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________________ बनेकात को सम्यक दिशा में जानना होगी। जब वाय-पदार्षी यदि श्रोताओं के हाथ से बक्ता और वक्ता के हापों से की असारता, अशुचिता आदि का मही बोध होगा तब श्रोता खिसक गए तो उन का अपना दिखावा-रूप व्यापार आत्मानुभूति स्वयं हो जायगी-इसे अपरिचित, अरूपी, ही खत्म हो जायगा। यात्मा को देखने-दिखाने की कोशिश न करनी पड़ेगी यद्यपि यह बात वक्ता और श्रोता दोनों ही जानते और पर पद से विरत हुए बिना इसे कुछ नहीं मिलेगा है कि लाख कोशिश करने पर भी अरूपी आत्मा उन्हें हमारे आचार्यो, तीर्थंकरों, महापुरुषा ने "स्व" का मार दिख न सकेगी, परिग्रह से विरत हुए बिना आत्मानुभूति दौड़ नहीं लगाई, पहिले वे पर से परिचित हुए, उन्होंने न हो सकेगी। पर, फिर भी वे ससारा पक्ति लिए, बारह भावनाओं का चितवन कर "पर" की असारता मात्मा को देखने-दिखाने के प्रचार जैसे व्य.पारों में लगे को जानकर उन्हें छोड़ा, तब आत्मानुभूति में अग्रसर हैं और अधिक-परिग्रही अधिक रूप मे लगे हैं। ऐसा हए। वे जानते थे कि देखना, दिखाना, पकड़ना, पकड़ाना क्यों? क्या यह सच नही कि वे इस बहाने अपनी यशजैसे व्यापार सदा दूसरों से संबंध के लिए होते हैं। हात ह। प्रतिष्ठा के व्यापार को चमकाने और जो कुछ आवश्यकता स्वयं को देखा और पकड़ा नहीं जाता, उसमें आया जाता से अधिक उन पर संचित है या होता है, उसे न छोड़ने के है। यह "स्व" में आना तब होता है जब पर से लिए कटिवद्ध हैं? पर ये सब विसंगतियां है, इनसे विरत हो। विराम लेना चाहिए। जब हम चिर-परिचित परिग्रह की असलियत जानने यदि किसी को वास्तव में कल्याण करना है तो पहिले और उसके छोड़ने की बात कहते है तो लोग मुंह-भी उसे "जैन" बनने का प्रयत्न करना होगा और जैन बनने सिकोड़ते हैं। वे अहिंसा आदि जैसी बौकिक प्रवृत्तियों से पहिले श्रावक बनना होगा, याचार का पालन करना की ओर दौड़ते हैं। वे जानते हैं कि जिस दुनियां में वे होगा, संसार-शरीर-भोगों की असारता को पहिचान कर वह परिग्रह-मयी और स्वयं परिग्रह है। उससे दूर उससे विरत होना होगा। ऐसा कदापि नही है कि संपदा होकर वे कहां जाएंगे? इस दुनिया में कोई उनकी बात बढ़ाता रहे, भोगों में डूबा रहे और आत्मा को देखने-दिखाने भो न पूछेगा। उन्हें चिर-परिचित सांसारिक भोग भी के गीत गाता रहे या "भरत जी घर ही में विरागी कहां मिलेंगे, वे खाली खाली जैसे हो जाएंगे, उनकी "जैसे स्वप्न देखता रहे-जैसा कि लोग आज कर रहे है। मौकिक और झूठी प्रतिष्ठा भी मिट्टी में मिल जायगी। जरा सोचिए ! (आवरण पृ०३ का शेषांश) ने अपनी इस पुस्तक में इन दोनों संस्कृतियों के उद्भव तर चलती रही है। इस अन्तनिहित तथ्य को प्रथम तथा विकास को वैदिक मत्रों द्वारा सुचारू रूप से पुष्टि बार सविस्तार उद्घाटित कर प्राच्यविद्या मनीषी डा. करके प्रोलिक उद्भावना प्रस्तुत की है जिससे भारतीय दीक्षित ने सर्वत्र ठोस प्रमाण एवं उद्धरण देकर सिद संस्कृति के अनुसंधान के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ किया है। ब्राह्मण संस्कृति और जैन संस्कृति की वेद प्रतिगया है। वेदों में व्यापक रूप से सर्वत्र एक ही मंत्र में जहां पादित ऐमी मौलिक व्याख्या पहली बार प्रस्तुत हुई है। इन्द्र तथा वरुण के गुणों एवं शौर्यपूर्ण कार्यों का विवरण यह ग्रंथ शोधाथियों एवं अनुसंघित्सुओं के लिए अत्यन्त मिलता है, वहां वे स्पष्टतया दो परस्पर समन्वयोन्मुख उपयोगी एवं सर्वथा उपादेय है। इस विषय के गंभीर किन्तु सर्वथा भिन्न संस्कृतियों (अर्थात् ब्राह्मण एवं श्रमण अध्येताओं के लिए यह सन्दर्भ ग्रंथ के रूप में भी पठनीय, संस्कृतियों) के उत्तम, अमर उद्गाता एवं संपोषक प्रतीत मननीय एवं अनिवार्य है। होते हैं । वह परम्परा ऋग्वेद काल से लेकर सभी वेदों, गोकुल प्रसाद जैन, उपाध्यक्ष, उपनिषदों, ब्राह्मण ग्रंथों बादि में सहखों क्यों तक निर वीर सेवा मन्दिर,
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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