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________________ कुबेर प्रिय सेठ की कथा । जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देव और उसमें पुंडरीकिणी नाम की एक नगरी है। वहां का राजा गुणपाल और उसकी एक रानी कुवेरभी से वसुपाल और श्रीपाल नाम के दो पुत्र थे। रानी कुबेरथी का भाई कुबेरप्रिय था, जो रूप में कामदेव के समान और परमशरीरी पा उक्त राजा के एक दूसरी रानी सत्यवती भी थी, जिसका भाई चपलगति राजा का मंत्री था। एक दिन राजा ने एक अपूर्व नाटक देखा और बहुत ही प्रसन्न हुआ। पश्चात् अपने यहां रहने वाली उत्पननेत्रा नाम की वेश्या से उसने कहा कि ऐसा अच्छा नाटक तो मेरे ही राज्य में ही हुआ है। तब उस वेश्या ने कहा- महाराज, यह कुछ भारी कौतुक नहीं है, अपूर्व कौतुक तो मैंने देखा है, जो आप से निवेदन करती हूं। एक दिन आपकी सभा में बैठे हुए कुबेर प्रिय सेठ को देखकर मैं कामदेव को पीड़ा से अत्यन्त व्याकुल हुई। उसी समय एक अच्छी दूती उक्त सेठ के पास भेजी । उस दूती ने जाकर मेरा यह सब हाल सेठ से कहा । परन्तु सेठ ने उत्तर दिया मेरे स्वदारसन्तोष ( परस्त्री त्याग) व्रत है । यह सुनकर मैं लाचार हो गई। एक बार चतुर्दशी के दिन श्मशानभूमि मे वह सेठ योग धारण करके बैठा था। मैं उसको वैसी ही अवस्था में अपने पर ले आई और सोने के महल में ले जाकर उसे अनेक पेण्टा दिखार्थी, परन्तु उस सेठ का चित्त चलायमान न कर सकी । आखिर उसको उसी श्मशान भूमि में पहुंचवा दिया। और मैंने उसी समय से ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लिया। अतः हे राजन, 5 वेश्या होकर भी उस सेठ का चित्त चलायमान न कर सकी, यह बड़ा कौतुक और आश्चर्य है । तब राजा ने कहा- उस सेठ की सब ही सम्मान ऐमी ही शील पालने बाली हैं, कुशील नहीं हैं। उत्पलनेत्रां ने ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया है, यह किसी को ज्ञात नहीं था, इसलिए एक दिन नगर के कोतवाल का I पुत्र उसके पर गया और बोला-शृंगार विलेपनादि करो । परन्तु इतने में ही मन्त्री का पुत्र जा पहुंचा। तब बेया ने उसके भय से कोतवाल के पुत्र को किसी सन्दूक मे बन्द कर दिया और मन्त्री पुत्र के साथ बातचीत करने लगी । इतने में ही चपलगति मन्त्री आया । उसको जाते हुए देख कर उसके डर से उस मन्त्रीपुत्र को भी वेश्या ने उसी सन्दूक मे बन्द कर दिया । चपलपति ने आकर कहा हे उत्पलनेने तुगारादि कर सेना में शाम को बहुत-सा द्रश्य लेकर आऊँगा उत्पननेषा ने कहा चपमगति, आप जब अपनी बहिन सत्यवती के विवाह मे मेरा हार ले गए थे, तब आपने कहा था कि सत्यवती के विवाह के बाद तेरा हार दे देखेंगे । सो अब वह हार दे दीजिए चपलपति ने कहा-अच्छा, तेरा हार दे देंगे तब उन ने कहा- सन्दूक में बैठे हुए देवो ! इस विषय में तुम मेरे साक्षी हो । 1 दूसरे दिन राजा की मभा मे जाकर उत्पलनेत्रा ने चपलगति से हार मांगा। चपलगति ने कहा कहां का हार ? मैं नहीं जानता, तू ने हार किसको दिया था ? वेश्या ने कहा-यदि खबर ही नहीं है तो कल दिन क्यों कहा था कि तेरा हार दे दूंगा ? मन्त्री ने कहा- नहीं, मैंने ऐसा कभी नहीं कहा। तब राजा ने कहा-उत्प तेरा इस विषय में कोई साथी भी है? उसने कहा- हां महाराज है। राजा ने कहा हो उसको बुलाओ, तभी निर्णय होगा । राजा के कहने से सन्दूक मंगाया गया । लब वेश्या ने कहा है सन्दूक में बैठे हुए देवो, सत्य कही कि कल चपलगति ने मुझे हार देने को कहा था या नहीं ? तब सन्दूक में बैठे उन दोनों ने कह दिया हो ! अवश्य ही कहा था। इस कौतुक को देखकर राजा ने सन्दूक बलवाकर देखा तो उसमें मन्त्री- पुत्र और कोतवालपुत्र निकले। उन्हें निकलते हुए देख सब सभा के लोगों ने बड़ी सी की, जिससे दोनों सम्मित हुए राजा को इस
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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