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४६, वर्ष ३८ कि०४
अनेकान्त
श्री समयसार कलश २६३ में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने तब इधर लोगों ने अन्य मतों की देखा-देखी उपासकों के जैन-शासन को अलंध्य कहा है। वहां भी जैन के शासन लिए "जैन" का प्रयोग चालू कर दिया, फिर चाहे वे से जिनदेव के शासन का बोध होता है
उपासक भ्रष्ट ही क्यों न हों- सभी समुदाय रूप में "जैन" "एवं तत्वावस्थित्या स्व व्यवस्थापयन् स्वय। कहलाए जाने लगे। अलंध्य शासनं जैन मनेकान्तो व्यवस्थितः ॥"
स्मरण रहे कि मत-मतान्तरों में व्यक्ति की उपासना इन्हीं अमृतचन्द्राचार्य ने पुरुषार्थ सिद्धयुपायके २२५वें को प्रधानता है, शिव व्यक्ति को देवता मानने वाले श्लोक में "जनीनीति" शब्द दिया है, उससे भी स्पष्ट होता को शव, विष्णु व्यक्ति को देवता मानने वाले को वैष्णव, है कि "जैन को सभी जगह अरहतो, परमेष्ठियों के लिए बुद्ध व्यक्ति को देवता मानने वाले को बौद्ध कहा जाता प्रयुक्त किया गया है, किन्ही परिग्रहियों के लिए नहीं, है-ऐसा प्रचलन है।' उसी प्रकार इधर भी "जिन" जैसा कि आज चल रहा है। यहां भी "जैनीनीति' से के उपासकों को "जैन" नाम दे दिया गया। पर, जिनेन्द्र की नीति का ही भाव है।
विचार की दृष्टि से यह ठीक नहीं हुआ। जैसे शिव, "एकनाकर्षन्ती इलथयन्ती वस्तुतत्व मितरेण । विष्णु, बुद्ध आदि देवताओ के नाम " नाम निक्षेप"पर अन्तेन जयति जैनी-नीति मन्थाननेत्रमिव गोपी।" आधारित है-उनमे गुण, कार्य की विवक्षा नहीं
उक्त परिपेक्ष्य में प्रश्न यह उठता है कि यदि धवला क्योंकि-"अतद्गुणिनि वस्तुनि संज्ञा करणं नाम" इस में निर्दिष्ट और अन्य प्रमाणों के आधार पर परमेष्ठियों नाम निक्षेप मे तो गक्ति नाम से विपरीत गुणों वाला तक ही "जैन" शब्द सीमित है तो "जिन" को देवता मानने भी हो सकता है। लक्ष्मीनारायण नाम वाले को कभी वाले हम क्या कहे जाएंगे और सागार-धर्मामृत की स्वोपश सड़क पर भीख मांगते हुए भी देखा जा सकता है। फलतः टीका आदि के वाक्य "जिनो देवता येषां ते जनाः" का वहां किसी व्यक्ति का उपासक कोई व्यक्ति, नाम-निक्षेप क्या होगा?
से, शेव, वैष्णव, बौद्ध हो सकता है, इसमें कोई अड़चन उपर्युक्त प्रश्न के निराकरण में हमे प्राचीन परम्परा नहीं । पर, यह सब होकर भी उनका उपासक लाख-प्रयत्न पर दृष्टिपात करना होगा और यह भी देखना होगा कि के बावजूद भी स्वय शिव, विष्णु, बौद्ध नही बन सकताअपरिग्रही जय-शील "जिन" के प्रति प्रयुक्त होने वाला तप गुणों को प्राप्त नहीं कर सकता। लेकिन जैन-दर्शन "जैन" शब्द संसारासक्त परिग्रहियों के लिए कैसे प्रयुक्त मे ऐसा नही है। यहां गुणों को मुख्यता होने से सच्चा होने लगा।"
उपासक "जिन" नाम और "जिन" जैसे गुण-धर्म जहा तक प्राचीन परम्परा का प्रश्न है, सो पहिले दोनों प्राप्त कर सकता है। यतः "जिन" नाप तो गुणों जिन भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म की परम्परा में उसके पर आधारित है। जय करने से "जिन" होते हैं - उपासकों के लिए समण, सावग, अणगार, आगार शब्द इस नाम में गुणों की मुख्यता है और यहां गुणों की प्रचलित थे । सावग के लिए समणोपासग शब्द भी उपासना का विधान है। फलतः-"जिन" के उपासक प्रचलित था। पर, धीरे-धीरे ये शब्द बिगड़ते गए और जय-गुण की ओर अग्रसर होने पर ही "जिन" और तद्गुण सावग (बावक) का स्थान सरावग, सरावगी जैसे शब्दों ने धारी "जैन" हो सकते हैं । इन्हीं गुणों के कारण ले लिया-"सराक" शब्द भी बिगड़े शब्द का रूप है। आचार्य, उपाध्याय, साधु को "देश-जिन" कहा गया बाद में उक्त शब्दों का व्यवहार भी लुप्त हो गया और है-पूर्ण जिन और "जैन" तो अरहत, सिब ही है। उक्त शब्द शास्त्रों की परिधि में ही सीमित रह गए । यही कारण था कि यहां साधारण उपासकों को "जिन''
१. "शिवो देवता येषां से शैवाः विष्णु देवता येषां ते वैष्णवः बुद्धो देवता येषां ते बौदाः।" २. जिनो देवता येषां ते जनाः।"