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________________ जैन होने में बाधक : मूर्छा-भाव-परिग्रह : पाचन शास्त्री, नई दिल्ली। सामाजिक प्राणी और मानव बनने के लिए हिसा, मूल, चोरी और कुशोलका स्मूल त्याग किया जाता है और जैन या जिन बनने के लिए परिग्रह का त्याग करना होता है। ___ कहते हैं सत्य बड़ा कड़वा अमृत है । जो इसे हिम्मत प्रथम लक्षण का सम्बन्ध है, वहां हमें कुछ नही कहना। करके एक बार पी लेता है वह अमर हो जाता है और क्योकि वहाँ तो 'जिन' का अपना स्वभाव ही 'जैन' कहजो इसे गिरा देता है वह सदा पछताता है। हम एक लाएगा । जैसे अग्नि का अपना अस्तित्व है वह उसके अपने ऐसा सत्य कहने जा रहे हैं जिसे जन-मानस जानता है- धर्म उष्णत्व से है। न तो अग्नि उष्णत्व को छोड़ेगी और न मानता नहीं और यदि मानता है तो उस सत्य का अनु- ही उष्णत्व अग्नि को छोड़ेगा। ऐसे ही जिनका यह धर्म गमन नहीं करता । उस दिन एक सज्जन मेरे हस्ताक्षर 'जन' है, वे 'जिन' भी इसे न छोड़ेंगे और ना जैन ही लेने आ गए। दूर से आए ये, कह रहे थे-आपके सुलझे जिन को छोड़ेगा । मोह रागादि परिग्रह को छोड़ने से और निर्भीक विचारों को 'अनेकान्त' में पढ़ता रहता हूं। "जिन' है और उनका धर्म 'जैन' उन्हीं में रहेगा। और कारणवश दिल्ली आना हुआ । सोचा आपके दर्शन करता जो 'जन' बनता जाएगा उसका धर्म न होता चलू । उनके आग्रहवश मैने हस्ताक्षर दे दिए । वे जाएगा । यह बात वही ऊंची और अध्यात्म की है अतः पढ़कर बोले-आप तो जैन है, आपने अपने को जैन हम इसे यही छोड़ते हैं । प्रसग में तो जैन से हमारा आशय नही लिखा- केवल पपचन्द्र शास्त्री लिखा है । मैंने 'जिन' द्वारा प्रसारित उस धर्म से है जो जीवों को ससार कहा-हां, मैं ऐसा ही लिखता हूं। इससे आप ऐमा न के दु.खो से छुड़ाकर 'जिन' बना सके-मोक्ष सुख दिला समझें कि मैं इस समुदाय का नही। मैं तो इसी में पैदा सके। क्योकि इस धर्म का माहात्म्य ही ऐसा है कि जो हमा हं, वहा भी इसी में हपाई और चाहता हूं मर भी इसे धारण करता है उसी को 'जन' या 'जिन' बना देता है यहीं। काश ! लोग मुझे जैन होकर मरने दें। यानी- कहा भी है-'जो अधीन को आप समान, करन सो 'ये तन जावे तो जावे, मुझे जैन-धर्म मिल जावे'। मैंने निन्दित धनवान ।' कहा-पर अभी मुझ जैन या जिन बनने के लिए क्या वर्तमान में हिमा, मन्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य की कुछ, और कितना करना पडेगा? यह मैं नहीं जानता। जैसी धुंधली-परिपाटी प्रचलित है, यदि उसमें सुधार आ हां, इतना अवश्य है कि यदि मैं मूर्छा-परिग्रह को कृश जाय तो लोकिक-मानव बना जा सकता है। प्राचीन कर सकू तो वह दिन दूर नहीं रहेगा जब मैं अपने को समय की सुधरी परिपाटी ही आज तक समाज और देश जैन लिख सकू। को एक सूत्र में बांधे रख सकी है। निःसन्देह उक्त 'जिन' और 'जैन' ये दोनों शन्द आपस में घनिष्ट नियमों के बिना न तो समाज सुरक्षित रह पाता और ना सम्बन्ध रखते हैं । जिन्होंने कर्मों पर विजय पाई हो, वे ही देश का उद्धार हुआ होता । लौकिक सुख-शान्ति भी 'जिन' होते है और 'जिन' का धर्म 'बन' होता है। इन्हीं नियमों पर आधारित है। इसीलिए भारत के मुख्यता धर्म के लक्षण-प्रसंग में 'बत्यु महाबो धम्मों और विभिन्न मत-मतानरों ने इन पर ही विशेष बल दिया। 'यः सत्वान् संसार दुःसतः उहत्य उत्तमे (मोने) सुखे ताकि मानव, मानव बन सके और लौकिक, सुख-शान्ति धरति सः धर्मः' ये दो लक्षण देखने में आते हैं। जहां तक से ओत-प्रोत रह सके। पर जैन तीर्थकरों की वृष्टि पार
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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