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मनेकान्स
मार्ग में कोई रुकावट बड़ी न हो जाय तेरापंथी के लिए कोई बीसपंथी और बीसपंथी के लिए कोई तेरापंथी काबट बड़ी न कर दे। या कहीं कोई श्वेताम्बर किसी दिन म्बर के या दिगम्बरी किसी श्वेताम्बर के हक को हड़पन से हांलाकि उनके दिलों में परस्पर में स्व-सम्प्रदायियों के लिए भी कोई सम्मानित स्थान नही जैसा है वे परस्पर मैं भी एक दूसरे की काट पर तुले हैं। ऐसा क्यों ?
एक बार जब सोनगढ़ वालों की ओर से भावी तीर्थंकर के नाम से सूर्य कीर्ति जैसे कल्पित तीर्थंकर की मूर्ति स्थापित हुई, तब हमने भी उसके अनौचित्य पर दो शब्द लिख दिए । जब काफी लोग सोनगढ़-साहित्य का खुले आम बहिष्कार कर रहे हैं और पूज्य आचार्य धर्म सागर जी महाराज जैसे सन्त भी इसमें सहमत हैं, तब हमने उस विषय में उसके बहिष्कार को पुष्ट न इतना संशोधन ही दिया था हम उसे 'कसौटी पर कसेंयह बात आगम के सर्वथा अनुकूल है और आपायकृत मूल बागमांगों की रक्षा में भी समर्थ है। बत हम
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नहीं चाहते कि किन्हीं प्रसंगों से हमारे पूर्वाचार्यो की अवमानना हो । फिर भी हमें आश्चर्य है कि कुछ लोगों को परख की बात खटकी। जब कि हमारे पूर्वाचार्यो का निर्देश, उनके स्वयं के कथनों को भी परख कर ग्रहण करने का रहा है-परीक्षा प्रधानी होने का उनका आदेश है। कुछ लोगों ने हमें कहा कि आपको संपादक अनेकान्त के नाम से किसी खास नाम को इंगित नहीं करना चाहिए आदि। सो हम तो ऐसा समझे हैं कि बागम और बनेकान्त जन साधारण की यें बोलने के लिए है, किसी का अब मींचकर तिरस्कार या सम्मान करने के लिए नहीं हूँ और ना ही मौन रहने के लिए। हमने तो ऐसा खास कुछ नहीं लिखा है - परीक्षण की ही बात की है। जब कि न्यायप्रसंग में अनेकान्त और उसके संस्थापक मुख्तार सा० की नीति इससे भी कड़ी रही है और वे विपरीत प्रतिभासित होने वाली प्रवृत्तियों के खिलाफ सहा मावाज उठाते रहे हैं। मुख्तार सा मे अनेकान्त में ही स्व० काम भी स्वामी की घोषित अवस्था में 'समयसार की १२ वीं गाया और कान जी स्वामी'
शीर्षक में उनको लक्ष्य कर-विचारार्थ को दिया था, उसकी झलक देखिए
१ "कानजी स्वामी का 'वीतरागता ही जैनधर्म है'। इत्यादि कथन केवल निश्चयावलम्बी एकान्त है, व्यवहार नय के वक्तव्य का विरोधी है. वचननय के दोष से दूषित है और जिन शासन के साथ उसकी संगति ठीक नहीं बैठती।" अनेकान्त वर्ष १२ कि० पृ० २७७.
२ (कानजी स्वामी का ) " सारा प्रवचन प्राध्यातित्मक एकान्त की ओर ढला हुआ है, प्रायः एकान्त मिष्यास्व को पुष्ट करता है और जिन शासन के स्वरूप विषय में लोगों को गुमराह करने वाला है। इसके सिवाय जिन शासन के कुछ महान स्तंभों को भी इसमें 'लौकिक जन' तथा अन्यमतो जैसे शब्दो से याद किया है और प्रकारान्तर से यहां तक कह डाला कि उन्होंने जिनशासन को ठीक समझा नहीं।" वही कि ६ पृ. १५०
उक्त प्रसंगों को देखते हुए हमने नीति और बागम सम्मत ही किया है। किसी पक्ष का नाम तो हमें प्रसंगवा लेना पड़ा है- भक्तगण इसका बुरा न मानें। हमें खुशी है कि कुछ प्रबुद्धों ने हमारे निश्पक्ष और साहसिक खुशी है कि कुछ प्रबुद्धों ने हमारे निष्पक्ष और साहसिक विचारो को सराहा भी है। हम आभारी हैं ।
इसी प्रसंग मे एक बात और सभी जानते हैं कि गणधर ने तीर्थंकर की वाणी को प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और इम्यानुयोग जैसे चार विभागों में बांटा और उक्त वाणी का सगह आगम कहलाया । जैन मंदिरों मे इसी आगम को गद्दी पर और साधारणरीति
से भी प्रवचन और स्वाध्याय के लिए स्थापित किया जाता रहा। पर आज स्थिति ऐसी हो रही है कि आचायों कृत मूल शास्त्रों की भाषा- प्राकृत, संस्कृत आदि से लोगो का नाता टूट सा चुका है। वे प्रादेशिकी और हिन्दी आदि भाषाओं की ओर दौड़ पड़े हैं। यहां तक कि उन्हें १० प्रवर टोडरमल जी और पं० सदासुख की जैसे मनीषियों की भाषा भी नहीं रुचती। वे आधुनिक हिन्दी गद्य और काव्यमयी कृतियों को ही शास्त्र- जिनबानी बना रहे हैं, मंदिरों में उनकी वाचना कर रहे हैं। फलतः - मंदिरों में भी इन कृतियों की भरमार हो रही है और मूल गायब हो रहा है।