________________
१०,३८, कि२
अनेकान्त रूप तो न रहा, पर जैन के रहस्य को किनारे रख किन्हीं है कि जैन कुल में जन्म लेना पुण्य पर आधारित है तो लोगों ने किन्हीं राजनैतिक लाभों को प्राप्त करने की दृष्टि पहिले तो जन्म ही पाप (बुरा-दुःखरूप) है; दूसरे जिसे से (भी) संख्या बढ़ाने-बढ़वाने के प्रयत्न चालू कर दिये। हम जैन कुल कहते हैं वह जैन है कहाँ ? जैन तो 'जिन' में (हालांकि संख्या बढ़ाने-बढ़वाने से अभी तक शायद ही बैठा है-चारित्र शील व्यक्ति में बैठा है, पुद्गल काया में कोई मात्र प्राप्त हो सका हो। वे ऐसे पुद्गल-कलेवरों की 'जैन' कहाँ ? एतावता जन-संख्या बढ़ाने से जैन बढ़ जाते वृद्धि करने को जैन की वृद्धि मान बैठे। इसका जो फल हैं यह बात सर्वथा अटपटी-सी है। उक्त स्थिति में भी हवा वह हमारे सामने है। जैन जैसा रत्न, जो आत्मा का लोग न जाने क्यों शरीर-पिण्डों की संख्या बढ़ाने को जैन धर्म है, वह नश्वर शरीर-रूप जैसी मिट्टी का धर्म बनकर की संख्या वद्धि मान रहे हैं ? यह आश्चर्य ही है। रह गया। ऐसे लोग किसी कुल में जन्म लेने वाली मिट्टी जैनाचार्यों ने जहां पदार्थों का वर्णन किया है वहां की काया को 'जैनी' मानने लगे और असली जैन, जैनत्व उन्होंने उनके गुण-धर्मों का भी वर्णन किया है। जब भाव लुप्त होता गया। यानी जैन के सर्वथा विपरीत हीन उन्होंने आत्मगुणों के विकास की चरमावस्था को प्राप्त आचरण वाले भी जैन कहलाने लगे। पं. टोडरमल जी आत्मा को 'जिन और उनके धर्म को जैन कहा तब लोग कहते हैं-"जो उच्चकुलविर्ष उपजि हीन आचरन करें, तो इसे कुल में प्राप्त शरीर में कलित करने लगे। यानी वाकों उच्च कैसे मानिए ? जो कुल विष उपजने ही तें आत्मा का धर्म-'जैन', पुद्गल-रूप हो गया अर्थात् जो उच्चपना रहे तो मांस भक्षणादि किए भी वाकों उच्च इस समुदाय में पैदा हो गया वह काया जैन हो गया। ही मानो सो बने नाही।' भारत विर्ष भी अनेक प्रकार यदि हम आत्मा के गुणों के आधार पर जैनत्व का ब्राह्मण कहे हैं। तहा जो ब्राह्मण होय चांडाल का कार्य निश्चय न भी करें और अधिक स्यूल व्यवहार में जाकर करताको चाण्डाल-ब्राह्मण कहिए ऐसा कहा है। सो ही देखें तब भी आज जैनों की संख्या नगण्य ही रहेगी। कुल ही ते उच्चपना होय तो ऐसी हीन संशा काहेकौं जैसे-देवदर्शन करना, रात्रि भोजन का त्यागी होना, छने दई?"-मो. मा० २५८
जल का पीना, अष्ट-मूलगुणो का धारण करना आदि । ये संसार में सबसे बड़े दुख जन्म मरण कहे हैं-अन्य सब ऐसे मोटे चिन्ह है, जिससे साधारण जैन की पहिचान सभी दुःख इन्ही के होने पर होते हैं और इन्ही दोनों के की जा सकती है। पर, आज आलीशान सामिष होटलों में अभाव हो जाने का नाम मुक्ति है। विचारने की बात ये रात्रि में प्रीति-भोज आयोजन जैसे समाचार प्रमुख जनहै कि इन दोनों दुखों में कारण कौन हैं? जहां तक मरण पत्रों में छपते रहे हैं। की बात है हम उस में आयु कर्म के क्षय को कारण कह माचार-विचार की दशा ये है कि रात्रि-भोजन त्याग सकते हैं, सो कर्म का क्षय होना कोई बुरी बात नहीं। आदि जैसे साधारण नियमों का पालन तो दर-किनार, कर्म से क्षय को जैन दर्शनकारों ने इष्ट ही माना है और गाहे-बगाहे अब तो जैनियों के कुछ अंगों को बड़े-बड़े इसके लिए ही सारे उपाय बतलाये हैं। हाँ, रही जन्म की सामिष होटलों तक में भी देखा जा सकता है। लोग अपनी बात, सो उसमें अन्तरंग निमित्त बायु कर्म का बय और आंखों से कई मान्यों को भी होटलों की सैर करते कराते, बहिरंग निमित्त मंयुनक्रिया है और ये दोनों ही जैन-दर्शन उनमें विवाह शादी रचते-रचाते देख रहे हैं। ऐसे मान्यों में अनिष्ट कहे गए हैं। जहां तक कर्म का उदय है उसको में स्टेजों पर धर्म पर मर-मिटने की सौगन्ध खाने-खिलाने हम छोड़ भी दें तो भी मैथुन तो ब्रह्म है ही और अब्रह्म बाले कई मान्य भी शामिल हैं। जो लोग सामूहिक रात्रिको पाप कहा गया है-मैथुनमब्रह्म।' सभी जानते हैं कि भोजन निषेध का प्रचार करते हैं, "दिन में फेरे, दिन में जीवों के जन्म लेने (शरीर धारण करने) में मधुनरूप-पाप बारात' आदि जैसे नारे बुलन्द करते हैं, उनमें कई को निमित्त बनता है और पाप के निमित्त से हमा जन्म पुण्य रात्रि-भोजन करते और होटल की शादियों में सम्मिलित कहलाए, यह बात समझ से बाहर है। जब हम यह कहते होते माराम से देखा जा सकता है।
नाना १२५