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बी-वाणी से
संसार में परिग्रहही पांच पापों के उत्पन्न होने में निमित्त होता है। जहाँ परिबह है
हामह बहा राग.हां राग है वहीं मारमा में आकुसता रूप दुःख है बोर वहीं सुख गुण का पास है, और सुबगुण बात का नाम ही हिसा है। संसार में जितने पार है उनकी जड़ परियर है। प्रानको भारत में बदसंखयक मनुष्यों का बात हो गया है या हो रहा है उसका मूल कारण परिग्रह ही है। यदि हम इससे ममत्व घटा देखें तो अगणित जीवों का चात स्वयमेव न होगा। इस अपरिग्रह के पालने से हम हिसा पाप से मुक्त हो जाते है और अहिंसक बन सकते हैं। परिग्रह के त्यागे बिना हिसा-तत्त्व का पालन करना असम्भव है । भारतवर्ष में जो यागादिक से हिंसा का प्रचार हो गया था उसका कारण यही प्रलोभन तो है कि इस पाग से हमको स्वर्ग मिल जायेगा, पानी बरस जावेगा, अन्नादिक उत्पन्न होंगे, देवता प्रसन्न होंगे। वह सर्व, क्या या परिषद की बोबा । यदि परिग्रह की चाह न होती तो निरपराध जन्तुओं को कौन मारता?
आज यदि इस परिग्रह में मनुष्य आसक्त न होते तब यह 'समाजवाद' या 'कम्युनिष्टवाद' क्यो होते ? आज यदि परिग्रह के धनी न होते उब ये हड़ताले क्यों होती? यदि परिग्रह पिशाब न होता तब जमींदारी प्रथा, राजसत्ता का विध्वंस करने का अवसर न आता? यदि यह परिग्रह-पिशाच न होता तब कांग्रेस जैसी स्वराज्य दिलाने वाली संस्था विरोधियों द्वारा निन्दित न होती और वे स्वयं इनके स्थान में अधिकारी बनने की चेष्टा न करते? आज ' यह परिग्रह पिशाच न होता तो हम उच्च हैं, ये नीच हैं, यह भेवन होता । यह पिशाच तो यहाँ तक अपना प्रभाव प्राणियों पर जमाये हुए है जिससे सम्प्रदायवादियों ने धर्म तक को निजी धन मान लिया है। और धर्म की सीमा बांध दी है । तस्वदृष्टि से धर्म तो 'मात्मा की परिणति विशेष का नाम है। उसे हमारा धर्म है यह कहना क्या न्याय है? जो धर्म चतुर्गति के प्राणियो में विकसित होता है उसे इने-गिने मनुष्यों में मानना क्या न्याय है? परिग्रह पिशाच को ही यह महिमा है जो इस कुएं का जन तीन वर्षों के लिए है, इसमे यदि शूद्रों के घड़े पड़ गए तब अपेय हो गया ! जबकि टट्टी में से होकर नल मा जाने से भी जल पेय बना रहता है ! अस्तु, इस परिग्रह पाप से ही संसार के सब पाप होते हैं । श्री वीर प्रभु ने तिल-तुष मात्र परिग्रह न रखके पूर्ण अहिंसा व्रत की रक्षा कर प्राणियों को बता दिया कि कल्याण करने की अभिलाषा है तब दैगम्बर पद को अंगीकार करो। यही उपाय संसार बन्धन से छूटने का है। परियह अनर्थों का प्रधान उत्पादक है यह किसी से छिश नहीं, स्वयं अनुभूत है। उदाहरण की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता उससे विरक्त होने की है । आवश्यकतायें तो इतनी हैं कि संसार के सब पदार्थ भी मिल जावे तो भी उनकी पूर्ति नहीं हो सकती । अतः किसी की आवश्यकता न हो यही आवश्यकता है। संमार का प्रत्येक प्राणी परिग्रह के पंजे में है। केवल सन्तोष कर लेने से कुछ हाथ नहीं आता । पानी विलोड़ने से घी की आथा तो असम्भव ही है छांछ भी नहीं मिल सकता । जल व्यर्थ जाता है और पीने के योग्य भो नही रह जाता है। परिग्रह की लिप्सा में आज संसार की जो दशा हो रही है वह किसी से अज्ञात नहीं। बड़े-बड़े प्रभावशालो तो उसके चक्कर में ऐसे फंसे हैं कि वे गरीब दीन-हीन प्रजा का नाश कराकर भी अपनी टेक रखना चाहते हैं। जो कहता है, "हमने परिग्रह छोड़ा" वह अभी सुमार्ग पर नहीं आया। रामभाव छोड़ने से पर पदार्थ स्वयमेव छूट जाते हैं । अर्थात् लोभकपाय के छूटते भी धनादिक स्वयमेव छूट जाते हैं। पखिह पर वही व्यक्ति विजय पा सकता है जो अपने को, अपनों, अपनेसे, अपने लिए, अपने द्वारा आर ही प्राप्त करने की चेष्टा करता है। चेष्टा बोर कुछ नही, केवल अन्तरंग मे पर पदार्थ में न तो राम करता है और न देष करता है।
(वर्णी वाणी से साभार) मुचना:--वीर सेवा मन्दिर सोसायटी की साधारण सदस्यता का पिछला व आगामी वर्ष का सदस्यसा-शुल्क जिन
सदस्यों ने नहीं भेजा है, उनसे आग्रह है कि सहस्पता-शुल्क अविलम्ब भेज है। संस्था का आर्थिक वर्ष जून मे समाप्त होता है।
सुमाव बन : महासचिव और सेवा मन्दिर, सोसायटी २१ बरियागंज, नई दिल्ली-२
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