखा गया। उत्तर पुराण के की रक्षा के लिए नागराज धरणेन्द्र पद्मावती एवं वैरोट्या अनुसार जन्माभिषेक के बाद इन्द्र ने बालक का नाम जैसी नागदेवियो के साथ पार्श्व के समीप उपस्थित हुए। पार्श्वनाथ रखा। पार्श्वनाथ का विवाह कुशस्थल के शासक धरणेन्द्र ने पार्श्व के चरणों के नीचे दीर्घनालयुक्त पद की प्रसेनजित की पुत्री प्रभावती से हुआ, दिगम्बर ग्रंथो मे __ रचना कर उन्हें ऊपर उठा दिया, उनके सम्पूर्ण तन को अपने पार्श्वनाथ के विवाह प्रसंग का उल्लेख नहीं है । श्वेताम्बर शरीर से ढक लिया साथ ही शीर्ष भाग के ऊपर सप्तसर्प, परम्परा के अनुसार नेमि के भित्ति चित्रो को देखकर और फणों का छत्र भी प्रसारित किया । उत्तर पुराण (७३दिगम्बरों के अनुसार ऋषभ के वांगमय जीवन की बातों १३६-४०) के अनुसार धरणेन्द्र ने पार्श्वनाथ को चारी को सुनकर, तीस वर्ष की अवस्था में पार्श्वनाथ के मन में ओर से घेर घर कर अपने फणो पर उठा लिया था और वैराग्य उत्पन्न हुआ। पार्श्वनाथ ने आश्रमपद उद्यान मे उनकी पत्नी पद्मावती ने शीर्ष भाग में बज्रमय छत्र की अशोक वृक्ष के नीचे पचमुष्टि से केशों को लुञ्चन कर छाया की थी। मेघमाली ने अपनी पराजय स्वीकार कर दीक्षा ली।
पाव से क्षमा याचना की। इसके बाद धरणेन्द्र भी देवपार्श्व वाराणसी से शिवपुरी नगर गए और वही लोक चले गए। उपर्युक्त परम्परा के कारण ही मूर्तियों कौशाम्ब बन मे कायोत्सर्ग में खड़े होकर तपस्या प्रारम्भ पार्श्व के मस्तक पर सात सपंफणो के छत्र प्रदर्शन की में की। धरणेन्द्र ने फण से पार्श्व की रक्षा के लिए उनके परम्परा प्रारम्भ हुई । मूर्तियों में पार्श्व के घुटनों या मस्तके पर छाया की थी। अपने एक भ्रमण में पाव चरणों तक सर्प की कुण्डलियों का प्रदर्शन भी इसी परंपरा तापसाश्रम पहुंचे और सन्ध्या हो जाने के कारण वही से निर्देशित हैं । पार्श्व को छत्र से युक्त दिखाया गया है। एक वक्ष के नीचे कायोत्सर्ग में खड़े होकर तपस्या प्रारंभ पार्श्वनाथ को वाराणसी के निकट आश्रम पद उद्यान की। उसी समय आकाश मार्ग से मेषमाली (याशाम्बर) में धात की वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग मुद्रा में केवल ज्ञान नाम का असुर (कमठ का जीव) आ रहा था। जब उसने और १०० वर्ष की अवस्था में सम्मेद शिखर पर निर्वाण तपस्यारत पाव को देखा तो उसे पाश्र्व से अपने पूर्वजन्मों पद प्राप्त हुआ।' केबर का स्मरण हो आया । मेघमाली ने पार्श्व की केन्द्रीय संग्रहालय गूजरी महल ग्वालियर में तेईसवें तपस्या भंग करने के लिए तरह-तरह के उपसर्ग उपस्थित तीर्थकर पार्श्वनाथ की ६ दुर्लभ प्रतिमाएं संग्रहित हैं। किए। पर पार्व पूरी तरह अप्रभावित और अविचलित जिन्हें मुद्राओं के आधार पर दो भागों में बांटा गया है। रहे । मेघमाली ने सिंह, गज, वृश्चिक, सर्प और भयंकर (म) कायोत्सर्ग (ब) पपासन।।