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________________ बरा सोधिए "न" नाम न देकर समण, सावग (श्रावक) संशाएं पृषक में क्या कह ? बेला बोला-उस्ताद, ये सब तो आंख, से निर्धारित की गई। वाले ही देख सकते हैं, इनके तो आँखें ही नहीं है, चलो. दुर्भाग्य कहिए या मत-मतान्तरों वत् कल्पित “जिनो और कहीं आंखों वालों में दिखाएंगे। वे दोनों चले गए देवताः येषां ते जैनाः" इस परिभाषा के कारण समझिए, और भीडभी छंट गई। जो आज सर्व साधारण जयनशील क्रिया-गुण के बिना तो यह तो एक दृष्टांत है। जैसे अरूपी आकाश (अन्यों की भांति नाम निक्षेप में) अपने को "जैन" कहने दिखाई नहीं देता, पकड़ में नहीं आता और नट उसमें लगे हैं। उनमें जो कुछ उपासक हैं उनमें भी अधिकांश बांस गाइने, रस्सी बांधने और जमड़े को चढ़ाने-उतारने "जिन" को व्यक्ति मान पूज रहे हैं-उनसे सांसारिक जैसे मिथ्या करतब दिखाने के मिथ्या-स्वांग भरता है मनौतियां मांग कर भी जैन बने हुए हैं उन्हें गुणों से वैसे ही कुछ लोग वर्षों से और आज भी जनता को कोई भी सरोकार नहीं। प्रकारान्तर से वे "जिन" को अरूपी आत्मा को देखने-दिखाने की मिथ्या बातों में आज भी कर्ता माने हुए हैं । जरा सोचिए, ऐसा क्यों? भरमा रहे हैं। वे पूर्वाचार्यों की दुहाई देकर जोर-जोर से कहते हैं कि-ए भाई, तू आत्मा को देख, समझ आदि। २. एक व्यापार : प्रात्मा को देखना दिखाना जबकि आचार्य इससे सहमत नहीं। वे तो स्पष्ट कह एक नट अपने चेले को साथ लेकर किसी मैंदान में रहे हैं कि आत्मा वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श से रहित है, पहुंचा और ढोल बजाकर भीड़ इकटठी कर ली। भीड़ अरूपी पकड़ मे नही आता-वण्ण रस पंच गंधा दो फासा के बीच खड़े होकर उसने चेले को संबोधन दिया-जमूड़े, अटुणिच्चया जीवेणो संति अमुत्ति तदा। 'आत्मा तो" देख, में जमीन में लम्बा बांस गाड़ता हूं, तुझे उस पर स्वानुभूत्या चकासते - अपनी अनुभूति से स्वयं ही स्वयं चढ़ना है। बोल तू चढ़ेगा? चेला बोला-हा उस्ताद, मैं में प्रकाशित है और होता रहा है। हां, जब तक परतैयार हैं। नट खाली हाथों खड़ा हो गया। वह बिना में लीनता है तब तक स्वानुभूति नहीं होनी । भला, हो बाँस के ही जमीन में झूठ-मूठ का बांस गाड़ने का भी कैसे सकती है ? जब तक संसारी जीव पर-परिग्रह ऐक्शन करने लगा। थोड़ी देर बाद उसने चेले से कहा-- रूपी विकारी भावों में है तब तक आत्मोपलब्धि कैसे? घेले, तू देख रहा है ये बास गड़ गया, अब तू इस पर फिर पात्नोपलब्धि सुलभ भी तो नही है। अनादि संसारी चढ़ जा। चेला बोला-उस्ताद, यह बांस तो बहुत ऊंचा जीव ने तो चिरकाल से काम, बन्ध, भोग की कथा की है, बिना रस्सी बांधे मैं कैसे चढ़ सकूँगा ? नट ने कहा है और मलिन भावों में सुखाभास को सुख रूप अनुअच्छा, रस्सी भी लटकाए देता हूं। नट ने जैसे खाली भव किया हैहाथों बांस गाड़ने का एक्शन किया वैसे ही रस्सी बांधने "चिर परिचिदानुभूदा सम्वस्स वि काम-बंध-भोग कहा । का एक्शन कर दिया ओर चेले से रस्सी पकड़ कर चढ़ने एयत्तस्सुबलंभो णवरि ण सुलहो बिहत्तस्स ॥" को कहा । देखते-देखते चेला भी एक्शन मात्र करके बांस सो यह जीव बारम्बार उन्हीं की ओर जाता है और के ऊपर पहुंच लेने की बात करने लगा हालांकि वह असुलभ, एकत्व-विभक्त आत्मा में इसकी गति नहीं होती अब भी नट के पास जमीन पर ही खड़ा था वह नट से तथा संसार में उलझे हए वह हो भी नहीं सकती। बोला-उस्ताद, मैं बहुत ऊंचे आ गया, उतारो, मुझे डर फिर भी, कुछ लोग नट की भांति लोगों को मिथ्यालग रहा है । उस्ताद ने उसे एक्शन में जमीन पर उतार प्रान्तियों में खींचने में लगे हैं और स्वयं भी नाटक कर लिया । लोगों ने यह सब मिथ्या स्वांग देखा ओर बोले रहे हैं। यदि लोग, चाहते हैं कि उन्हें आत्मानुभूति हो यहां न बांस है, न रस्सी है और न चेला ही चढा तो पहिले उन्हें उन वाद्यपदार्थों की असलियत को उतरा, तू लोगों को धोखा दे रहा है। नट बोला-यहां पहिवानना होगा जो उन्होंने अनादि से देखे, जाने और सब छ है और सब कुछ हो गया, तुम्हें नहीं दिखा तो अनुभव किए है, पर गमत रूप में। उनके गुण-स्वभाव
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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