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________________ धर्मध्यान का स्वरूप एवं भेद नरेन्द्र कुमार जैन सोरया एम० ए० शास्त्री जैनधर्म मे ध्यान को तप का साधन माना गया है। उन आगम को जानते हैं। जिनशासन की तत्वज्ञानियों को ध्यान सर्वोत्कृष्ट तप है, ध्यान की अवस्था में ही सर्वज्ञता आराधना करना चाहिए। जिनमासन आदि अन्त से की प्राप्ति होती है।' उत्तम सहनन वाले का एक विषय रहित, अनादिनिधन, अति सूक्ष्म पर्चा वाला, मोगमार्ग मे चित्तवृत्ति का रोकना ध्यान है जो अन्तर्मुहुर्त काल तक का उपदेश देने के कारण जीवन का हितकारी, अत्यन्त होता है।' आत रौद्र धर्म और शुक्ल ये ध्यान के चार अथाह तथा अतिगम्भीर है। इस प्रकार तत्वज्ञानी जिनभेद माने गये हैं। इन चार ध्यानों में अन्त के दो ध्यान शासन की आज्ञा प्रमाण श्रद्धान, चिन्तन करता है, यही मोक्ष के हेतु हैं लेकिन इनमें भी घय ध्यान का विशेष आशाविषय है। महत्व है। __ अपाय विचय--जन्म, जरा मरण, रागद्वेष, मोह, धम्यंध्यान का स्वरूप-वस्तु का यथार्थ स्वरूप रोग, विद्युत्पादादिरूप, आधिदैविक, देव मनुष्य तथा (स्वभाव) धर्म है। वस्तु सत्तास्वरूप है । मत्ता पर्याय की त्रियचों द्वारा उत्पन्न वाधारूप अधिभौतिक तथा मन की अपेक्षा उत्पाद व्ययरूप है तथा वस्तु तथा गुण की अपेक्षा चिन्ता, सकला-विकल्प रूप आध्यात्मिक इन तीन तापत्रय सदा ध्रव है। इस प्रकार अपने धर्म से व्युत न होकर से भरे हुए गमाररूपी समुद्र में जो अनेक प्राणी कष्ट में स्वभाव में बारूद रहना धर्मध्यान कहलाता है। तात्पर्य हुए हैं उनके कष्ट दूर करने तथा गाविक शत्र यह कि आत्मा चैतन्य स्वभावी है। अतः अपने स्वभाव में नाश के उपाय का चिन्तन करना चाहिए। इस अपायनिश्चल रहना, जड़ स्वभाव के प्रति रागद्वेष न करना यह विचय नामक धर्मध्यान में अनित्यादिगारह भावनामों का घयंध्यान का लक्षण है। चिन्तन करना चाहिए अथवा मिष्यादर्शन, मियाज्ञान बम्यंध्यान के भेद-आशाविचय, अपायविचय, और मिष्याचारित्र से यह प्राणी कैसे रहित हो ऐसा विपाकविचय और सस्थानविचय ये धर्म्यध्यान के चार चिन्तन करना चाहिए । अपाय यभाव को कहते हैं, मिथ्याभेद तत्वार्थसूत्र मे कहे गये हैं। दृष्टियों के मार्ग के अभाव का चिन्तन करना बपायविषय प्रामाविचय--उपदेश दाता के अभाव से, अपनी है। मन्दबुद्धि के उदय से तथा कर्म के वश जिसे स्वयं न जान विपाक पिचय-शुभ और अशुभ भेदों में विभक्त सके ऐसे सूक्ष्म पदार्थों के विषय में जमा सवंश ने कहा हुए कर्मों के उदय से संसार रूपी आवर्त की विचित्रता वंसा ही है, क्योंकि जिनदेव वीतरागी हैं, वे अन्यथा कथन चिन्तवन करने वाले मुनि के जो ध्यान होता है उसे बागम नहीं करते हैं, उस प्रकार पदार्थ का बखान कर बर्ष का के जानने वाले गणधरादिदेव विपाकविषय नाम का धर्मअवधारण करना माशाविचय है। चित्त मे ऐसा सन्देह ध्यान मानते हैं। जैन शास्त्रों में कर्मों का उदय दो प्रकार नहीं करना चाहिए कि जो सूत्र में कहा है, वह प्रत्यक्ष तो का माना गया है। जिस प्रकार किसी एक वृक्ष के फल दिखाई देता नही है, अनुमान से भी नहीं जाना जाता है। एक तो समय पाकर अपने बाप पक जाते है और दूसरे अतः न जाने कैमा है, इस प्रकार का सन्देह कभी भी नहीं किन्हीं कृत्रिम उपायों से पकाये जाते है, उसी प्रकार कर्म करना चाहिए। श्रुति, सुनत, माशा, आप्तवचन, वेदाङ्ग भी अपने शुम अपवा अशुभ फल देते है। मूल और उत्तर और बाम्नाय इन पर्यायवाचक शब्दों से बुद्धिमान पुरुष प्रकृतियों के बन्ध तथा सत्ता प्रादिकामाश्रय मेकरम
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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