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________________ १४, १८, कि०२ कुतूहल से बराग्य उत्पन्न हुमा । उसने सत्यवती के पास के दिन पृथु ने ऐसा ही किया और चपलमति ने उसी सेवक भेजा और कि तेरे विवाह में चपलगति उत्पलनेत्रा समय राजा से कहा-महाराज, इस समय कुवेरप्रिय का हार लाया था वह दे दे। सत्यवती ने वह हार सेवक सत्यवती के साथ काम-क्रीड़ा करता है। मैंने पहले यह को दे दिया। सेवक ने राजा को और उसने उस वेश्या को बात कई बार सुनी थी, परन्तु वह बाज प्रत्यक्ष हो गई। दे दिया। पश्चात् राजा ने क्रोध के वशीभूत होकर चपल- राजा ने कहा-नहीं, कुवेरप्रिय ने आज उपवास गति की जिव्हा (जीम) काटने की आशा दी, परन्तु कुवेर- किया है, उसकी यह बात सम्भव नहीं हो सकती। चपलप्रिय ने राजा से निवेदन करके चपलगति की जीभ नहीं गति ने यह कहकर कि महाराज, प्रत्यक्ष में क्या सन्देह काटने दी। राजा ने कुवेरप्रिय को मन्त्री पद दिया। है? चलिए, स्वयं देख लीजिए । राजा को ले जाकर अपने कुवेरप्रिय मन्त्री होने से चपलगति को ईर्षा और क्रोध भाई को कुवेरप्रिय के रूप में दिखला दिया और कहाउत्पन्न हुआ तथा सत्यवती ने हार दे दिया, इससे उस पर महाराज, इन दोनों को दण्ड मिलना चाहिए । राजा ने भी वह क्रोध करने लगा और रात दिन इन दोनों का कहा-अच्छा तुम्ही इसका दण्ड दो। चपलगति ने "बहुत बुरा विचारने लगा। अच्छा ।" कहकर कुवेरप्रिय का सिर काटने का हुक्म एक दिन यह चपलगति विमलजला नदी पर क्रीड़ा दिया और सत्यवती की नाक काटने का । महा न्यायवान करने के लिए गया। बैलों के मुड में वहां उसने एक सुंदर कुवेरप्रिय को पल सबेरे मारूंगा, और सत्यवती की नाक मुद्रिका (अंगूठी) देखीं और उठा ली। इतने मे ही व्याकुल काटूंगा, ऐसा विचार कर आने भाई को लेकर वह अपने चित्त चिंतागति नाम का विद्याधर वहां आकर इधर-उधर घर गया और भाई को घर छोड़कर श्मशान भूमि से कुछ ढूंढ़ने लगा । तब चपलगति ने उससे पूछा-भाई, कुवेरप्रिय को उठा लाया । नगरवासियों को यह सुनकर इधर-उधर क्या देखते हो ? विद्याधर ने कहा-मेरी बड़ा क्षोभ हुआ। सेठ कुवेरप्रिय ने प्रतिज्ञा की कि जो में मुद्रिका खो गई है, उसको ढूंढ रहा हूं। यह सुनकर चपल - इस उपसर्ग से बचूंगा, तो पाणिपात्र में भोजन करूंगा। गति ने उसे मुद्रिका दे दी। विद्याधर को सन्तोष हुमा। तथा तथा ऐसी ही प्रतिज्ञा सत्यवती ने की कि वचूंगी तो रसने चपलगति से पूछा--आप कौन हैं । चपलगति ने आयिका हो जाऊँगी। और जो इष्टदेव की पूजा करने का कहा - मैं कुवेरप्रिय का देवपूजक (सेवक) हूं। विद्याधर घर था, वह उसमें कायोत्सर्ग धारण कर बैठ गई। राजा ने कहा-तुम कुवेरप्रिय के सेवक हो तो कुवेरप्रिय मेरा दुःख से व्याकुल होकर अपनी शय्या पर पड़ रहा । सबेरे मित्र है, उसको यह मुद्रिका दे देना । यह काममुनिका है, ही चपलगति कुवेरप्रिय को केश पकड़ कर श्मशान इसके प्रताप से मनचाहा रूप बन जाता है। मैं उससे भूमि में लाया और वहां उसके मारने के लिए चाण्डाल फिर कभी यह मुद्रिका वापिस ले लूंगा । ऐसा कहकर को बुलाया । पश्चात् चाण्डाल को तलवार देकर आज्ञा वह मुद्रिका दे विद्याधर तो चला गया और चपलगति दी-इसका काम तमाम कर दो। जिस समय उसके उसे लेकर वहां से लौटा। घर आकर उसने अपने भाई मारने की आज्ञा हुई, उसी समय उसके परम शील के पृथु को सिखाया कि चतुर्दशी के सायकाल के समय तू प्रभाव से देवों के तथा असुरों के आसन कम्पायमान हुए इस मुद्रिका को पहन कर मत्यवती के घर जाना और और कुवधिज्ञान से कुवेरप्रिय पर उपसर्ग जानकर वे शीघ्र जब वह तुझे बासन पर बिठा दे, तब अपने मन में ऐसा ही वहां माए । इधर कुवेरप्रिय का यह हाल देखकर विचार करके कि "मेरा रूप कुवेरप्रिय का सा हो जाय" समस्त नगर के लोग हाहाकार करने लगे और "कुवेरइस मूठी को अपने चारों तरफ फिराना, तब तेरा रूप प्रिय हाय, यह तुम्हारा यह क्या हाल हुवा ?" ऐसा कुवेरप्रिय का सा हो जायगा । फिर सत्यवती के पास ही चिल्लाते हुए दुःखी होकर उसकी ओर देखने लगे। कामचेष्टा प्रविक्षेपादिक करना। उस समय मैं राजा के चांगल ने यह कह कर कि 'बव कुवेरप्रिय, अपने इष्टपास डूंगा, इसलिए अपना काम बन जाएग।। चतुर्दशी (मेष पृ. बावरण ३ पर)
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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