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२९. कि.२ क्षेत्र, काल, भाव के निमित्त से कर्मों का उदय अनेक स्थानवर्ती) जीवों में ही अतिशय उत्कृष्टता को प्राप्त प्रकार का होता है। तात्पर्य यह है कि शुभकर्म के उदय होता है। इसके सिवाय अतिशय शुद्धिको धारण करने से शुभद्रव्य, स्वर्गादिक शुभक्षेत्र, शीत-उब्ण की बाधारहित वाला और पीत पत्र और शुक्ल ऐसी तीन शुभलेश्यानों शुभकाल तथा संक्लेशरहित प्रसन्नभाव होते हैं। अशुभकर्म केल से वृद्धि को प्राप्त हुआ यह धर्म्यध्यान शास्त्रानुकर्म के उदय से इनके उल्टे अशुभ द्रव्य नरकादि क्षेत्र, सार सम्यग्दर्शन से सहित चौथे गुणस्थान में तथा शेष के शीत, आतपयुक्त काल तथा क्लेश रूप मलिन भाव होते पांचवें और छठे गुणस्थान में भी होता है। यह धर्म्यध्यान है। दोनों कमों के विवेक का वेत्ता विवेकी जीव इनके प्रति छायोपशमिक भावों को स्वाधीन कर बढ़ता है। इसका हर्ष विषाद नहीं करता है। वह कर्म के उदय के अभाव फल भी बहुत उत्तम होता है तथा अतिशय बुद्धिमान लोग हेतु उद्यम करता है। मोक्षाभिलाषी मुनियों के मोम के भी इसे धारण करते हैं। वस्तुओं के धर्म का अनुयायी उपायभूत इन विपाकविचय नाम के धर्म्यध्यान का अवश्य होने के कारण जिसे धर्मेध्यान ऐसा नाम प्राप्त हुवा है चिन्तन करना चाहिए।"
और जिसमें ध्यान करने योग्य पदार्थ का अपर विस्तार संस्थान विय-लोक के आकार का वार बार से वर्णन किया गया है ऐसे इस धर्म्यध्यान का बार-बार चिन्तवन करना तथा लोक के अन्तर्गत रहने वाले जीव, चिन्तवन करना चाहिए। 3 अंगों की स्थिरता, मुख की मजीव आदि तत्वों का विचार करना संस्थान विचय नाम प्रसन्नता होना. दष्टि का सौम्य होना आदि धर्म्यध्यान के का धय॑ध्यान है। संस्थान विचय धय॑ध्यान को प्राप्त
यान को प्राप्त बाह्यचिह्न तथा अनुप्रेक्षायें तथा पहले कही हुई अनेक
है हमा मूनि तीनों लोकों की रचना के साथ-साथ द्वीप, समुद्र, प्रकार की शभ भावनायें उसके आन्तरिक चिन्ह हैं।" पर्वत, नदी, सरोवर, विमानवामी, भवनवासी तथा व्यंतर
आज्ञा आदि के निमित्त से सतत चिन्तन करने को देवों के रहने के स्थान और नरकों की भूमियों आदि धर्म्यध्यान कहा गया है।" अशुभ कर्मों की अधिक निर्जरा पदार्थों का भी शास्त्रानुसार चिन्तन करे। इसके सिवाय होना और शुभ कर्मों के उदय से उत्पन्न हुआ स्वर्ग आदि का उस लोक मे रहने वाले संसारी और मुक्त इस प्रकार जीव सुख प्राप्त होना यह सब इस उत्तम धम्यध्यान का फल है। के दो भेद, जीव का कर्तापन, भोक्तापन तथा दर्शनादि अथवा स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होना इस धर्म्यध्यान का गुणों का भी ध्यान करे। अनेक दुःखरूप यह संसाररूपी फल कहा जाता है। इस धर्म्यध्यान से स्वर्ग की प्राप्ति तो समुद्र सम्यग्ज्ञानरूपी नाव से तैरने योग्य है। अथवा इस साक्षात् होती है परन्तु परमपद मोक्ष की प्राप्ति परम्परा विषय में अधिक कहने से क्या लाभ है? नयों के सैकड़ों से होती है। जो कर्म ईंधन को जलाने के लिए अग्नि का भङ्गो से भरा हुमा जो कुछ आगम का विस्तार है वह सब काम करती है समस्त तपों का सार ध्यान तप है।" और अन्तरात्मा की शुद्धि के लिए ध्यान करने योग्य है।" यह यही अत्मिक सुख देने वाला है। इस प्रकार जैनदर्शन में धधध्यान अप्रम | अवस्था का आलम्बन कर अन्तर्मुहतें धयध्यान का महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय स्थान है। तक तक स्थित रहता है और प्रमादरहित (सप्तम गुण
लखनऊ सन्दर्भ-सूची १.डा. हुकमचन्द भारिल्ल, धर्म के दशलक्षण । "८. आदिपुराण २१३१३४-१४० २. उत्तम संहननस्यैकापचिन्तानिरोधो ध्यान मान्त मुहू. १. आशाविषय एष स्यादपायविचयः पुनः । तापत्रयादि त्, तत्वार्षसूम नवम् अध्याय सूत्र-२७ ।
जन्माधिगतापाय विचिन्तनम् । तदपायप्रतीकारचित्रो३. वातरोबषयं शुक्लानि तत्वार्थ सूत्र नवम् अध्याय पायानुचिन्तनम् । अत्रवान्वगतिध्येयमनुप्रेक्षाविलक्षणम् ॥ ४. सर्वार्थसिडिपृ० ३४। सूत्र नं. २८।
जिनसेन : बादिपुराण २११४१-१४२ १. बत्युसहायो धम्मो-आचार्यकुन्दकुन्द ।
१०. वही २१११४३.४६ १ १. वहीं २११४७ १.तवानपेतं गवर्मान्तक्यानं बम्बंमिष्यते । धयों हि १२.जिनसेन : आदिपुराण २१३१४८-५४
बस्नुयाथात्म्यमुत्पादादि यात्मकम् । आदिपु. २१०१३३ १३. वही २१४१५५-५८ १४. बही २१११५६-६१ .७.बामापायविपाक.संस्थान विचयाय धर्म्यम् । त.सू.३६ १५. सर्वार्थसिद्धि नवमोबध्याय:पृ० ३४७ तमाशापाच संस्थान विपाकषिचयात्मकम् । चतुर्विकल्प १६.आदिपुराण २०१६२-६३ मानात मनमाम्नाप देदिभिः। मादिपु० २॥१३४ १७. धर्म के दशलक्षण हुकमचन्द भारिस पृ० ११४