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न होने में बाधक बच्छा-माव-परिग्रह :
कुछ लोग रागादि को हिंसा और रागादि के अभाव कह तं होई सुसीलं संसारं पवेसेवि ॥ को बहिंसा माने बैठे हैं। और हिंसा व परिग्रह मे भेद
-समयसार ४११४५ नहीं कर रहे। ऐसे लोगों का कहना है कि अमृतचन्द्राचार्य अशुभ कर्म कुशील-बुरा है और शुभ कर्म सुशील-- ने कहा है कि
अच्छा है, ऐसा तुम जानते हो; किन्तु जो कर्म जीव को 'अप्रादुर्भावः खल रागादीनां भवत्यहिंसेति । संसार मे प्रवेश कराता है, वह किस प्रकार सुशीलतेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। अच्छा हो सकता है ? अर्थात् अच्छा नहीं हो सकता।
ऐसे लोगों को सूक्ष्म दृष्टि से कार्य-कारण की व्यवस्था उक्त प्रसग से तात्पर्य ऐसा ही है कि यदि जीव परि. को देखना चाहिए । आचार्य ने यहां कारणरूप रागादिक ग्रह-आस्रव जनक क्रिया को त्याग कर सवर निर्जरा में में कार्य-रूप हिंसा का उपचार किया है। रागादिक स्वय प्रालशील हो-सभी प्रकार विकलो को छोड़कर स्व मे हिंसा नही हैं अपितु हिंसा में कारण हैं। इसीलिए आगे आवे, तो इमे जिन या जैन बनने में देर न लगे। आचार्यों चलकर इन्हीं आचार्य ने कहा है
ने स्व मे आने के मार्ग रूप सवर निर्जरा के जिन कारणों 'सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तु निवधना भवति पंसः।' का निर्देश किया है । वे सभी कारण परिग्रह निवृत्त रूप 'आरम्यकतुंमकृतापि फलति हिसानुभावेन ।' हैं. किसी में भी हिंसा, मूठ, चोरी जैसे किसी परिग्रह का 'यस्मात्सकवायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम्।' सचय नहीं । तथाहि-'स गुप्ति ममिति धर्मानुप्रेक्षा'यत्खलुकषाययोगात प्राणानां द्रव्य भावरूपाणाम् ।' परीषह चारित्रः। 'तपसा निर्जरा च ।'-गुप्ति समिति,
-पुरुषा० धर्म, अनुप्रेक्षा, परीपहजय और चारित्र से संवर होता है हिंसा पर वस्तु (रागादि) के कारणो से होती है और तप से संवर और निर्जरा दोनो होते हैं । उक्त हिंसा कषाय भावो के अनुसार होती है । कषाय के योग क्रियाओ मे प्रवृत्ति भी निवृत्ति का स्थान रखती हैसे द्रव्य-भावरूप प्राणो का घात होता है। और सकषाय- सभी में पर-परिग्रह का त्याग और स्व मे आना है। जीव हिंसक (हिंसा से करने वाला) होता है। तथाहि -
पिछले दिनों हमने जैन बनने मे हेतु-भूत-ध्यान के गुप्ति-'यत: संसारकारणादात्मनो गोपन सा गुप्तिः।' प्रसंग से अपरिग्रह-पूर्ण निवृत्ति को दिखाया था । जो
रा० वा१,२,१। लोग किसी विन्दु पर मन को लगाने की बात करते हैं
- जिसके बल से ससार के कारणों से आत्मा उसमें भी आस्रव भाव होता है फिर जो दीर्घ संसारी हैं, का गोपन (रक्षण) होना है वह गुप्ति है। ऐसे लोगों ने तो ध्यान-प्रचार के बहाने आज देश-विदेशों मनोगुप्ति--'जो रागादि णियत्ती मणस्स जाणाहि में भी काफी हलचल मचा रखी है, जगह-जगह ध्यान
तमणोगुती।'
बचोगुप्ति-'अलियादिणियत्ती वा मौणं वा केन्द्रों की स्थापना की है। वहां शान्ति के इच्छुक जन
होइ बदिगुत्ती ॥' नि. सा. ६भ । साधारण मनः-शान्ति हेतु जाते हैं । पर वहां के, वह कुछ
कायगुप्ति-'काय किरियाणियत्ती काउस्सग्गो नहीं पा सकते जो उन्हें जिन. जैनी या अपरिग्रही होने
सरीरगेगुती ।' नि. सा.७८ । पर-सब बोर से मन हटाने पर मिल सकता है। यहां
समिति-निज परम तत्व निरत सहज परमबालाको मात्मनान मिलेगा और वहां उन्हें परिग्रहरूपी
बोमादि परम धर्मागां संहति समिति । नि.सा.सा. वृ. ६१ पर-विकारी भाव मिलेंगे । फिर चाहे वे विकारी भाव व्यवहारी दृष्टि से-कमशृंखलारूप में 'शुभ' नाम से ही
स्व स्वरूपे सम्यगितो गतः परिणतः समितिः ।' प्रसिद्ध क्यों न हों। वास्तव में तो वे धरूप होने से अशुभ
प्र. सा. ता० ० २४०। ही है; कहा भी है
'अनंत ज्ञानादि स्वभावे निजात्मनि सम सम्यक 'कम्ममसुहं कुसील सुहक्कम चावि जाणह खुसील। सनस्तरागादिविभावपरित्यागेन तल्लीनचितन