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हमें लिखने में संकोच नहीं, अपितु सन्तोष है कि जो बछड़े गाय का दूध पी जाते हों वे एक बाते हैं। जो किन्हीं प्रबुद्धों के प्रयासों से आज हम जैन-नामधारियों ने बैल और ऊंट बनाज खा जाते हो वे भी रुक जाते है। यह तो महसूस किया है कि जैनों का ह्रास हो गया है- हाला कि ऐसा करना भी धर्म सम्मत नहीं। सभी जानते उनमें आचार-विचार नाम की चीज नहीं जैसी रह गई है कि तीर्थंकर ऋषभदेव जैसे महान को भी पूर्वभर में है, वे जेनी नहीं रह गए हैं। इसका जीता-जागता सबूत ऐसे उपदेश देने के कारण ही तीर्थकरभव में छह मात्र है-शाकाहार और श्रावकाचार वर्ष का मनाया निराहार घूमना पड़ा। कदाचित कोई व्यक्ति लौकिक जाना । यह आयोजन हमारे गाल पर ऐसा तमाचा उपयोगिता को समझ, किसी प्रथा का पोषण करे तो है जो हमें शर्मिन्दा करने के लिए काफी है, ऐसा इसलिए किसी अस में कदाचित् मौन धारण किया जा सकता है, कि-जैनी नियम से शाकाहारी और श्रावक होता है। पर, जो व्यक्ति समाज के आचार और धार्मिक प्रवृत्तियों के उसके लिए शाकाहार और श्रावकाचार वर्ष मनाने की ह्रास को देखते हुए भी आचार और धर्म के सरक्षण को सार्थकता ही क्या ? यदि ऐसा नहीं और वह मांसाहारी प्रवृत्तियों में रक्त-किसी व्यक्ति को मुंह न खोलने दे और बन चुका है तो वह जैन कैसे है ?
__ उसकी जुबान पर ताला लगाने-अगवाने के प्रच्छन्न या हम तो तब भी शमिन्दा होते हैं, जब कोई विद्वान उजागर उपक्रम करे तो हम पीडा से कराह उठते है। हम वर्तमान जैन-सभा में आकर वर्तमान जैनियों को शिक्षा नही समझते कि ऐसे लोग सही सुनना क्यों नहीं चाहते। देता है कि सप्त व्यसनों का त्याग करो, पांच पापो का सन्देह होता है कि कही वे दोषी तो नहीं। त्याग करो आदि ! हम सोचते हैं कि वह जैनो को उपदेश आज समाज और धर्माचार का जैसा विकृत रूप दे रहा है या पापियों को तोरने का प्रयत्न कर रहा है? उभर कर सामने आया है उसमे खरीबात सुनने से भयक्योकि जैनी पापी नही होता और निष्पाप को ऐसा उप- भीत होते रहने और खरों के मुह पर ताला लगाते देश नहीं होता।
रहने जैसे उपक्रम ही मूल कारण बने है जो धीरे-धीरे यदि हम ऐसा मानकर चलें कि शाकाहार वर्ष तो परिपक्व होकर सड़ फोड़े की भाति रिसने लगे हैं। हम इतर समाज व देश के लिए मना रहे हैं। तो संवर पिछली कई घटनायें हैं कि जब किसी ने कुप्रथाओं बौर के बिना निर्जरा कैसी? जब तक मछली उत्पादन : मुर्गी आगम-विरुद्ध-वर्तनो के विरुद्ध कोई आवाज उठाई, सभी पालन आदि जैसे मांसोत्पादक केन्द्रो का निरोध न हो कुछ तथाकथित लोगों ने उन्हें रोकने को चेष्टाएं की। तब तक देश के लिए शाकाहार वर्ष की सार्थकता कैसे? फलस्वरूप कुछ कुचले गए, कुछ मैदान छोड़ गए, कुछ पहिले तो उन स्रोतों को बन्द कराना चाहिए जो मांसो- समाज से छिटक गए और इस तरह न्यायमार्ग का प्रास त्पादन कर पाकाहार में गिरावट ला रहे है। चाहे इसमें होता रहा। यदि लोगों में तनिक भी सहनशीलता और सरकार से भी लोहा क्यो न लेना पड़े? पर, बिल्ली के विचार शक्ति रही होती तो वे किसी भी विरोधी गले में घण्टी बांधे कौन? फिर, आज जैनी भी तो पूर्ण बातें सुनते सोचते और पूर्वाचार्यों के परीक्षा-प्रधानी' तया शाकाहारी नही रह गए हैं ? मीठा-मीठा गप, कड़वा- बनने जैसे अमूल्य वाक्यों पर अमल करते, तो समाज कड़वा ! उक्त स्थितियों में क्या हम जैनी है? जरा और धर्माचार की ऐसी दीन दशान होती जैसी आज सोचिए ।
देखने में आ रही है।
बाजबाम लोगों के मुख पर मुरमाहट है। जो पर्व २. ताला कब तक लगाया जायगा?
की राह में है वे अक्सर महमे-सहमे से है। ध्यानी ध्यान हमने उन बछड़ों, बैलों और ऊंटों को देखा है, जिनके करते, पुथरी पूजा करते और दुनियानी मनुष्य पुलिस मासिक मुंह पर छीके (बोच) बाध देते हैं। ऐसा करने से दारी में घूमते ए शंकित बार भयभीत है किकी ससके