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उत्तम ब्रह्मचर्य : एक अनुशीलन उनकी जो निन्दा की जा रही है, वह केवल निमित्त अपेक्षा प्रथमानुयोग में अनेक प्रेरक दृष्टान्त मिलते हैं । असिसे है। जब तक अज्ञान है तभी तक नारीगत सुखों में धारा-व्रत के सम्बन्ध मे कहा गया है कि इस व्रत के धारी जीव मग्न रहता है। ज्ञान किरण के उदय होतेही नारियों पत्नी-पति दोनो साथ-साथ रहते हुए भी दोनों में से पति का संग छोड़ना नहीं पड़ता स्वयमेव छूट जाता है । चक्र- एक पक्ष में ब्रह्मचर्य से रहने का नियमधारी होता है और वर्ती भरत चुकि भेद-विज्ञानी हैं, क्षायिक सम्यग्दृष्टि थे, पत्नी द्वितीय पक्ष में । इस प्रकार वत के धारी जीवन भर यही कारण था कि ९६ हजार रानियाँ होते हुए भी ब्रहमचर्य व्रत की साधना करते है । इस व्रत के प्रभाव से स्वप्न में भी उनके अन्तर मे किंचित भी स्त्री राग उत्पन्न ऐसे व्रती जहां आहार करते हैं वहा वांधा गयां चन्दोवा नहीं हुआ । गुरु गोपालदास जी बरैया और पण्डित दया- भी अपनी मलिनता त्याग सफेद हो जाता है। ऐसे मुनियों चन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री, सागर के नाम भी इस सम्बन्ध को अहार देने से कहा गया है कि जीवानी नीचे में स्मरणीय हैं । जिन्होंने स्त्रियों के साथ रहते हुए भी गिर जाने से उत्पन्न दोष का निवारण हो जाता है। निज कल्याण किया है। अत: यह स्पष्ट है कि नारियां अतः इम दृष्टान्त के परिप्रेक्ष्य में भी नारियां निन्दनिन्दित नही हैं और न उनकी निन्दा ही की जानी नीय प्रतीत नहीं होती। व्रत साधना में आवश्यक है कि चाहिए । जहाँ कही भी ऐसा कथन मिलता है उसमें चित्त मे नारी जनित विकृति उत्पन्न न होने देना। उनके विषयो के प्रति विरक्ति उत्पन्न करना ही लेखक का लक्ष्य सद्भाव मे भी पारणामिक निर्मलता बनाए रखने रखना । रहा ज्ञात होता है।
निमलता भी ऐमी जैसी लक्ष्मण के चित्त मे थी। नारियां आज भी साधक सिद्ध हो रही हैं । पूज्य वर्णी जब राम अपने भाई लक्ष्मण को सीता के केयूर कुंडल जी ने अपनी झीवन गाथा में लिखा है कि "मैं पण्डिन आदि आभूषण दिखाते हैं तो लक्ष्मण ने कहा था कि मैं ठाकूरदास जी के पास पढ़ता था। वे बहुत विद्वान थे। भाभी के कुण्डल, केयूर आदि नही जानता, मैं तो केवल उनकी दूसरे विवाह की पत्ती थी पण्डित जी की जब दो भाभी के पैर मे पहने हुए सुहाग-चिन्ह स्वरूप बिछुमो को संतान हो चकीं तब एक दिन पण्डितजी की नवोढा पत्नी ने ही जानता हूं, क्योंकि प्रति दिन चरण-स्पर्श करते समय कहा पण्डित जी अपने दो सन्ताः -एक पुत्र व एक पुत्री मेरी दृष्टि उन पर पड़ती थी।" हो चके हैं अब पाप का कार्य बन्द कर देना चाहिए। लेखक की दृष्टि में ब्रह्मचर्य धर्म-बहु चर्चित "धर्म पण्डित जी उसकी बात सुनकर कुछ हीला-हवाला करने के दशलक्षण" पुस्तक के लेखक ने स्पर्शन इन्द्रिय के विपय लगे तो वह स्वयं उठ कर पंडित जी की गोद में जा बैठी सेवन के त्याग रूप व्यवहार बह चर्य को ही ब्रह्मचर्य माना और बोली कि अब तो आप मेरे पिता तुल्य हैं और मैं है। वहां पर अपने कथन की विशद व्याख्या की है। आपकी बेटी। पंडित जी गद् गद् स्वर मे बोले-बेटी! यथार्थ मे इस स्पर्शन इन्द्रिय के विषय सेवन से त्याग के तने तो आज वह काम कर दिया जिसे मैं जीवन भर लिए आचार्यों ने यद्यपि बार बार कहा है, दृष्टान्त भी अनेक शास्त्र पढ़ कर भी न कर सका । उस समय से दोनो दिये हैं अवश्य, परन्तु इसका तात्पर्य आचार्यों का यह ब्रह्मचर्य से रहने लगे।
कदापि नही है कि वे अन्य शेष इन्द्रियों के विषय का इस दष्टान्त से भी यही अर्थ प्रतिफलित होता है कि त्याग न करें। यदि हम उनके कथन के अन्तर मे मांकने नारी संग बुरा नही है, बुरा अज्ञान भाव है जो स्त्री राग का प्रयास करें तो ज्ञात होगा कि उनका कथन वंसा नहीं बनाए रहता है। यथार्थ में कारणों के अभाव में व्रत की था जैसा कि विद्वान लेखक ने समझा है क्योतिब्रह्मचर्य साधना तो सम्भाव्य है किन्तु कारणों के रहते हुए व्रत की साधना तभी सम्भव है जब साधक अन्य शेष इन्द्रियों की साधना बिना भेद-विज्ञान हुए सम्भव नही है । कारणों के विषय का भी त्याग करें। कामोत्तेजक गरि ठ भोजन के सदभाव में व्रत की साधना का अपर्व फल होता है। का उसे साधना हेतु त्याग करना ही पडता है, इसी प्रकार देखिए असिधारा व्रत का प्रभाव ।
सुगन्धित पदार्थों का सूंघना, कामोत्तेजक कथाओंका श्रवण'