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लौकिक सुमतक भी पहुंची। उन्होंने जीवों को शाश्वत- अन्तरंग हो या बहिरंग या हिंसादि पापों रूप हो-सभी परलोक-मोक्ष का मार्ग भी दर्शाया । उनका बताया तो परिग्रह है। मार्ग ऐसा है जिससे दोनों लोक सघ सकते हैं। वह मार्ग ये तो जिन की देन है, जो उन्होंने वस्तुतत्व को है-मानव से जैन और "जिन बनने का पूर्ण परिपह के बिना किसी भेद-भाव के उजागर किया और अपरिग्रह छोड़ने का अर्थात् पब स्पुन हिसा, भूग, चोरी और कुशील को सिरमौर रखा और अहिंसा आदि सभी में इस अपरिका त्याग किया जाता है तब मानव बना जाता है और ग्रह को हेतु बताया है। पिछले दिनों हमें श्री बशालचन्द्र जब परिग्रह की सीमा बांधी या परिणहका त्याग किया नोरावाला का पत्र मिला है। पत्र का सारांश यह है जाता है तब 'जन' बना जाता है। जैनियों में जो दश-धौ कि चारों कषायों और पांचों पापों में कार्य कारण की का वर्णन है उनमें भी पूर्ण-अपरिग्रह धर्म ही साध्य है. व्यवस्था उल्टी है। कार्य-निर्देषा पहिले और कारण-निर्देग शेष धर्म उस अपरिग्रह के पूरक ही हैं। कहा भी है - अन्त में है। यानी क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार 'क्षमा मार्दव बार्जव भाष हैं, सत्य, शौच, सयम, तप, कषायों में अन्त की लोभ कषाय पूर्व'की कषायों में कारण
त्याग 'उपाय हैं। है। लोभ (चाहे वह किसी लक्ष्य में हो) के होने पर ही आकिंचन ब्रह्मचर्य धर्म दश सार हैं ...'
क्रोध, मान या मायाचार की प्रवृत्ति होगी। इसी प्रकार जब सत्य, शौच, संयम तप और त्यागरूपी उपायों
हिंसा, मूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पांच पापो मे भी से मन को मना, मार्दव, आर्जव, रूप भावों में ढाला जाता
अन्त का परिग्रह पाप पूर्व के पापो मे मूल कारण है। है तब आकिंचन्य (पूर्ण अपरिग्रह) धर्म प्राप्त होता है और पर
परिग्रह (चाहे वह किसी प्रकार का हो) के होने पर ही तभी आत्मा-ब्रह्म (आत्मा) में लीन (तन्मय) होता है।
हिंसा, झूठ, चोरी या कुशील की प्रवृत्ति होगी। ये तो हम यह आत्मा में लीनता (तद्रूरता) का होना ही जिन या
पहिले भी लिख चुके हैं कि-'तन्मूलासर्वदोपानुषङ्गा... जैन का रूप है । और इसे प्राप्त करने के लिए प्रानव से
ममेदमिति, हि सति संकल्पे रक्षणादय सजायन्ते । तत्रच निवृत्ति पाकर संवर-निर्जरा के उपाय करने पड़ते हैं और
हिंसाऽवश्य भाविनी तदर्थमनत जाति, चौर्य चाचरति, वे सभी उपाय प्रवृत्ति रूप न होकर निवृत्ति रूप (जैसा
मैथुनं च कर्मणि प्रतिपतते।'-त. रा. वा. ७।१७१५ कि ध्यान में होता है) ही होते हैं। किन्हीं अशो मे हम आशिक निवृत्ति करने वालो को भी 'जिन' या जैन कह
सर्व दोष परिग्रह मूलक हैं। यह मेरा है, ऐसे सकल्प में सकते है। कहा भी है
रक्षण आदि होते हैं उनमें हिंसा अवश्य होती है, उसी के जिणा विहा सपलदेजिण एण । खविय धाड- लिए प्राणी मठ बोलता है, चोरी करता है और मैथुनकर्म कम्मा सयलजिमा । के ते? अरहंत सिद्धा अवरे आइरिय
में प्रवृत्त होता है, आदि : उवझाप साह देस-जिणा तिव्व कषायेंदिय-मोहविजयादो।' आचार्यों ने मूर्छा को परिग्रह कहा है। और यहाँ -धवला ६,४,१,१,१०।
मूर्छा से तात्पर्य १८ प्रकार के परिग्रह से है। मूर्छा जिन दो प्रकार के हैं-सकलजिन और देशजिन ।
ममत्व भाव को कहते हैं। और ममत्व सब परिग्रहों में पातियाकर्मों का क्षय करने वाले अरहंतों और सर्वकर्म
मूल है । अरति, शोक, भयादि भी इसी से होते हैं । इसीरहित सिद्धो को सकलजिन कहा जाता है तथा कषाय लिए ममत्व का परिहार करना चाहिए। राम की मुख्यता मोह और इन्द्रियों की तीव्रता पर विजय पाने वाले के कारण ही जिन भगवान को भी बीत द्वेष न कह कर आचार्य, उपाध्याय और साधु को देश-जिन कहा जाता वीतरागी कहा गया है। यदि प्राणी का राग बीत जायहै। उक्त गणों की तर-समता मे कपंचित देश-त्यागी
मूच्छ भाव बीत जाय तो वह 'जिन' हो जाय । जिनपरिग्रह को कम करने वाले श्रावकों को भी जैा मान
मार्ग में परिग्रह को सर्व पापों का मूल बताया गया है सकते हैं, क्यो कि-मोक्षरूप उत्तम सुख मिलना परिग्रह और परिग्रह त्यागी को ही 'जिन और जैन' का दर्जा कृश करने पर ही निर्भर है, फिर चाहे वह-परिग्रह दिया गया है।