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________________ १८, ३८,कि.१ आचार्य रविसेन का इस सम्बन्ध में कथन है कि "सूर्य प्रवृत्तियाँ पुन: उत्पन्न हो जाती है। विषयों को छोड़ना तो दिन में निकलता है पर काम रात-दिन । सूर्य का तो तथा विषयों का छूट जाना इसमें महान् अन्तर है। छोड़ने बावरण है पर काम है आवरणहीन ।" इसी प्रकार में उनके प्रति रहने वाला राग-भाव नहीं छूट पाता जबकि भर्तृहरि का यह कथन भी उल्लेखनीय है कि काम को छूट जाने में किंचित भी राग-भाव शेष नहीं रहता। खण्डित करने वाले विरले ही मनुष्य है । अतः काम भगवान महावीर के सम्बन्ध में जो यह कहते हैं कि प्रबल है, बलवान भी इसके आगे नत मस्तक हैं । ज्ञानी "वे राज-पाट छोड़कर चले गए थे" मूठ कहते हैं । उन्होंने भी पराजित है, फिर भी अजेय है ऐसा नही कहा जा राज-पाट छोड़ा नही था छूट गया था। वस्तुओं के प्रति सकता। भेद विज्ञानियों ने इसे पराजित किया है। यथार्थ राग-भाव उनका समाप्त हो गया था और यही कारण मे जितने लोग काम के वशीभूत हुए हैं उनके वशीभूत था कि माता-पिता के अनेक प्रकार के आग्रह करने पर होने का कारण रहा है भेद-विज्ञान का अभाव। भी वे पुनः नही लौटे । कभी विषयों ने उन्हें नहीं लुमाया। प्रथमानुयोग में देशभूषण और कुलभूषण दो राज- ब्रह्मभाव निश्चित है । जब अन्तर मे उत्पन्न होगा कुमारों का वृत्तान्त मिलता है । वे पढ़कर गुरु-गृह से अपने तो बाह्य प्रवृत्तियां स्वयमेव वैमे ही प्रवर्तित होगी। विषयों घर आते हैं। उनके स्वागत मे मां के साथ एक कन्या भी की फिर दाल नहीं गलेगी। ब्रह्मचर्य की साधना पूर्ण होगी और नर भव सफल होगा इसमें दो मत नहीं है।" देख कामासक्त दोनों राजकुमार उसे पाने के लिए झगड़ने नारी और ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध मे चर्चा लगते हैं। दोनों को झगड़ते देख मां ने झगड़े का कारण चलने पर प्रायः नारी को चर्चा का विषय बनाया जाता पूछा । कारण ज्ञात कर उसने कहा-तुम दोनों व्यर्थ ही नो व्यथ हा है। उसे बरा है। उसे बुरा कहा जाता है । आचार्य रविसेन ने स्त्री को झगड़ रहे हो, यह तुम्हारी बहिन है । दोनों का चित्त 'संसार मे समस्त दोषों की महान खान कहा है। उनका ग्लानि से भर गया। जाग गया उनमे भेद- ज्ञान । वे कथन है कि ऐसा कौन-सा निन्दित कार्य है जो उनके लिए न द्वार से ही आंगन की ओर लौट गए और मुनि दीक्षा से किया जाता हो। कवि द्यानतराय ने भी "ससार मे कुन्धलगिरी से तप कर उन्होंने मुक्ति प्राप्त की। देखिए विष बैल नारी तज गये योगीश्वरा" कह कर नारी को ऐसा परिवर्तन कैसे हुआ ? इसमें एक मात्र कारण है भेद- विष बेल की उपमा दी है।" विज्ञान । अमृतचन्द्राचार्य ने ठीक ही कहा है- जैन दर्शन के तत्वज्ञदर्शी विद्वान स्व० कानजी स्वामी भेद विज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । ने इस सम्बन्ध में कहा था कि ऐसा कथन निमित्त की अस्यवाभावतो बद्धाः वद्धा. ये किल केचन ।। अपेक्षा से हैं । वास्तव में स्त्री ससार का कारण नही है। कवि चानतराय का चिन्तन-कवि ने दशलक्षण-पूजा उन्होंने दलील दी है कि यदि नारी बुरी है तो पूर्व भवों मे में "ब्रह्मभाव अन्तर लखो" कह कर सकेत किया है कि भी अनन्त बार द्रव्यलिंगी साधु हुआ, उसने स्त्री का संग ब्रह्म भाव अन्तर मे ही देखना चाहिए ।" तात्पर्य यह है छोडा, ब्रह्मचर्य पालन किया, फिर भी उसका कल्याण कि जब तक पान्तरिक प्रवृत्तिया ठीक नहीं होगी, अन्तर क्यो नही हुआ ?" किसी हिन्दी कवि का कथन भी यहां से ब्रह्म की साधना नहीं होगी, केवल बाह्य साधना फली- उल्लेखनीय है । नारी पुरुष से कहती हैभन नही होगी। जितने ऋषि-महा-ऋषि, ज्ञानी-ध्यानी, अन्धकार की मैं प्रतिमा हूं जब तक हृदय तुम्हारा। ब्रह्मचर्य से च्युत हुए हैं, उनमें निश्चित ही ब्रह्म साधना तिमिरावृत है तब तक ही मैं, उस पर राज्य करूंगी। अन्तर मे न थी भले ही वे ब्रह्म का कारी प्रावरण ओढ़ और जलाओगे जिस दिन तुम, मुझे हुये दीपक को। हुए रहे हैं। ऐसे लोग इन्द्रिय विषयों को रोकते हैं, उनका मुझे त्याग दोगे वसन्त मे, रजनी की माता सी॥ दमन करते हैं। स्वयमेव विणय जनित प्रवृत्ति शान्त नही इन उल्लेखों के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि होती। यही कारण है कि समय पाकर दबी हुई विषयज नारियां बुरी नहीं हैं। उन्हें जो बुरा बताया जा रहा है,
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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